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Wednesday, February 24, 2016

तीस बनाम सत्तर




थ्री स्पीड इकोनॉमी एक अजीब तरह की विकलांगता है जिसे संभालने के लिए सूक्ष्म उपायों की जरूरत है.

स्सी के दशक वाली रीगनॉमिक्स के पुरोधा और ट्रिकल डाउन थ्योरी के प्रवर्तक आज के भारत में आ जाएं तो उन्हें शायद एक नई थ्योरी की ईजाद करनी होगी जिसे ट्रिकल अप थ्योरी कहेंगे. ट्रिकल डाउन थ्योरी वाले कहते थे कि समाज के ऊपरी तबके यानी उद्योग-कारोबार को रियायतें देकर मांग बढ़ाई जा सकती है जो निचले तबके तक रोजगार व कमाई पहुंचाएगी. लेकिन इस सिद्धांत के पुरोधाओं को आज के भारत में यह साबित करने में कतई दिक्कत नहीं होगी कि कभी-कभी किसी देश की इकोनॉमी में ग्रोथ ऊपर से नीचे नहीं बल्कि नीचे से ऊपर चल देती है, जहां एक विशाल अर्थव्यवस्था की ग्रोथ इसके सबसे बड़े हिस्सों को छोड़कर मुट्ठी भर धंधों में सिमट जाती है भारतीय अर्थव्यवस्था अब एक थ्री स्पीड इकोनॉमी है, जिसमें तेज ग्रोथ अर्थव्यवस्था के ऊपरी 30 फीसदी हिस्से में रह गई है, जहां ई- कॉमर्स, ट्रैवेल, स्टॉक मार्केट आदि है. उद्योगों वाला दूसरा 30 फीसदी हिस्सा इकाई की ग्रोथ में है और खेती, भवन निर्माण आदि का तीसरा हिस्सा तो पूरी तरह नकारात्मक ग्रोथ में है. यह परिदृश्य देश में पहली बार देखा गया है. जो एक जगह ग्रोथ बनाए रखने, दूसरी जगह बढ़ाने और तीसरी जगह ग्रोथ वापस लाने की बेहद पेचीदा चुनौती लेकर पेश हुआ है. इस चुनौती की रोशनी में 2016 का बजट बड़ा संवेदनशील हो जाता है.
तीन अलग-अलग रफ्तारों वाली अर्थव्यवस्था के इस माहौल को समझना जरूरी है क्योंकि इस परिदृश्य पर अगले एक-दो साल की ग्रोथ, निवेश और रोजगारों का बड़ा दारोमदार है. मुंबई की रिसर्च फर्म एम्बिट कैपिटल का ताजा अध्ययन थ्री स्पीड इकोनॉमी को गहराई से समझने में हमारी मदद करता है. यह अध्ययन जीडीपी में योगदान करने वाले विभिन्न हिस्सों के ग्रोथ के आंकड़ों पर आधारित है. अर्थव्यवस्था में सबसे तेज दौडऩे वाले तीन क्षेत्रों में तेज रफ्तार वाला पहला हिस्सा वह है जिसमें परिवहन (खास तौर पर एविऐशन), होटल, कॉमर्शियल प्रॉपर्टी, ई-कॉमर्स और कारोबारी सेवाएं आती हैं. दो अंकों की गति से दौड़ रहे इस क्षेत्र का जीडीपी में 30 फीसदी हिस्सा है. गौर तलब है कि भले ही भवन निर्माण उद्योग में मंदी हो लेकिन कॉमर्शियल प्रॉपर्टी बिक रही है. ठीक इसी तरह उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार में मंदी के बावजूद ई-कॉमर्स में सक्रियता है. इस तेज दौडऩे वाली अर्थव्यवस्था में वेंचर कैपिटल और पीई फंड के जरिए निवेश आया है. इसके अलावा ऊंची आय वाले निवेशक भी इसमें सक्रिय हैं. इस हिस्से में जल्दी मंदी की उम्मीद भी नहीं है.
मझोली गति वाला दूसरा हिस्सा भी जीडीपी में 30 फीसदी का हिस्सेदार है. एम्बिट का अध्ययन बताता है कि इसमें वाणिज्यिक वाहन यानी ऑटोमोबाइल, मैन्युफैक्टरिंग, आवासीय भवन निर्माण और खनन क्षेत्र आते हैं. इस क्षेत्र में इकाई की गति से मरियल ग्रोथ दर्ज हो रही है. यहां कर्ज में दबी कंपनियां बैलेंसशीट रिसेसशन से जूझ रही हैं, जिसमें कर्ज के कारण नया कॉर्पोरेट निवेश नहीं हो पाता. इसलिए मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के कुछ हिस्सों में मामूली ग्रोथ दिखती है. जैसे पिछली दो तिमाहियों में बंदरगाह परिवहन और रेलवे माल भाड़े की ढुलाई में स्थिरता है जबकि कोयला व बिजली में गिरावट दर्ज की गई है.
शून्य या नकारात्मक ग्रोथ वाला तीसरा हिस्सा खेती, समग्र भवन व इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण, प्रशासनिक सेवाएं व बैंकिंग है. इन सबका जीडीपी में हिस्सा 40 फीसदी है. सरकारी खर्च, सीमेंट, स्टील आदि की मांग व उत्पादन और आय व रोजगारों में वृद्धि के आंकड़े साबित करते हैं कि इन चार क्षेत्रों में हालत सबसे बुरी है. तीन फसलों की बर्बादी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में संकट के चलते ग्रामीण मजदूरी की वृद्धि दर 2013-15 के 13.7 फीसदी से घटकर अब -5.5 फीसदी पर आ गई है. बैंकों की हालत बुरी है, मुनाफे गोता खा रहे हैं और कर्ज की मांग पूरी तरह खत्म हो चुकी है. दूसरी तरफ सरकारी खर्च में कटौती के कारण बुनियादी ढांचा निवेश न बढऩे से सीमेंट स्टील की मांग नहीं बढ़ी है. गैर बिके मकानों की भीड़ और प्रॉपर्टी मूल्यों में तेज गिरावट बताती है कि रियल एस्टेट में निवेश का बुलबुला फूट गया है. 
थ्री स्पीड इकोनॉमी ने गवर्नेंस और नीतिगत स्तर पर दो तरह की असंगतियां पैदा की हैं. इसने सरकार को भ्रमित कर दिया है. पिछले दो बजट इसी असमंजस में बीत गए कि दौड़ते को और दौड़ाया जाए, फिर उसके सहारे मंदी दूर की जाए या फिर असली मंदी से सीधे मुठभेड़ की जाए. दूसरी असंगति यह है कि जीडीपी के 30 फीसदी हिस्से में चमक और 70 फीसदी में सुस्ती के कारण अर्थव्यवस्था की सूरते-हाल को बताने वाले आंकड़ों को लेकर गहरी ऊहापोह है.
थ्री स्पीड इकोनॉमी की सबसे व्यावहारिक मुश्किल यह है कि अर्थव्यवस्था के जिस 70 फीसदी हिस्से में सुस्ती या गहरी मंदी छाई है उसमें खेती, भवन निर्माण और मैन्युफैक्चरिंग आते हैं जो रोजगारों का सबसे बड़े स्रोत हैं. सिर्फ 30 फीसदी अर्थव्यवस्था की चमक 'सूट-बूट की सरकार' जैसी राजनैतिक बहसों को ताकत दे रही और आर्थिक गवर्नेंस को दकियानूसी सब्सिडीवाद की तरफ धकेल रही है जो और बड़ी समस्या है.
इस तीन रफ्तार वाली अर्थव्यवस्था के बाद हमें जीडीपी को खेती, उद्योग, सेवा क्षेत्रों में बांटकर देखना बंद करना चाहिए और उन मिलियन इकोनॉमीज को देखना होगा जो इन तीन बड़े हिस्सों में भीतर छिपी हैं और मंदी, ग्रोथ व रोजगार में नायक व प्रतिनायक की भूमिका निभा रही हैं.
थ्री स्पीड इकोनॉमी एक अजीब तरह की विकलांगता है जिसे संभालने के लिए सूक्ष्म उपायों की जरूरत है. यकीनन इस तरह की आर्थिक चुनौतियों के इलाज एकमुश्त बजटीय रामबाण में नहीं बल्कि छोटे-छोटे उपायों में छिपे हैं जो सरकार से मैक्रो मैनेजमेंट छोड़कर विशेषज्ञों की तरह क्षेत्र विशेष के इलाज की अपेक्षा रखते हैं. अरुण जेटली, हाल के इतिहास में पहले वित्त मंत्री होंगे जो इस तरह की पेचीदा ग्रोथ गणित से मुकाबिल हैं. इस समस्या के समाधान से पहले उन्हें 2016 के बजट में यह साबित करना होगा कि सरकार समस्या को समझ भी पा रही है या नहीं. चलिए, बजट का इंतजार करते हैं.