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Monday, December 7, 2015

सवालों का सैलाब

मौसम का मिजाज भारत जैसे देशों की आर्थिकऔद्योगिक वित्तीय नीतियों और बजट को बदलने वाला है

क्या हम शहरों की चार आठ लेन सड़कों पर नौकायन के लिए तैयार हैं? क्या हम आए दिन, चक्रवाती तूफान झेल सकते हैं? क्या हम बेमौसम भीषण बारिश, ठंड या तपन के लिए तैयार हैं? ... पर्यावरण से जुड़े ये सवाल कुछ पुराने पड़ गए हैं. नए सवाल कुछ इस तरह हो सकते हैः क्या आप कमाई में कमी के लिए तैयार हैं? क्या हम महंगी बिजली का बिल भरने की स्थिति में हैं? क्या आपके पास सेहत ठीक रखने की लागत उठाने का इंतजाम है? क्या आप बीमा प्रीमियमों का बोझ उठा पाएंगे? बदमिजाज मौसम की बहसें अब पर्यावरण को लेकर सैद्धांतिक चर्चाओं से निकलकर ठोस आर्थिक हलकों में पैठ गई हैं, जहां कार्बन उत्सर्जन कम करने की दीर्घकालीन योजनाओं से ज्यादा बड़ी फिक्र इस बात की है कि रोजाना के असर से कैसा निबटा जाए. भारत में तो अभी हम आपदा राहत की चर्चाओं से ही आगे नहीं बढ़ पाए हैं, आर्थिक क्षति को संभालने के मामले में तो दरअसल खुले आकाश के नीचे खड़े हैं.
चेन्नै की सड़कों से बाढ़ का पानी उतरने के बाद जब कारों, दुकानों, संपत्तियों की मरम्मत को लेकर बीमा क्लेम की बाढ़ आएगी तो आपदा बीमा कंपनियों के दफ्तरों में दिखाई देगी. विमान कंपनियां भी चेन्नै की उड़ानें रद्द होने का नुक्सान जोड़ बीमा कंपनियों के दरवाजे दस्तक देंगी. तमिलनाडु के उद्योग तो बारिश का कहर शुरू होते ही बीमा क्लेम तैयार करने में जुट गए थे. पेरिस जलवायु सम्मेलन में जब ग्लोबल बीमा उद्योग के प्रतिनिधि, आतंकी मौसम पर अपना पक्ष रख रहे थे, तब चिंताएं सिर्फ हर्जाना भरने को लेकर बीमा उद्योग की क्षमता से ही जुड़ी नहीं थीं, बल्कि ज्यादा बड़ी फिक्र संयुक्त राष्ट्र के इस आकलन को लेकर थी कि विकासशील देशों में मौसमी नुक्सान का केवल एक फीसदी हिस्सा ही बीमा रिस्क कवरेज के दायरे में आता है. इसके बावजूद 2013 में हिमाचल और उत्तराखंड में लगभग 5,000 करोड़ रु. का नुक्सान करने वाली बाढ़ के दावों को संभालने में बीमा उद्योग को पसीने आ गए.
मौसमी नुक्सान को बीमा उपलब्ध कराना भारत के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने से ज्यादा बड़ी चुनौती है. 2004 से 2011 के बीच भारत में प्राकृतिक आपदाओं से करीब 9,000 करोड़ रु. का नुक्सान (आइसीआइसीआइ लोम्बार्ड का आकलन) हुआ है, जिसमें 85 फीसदी नुक्सान को कोई बीमा सुरक्षा हासिल नहीं थी. मौसम के कहर का सबसे बड़ा असर ग्लोबल बीमा उद्योग पर हुआ है. एओन पीएलसी की ताजी रिइंश्योरेंस मार्केट आउटलुक रिपोर्ट बताती है कि 2005 के बाद से प्राकृतिक आपदाओं से बीमा उद्योग का नुक्सान औसतन 15 अरब डॉलर सालाना से बढ़कर 2011 में 100 अरब डॉलर तक पहुंच गया था. 2015 तक पिछले तीन वर्षों में यह औसतन 20 से 40 अरब डॉलर रहा. दुनिया की सबसे बड़ी रिइंश्योरेंस फर्म स्विस री का आकलन है कि 2014 की पहली छमाही में आपदाओं की कुल आर्थिक लागत 59 अरब डॉलर थी, जिसमें बीमा कंपनियों ने 21 अरब डॉलर की चोट खाई. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, 2015 की पहली छमाही में 33 अरब डॉलर के आर्थिक नुक्सान पर बीमा कंपनियों ने करीब 13 अरब डॉलर के हर्जाने दिए हैं. भारत में आपदाओं का बीमा कवरेज वर्तमान स्तर से दोगुना भी करना हो तो बीमा कंपनियों को भारी रिइंश्योरेंस जुटाना होगा और लोगों को मोटे प्रीमियम भरने के लिए तैयार रहना होगा.
गर्मी बढ़ाने वाले कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए पेरिस में जब भारत व फ्रांस ऊष्णकटिबंधीय सौ देशों के सौर ऊर्जा समूह की घोषणा कर रहे थे तब जलवायु सम्मेलन के गलियारों में गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की लागत को लेकर बहस भी चल रही थी. ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के डॉ. चार्ल्स फ्रैंक का एक शोध बीते बरस सुर्खियों में था जो बताता है कि  कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए सौर ऊर्जा सबसे महंगा विकल्प है इसके बाद विंड एनर्जी, पनबिजली और नाभिकीय ऊर्जा आते हैं. भारत में सौर ऊर्जा को लेकर सक्रियता बढऩे के बाद उत्पादन लागत कम हुई है लेकिन सौर ऊर्जा केंद्र तक ग्रिड पहुंचाने की लागत जोड़ने पर बिजली महंगी हो जाती है. पारंपरिक बनाम गैर पारंपरिक ऊर्जा की लागत पर तकनीकी बहसें संकेत करती हैं कि फिलहाल, गैर पारंपरिक ऊर्जा को सस्ता रखने के लिए सब्सिडी देनी होगी जो कार्बन उत्सर्जन घटाने की लागत बढ़ाएगी. ताजा निष्कर्ष यह है कि सरकारों को किसी एक या दो ऊर्जा स्रोत को बढ़ावा देकर किसी भी स्रोत से कार्बन उत्सर्जन कम करने की कोशिश करनी चाहिए. अर्थात् कोयला या गैस आधारित बिजली को नई तकनीकें चाहिए, जिन पर ऊर्जा उत्पादन निर्भर है. इन तकनीकों से बिजली की लागत बढ़ना तय है. यानी हमें महंगी बिजली के लिए तैयार रहना होगा और महंगी ऊर्जा विकासशील देश की ग्रोथ की रफ्तार पर असर डालेगी ही. 
बीजिंग में धुंध के कारण उद्योगों की बंदी और पिछले साल भयानक सर्दी के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ने तक दुनिया को यह एहसास हो चुका था कि मौसम का मिजाज विश्व की सबसे बड़ी सामूहिक उम्मीद पर भारी पड़ेगा. अब दुनिया को तेज ग्रोथ की रणनीतियों से आए दिन समझौता करना होगा. चाहे वह ऊर्जा की खपत कम करना हो या साफ ऊर्जा की लागत बढ़ाना हो या जीवन को सुरक्षित रखने के इंतजाम हों या फिर सेहत बचाने की लागत हो, ये सब मिलकर ग्रोथ पर भारी पड़ेंगे जिसका असर हमें कमाई व रोजगारों पर दिखेगा. इसलिए जलवायु परिवर्तन तीसरी दुनिया की सबसे बड़ी मुसीबत है जिसका अच्छी जिंदगी से अभी परिचय भी नहीं हुआ है.

चेन्नै ने बताया है कि भारत को सिर्फ महानगरों में नावों का ही इंतजाम नहीं करना होगा बल्कि मजबूत बीमा तंत्र, हेल्थ केयर और ऊर्जा की लागत कम करने के उपाय भी चाहिए और इन सबके बीच रोजगार और कमाई बढ़ाने के मौके भी पैदा करने होंगे. मौसम का मिजाज भारत जैसे देशों की आर्थिक, औद्योगिक वित्तीय नीतियों और बजट को बदलने वाला है. कुदरत की करवटें सरकारों से बला की चतुरता और दूरदर्शिता मांग रही हैं जो ग्लोबल मंचों से ज्यादा देश के भीतर दिखनी चाहिए. क्रूर मौसम हमारा भविष्य तो बाद में बदलेगा, पहले यह वर्तमान को बदलने वाला है. क्या हमारी सियासत इन बदलावों के लिए अपेक्षित सूझबूझ से लैस है

Monday, July 9, 2012

नई दरारें, गहरे जोखिम


क्‍या  हम हिंदुस्‍तानी अपनी आर्थिक मुश्किलों में जरा भी मॉडर्न नहीं हुए? यूरोप को देखो क्‍या हाई प्रोफाइल, फ्रेश मुसीबतों से दो चार है और हम बाबा के जमाने की समस्‍याओं पर मगज खर्च कर रहे हैं। यह फब्‍ती अर्थशास्‍त्र के एक मनचले छात्र की थी। वह भारत में घाटे, सब्सिडी जैसी पुरानी चर्चाओं से ऊब कर क्रेडिट डिफॉल्‍ट स्‍वैप (कर्ज में चूकने का बीमा),  हेयरकट (आंशिक कर्ज माफी) जैसी जटिल नई यूरोपीय उलझनों पर फिदा हुआ जा रहा था।.. गुरु जी ने टोका! ऐसा नहीं कहते बेटा! हमने भी बहुत तरक्‍की की है। पहले कभी सुना था कि भारत के बैंकों के पास पैसे की इतनी कमी पड़ जाएगी कि  उनका काम बीमा और म्‍युचुअल फंड कं‍पनियों से कर्ज लेकर चलेगा ? अथवा आधुनिक वित्‍तीय कंपनियां ही लोगों को सोने जैसे दकियानूसी निवेश का दीवाना बनाने लगेंगी जिससे पूरा वित्‍तीय नेटवर्क को खतरे में फंस जाएगा। रिजर्व बैंक की ताजी फाइनेंशियल स्‍टेबिलिटी रिपोर्ट सबूत है कि भारत का वित्‍तीय तंत्र अब नए किस्‍म के जोखिमों में तैर रहा है। यह दरारें ऊपर से नहीं दिखतीं, मगर भीतर से बड़ी गहरी हैं।
बैंकों पर कर्ज  
भारत के बैंक कभी वित्‍तीय बाजार को अपनी उंगली पर नचाते थे मगर आज यह रोजमर्रा की पूंजी के लिए बीमा व म्‍युचुअल फंड कंपनियों से कर्ज के मोहताज हैं। यह एक नए तरह की (लिक्विडिटी डे‍फशिट) समस्‍या है और एक ऐसा खतरा है जिसके असर सोचकर रिजर्व बैंक भी दुबला हुआ जा रहा है। बैंकों के इस नए सिनेमा की पटकथा जमाकर्ताओं ने लिखी है, जो जमा पर घटती ब्‍याज दर के कारण बैंकों में पैसा रखने में बहुत इच्‍छुक नहीं दिखते। भारत का बैंकिंग उद्योग जमाकर्ताओं के भरोसे की कथा सुनाते थकते नहीं था लेकिन 2011-12 में बैकों की जमा वृद्धि दर दस साल के सबसे निचले 

Monday, December 26, 2011

ग्यारह का गुबार

मय हमेशा न्‍याय ही नहीं करता। वह कुछ देशों, जगहों, तारीखों और वर्षों के खाते में इतना इतिहास रख देता है कि आने वाली पीढि़यां सिर्फ हिसाब लगाती रह जाती हैं। विधवंसों-विपत्तियों, विरोधों-बगावतों, संकटों-समस्‍याओं और अप्रतयाशित व अपूर्व परिवर्तनों से लंदे फंदे 2011 को पिछले सौ सालों का सबसे घटनाबहुल वर्ष मानने की बहस शुरु हो गई है। ग्‍यारह की घटनायें इतनी धमाकेदार थीं कि इनके घटकर निबट जाने से कुछ खत्‍म नहीं हुआ बल्कि असली कहानी तो इन घटनाओं के असर से बनेगी। अर्थात ग्‍यारह का गुबार इसकी घटनाओं से ज्‍यादा बड़ा होगा
....यह रहे उस गुबार के कुछ नमूने, घटनायें तो हमें अच्‍छी तरह याद हैं।  
1.अमेरिका का शोध
अमेरिका की वित्‍तीय साख घटने से अगर विज्ञान की प्रगति की रफ्तार थमने लगे तो समझिये कि बात कितनी दूर तक गई है। अमेरिका में खर्च कटौती की मुहिम नए शोध के कदम रोकने वाली है। नई दवाओं, कंप्‍यूटरों, तकनीकों, आविष्‍कारों और प्रणालियों के जरिये अमेरिकी शोध ने पिछली एक सदी की ग्रोथ का नेतृत्‍व किया था। उस शोध के लिए अब अमेरिका का हाथ तंग है।  बेसिक रिसर्च से लेकर रक्षा, नासा, दवा, चिकित्‍सा, ऊर्जा सभी में अनुसंधान पर खर्च घट रहा है। यकीनन अमेरिका अपने भविष्‍य को खा रहा (एक सीनेटर की टिप्‍पणी) है। क्‍यों कि अमेरिका का एक तिहाई शोध सरकारी खर्च पर निर्भर है। हमें अब पता चलेगा कि 1.5 ट्रिलियन डॉलर का अमेरिकी घाटा क्‍या क्‍या कर सकता है। वह तो अंतरिक्ष दूरबीन की नई पीढ़ी (जेम्‍स बेब टेलीस्‍कोप- हबल दूरबीन का अगला चरण) का जन्‍म भी रोक सकता है।
2.यूरोप का वेलफेयर स्‍टेट
इटली की लेबर मिनिस्‍टर एल्‍सा फोरनेरो, रिटायरमेंट की आयु बढ़ाने की घोषणा करते हुए रो पड़ीं। यूरोप पर विपत्ति उस वक्‍त आई, जब यहां एक बड़ी आबादी अब जीवन की सांझ ( बुजुर्गों की बड़ी संख्‍या ) में  है। पेंशन, मुफ्त इलाज, सामाजिक सुरक्षा, तरह तरह के भत्‍तों पर जीडीपी का 33 फीसदी तक खर्च करने वाला यूरोप उदार और फिक्रमंद सरकारों का आदर्श था मगर