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Tuesday, January 1, 2019

एक था जीएसटी



99 फीसदी सामान व सेवाओं पर 18 फीसदी तक जीएसटी! 
97 फीसदी सामान सेवाएं तो पहले इसी दायरे में हैं
तो क्रांतिकारी उदारता का  यशोगान! 

कभी दूध कुछ इस तरह फट जाता है कि उससे पनीर तो दूररायता भी नहीं बनता. जीएसटी का हाल अब कुछ ऐसा ही समझिए. भारत की दूसरी आजादी (जैसा कि संसद में अर्धरात्रि इसकी शुरुआत के वक्त कहा गया था) 18 माह में ऐसी प्रणाली में बदल गई है जिसके आर्थिक मकसद ध्वस्त हो चुके हैं. जीएसटी दम तोड़ता हुआ एक सुधार हैचुनाव से पहले जिससे सियासी लाभ की बची-खुची बूंदें निचोड़ी जा रही हैं.

जीएसटी का राजस्व‍ संग्रह लक्ष्य से मीलों दूर है और खजानों का हाल खस्ता है. अगर सरकार शुरू से ही दो टैक्स दरों वाला जीएसटी लेकर चली होती तो बात दूसरी थी लेकिन अब तो जटिलताओं का अंबार गढ़ा जा चुका है.

सरकार को ठोस तौर पर यह भी पता नहीं कि गुजरात चुनाव से लेकर आज तक जीएसटी में रियायतों के बाद उत्पादों या सेवाओं की कीमतें कम हुई भी हैं क्योंकि कंपनियां लागत बढऩे के कारण मूल्य बढ़ा रही हैं. जीएसटी के तहत मुनाफाखोरी रोकने वाला तंत्र अभी शुरू नहीं हुआ जिससे पता चले कि रियायतों का फायदा किसे मिला है.

रियायतों के असर से खपत या मांग बढऩे या कंपनियों का कारोबार बढऩे के प्रमाण भी नहीं हैं.

तो फिर अचानक इस टैक्स दयालुता की वजह

·       पिछले 18 माह में सरकार को एहसास हो गया है कि राजस्व के मामले में मासिक एक लाख करोड़ रु. के संग्रह का लक्ष्य फिलहाल मुश्किल है. सेवाओं से टैक्‍स संग्रह में कमी आई है. जीएसटी अब केवल बड़े निर्माता और सेवा प्रदाता (जो पिछली प्रणाली में भी प्रमुख करदाता थे) के कर योगदान पर चल रहा है. छोटे करदाता और नए पंजीकरण वाले कारोबारी रियायतों की मदद से टैक्स चोरी के पुराने ढर्रे पर लौट आए हैं.

·       जीएसटी में अभी औसतन 60 फीसदी कारोबारी रिटर्न भर रहे हैं. ई वे बिल लागू होने के बाद पारदर्शिता आने की उम्मीदें भी खेत रही हैं. चुनाव के मद्देजनर टैक्स चोरी पर सख्ती मुश्किल है.

·       जीएसटी की प्रणालियां व नियम अभी तक स्थिर नहीं हैं. रफू-पैबंद जारी हैं. 

·       इसलिए चुनाव से पहले सरकार ने दो काम किए एकरिटर्न फॉर्म सालाना रिटर्न (9को अगले साल तक के लिए टाल दिया. इसके बिना करदाताओं के हिसाब सुचारु (इनवॉयस मैचिंग) करना और टैक्स क्रेडिट संभव नहीं है. यही वजह है कि जीएसटी का अर्थव्यवस्था पर कोई सकारात्मक असर नहीं दिखा. दोजीएसटी तो चल नहीं रहा तो इससे कम से कम चुनावी फायदा ही हो जाए.

जीएसटी के सियासी इस्तेमाल का केंद्र सरकार के पास यह आखिरी मौका था. पिछले 18 महीने में देश का राजनैतिक भूगोल बदल गया है. जीएसटी काउंसिल में अब विपक्ष के राज्यों की संख्या बढ़ चुकी है इसलिए आगे सहमति मुश्किल होने वाली है. काउंसिल की हालिया बैठक में इसके संकेत भी मिले. विपक्ष शासित राज्यजीएसटी को सिरे से बदलने की बातें करने लगे हैं.

कभी किसी मंत्री ने कहा था कि देश में हवाई चप्पल या कार पर एक जैसा कर नहीं हो सकता (अब 99 फीसदी...) या जीएसटी देश से टैक्स चोरी को मिटा देगा अथवा इससे कारोबार की लागत कम होगी या इससे जीडीपी बढ़ जाएगा. आज सरकार इन पर सवाल भी सुनना नहीं चाहती.

क्या जीएसटी राज्यों के वैट जैसे भविष्य की तरफ बढ़ रहा हैअपने शुरुआती वर्षों (2005-08में सफलता के बादराजनीति और वित्तीय दिक्कतों के चलते राज्यों ने वैट का अनुशासन तार-तार कर दिया. हालांकि जीएसटी वैट से कहीं ज्यादा सुगठित है लेकिन जब केंद्र सरकार ही चुनावी राजनीति के खातिर इसके अनुशासन का मुरब्बा बना चुकी तो राज्य भी अनुशासन तोड़ेंगे. ई वे बिल में राज्य स्तरीय रियायतें इसका नमूना हैं.

इसी फरवरी में हमने लिखा था कि जीएसटी का सुधारवाद अब इतिहास की बात है. भारत का सबसे नया सुधार सिर्फ सात माह में पुराने रेडियो की तरह हो गयाजिसे ठोक-पीट कर चलाया जा रहा है. अठारह माह बाद इस रेडियो में अब केवल चुनावी प्रसारण चल रहे हैं. कहना मुश्किल है कि अगले साल जीएसटी का क्या होगा लेकिन 2019 लगते-लगते यह साबित हो गया है कि हमारी सियासत सुधारों की समझ और साहस सिरे से दरिद्र हैं.

Monday, July 9, 2018

दरार पर इश्तिहार


बहुत पुराने मिस्तरी थे वे. लेकिन खलीफा की दीवारें अक्सर टेढी होती थीं. कोई टोके तो कहते कि प्लास्टर में ठीक हो जाएगी लेकिन टेढ़ी दीवार प्लास्टर में कहां छिपती है इसलिए प्लास्टर के बाद खलीफा कहते थे, क्या खूब डिजाइन बनी है.

जीएसटी के विश्वकर्मा एक साल बाद भी यह मानने को तैयार नहीं कि खामियां डिजाइन नहीं होतीं.

और तर्कों का तो क्या कहना...?

हवाई चप्पल और मर्सिडीज पर एक जैसा टैक्स कैसे लग सकता है?

जवाबी कुतर्क यह हो सकता है कि जब गरीब और अमीर के लिए मोबाइल और इंटरनेट की दर एक हो सकती है, छोटे-बड़े किसान को एक ही समर्थन और मूल्य मिलता है तो फिर खपत पर टैक्स में गरीब और अमीर का बंटवारा क्यों?

फिर भी बेपर की उड़ाते हुए मान लें कि 100 रु. की चप्पल और 50 लाख की मर्सिडीज पर एक समान दस फीसदी जीएसटी है तो चप्पल 110 रु. की होगी और मर्सिडीज 55 लाख रु. की. जिसे जो चाहिए वह लेगा. इसमें दिक्कत क्या है?

टैक्स दरों की भीड़ के इस वामपंथ की कोई पवित्र आर्थिक वजह नहीं है. बस, लकीर पर फकीर चले जा रहे हैं और दकियानूसी को सुधार बता रहे हैं.

         अगर जूते की दुकान में घुसने से पहले आपको यह मालूम हो कि हवाई चप्पल से लेकर सबसे महंगे जूते पर टैक्स की दर एक (जीएसटी के तहत विभिन्न कीमत के जूतों पर अलग-अलग दर है) ही है तो फिर समझदार ग्राहक जरूरत, क्वालिटी और पैसे की पूरी कीमत (वैल्यू फॉर मनी) के आधार पर जूता चुनेगा.

         टैक्स वैल्यू एडिशन (उत्पाद की बेहतरी) पर लगता है न कि कई टैक्स दरों के जरिए खपत के बाजार को अलग-अलग आय वर्गों के लिए दिया जाए. टैक्स के डंडे से खपत के चुनाव को प्रभावित करने की क्या तुक है? लोग क्रमशः बेहतर उत्पादों की तरफ बढ़ते हैं तो वह टैक्स लगाकर महंगे नहीं किए जाने चाहिए.

         भारतीय बाजार में बिस्कुट, चीज, चाय, ब्रेड या जूते आदि की इतनी कम किस्में क्यों हैं? उपभोक्ताओं की बदलती रुचि व आदत के हिसाब से उत्पाद व पैकेजिंग लगातार बदलते हैं. बहुस्तरीय टैक्स रचनात्मक उत्पादन में बाधा है. टैक्स के झंझट से बचने के लिए कंपनियां उत्पादों के सीमित संस्करण बनाती हैं.

तो क्या हवाई चप्पल और मर्सिडीज पर एक जैसा टैक्स होना चाहिए?

भई, हवाई चप्पल पर टैक्स होना ही क्यों चाहिए?

आम खपत की एक सैकड़ा चीजों पर टैक्स की जरूरत ही नहीं है. सब्सिडी लुटाने से तो यह तरीका ज्यादा बेहतर है कि टैक्स से बढऩे वाली महंगाई को रोका जाए. अगर एक टैक्स रेट बहुत मुश्किल है तो आम खपत की चीजों को निकालकर बचे हुए उत्पादों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है और उन पर दो दरें तय कर दी जाएं. लेकिन चार टैक्स रेट वाला जीएसटी तो बेतुका है.

देश के एक फीसदी उपभोक्ताओं को भी इस जीएसटी में अपनी खरीदारी पर टैक्स की दरें पता नहीं होंगी. कंपनियां और कारोबारी भी कम हलाकान नहीं हैं लेकिन फिर भी सरकार ने यह मायावी जीएसटी क्यों रचा?

जानने के लिए जीएसटी की जड़ें खोदनी होंगी.

सन् 2000 में जीएसटी की संकल्पना एक राजकोषीय सुधार के तौर पर हुई थी. सरकारों को सिकोडऩा, खर्च में कमी, घाटे पर काबू के साथ जीएसटी के जरिए टैक्स दरों के जंजाल को काटना था ताकि कर नियमों का पालन और खपत बढ़े जो बेहतर राजस्व लेकर आएगा.

जीएसटी बना तो सब गड्डमड्ड  हो गया. खर्चखोर सरकारें जीएसटी के जरिए खपत को निचोडऩे के लिए पिल पड़ीं और इस तरह हमें वह जीएसटी मिला जिससे न लागत कम हुई, न मांग बढ़ी, न कारोबार सहज व पारदर्शी हुआ और न राजस्व बढ़ा. हालांकि टैक्स चोरी कई गुना बढ़ गई. 

फायदा सिर्फ  यह हुआ है कि टैक्स दरों के मकडज़ाल के बाद चार्टर्ड एकाउंटेंट की बन आई. परेशान कारोबारी सरकार को अदालत में फींच रहे हैं और उलझनों व गफलतों पर टैक्स नौकरशाही मौज कर रही है.

एक साल का हो चुका जीएसटी बिल्कुल अपने पूर्वजों पर गया है. करीब 50 से अधिक उत्पाद और सेवा श्रेणियों (चैप्टर) पर टैक्स की तीन या चार दरें लागू हैं जैसे प्लास्टिक की बाल्टी और बोतल पर अलग-अलग टैक्स. एक्साइज, वैट, सर्विस टैक्स में भी ऐसा ही होता था.

असफलता के एक साल बाद जीएसटी पर खिच खिच शुरु हो गई है. राजस्‍व उगाहने वालों को लगता है कि जीएसटी की गाड़ी तो शानदार थी, वो सड़क (जीएसटीएन) ने धोखा दे दिया (राजस्‍व सचिव हसमुख अधिया का ताजा बयान)


हकीकत यह है जीएसटी की डिजाइन खोटी है. नेटवर्क इस ऊटपटांग जीएसटी से तालमेल की कोशिश कर रहा था अंतत: असंगत जीएसटी के सामने कंप्‍यूटर भी हार मान गए. इश्तिहारों से दरारें नहीं भरतीं. प्रचार के ढोल फट जाएंगे लेकिन टैक्स दरों की संख्या को कम किए बिना जीएसटी को सुधार बनाना नामुमकिन है. 

Tuesday, August 16, 2016

जीएसटी हो सकता है कारगर बशर्ते .....

जीएसटी क्रांतिकारी सुधार बनाने के लिए इसे केंद्र सरकार के सूझबूझ भरे राजनीतिक नेतृत्‍व की जरुरत है। 

जीएसटी लागू होने के बाद उपभोक्‍ता राजा बन जाएगा ! टैक्स चोरी बंद! जीडीपी में उछाल! राज्यों की ज्यादा कमाई! टैक्स अफसरों का आतंक खत्म! छोटे कारोबारियों के लिए बड़ी सुविधाएं! जीएसटी से अपेक्षाओं की उड़ान में अगर कोई कमी रह गई थी तो प्रधानमंत्री के 8 अगस्त के लोकसभा के संबोधन ने उसे पूरा कर दिया है.

दरअसल2014 के नरेंद्र मोदी और 2016 के जीएसटी में एक बड़ी समानता है. दोनों ही अपेक्षाओं के ज्वार पर सवार होकर आए हैं. 2014 में जगी उम्‍मीदों का तो पता नहींअलबत्ता प्रधानमंत्री के पास जीएसटी को ऐसा सुधार बनाने का मौका जरूर है जो अर्थव्यवस्था के एक बड़े क्षेत्र का कायाकल्प करने और दूरगामी फायदे देने की कुव्वत रखता है.

संयोग से जीएसटी को कामयाब बनाने के लिए प्रधानमंत्री के पास पर्याप्त राजनैतिक ताकत हैसाथ ही संसद के दोनों सदनों ने अभूतपूर्व सर्वानुमति के साथ जीएसटी का जो खाका मंजूर किया हैउसके प्रावधान जीएसटी को क्रांतिकारी सुधार बना सकते हैं बशर्ते केंद्र सरकार सूझबूझ और संयम के साथ जीएसटी का राजनैतिक नेतृत्व कर सके.

संसद की दहलीज पार करते हुए जीएसटी को तीन ऐसी नेमतें मिल गई हैं जो भारत में इस तरह के (केंद्र व सभी राज्यों के सामूहिक) इतने बड़े सुधार के पास पहले कभी नहीं थीं.

एक- संसद से मंजूर जीएसटी विधेयक में राज्यों की अधिकार प्राप्त समिति के सभी सुझाव और केंद्र की सहमति शामिल है. जीएसटी के पूर्वज यानी वैट (वैल्यू एडेड टैक्स) को 2005 में सहमति का यह तोहफा नहीं मिला था. गुजरातराजस्थानमध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सहित सात राज्यों ने पूरे देश के साथ मिलकर वैट लागू नहीं किया. ये राज्य इस सुधार में बाद में शामिल हुए.

दो- जीएसटी काउंसिल के तौर पर देश को पहली बार एक बेहतर ताकतवर संघीय समिति मिल रही हैजिसमें राज्यों के सामूहिक अधिकार केंद्र से ज्यादा हैं. आर्थिक फैसलों के मामले में यह अपनी तरह का पहला प्रयोग है जो अच्छे जीएसटी की बुनियाद बनना चाहिए.

तीन- राज्य सरकारों के संभावित वित्तीय नुक्सान का बीमा हो गया है. यदि जीएसटी लागू करने से टैक्स घटता है तो केंद्र सरकार पांच साल तक इसकी भरपाई करेगी. पहली बार दी गई इस संवैधानिक गारंटी के बाद जीएसटी को उपभोक्ताओं के लिए कम बोझ वाला बनाने का विकल्प खुल गया है.

व्यापक सहमतिफैसले लेने की पारदर्शी प्रणाली और राज्यों के नुक्सान की भरपाई की गारंटी के बादयकीनन जीएसटी एक ढांचागत सुधार हो सकता है लेकिन इसके लिए केंद्र सरकार को जीएसटी के गठन में छह व्यवस्थाएं अनिवार्य रूप से सुनिश्चित करनी होंगी. यह काम सिर्फ केंद्र सरकार ही कर सकती है क्योंकि जीएसटी का नेतृत्व नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली की टीम ही करेगी. 

पहलाः मोदी यदि जीएसटी में ग्राहकों को राजा बनाना चाहते हैं तो उन्हें जीएसटी की स्टैंडर्ड दर 18 फीसदी रखने के लिए राजनैतिक सहमति बनानी होगी. राज्यों में स्टेट वैट की स्टैंडर्ड दर 14.5 फीसदी हैजिसके तहत 60 फीसदी उत्पाद आते हैं जबकि सेंट्रल एक्साइज की 12.36 स्टैंडर्ड दर अधिकांश उत्पादों पर लागू होती है. सर्विस टैक्स की दर 15 फीसदी है. यदि इन तीनों को मिलाकर 18 फीसदी की स्टैंडर्ड जीएसटी दर तय हो सके तो यह जीएसटी की सबसे बड़ी सफलता होगी. इस दर के तहत कुछ उत्पादों और सेवाओं पर टैक्स बढ़ेगा लेकिन कई दूसरे टैक्सों को मिलाने के फायदे इसे संतुलित करेंगे और महंगाई काबू में रहेगी. केंद्र सरकार राज्यों को इस संतुलन के लिए राजी कर सकती है क्योंकि संविधान संशोधन विधेयक ने उनके घाटे की भरपाई को सुनिश्चित कर दिया है. 

दूसराः ऊर्जा व जमीन आर्थिक उत्पादन की सबसे बड़ी लागत है लेकिन बिजलीपेट्रो उत्पाद और स्टांप ड्यूटी जीएसटी से बाहर हैं. इन पर टैक्स घटाए बिना कारोबार की लागत कम करना असंभव है. इन्हें जीएसटी के दायरे में लाना होगा. केंद्र सरकार तीन साल की कार्ययोजना के तहत जीएसटी काउंसिल को ऐसा करने पर सहमत कर सकती है.

तीसराः केंद्र को यह तय करना होगा कि जीएसटी कारोबार के लिए कर पालन की लागत (कॉस्ट ऑफ कंप्लायंस) न बढ़ाए. जीएसटी का ड्राफ्ट बिल खौफनाक है. इसमें एक करदाता के कई (केंद्र व राज्य) असेसमेंटदर्जनों पंजीकरणरिटर्न और सजा जैसे प्रावधान हैं. अगर इन्हें खत्म न किया गया तो जीएसटी टैक्स टेररिज्म का नमूना बन सकता है.

चौथाः जीएसटी की राह पर आगे बढ़ते हुए केंद्र सरकार को राज्यों में गैर-कर राजस्व जुटाने के नए तरीकों और खर्च कम करने के उपायों की जुगत लगानी होगी. वित्त आयोग और नीति आयोग इस मामले में अगुआई कर सकते हैं. जीएसटी कानून के तहत राज्यों में कर नियमों में आए दिन बदलाव की संभावनाएं सीमित करनी होंगी.

पांचवां स्वच्छताबुनियादी ढांचे और अन्य जरूरतों के लिए स्थानीय निकायों को संसाधन चाहिए. जीएसटी में कई ऐसे टैक्स शामिल हो रहे हैं जो इन निकायों की आय का स्रोत हैं. केंद्र को यह ध्यान रखना होगा कि जिस तरह केंद्र के राजस्व में राज्यों का हिस्सा तय हैठीक उसी तरह राज्यों के राजस्व में स्थानीय निकायों का हिस्सा निर्धारित हो.

छठा जीएसटी की व्यवस्था तय करते हुए केंद्र की अगुआई में जीएसटी काउंसिल को हर स्तर पर सभी पक्षों यानी उपभोक्ताछोटे-बड़े उद्यमीस्थानीय निकायों को चर्चा में जोडऩा होगा जो अभी तक नहीं किया गया है.

बहुत से लोग यह कहते मिल जाएंगे कि जीएसटी न होने से एक कमजोर जीएसटी होना बेहतर है लेकिन हकीकत यह है कि एक घटिया जीएसटी जो समस्याएं पैदा करेगाउनकी रोशनी में जीएसटी की अनुपस्थिति ही बेहतर है. जीएसटी भारत में सुधारों की दूसरी पीढ़ी की सबसे बड़ी पहल है और अभी इसकी सिर्फ नींव रखी गई है. 

यदि प्रधानमंत्री मानते हैं कि जीएसटी से भारत की सूरत बदल जाएगी तो उन्हें स्वयं इस सुधार का नेतृत्व करना चाहिए. यदि वे देश को एक दूरगामीसहज और कम महंगाई वाला टैक्स सिस्टम दे सके तो यह आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि होगीजिसे लेकर इतिहास उन्हें  हमेशा याद रखेगा.

Monday, July 11, 2016

... तो फिर मत लाइये जीएसटी

जीएसटी का ड्राफ्ट कानून न आधुनिक है और न दूरदर्शी। यह निराश ही नहीं आशंकित भी करता है। 

यदि आप भी मानते हैं कि जीएसटी (गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स) के लागू होने के बाद कारोबार करना सांस लेने जितना आसान हो जाएगा और परतदार टैक्सों के जरिए बढऩे वाली महंगाई से मुक्ति मिल जाएगीतो आप को एक बार केंद्र सरकार के मॉडल जीएसटी कानून (http://goo.gl/cxDWtx) को जरूर पढऩा चाहिएजो जीएसटी का आधार बनेगा और जिसे संसद के आगामी सत्र में मंजूर कराने की कोशिश की जाएगी.

हम जानते हैं कि सरकार के कानून कतई पठनीय नहीं होते. लेकिन कठिनता और पेच-परतों के बावजूद इस कानून को पढऩा जरूरी है. इसे पढ़कर ही यह पता चल सकेगा कि इस कानून से निकलने वाला जीएसटी भारत का सबसे बड़ा टैक्स सुधार नहीं बल्कि बड़ी मुसीबत बनने के खतरों से लैस है. 

जीएसटी कानून के मकडज़ाल में उतरते हुए यह याद रखना जरूरी है कि इस कर सुधार के तीन मकसद हैं: पहलापूरे देश में दर्जनों टैक्स हैं जो भारत को एक कॉमन मार्केट बनाने में सबसे बड़ी बाधा हैं. जीएसटी से पूरे देश में उत्पादनबिक्री और सेवाओं पर समान दर से एक टैक्स लगेगा और भारत एक निर्बाध बाजार में बदल जाएगा.

दूसराभांति-भांति के टैक्स महंगाई बढ़ाते हैंजीएसटी के तहतकस्टम ड्यूटी के अलावा केंद्र और राज्यों के सभी इनडाइरेक्ट टैक्स (एक्साइजसर्विसवैटचुंगी आदि) एक साथ मिलाए जाएंगे जिससे टैक्स की प्रभावी दर कम होगी. इसके तहत निर्माता और सेवा प्रदाताओं कोउत्पादन और सेवा के अलग स्तरों पर लगने वाले टैक्स वापस होंगे जिससे अंतिम उत्पाद या सेवा पर सिर्फ एक टैक्स लगेगा और महंगाई कम होगी.

तीसराजीएसटी एक सहज टैक्स प्रशासन लेकर आएगा जिसमें कारोबार करना बेहद आसान हो जाएगा.

इन्हीं तीन वजहों से जीएसटी को लेकर उम्मीदों का सूचकांक हमेशा आसमान पर चढ़ा रहा. लेकिन इन उम्मीदों से प्रभावित कोई व्यक्ति अगर जीएसटी कानून को पढ़े तो वह इसमें आधुनिक टैक्स सिस्टम और कारोबार की सहजता तलाशता रह जाएगा.
जीएसटी सबूत है कि सरकार जो कह रही हैंकानून उसका ठीक उलटा करने वाला है. इसमें एक नहीं बल्कि कई ऐसे प्रावधान हैं जो भविष्योन्मुखी और आधुनिक टैक्स ढांचा देने के बजाए मौजूदा टैक्स प्रणाली को ही कई साल पीछे धकेल सकते हैं.

बानगी के लिए टैक्स पंजीकरण को ही लें जो कि टैक्सेशन का बुनियादी पहलू है और कारोबारियों की सबसे बड़ी सांसत है. यह कानून लागू हुआ तो दर्जनों टैक्स रजिस्ट्रेशन कराने होंगे. जीएसटी के प्रस्तावित तीन स्तरीय टैक्स (सेंट्रलस्टेटइंटीग्रेटेड) ढांचे के तहत पूरे देश में माल बेचने या सप्लाई करने वालों को हर राज्य में तीन अलग-अलग पंजीकरण कराने होंगे और अलग-अलग रिटर्न भरते हुए टैक्स का हिसाब रखना होगा.

यही नहींअगर कोई कंपनी कई तरह के कारोबार करती है तो सभी कारोबारों का अलग-अलग पंजीकरण होगा. अब यह सरकार ही बता सकती है कि असंख्य रजिस्ट्रेशनों और रिटर्न की व्यवस्था के बाद जीएसटी कारोबार को कैसे आसान करेगाहकीकत यह है कि जीएसटी में पंजीकरण का यही अकेला प्रावधान इस पूरे सुधार को पटरी से उतार देगा क्योंकि भारत में कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) पहले ही काफी ऊंची हैजो जीएसटी के बाद कई गुना बढ़ सकती है.

एक और प्रावधान काबिलेगौर है जो देश में अलग-अलग राज्यों में संचालन करने वाली कंपनियों या प्रतिष्ठानों पर भारी पड़ेगा. जीएसटी ऐक्ट के तहत अगर कोई कंपनी अपनी ही किसी शाखा या इकाई को माल या सेवा भेजती है तो इस पर टैक्स लगेगा. माल या सेवा पाने वाली इकाई इस टैक्स की वापसी के लिए बाद में दावा करेगी. यह प्रावधान जीएसटी से देश में कॉमन मार्केट बनने की उम्मीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि है.

इनपुट टैक्स क्रेडिट जीएसटी की जान हैजिसके तहत उत्पादन या आपूर्ति के दौरान कच्चे माल या सेवा पर चुकाए गए टैक्स की वापसी होती है. यही व्यवस्था एक उत्पादन या सेवा पर बार-बार टैक्स का असर खत्म करती है पर इससे जुड़ा प्रावधान अनोखा है. जीएसटी ऐक्ट कहता है कि सप्लायर ने सरकार को टैक्स नहीं चुकाया है तो उस सेवा या कच्चे माल का इस्तेमाल करने वाला निर्माता टैक्स क्रेडिट का दावा नहीं कर सकेगा. यह प्रावधान जीएसटी के मिलने वाले फायदों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा होगा.

एक्साइज और सर्विस टैक्स कानूनों में जटिल परिभाषाओं और प्रावधानों के कारण सुप्रीम कोर्टहाइकोर्टट्रिब्यूनलों और अपील कमिशनरों के पास 1.20 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं. जीएसटी कानून में भी असंगतियों और पेचदार परिभाषाओं की बहुतायत है जो कानूनी जटिलताएं बढ़ाएंगी और मनमाने नोटिस भेजने का मौका देंगी.

जीएसटी के मॉडल ऐक्ट को पढ़ते हुए यह समझना मुश्किल नहीं कि अधिकारियों ने जीएसटी कानून को पुराने कस्टमएक्साइजसर्विसेज और वैट कानूनों की असंगतियों का पुलिंदा बना दिया है. उम्मीद यह थी कि जीएसटी के जरिए आधुनिकसहज और दूरदर्शी टैक्स सिस्टम मिलेगा. अगर यह मॉडल कानून है और इसके आधार पर राज्‍यों के एसजीएसटी (स्‍टेट जीएसटी) कानून बनेंगे तो फिर कारोबारी सहजता की उम्‍मीदों का ऊपर वाला ही मालिक है। 

इस कानून को देखने के बाद जीएसटी में कारोबारी सहजता की उम्मीदें किनारे लग गई हैं. रही बात समेकित कर ढांचे की तो तीन स्तरीय जीएसटी में न स्टांप ड्यूटी शामिल होगीन मोटर वेहिकल टैक्स और कुछ राज्यों में तो चुंगी शामिल होने पर भी शक है. पेट्रोल-डीजल पर लगने वाला टैक्स जीएसटी के अतिरिक्त होगा. मंदीराज्यों के राजस्व में गिरावट और वेतन आयोग के कारण बढ़े खर्चों की वजह से जीएसटी की दर ऊंची ही रहनी है. इनडाइरेक्ट टैक्स की औसत दर इस समय 24 फीसदी हैइसे देखते हुए जीएसटी रेट 18 से 20 फीसदी के बीच रह सकता है जिसका मतलब है कि सर्विस टैक्स की दर में चार से छह फीसदी का इजाफा होगा और कई स्तरों पर उत्पाद शुल्क वैट भी बढ़ेगा.


जीएसटी की राजनीति नहीं बल्कि इसका अर्थशास्त्रक्रियान्वयन और प्रशासन महत्वपूर्ण है. क्रांतिकारी सुधार दिखाने को बेचैन सरकार को इससे चाहे जो राजनैतिक उम्मीदें हों लेकिन जीएसटी जिस तरह आकार ले रहा हैवह आर्थिक अवसरों के बजाए पूरे टैक्स सिस्टम में असंगतियों और अराजकता के रास्ते खोल सकता है. उम्मीद है कि हमारे नेता इतने संवेदनशील सुधार को लेकर 'आ बैल मुझे मारनहीं करेंगे.