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Sunday, December 13, 2009

गरीबी बनाम गर्मी

यह इस सदी की शायद सबसे पेचीदा गुत्थी है जो दुनिया के वर्तमान और भविष्य से जुड़ी है। बेजोड़ उलझन से भरा यह विमर्श अब तक की सबसे जटिल व सनातन बहसों पर भारी है। ..यह असमंजस है 'हरे' बनाम 'भरे' का। तलाश एक ऐसी दुनिया की जो पर्यावरण से हरी हो मगर समृद्धि से भी भरी हो। .. हरे और भरे को एक दूसरे का पूरक समझने की गलती मत कर बैठियेगा। यह दुनिया के दो नए धु्रव हैं। एक तरफ पिघलते हिमशैलों, उफनते सागरों, सूखती नदियों और बौराते मौसम की गंभीर चिंतायें हैं, तो दूसरी तरफ बेहतर जीवन स्तर, समृद्धि और सुविधाओं की जायज अपेक्षायें हैं। दोनों फिलहाल आसानी से एक साथ नहीं हो सकते क्योंकि दुनिया में समृद्धि का अतीत कोयले, बिजली, तेल के कार्बनी धुएं से निकले जीडीपी ने बनाया है। यानी कि बीता हुआ कल भी इस पेंच को खोलने का कोई सूत्र नहीं देता। दुनिया के कुछ हिस्सों ने पिछली सदी में जिस तरह हरियाली चाट कर खुद को समृद्धि से भरा था, नई सदी में दुनिया के दूसरे हिस्से भी यही करना चाहते हैं। इन्हें अमीरी की अहमियत और गरीबी दूर करने का जो रास्ता दिखा है वह कार्बन फेंकने वाली औद्योगिक प्रगति से ही निकलता है। गैर पारंपरिक ऊर्जा में उम्मीदें जरूर हैं, मगर वक्त लगेगा और पिछड़ी हुई दुनिया जरा जल्दी में है। इसलिए क्या विकसित और क्या विकासशील? किसी को नहीं मालूम कि आर्थिक प्रगति और कार्बन उत्सर्जन की इस जोड़ी को कैसे तोड़ा जाए?
जोड़ी अनोखी, मेल अनोखा
कारें और उद्योग बिजली व तेल जैसे जीवाश्म ईधन पचाकर कार्बन परिवार की गैसें उगलते हैं जिनसे मौसम गरमा रहा है। सारी जिद्दोजहद कार्बन के इस वमन को रोकने की है। बुनियादी तौर पर तलाश उस सूत्र की है जिसके जरिये आर्थिक विकास को कार्बन उत्सर्जन से अलग (डिकपलिंग आफ इकोनामिक ग्रोथ फ्राम कार्बन एमीशन) किया जा सके। मगर यह जोड़ी तोड़ना बहुत कठिन है। दुनिया अपनी अमीरी आर्थिक उत्पादन यानी जीडीपी को बढ़ाकर ही नापती है। पिछले कई दशकों का इतिहास कार्बन की खपत और जीडीपी में बढ़ोत्तरी का स्पष्ट रिश्ता बताता है। लगभग हर देश ने ईधन व ऊर्जा पर आर्थिक प्रगति हासिल की है। हाल के वर्षो में दुनिया की औसत सालाना विकास दर 3.6 फीसदी रही है, मगर 2000 से 2006 के दौरान दुनिया में कार्बन उत्सर्जन भी 3.1 फीसदी की सालाना गति से बढ़ा है। 1990 से 1999 के दौरान भी कार्बन उत्सर्जन का, जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय से सीधा वृद्धिपरक रिश्ता रहा है। पिछली करीब एक चौथाई सदी में दुनिया की अर्थव्यवस्था का आकार दोगुना हो गया मगर 1990 (क्योटो समझौते) के बाद से दुनिया को गरमाने वाली गैसों का उत्सर्जन भी 40 फीसदी बढ़ गया। कोई शक नहीं कि इस प्रगति से दुनिया ने 60 फीसदी पर्यावरण गंवाया है मगर यह बहस पूरी तरह थकाऊ है कि कौन कितना कार्बन छोड़ रहा है। पिछले आधे दशक में जब दुनिया में तेल की कीमतें रिकार्ड पर थीं तब भी तो खूब तेल फूंका गया। अमेरिका, ब्रिटेन, जापान अगर ऊर्जा के इस्तेमाल को बेहतर करने का दावा कर रहे हैं तो क्या फर्क पड़ता है उनके इस्तेमाल का सामान बनाने के लिए अब चीन या भारत कार्बन उगल रहे हैं। क्यों उन्हें भी तो उत्पादन बढ़ाने व अमीर होने का हक है।
हरा भी और भरा भी
हरे विकास की बहस उभरने से पहले तक दुनिया को यही मालूम था कि तेज विकास ही गरीबी का इलाज है। भारत को अगले कई दशकों तक लगातार आठ फीसदी विकास दर चाहिए ताकि गरीबी मिटे। दुनिया के कई देशों को और भी तेज दौड़ना होगा मगर खेती हो या उद्योग, परिवहन हो या सेवा, सबको तेल, कोयला जैसे ईधन चाहिए। दिल्ली, ढाका और बैंकाक को लास एजिलिस में अपना भविष्य दिखता है। पिछड़े देशों को आधुनिक शहर, ढेर सारा उत्पादन और भरपूर रोजगार चाहिए। मगर अचानक बदलता मौसम बताने लगा कि पर्यावरण की बर्बादी से आने वाली गरीबी ज्यादा गहरी है। ...दुनिया में एक अरब से अधिक की गरीब आबादी दोनों तरफ से सांसत में फंस गई है। उसकी गरीबी आर्थिक विकास से मिटेगी मगर यही विकास सूखा बाढ़ जैसी आपदाओं के जरिये उसे मारने आ रहा है। हालांकि तेज और निरंतर विकास तो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को भी चाहिए खासतौर पर मंदी के बाद। दुनिया के देश कार्बन उत्सर्जन घटाने को तो तैयार हैं मगर विकास गंवाने को नहीं हैं। नतीजतन टोपियां घुमाई जा रही हैं और सब सर झटक रहे हैं। विकासशील देश, विकसित देशों को उनका अतीत दिखाते हैं जबकि विकसित देश कहते हैं कि पर्यावरण बिगड़ा तो गरीब मुल्क सबसे ज्यादा गंवायेंगें।
समाधानों पर संदेह
यह बहस तब और गुंथ जाती है जब समाधान नहीं दिखते। विकास को गंदे धुऐं से अलग करने की बहस में हरी तकनीकों या गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की तरफ उम्मीद की नजर जाती है। सौर ऊर्जा से लेकर पवन ऊर्जा तक सफलता की बड़ी कहानियां भी हैं, मगर भरोसा नहीं जमता क्योंकि दुनिया को ढेर सारी ऊर्जा चाहिए सस्ती और निरंतर। इस पैमाने पर यह विकल्प सिर्फ प्रायोगिक हैं। भारत सहित पूरी दुनिया तेल व कोयले जैसे जीवाश्म ईधनों पर भारी सब्सिडी देती है। अमेरिका के इंवायरमेंटल ला इंस्टीट्यूट ने बताया कि अमेरिका ने 2008 तक आठ साल में जीवाश्म ईधनों पर 72 अरब डालर की सब्सिडी दी जबकि गैर पारंपरिक ऊर्जा के लिए महज 29 अरब डालर की। आयल चेंज जैसी संस्थायें कहती हैं जब दुनिया तेल, कोयले, गैस जैसे ईधनों पर 250 अरब डालर सालाना की सब्सिडी दे रही हैं तो फिर किस बात की हरी तकनीक? डर सबको है मगर किसी को किसी की नीयत पर भरोसा भी नहीं है।
पर्यावरण के कुजनेत्स कर्व का सिद्धांत कहता है कि एक निश्चित समृद्धि के बाद विकास कार्बन की खपत खुद घटा देता है। सुनने में बहुत अच्छा लगता है, लेकिन दुनिया में बहुतों का यह कहना है कि उन्होंने तो विकास ही नहीं देखा। जो विकसित हैं वह इस कर्व को पहले सही साबित करें। बहस भारी है। दुनिया को मौजूदा माडल के खतरे दिख गए हैं लेकिन उसे छोड़ा कैसे जाए? कोपनहेगन में मेज पर अरबों डालर और दसियों प्रस्ताव हैं मगर कोई सर्वस्वीकार्य रास्ता नहीं। सौ टके की बात यह कि दुनिया को विकास के लिए साफ ईधन चाहिए और उसके आने तक सब कुछ गोल-मोल है।
तीसरी दुनिया की दिक्कत यह है जब तक वह विकास की गणित समझ पाती तब तक उसे इसके नुकसान दिखने लगे। उसे नहीं समझ में आता कि वह पहले गरीबी घटाये या फिर गर्मी। वह सूडान और सुनामी के बीच खड़ी है। एक तरफ भुखमरी है और दूसरी तरफ पर्यावरण। दुनिया फिलहाल अंधी गलियों में भटक रही है। कोपेनहेगन से उम्मीदों की हरियाली नहीं उलझनों का धुआं ही निकलेगा।
anshumantiwari@del.jagran.com