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Friday, December 11, 2020

धुआं-सा यहां से उठता है


एक गांव के लोग भरपूर पैदावार के बाद भी गरीब होते जा रहे थे. मांग थी नहीं, सो कीमत नहीं मिलती थी. निजाम ने कहा बाजार में नए कारोबारी आएंगे. लोग समझ नहीं पाए कि समस्या मांग की कमी है या या व्यापारियों की? भ्रम फैला, सब गड्मड् हो गया. हैरां थे अपने अक्स पे घर के तमाम लोग, शीशा चटख गया तो हुआ एक काम और.

कृषिबिलों की बहस यह है कि किसान बाजार में अपना नुक्सान बढ़ते जाने को लेकर आशंकित हैं. केंद्र सरकार समझा नहीं पा रही है कि निजी कंपनियों के आने या कॉन्ट्रेक्ट खेती से किसानों की आय कैसे बढ़ेगी?

उत्पादन और बाजार से रिश्ता ही असली है, बाकी सब मोह-माया है. इस मामले में भारतीय खेती 2012 से ज्यादा बुरे हाल में है. तब आ रही कंपनियां, कम से कम, सप्लाइ चेन, प्रोसेसिंग, कोल्ड चेन में निवेश कर एक विशाल रिटेल मार्केट बनाकर किसानों के लिए बाजार बनाने का वादा तो कर रहीं थीं लेकिन अब तो जिनबड़ोंके लिए तंबू ताना जा रहा है, पता नहीं वे आएंगे भी नहीं या नहीं.

समझना जरूरी है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी फूड फैक्ट्री (सबसे बड़ा अनाज, फल-सब्जी-मछली उत्पादक, दूध उत्पादक, सबसे बड़ी मवेशी आबादी और 95.2 अरब अंडों का सालाना उत्पादन) गरीबी ही क्यों पैदा करती है.

वोट की गरज से सरकारें समर्थन मूल्य के जरिए खूब उगाने का लालच देती है और फिर कुल उपज का केवल 13 फीसद हिस्सा खरीदकर बाजार बिगाड़ देती हैं. बची हुई उपज समर्थन मूल्य से काफी कम कीमत पर बिकती है. 2014 के बाद खेती चिरंतन मंदी में है, आय घट रही है. गांवों में मुसीबत है, यह सरकार भी मानती है.

80 फीसद किसान एक एकड़ से कम जोत वाले हैं, समर्थन मूल्य तो दूर वे क्या खाएं और क्या बेचें, इसी में निबट जाते हैं. गांवों में 60 फीसद आय गैर खेती कामों से आती है.

खाद्य बाजार निन्यावे के फेर में है. न निवेश है, न किसानों को सही कीमत और न ही उपभोक्ताओं को अच्छे उत्पाद.

उपज की अंतरराज्यीय बिक्री पर कोई पाबंदी नहीं है. पहाड़ के फल, केरल का नारियल और उत्तर प्रदेश का आलू पूरे देश में मिलता है. समस्या दरअसल सही कीमत की है, जिसके लिए देश के भीतर प्रसंस्कृत खाद्य की मांग बढ़ानी होगी या फिर निर्यात. दोनों ही मामलों में सरकारों ने बाजार के पैरों पर पूरी कलाकारी से कुल्हाड़ी मारी है. 

1991 के बाद फूड प्रोसेंसिग की संभावनाएं सुनते-सुनते कान पक गए लेकिन भारत में कुल उपज का केवल 10 फीसद (प्रतिस्पर्धा देशों में 40-50) हिस्सा प्रोसेस होता है. इसमें भी अधिकांश प्राइमरी प्रोसेसिंग है, जैसे, धान से चावल, आलू, मछली और मीट को ठंडा रखना आदि. कीमत और कमाई बढ़ाने वाली प्रोसेसिंग नगण्य है.

135 करोड़ की आबादी में खाद्य प्रसंस्करण यह हाल इसलिए है क्योंकि एकटैक्स व लागतों के कारण प्रोसेस्ड फूड महंगा है, और पहुंच से बाहर है. दोखाने की आदतें फर्क हैं. 

कुल औद्योगिक इकाइयों में 15 फीसद खाद्य उत्पाद (इंडस्ट्री सर्वे 2016-17, सीआइआइ फूड प्रो रिपोर्ट 2019) बनाती हैं और उनमें भी 93 फीसद छोटे उद्योग हैं. 45 में केवल एक मेगा फूड पार्क शुरू हो पाया है. प्रोसेसिंग से कीमत और कमाई बढ़ती है, मांग नहीं हो तो कंपनियां आगे नहीं आतीं.

कमाई बढ़ाने का दूसरा विकल्प विदेश का बाजार यानी निर्यात है. लेकिन उत्पादन का महज 7 फीसद हिस्सा निर्यात होता है, उसमें भी ज्यादातर पड़ोस के बाजारों को. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कृषिअर्थव्यवस्था निर्यात के मामले में 13वें नंबर पर (बेल्जियम से भी पीछे) है. 2009 से 2014 तक करीब 27 फीसद सालाना की दर से बढ़ने के बाद कृषिनिर्यात सालाना 12 फीसद की गति से गिर रहा है क्योंकि सरकार को व्यापार उदारीकरण से डर लगता है.

कृषिका विश्व व्यापार तगड़ी सौदेबाजी मांगता है. दुनिया में बेचने के लिए व्यापार समझौते चाहिए. अगर कोई हमारा घी खरीदेगा तो हमें उसका दूध खरीदना होगा.

भारत के पास या तो अमेरिका बनने का विकल्प है, जहां बड़ा घरेलू फूड उत्पाद बाजार है या फिर वियतनाम बनने का, जिसने 1990 के बाद चुनिंदा फसलों में वैल्यू चेन तैयार की. दस साल में 15 मुक्त व्यापार समझौतों किए और जीडीपी में खेती का हिस्सा चार गुना (10 से 36 अरब डॉलर) कर दिया.

अतिरिक्त उपज और मुक्त अंतरराष्ट्रीय व्यापार के दम सुमेरियाई सभ्यता (मेसोपटामिया 7000 ईपू) ने एक विराट खाद्य अर्थव्यवस्था तैयार की थी. महाकाव्य गिल्गामेश बताता है कि महानगर उरुक (मौजूदा बगदाद से 250 किमी दक्षिण) इसका केंद्र था.

भारतीय किसान, अकूत खनिज संपदा पर बसे निपट निर्धन अफ्रीकियों जैसे हो गए हैं, जहां शस्य लक्ष्मी या भरपूर पैदावार गरीबी बढ़ा रही है. बाजार पर उत्पादक का भरोसा उसके श्रम के उचित मूल्य से ही बनता है, इसके बिना हो रहे फैसले सरकार की नीयत पर संदेह बढ़ा रहे हैं. यह सियासत जिस बाजार के नाम पर हो रही है वह तो भारतीय खेती के पास है ही नहीं, नतीजतन किसान, दान के चक्कर में कटोरा गंवाने से डर रहे हैं.

 


Monday, May 13, 2013

अधिकारों के दाग



संवैधानिक गारंटियों और कानूनी अधिकारों देश को रोजगार व शिक्षा के बदले एक नई राजनीतिक नौकरशाही और जवाबदेही से मुक्‍त खर्च का विशाल तंत्र मिला है।

भ्रष्‍टाचार व दंभ से भरी एक लोकतांत्रिक सरकार, सिरफिरे तानाशाही राज से ज्‍यादा घातक होती है। ऐसी सरकारें उन साधनों व विकल्‍पों को दूषित कर देती हैं, जिनके प्रयोग से व्‍यवस्‍था में गुणात्‍मक बदलाव किये जा सकते हैं। यह सबसे सुरक्षित दवा के जानलेवा हो जाने जैसा है और देश लगभग इसी हाल में हैं। भारत जब रोजगार या शिक्षा के लिए संवैधानिक गारंटियों और कानूनी अधिकारों के सफर पर निकला था तब विश्‍व ने हमें उत्‍साह मिश्रित अचरज से देखा था। यह नए तरह का वेलफेयर स्‍टेट था जो सरकार के दायित्‍वों को, जनता के अधिकारों में बदल रहा था। अलबत्‍ता इन प्रयोगों का असली मकसद दुनिया को देर से पता चला। इनकी आड़ में देश को एक नई राजनीतिक नौकरशाही से लाद दिया गया और जवाबदेही से मुक्‍त खर्च का एक ऐसा विशाल तंत्र खड़ा किया गया जिसने बजट की लूट को वैधानिक अधिकार में बदल दिया। मनरेगा व शिक्षा के अधिकारों की भव्‍य विफलता ने सामाजिक हितलाभ के कार्यक्रम बनाने व चलाने में भारत के खोखलेपन को  दुनिया के सामने खोल दिया है और संवैधानिक गारंटियों के कीमती दर्शन को भी दागी कर दिया है। इस फजीहत की बची खुची कसर खाद्य सुरक्षा के अधिकार से पूरी होगी जिसके लिए कांग्रेस दीवानी हो रही है।
रोजगार गारंटी, शिक्षा का अधिकार और प्रस्‍तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक, जनकल्‍याण के कार्यक्रमों की सबसे नई पीढ़ी है। ग्राम व भूमिहीन रोजगार, काम के बदले अनाज, एकीकृत ग्राम विकास मिशन आदि इन स्‍कीमों के पूर्वज हैं जो साठ से नब्‍बे दशक के अंत तक आजमाये गए।  संसद से पारित कानूनों के जरिये न्‍यूनतम रोजगार, शिक्षा व राशन का अधिकार देना अभिनव प्रयोग इसलिए था क्‍यों कि असफलता की स्थि‍ति में लोग कानूनी उपचार ले सकते थे। भारत के पास इस प्रजाति के कार्यक्रमों की डिजाइन व मॉनीटरिंग को लेकर नसीहतें थोक में मौजूद थीं

Monday, February 27, 2012

सूझ कोषीय घाटा

धाई! हमने अपने बजट की पुरानी मुसीबतों को फिर खोज लिया है। सब्सिडी का वही स्यापा, सरकारी स्कीमों के असफल होने का खानदानी मर्ज, खर्च बेहाथ होने का बहुदशकीय रोना और बेकाबू घाटे का ऐतिहासिक दुष्चक्र। लगता हैं कि हम घूम घाम कर वहीं आ गए हैं करीब बीस साल पहले जहां से चले थे। उदारीकरण के पूर्वज समाजवादी बजटों का दुखदायी अतीत जीवंत हो उठा है। हमें नास्टेल्जिक (अतीतजीवी) होकर इस पर गर्व करना चाहिए। इसके अलावा हम कर भी क्या कर सकते हैं। बजट के पास जब अच्छा राजस्व, राजनीतिक स्थिरता, आम लोगों की बचत, आर्थिक उत्पादन में निजी निवेश आदि सब कुछ था तब हमारे रहनुमा बजट की पुरानी बीमारियों से गाफिल हो गए इसलिए असंतुलित खर्च जस का तस रहा और जड़ो से कटीं व नतीजो में फेल सरकार स्कीमों में कोई नई सूझ नहीं आई । दरअसल हमने तो अपनी ग्रोथ के सबसे अच्छे वर्ष बर्बाद कर दिये और बजट का ढांचा बदलने के लिए कुछ भी नया नहीं किया। हमारे बजट का सूझ-कोषीय घाटा, इसके राजकोषीय घाटे से ज्यादा बड़ा है।
बजट स्कीम फैक्ट्री
बजट में हमेशा से कुछ बड़े और नायाब टैंक रहे हैं। हर नई सरकार इन टैंकों पर अपने राजनीतिक पुरखों के नाम का लेबल लगा कर ताजा पानी भर देती है। यह देखने की फुर्सत किसे है इन टैंकों की तली नदारद है। इन टंकियों को सरकार की स्कीमें कह सकते हैं। बजट में ग्रामीण गरीबी उन्मूलन व रोजगार, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और ग्रामीण आवास को मिलाकर कुल पांच बड़ी टंकियों, माफ कीजिये, स्कीमों का कुनबा है। देश में जन कल्याण की हर स्कीम की तीन पीढिय़ा बदल गईं हैं मगर हर स्कीम असफलता व घोटाले में समाप्त हुई। गरीब उन्‍मूलन और ग्रामीण रोजगार स्कीमें तो असफल प्रयोगों का अद्भुत इतिहास

Monday, January 24, 2011

टाइम बम पर बैठे हम

अर्थार्थ
र्थव्यथवस्था के डब्लूटीसी या ताज (होटल) को ढहाने के लिए किसी अल कायदा या लश्क र-ए-तैयबा की जरुरत नहीं हैं, आर्थिक ध्वंस हमेशा देशी बमों से होता है जिन्हें कुछ ताकतवर, लालची, भ्रष्टं या गलतियों के आदी लोगों एक छोटा का समूह बड़े जतन के साथ बनाता है और पूरे देश को उस बम पर बिठाकर घड़ी चला देता है। बड़ी उम्मीदों के साथ नए दशक में पहुंच रही भारतीय अर्थव्यवस्था भी कुछ बेहद भयानक और विध्वंसक टाइम बमों पर बैठी है। हम अचल संपत्ति यानी जमीन जायदाद के क्षेत्र में घोटालों की बारुदी सुरंगों पर कदम ताल कर रहे हैं। बैंक अपने अंधेरे कोनों में कई अनजाने संकट पाल रहे हैं और एक भीमकाय आबादी वाले देश में स्थांयी खाद्य संकट किसी बड़ी आपदा की शर्तिया गारंटी है। खाद्य आपूर्ति, अचल संपत्ति और बैंकिग अब फटे कि तब वाले स्थिति में है। तरह तरह के शोर में इन बमों की टिक टिक भले ही खो जाए लेकिन ग्रोथ की सोन चिडि़या को सबसे बड़ा खतरा इन्ही धमाकों से है।
जमीन में बारुद
वित्तीय तबाहियों का अंतरराष्ट्रीय इतिहास गवाह है कि अचल संपत्ति में बेसिर पैर के निवेश उद्यमिता और वित्तीय तंत्र की कब्रें बनाते हैं। भारत में येदुरप्पाओं, रामलिंग राजुओं से लेकर सेना सियासत, अभिनेता, अपराधी, व्यायपारी, विदेशी निवेशक तक पूरे समर्पण के साथ अर्थव्ययवस्था में यह बारुदी सुरंगे बिछा रहे हैं। मार्क ट्वेन का मजाक (जमीन खरीदो क्यों कि यह दोबारा नहीं बन सकती) भारत में समृद्ध होने का पहला प्रमाण है। भ्रष्ट राजनेता, रिश्वतखोर अफसर, नौदौलतिये कारोबारी, निर्यातक आयातक और माफिया ने पिछले एक दशक में जायदाद का

Tuesday, August 17, 2010

निवाले पर आफत

अर्थार्थ
रोटी या डबल रोटी, जो भी खाते हों, अब उसकी ले-दे मचने वाली है। मुश्किल वक्त में कुदरत भी अपना तकाजा लेकर आ पहुंची है। दुनिया सिर झुकाए वित्तीय संकटों की गुत्थियां खोलने में जुटी थी मगर इसी बीच अनाज बाजार ने पंजे मारने शुरू कर दिए। जमीन के एक बहुत बड़े हिस्से पर इस साल प्रकृति का गुस्सा बरस रहा है। मौसम अपने सबसे डरावने चेहरे के साथ दुनिया की कृषि के सामने खड़ा है। रूस में सूखे, पाकिस्तान में बाढ़, अफगानिस्तान व ऑस्ट्रेलिया में टिड्डी और भारत में असंतुलित वर्षा ने मिलकर जून से अब तक दुनिया में गेहूं की कीमत 50 फीसदी बढ़ा दी है। कई देश अनाज का निर्यात बंद करने लगे हैं जबकि आयात पर निर्भर देशों के व्यापारी वायदा बाजार में हवा भर रहे हैं। महंगाई से तप रहे भारत जैसे मुल्कों के लिए यह बीमारी के बीच अस्पतालों की हड़ताल जैसा है। यहां खेती अस्थिर है, मौसम इस बार भी नखरे दिखा रहा है। खाद्य अर्थव्यवस्था बदहाल है इसलिए अनाज बिकता या बंटता नहीं बल्कि सड़ता है और अंतत: अक्सर आयात की नौबत आती है।
डरावना मौसम
विश्व के कई हिस्सों ने मौसम का ऐसा गुस्सा अरसे बाद देखा है। भारत में लेह से लेकर रूस के एक बड़े हिस्से तक प्रकृति की निर्ममता बिखरी है। दुनिया के तीसरे सबसे बड़े गेहूं उत्पादक रूस के 27 राज्यों में इमर्जेसी लगी है। यह पूरा इलाका रूस की गेहूं उत्पादक पट्टी है। रूस में पिछले तीस साल का सबसे भयानक सूखा पड़ा है। तापमान 130 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गया है और देश के सात भौगोलिक हिस्सों में जंगल आग का समंदर बने हुए हैं। रूस अपने ताजा इतिहास की सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा झेल रहा है। जंगलों के धुएं से मॉस्को सात दिन तक बंद रहा है। इस सूरत में दुनिया को रूस से गेहूं मिलने की उम्मीद नहीं है। मौसम केवल रूस का ही दुश्मन नहीं है। पड़ोसी राज्य यूक्रेन में भी भयानक सूखा है। दुनिया के छठे सबसे बड़े गेहूं उत्पादक यूक्रेन की काफी फसल पहले ही पाले की भेंट चढ़ चुकी है। पाकिस्तान के भी एक बहुत बड़े हिस्से के लिए रमजान बहुत बुरा बीत रहा है। यहां करीब दस लाख एकड़ की कृषि भूमि ताजा इतिहास की सबसे भयानक बाढ़ में डूब चुकी है। पड़ोसी अफगानिस्तान में गेहूं की फसल का एक बड़ा हिस्सा टिड्डी चाट गई है। टिड्डी का असर ऑस्ट्रेलिया की फसल तक है, जहां करीब 30 लाख टन उपज का नुकसान संभव है। गेहूं बाजार के प्रमुख खिलाड़ी ऑस्ट्रेलिया का पश्चिमी हिस्सा पहले ही सूखे से जूझ रहा है और चीन व कनाडा में बाढ़ की तबाही है। यही वजह है कि अमेरिका के कृषि विभाग ने पूरी दुनिया में गेहूं का उत्पादन करीब ढाई फीसदी घटने का आकलन किया है। अगले साल मार्च तक विश्व के गेहूं भंडार में करीब सात फीसदी की कमी संभव है। दुनिया की आबादी को देखते हुए उत्पादन और भंडार में यह गिरावट संकट से कम नहीं है।
कीमती अनाज
लेनिन ने जिस अनाज को मुद्राओं की मुद्रा कहा था वह रूस के लिए अचानक बहुत कीमती हो चला है। ब्लैक सी से लेकर उत्तरी काकेशस और पश्चिमी कजाखिस्तान तक फैले रूस के विशाल उर्वर इलाके में भयानक सूखे के बाद इस रविवार से दुनिया के बाजार में रूस का गेहूं पहुंचना बंद हो गया है। वोल्गा नदी से सिंचित यह क्षेत्र रूस को दुनिया का प्रमुख अनाज निर्यातक बनाता है। पुतिन की सरकार ने इस साल निर्यात चार करोड़ टन पहुंचाने का लक्ष्य रखा था, लेकिन अब निर्यात पर चार माह की पाबंदी लग गई है। रूस अपने गेहूं उत्पादन का बीस फीसदी हिस्सा निर्यात करता है। रूस के इस फैसले के बाद उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और यूरोप के बाजारों में अफरा-तफरी फैली है। यूक्रेन भी गेहूं का प्रमुख निर्यातक है जो अगले सप्ताह तक निर्यात पर रोक लगाने वाला है। शिकागो के जिंस एक्सचेंज में गेहूं का वायदा 1973 के बाद सबसे ऊंचे स्तर पर खुला है। इसे देखते हुए विश्व बैंक को दुनिया के देशों से निर्यात रोकने की होड़ बंद करने का अनुरोध करना पड़ा है। दो साल पहले चावल को लेकर भी इसी तरह की होड़ मची थी और कीमतें रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई थीं। कई प्रमुख उत्पादक देशों में मक्के और जौ की उपज भी घटी है। दुनिया में मक्के का भंडार 13 साल के सबसे निचले स्तर पर बताया जा रहा है। अनाज को लेकर दुनिया में संवेदनशीलता काफी ज्यादा है। इसलिए उत्पादन घटने का आंकड़ा आने के बाद पिछड़े और अगड़े सभी देश अपने भंडार भरने में लग जाते हैं, जिससे बाजार में कीमतें और ऊपर जाती हैं। यानी बाजार में बदहवासी बढ़ रही है।
बहुआयामी मुश्किल
अनाजों के बाजार का संतुलन बड़ा नाजुक है। कुछ ही देशों के बूते दुनिया में मांग व आपूर्ति का पलड़ा संभलता रहता है क्योंकि ज्यादातर देशों की पैदावार उनकी जरूरत भर की होती है। 2007-08 में दुनिया ने अनाज बाजार में जबर्दस्त तेजी का दौर देखा था जो लौटता दिख रहा है। भारत जैसे देशों के लिए तो यह आफत है। एक अरब से ज्यादा आबादी वाले भारत में खेती सिरे से गैर भरोसेमंद हो चली है। भोजन के अंतरराष्ट्रीय बाजार पर भारत की निर्भरता तेजी से बढ़ी है। पिछले कई वर्षो से दुनिया का बाजार भारत को दाल व खाद्य तेल खिला रहा है। गेहूं व चावल के आयात की नौबत अक्सर आती रहती है। बीते ही साल चीनी का भी आयात हुआ है। इसलिए दुनिया के अनाज बाजार का बदलता रंग चिंतित करता है। भारत में पिछले एक दशक में मौसम के रंग बदले हैं। वर्षा का क्षेत्रीय वितरण उलट-पलट रहा है। ताजा मानसून ने उत्तर में पंजाब और हरियाणा के खेतों को बुवाई से पहले ही पानी से भर दिया जबकि पूर्व व मध्य भारत के धान उत्पादक इलाके सूख रहे हैं। भारत में अनाज उत्पादन के आकलन लगातार उलटे पड़ते हैं। खाद्य बाजारों में आ रही महंगाई को भारत पहुंचने तक कोई नहीं रोक सकता। अलबत्ता अगर फसल बिगड़ी तो अनाज को लेकर भारत का बजट भी बिगड़ सकता है।
दुनिया यह मान रही थी कि अगले दो दशक में उसे अपनी अनाज उपज दोगुनी करनी होगी ताकि बढ़ती आबादी का पेट भरा जा सके। हालांकि खेती का यह एजेंडा वित्तीय संकट से निपटने के बाद ही सामने आना था। तब तक दुनिया इस बात से मुतमइन थी कि मांग आपूर्ति में संतुलन बनाने भर की पैदावार होती रहेगी अलबत्ता कुदरत को कुछ और मंजूर था। मौसम के बदले मिजाज ने अब हाथों से तोते उड़ा दिए हैं। बैंकों और वित्तीय कानूनों में उलझी सरकारें अचानक खेतों को लेकर परेशान होने लगी हैं क्योंकि हर जगह बात निवाले की है। .. यकीनन रोटी से ज्यादा बड़ा सवाल और क्या हो सकता है ??
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Monday, March 29, 2010

भरपूर भंडारों से निकली भूख

भारत इस समय पूरी दुनिया को कई बेजोड़ नसीहतें बांट रहा है। हम दुनिया को सिखा रहे हैं कि भरे हुए गोदामों के बावजूद भूख को कैसे संजोया जाता है। कैसे आठ करोड़ परिवारों (योजना आयोग के मुताबिक गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले परिवार केवल छह करोड़ हैं) को गरीब होने का सर्टीफिकेट यानी बीपीएल कार्ड तो मिल जाता है मगर अनाज नहीं मिलता। करोड़ों की सब्सिडी लुटाकर ऐसी राशन प्रणाली बरसों-बरस कैसे चलाई जा सकती है, जिसे प्रधानमंत्री निराशाजनक कहते हों और सुप्रीम कोर्ट भ्रष्टाचार वितरण प्रणाली ठहराता हो। दरअसल भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था खामियों की एक ग्रंथि बन गई है। आने वाली हर सरकार इस गांठ में असंगतियों का ताजा एडहेसिव उड़ेल देती है। सस्ता अनाज वितरण प्रणाली यानी टीपीडीएस (लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली), बीपीएल-एपीएल, अंत्योदय आदि कई घाटों पर पिछले बीस साल में कई बार डुबकी लगा चुकी है, लेकिन इसका मैल नहीं धुला। गरीबों की रोटी का जुगाड़, महंगाई पर नियंत्रण और अनाज उत्पादन को प्रोत्साहन... यही तो तीन मकसद थे खाद्य सुरक्षा नीति के? इन लक्ष्यों से नीति बार-बार चूकती रही, लेकिन सरकार की नई सूझ तो देखिए वह इसी प्रणाली के जरिए भूखों को खाने की कानूनी गारंटी दिलाने जा रही है।
संकट सिर्फ अभाव से ही नहीं आदतों से भी आता है। केवल मांग-आपूर्ति का रिश्ता बिगड़ने से ही बाजार महंगाई के पंजे नहीं मारने लगता। कभी-कभी सरकारें भी बाजार को बिगाड़ देती हैं। बाजार में अनाज और अनाज के उत्पादों की कीमतें काटने दौड़ रही हैं, लेकिन इस समय भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में 200 लाख टन गेहूं और 240 लाख टन चावल है जो कि खाद्य सुरक्षा के भंडार मानकों का क्रमश: पांच व दोगुना है। सरकार रबी की ताजी खरीद को तैयार है, जबकि पहले खरीदा गया करीब 100 लाख टन अनाज खुले आसमान के नीचे चिडि़यों व चोरों की 'हिफाजत' में है। इस भरे भंडार से महंगाई को कोई डर नहीं लगता, क्योंकि खुले बाजार में सरकारी हस्तक्षेप का कोई मतलब नहीं बचा है और अनाज के बाजार में मांग व आपूर्ति का गणित सटोरियों की उंगलियों पर है। रही बात गरीबों को राशन से सस्ता अनाज बंटने की तो वह न भरपूर भंडार के वक्त मिलता है और न किल्लत के वक्त।
विसंगतियों की खरीद
खाद्य सुरक्षा की बुनियाद ही टेढ़ी हो गई है। समर्थन मूल्य प्रणाली इसलिए बनी थी कि भारी उत्पादन के मौसम में सरकार निर्धारित कीमत पर अनाज खरीदकर एक निश्चित मात्रा में अपने पास रखेगी जो महंगाई के वक्त बाजार में जारी किया जाएगा। इस भंडार से बेहद निर्धनों को सस्ता राशन भी दिया जाएगा। लेकिन यह तो महंगाई समर्थन मूल्य प्रणाली बन गई। इसने अनाज की कीमतों व आपूर्ति का पूरा ढांचा ही बिगाड़ दिया है। सरकारें भंडार में पड़े पिछले अनाज की फिक्र किए बगैर हर साल अनाज खरीदती हैं। अनाज की मांग व आपूर्ति से बेखबर, समर्थन मूल्य बाजार में अनाज की एक न्यूनतम कीमत तय कर देता है। सटोरियों व बाजार को मालूम है कि कुल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा बफर मानकों के तहत सरकार के गोदाम में चला जाएगा, इसलिए अनाज बाजार में हमेशा महंगाई का माहौल रहता है। मौजूदा वर्ष की तरह 1998 व 2002 में भी सरकारी भंडारों में निर्धारित मानकों का कई गुना अनाज जमा था और लाखों टन अनाज बाद में बाहर सड़ा था। अब सरकार अनाज की भारी अनाज खरीद करने वाली है, फिर पिछला भंडार खुले आसमान के नीचे सड़ेगा और सब्सिडी बजट को खोखला करेगी, लेकिन बाजार में अनाज की कीमतें टस से मस नहीं होंगी। रही बात किसानों की तो उन्हें इस समर्थन मूल्य प्रणाली ने कभी आधुनिक नहीं होने दिया। किसान तो बाजार, मांग व आपूर्ति को देखकर नहीं सरकार को देखकर अनाज उगाते हैं। सरकार इस प्रणाली से किसानों की आदत व अपना खजाना बिगाड़ कर बहुत खुश है और उसका आर्थिक सर्वेक्षण पूरे फख्र के साथ इस विशेषता को स्वीकार करता है।
बेअसर बिक्री
सरकार अगर आंख पर पट्टी बांध कर अनाज खरीदती है तो कान पर हाथ रखकर उसे बाजार में बेचती है। हम बात कर रहे हैं अनाज की उस ओपन सेल की जो कि खाद्य सुरक्षा नीति का दूसरा पहलू है। बताया जाता है कि सरकार उपभोक्ताओं को महंगाई के दांतों से बचाने के मकसद से बाजार में अनाज रिलीज करती है। आप जानना चाहेंगे की महंगाई रोकने के लिए अनाज किसे बेचा जा जाता है? आटा बनाने वाली मिलों को। हाल में सरकार ने करीब 1240 रुपये क्विंटल की दर अनाज बेचा, मगर आटा वही बीस रुपये किलो पर मिल रहा है। अनाज दरअसल छोटी मात्रा में खुदरा व्यापारियों या सीधे उपभोक्ताओं को मिलना चाहिए, मगर मिलता है बड़े व्यापारियों को। उस पर तुर्रा यह कि ओपन सेल अक्सर बाजार की कीमत पर और कभी-कभी तो उससे ऊपर कीमत पर होती है, इसलिए व्यापारी भी सरकार का अनाज नहीं खरीदते। निष्कर्ष यह कि अनाज की सरकारी खरीद बाजार तो बिगाड़ देती है, मगर अनाज की सरकारी बिक्री से महंगाई का कुछ नहीं बिगड़ता।
फिर भी गरीब भूखा
अनाज की इतनी भारी खरीद, ऊंची लागत के साथ भंडारों का इंतजाम और राशन प्रणाली का विशाल तंत्र अगर देश के गरीबों को दो जून की सस्ती रोटी दे रहे होते तो इस महंगी कवायद को झेला जा सकता था। लेकिन इस प्रणाली से सिर्फ बर्बादी व भ्रष्टाचार को नया अर्थ मिला है। हकीकत यह है कि देश में गरीबों की तादाद से ज्यादा बीपीएल कार्ड धारक हैं और अनाज फिर भी नहीं बंटता। खाद्य सुरक्षा कानून बना रही सरकार भी यह मान रही है कि देश के जिन इलाकों में राशन प्रणाली होनी चाहिए वहां नहीं है और जहां है, वहां उपभोक्ताओं को इसकी जरूरत नहीं है। ऊपर से गरीब का कोई चेहरा या पहचान नहीं है। सरकार की एक दर्जन स्कीमें और आधा दर्जन आकलन गरीबों की तादाद अलग-अलग बताते हैं। इसलिए गरीबों की गिनती से लेकर आवंटन तक हर जगह खेल है। नतीजा यह कि एक दशक में खाद्य सब्सिडी 9,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 47,000 करोड़ रुपये हो गई है, लेकिन राशन प्रणाली बिखर कर ध्वस्त हो गई।
सरकार इसी ध्वस्त प्रणाली पर खाद्य सुरक्षा की गारंटी का कानून लादना चाहती है। इसमें गरीबों को सस्ता अनाज मिलना उनका कानूनी अधिकार बनाया जाएगा। यह बात अलग है कि गरीबों तक अनाज पहुंचाने की कोई व्यवस्था तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि उनकी सही पहचान व गिनती न हो। हो सकता है सरकार खाद्य कूपन देने या सीधी सब्सिडी की तरफ जाए, लेकिन उस प्रणाली में भी पहचान और मानीटरिंग का एक तंत्र तो चाहिए ही। ऐसा तंत्र अगर होता तो मौजूदा प्रणाली भी चल सकती थी। रही बात समर्थन मूल्य व बाजार में हस्तक्षेप की तो इन नीतियों के मोर्चे पर नीम अंधेरा है। दरअसल जब अनाज के भरपूर भंडार और दुनिया के सबसे बडे़ राशन वितरण तंत्र के जरिए गरीब के पेट में रोटी नहीं डाली जा सकी और महंगाई नहीं थमी तो खाद्य सुरक्षा कानून से बहुत ज्यादा उम्मीद बेमानी है। यह बात अलग है कि भूख से निजात की कानूनी गारंटी की बहस खासी दिलचस्प है।...
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे-बहस यह मुद्दआ।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)