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Sunday, December 23, 2018

माफी की सजा



गर कांग्रेस को यह लगता है कि वह मध्य प्रदेश में किसान कर्ज माफी के वादे पर जीती है तो फिर यह करिश्मा राजस्थान में क्यों नहीं हुआ, जहां इस फरवरी में 8,500 करोड़ रु. के कर्ज माफ करने का ऐलान किया गया था !

अगर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस कर्ज माफी के वादे पर जीती तो इसी पर कर्नाटक में भाजपा को बहुमत क्यों नहीं मिला. उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार ने कर्ज माफी की थी फिर भी लोगों को भरोसा नहीं हुआ !

कर्नाटक में कांग्रेस ने 2017 में सहकारी बैंकों के 8,500 करोड़ रु. के कर्ज माफ किए थे. लेकिन राज्य के लोग जद (एस) के कर्ज माफी वादे पर भी पूरी तरह बिछ नहीं गए.

बस एक बड़ी चुनावी हार या किस्मत से मिली एक जीत के असर से राजनीति बदहवास हो जाती है. देश में पिछले साल दिसंबर से अब तक सात राज्यों (पंजाब और महाराष्ट्र-जून 2017, उत्तर प्रदेश-अप्रैल 2017, राजस्थान-फरवरी 2018, कर्नाटक-जुलाई 2018, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश-दिसंबर 2018) में 1,72,146 करोड़ रु. किसान कर्ज माफ करने का ऐलान हुआ.

क्या इनसे चुनावों के नतीजे बदले?

क्या भाजपा और कांग्रेस की सरकारों की कर्ज माफी बाद में हुए चुनावों में उनके काम आई?

किसानों के कर्ज भारतीय राजनीति की सर्वदलीय ग्रंथि बन गए हैं. कर्ज माफी जरूरतमंद किसानों तक नहीं पहुंचती, इसे जानने के लिए वैज्ञानिक होने की जरूरत नहीं है लेकिन इससे वित्तीय तंत्र में बन रहे दुष्चक्र बताते हैं कि सियासत किस हद तक गैर-जिम्मेदार हो चली है.
·       मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में किसान कर्ज माफी के बाद अब देश अधिकांश कृषि आधारित राज्य इस होड़ की चपेट में हैं. बिहार, बंगाल और कुछ अन्य राज्यों में इसे दोहराया जाएगा. मध्य प्रदेश और राजस्थान की कर्ज माफी बैंकों व सरकार के लिए दर्दनाक होने वाली है. बकौल रिजर्व बैंक, मध्य प्रदेश में कुल बैंक कर्ज में खेती के लिए मिलने वाले कर्ज का हिस्सा  29 फीसदी और राजस्थान में 35 फीसदी है. जो अन्य राज्यों की तुलना में काफी ऊंचा है. मध्य प्रदेश में खेती में फंसे हुए कर्ज 11 फीसदी हैं. यह स्तर राष्ट्रीय औसत से काफी ऊंचा है.

·       लोन माफी पर दस्तखत करते हुए मध्य प्रदेश के मुख्‍यमंत्री ने यह भी नहीं बताया कि 35,000 करोड़ रु. का यह बिल कौन भरेगा? कर्नाटक के कुल बैंक कर्ज में खेती के कर्ज 15 फीसदी है. इनकी माफी का आधा बोझ बैंकों और आधा राज्य के बजट पर होगा. यह फॉर्मूला अभी तक बन नहीं पाया है इसलिए कर्ज माफी लागू करने में देरी हो रही है.

·       उत्तर प्रदेश (36,359 करोड़ रु.) और महाराष्ट्र  (34,022 करोड़ रु.) ने पूरी कर्ज माफी बजट पर ले ली. महाराष्ट्र को खर्च चलाने के लिए शिरडी मंदिर से कर्ज लेना पड़ा और उत्तर प्रदेश को पूंजी खर्च (निर्माण व विकास) खर्च में 33 फीसदी की कटौती करनी पड़ी. कर्ज माफी करने वाले सभी राज्यों की रेटिंग गिरी है यानी उन्हें महंगे कर्ज लेने होंगे.

·       बार बार कर्ज माफी के कारण सरकारी बैंक किसानों को कर्ज देने में हिचकते हैं. कृषि कर्ज में स्टेट बैंक का हिस्सा काफी तेजी से गिरा है जबकि निजी बैंक ज्यादा बड़ा हिस्सा ले रहे हैं, जिनसे कर्ज माफ कराना मुश्किल है. कर्नाटक में माइक्रोफाइनेंस कंपनियों को नोटबंदी व कर्ज माफी के बाद गहरी चोट लगी.

·       क्या हमारे राजनेता जानना चाहेंगे कि भारत के बैंक खेती को छूने से डरने लगे हैं? 2007 से 2017 के बीच खेती को कर्ज की वृद्धि दर 33 फीसदी से घटकर 8.2 फीसदी पर आ गई. आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में पिछले तीन साल में कर्ज माफी के बाद खेती को कर्ज की आपूर्ति बुरी तरह गिरी है.

बात कर्ज माफी से आगे बढ़कर बिजली बिल माफी तक पहुंच गई है. कल होम लोन माफ करने की भी राजनीति होगी.

अंतत: हम उस तरफ बढ़ रहे हैं जहां या तो किसानों को कर्ज मिलना मुश्किल हो जाएगा या फिर कर्ज माफी के बाद हर तरह का टैक्स बढ़ेगा या विकास सिकुड़ जाएगा.

अगर भारत के राज्य कोई कंपनी होते जो कमलनाथ, वसुंधरा राजे या योगी आदित्यनाथ के अपने पैसे से बनी होती तो क्या असर और फायदे जाने बगैर वे कर्ज माफी के दांव लगाते रहते? यह पूरा ड्रामा करदाताओं या जमाकर्ताओं के पैसे पर होता है और हमें  बार-बार छला जाता है. कर्ज माफ हो रहा है, अब कीमत चुकाने को तैयार रहिए.

Monday, May 28, 2018

... मुक्त भारत !

 
एच.डी. कुमारस्वामी की ताजपोशी के लिए बेंगलूरू में जुटे क्षत्रपों को यह समझने में लंबा वक्त लगा कि युद्ध प्रत्यक्ष शत्रु से लड़े जाते हैंसियासत तोदरअसलकिसी को निशाना बनाकर किसी को निबटा देने की कला है.

कर्नाटक तक देश की सियासत इसी कला का अनोखा विस्तार थी. इसलिए यह बात साफ होने में देर लगी कि कौन खतरे में है और किसे डराया जा रहा थारणनीति के मोहरों पर छाई धुंध अब छंटने लगी है. पाले ख‌िंच रहे हैं. भारतीय राजनीति की वास्तविक जंग का बिगुल बेंगलूरू में बजा है.

शाह-मोदी की फौज पिछले चार साल से कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की मुहिम में मुब्तिला है मानो मरी और लद्धड़ कांग्रेस कभी भी ड्रैगन की तरह जग उठेगी और भाजपा की भीमकाय चुनावी फौज को पलक झपकते निगल जाएगी. हकीकतन, 2014 के बाद भाजपा ने खुद ही कांग्रेस के प्रतिनायकत्व को महिमामंडित कियानहीं तो वोटर इस बुजुर्ग पार्टी को कभी का 10, जनपथ में समेट चुके थे.

नेता और रणनीतिदोनों में बौनी हो चुकी कांग्रेसभाजपा के चुनावी और राजनैतिक लक्ष्यों में बाधा नहीं बल्कि सुविधा है. यह कांग्रेस ही तो है जो अध्यक्षीय तौर-तरीके वाले दो दलीय काल्पनिक भाजपाई लोकतंत्र में एक फंतासी दुश्मन की भूमिका निभा सकती है. भाजपा को खतरा तो असंख्य क्षेत्रीय ताकतों व पहचानों से हैकांग्रेस की ओट में जिन्हें समेटने की कोशिश चल रही थी. यही पैंतरा अब नुमायां हो चला है.

शत्रुताओं का अध्ययनव्यक्त‌िगत और सामूहिक शास्त्रीय मनोविज्ञान का प्रिय शगल है. किसी बम या बंदूक को बनाने से पहले उससे मरने वाले शत्रु की संकल्पना करनी होती है. यह अवधारणा आजकल प्रेरक मनोविज्ञान का हिस्सा भी है. यानी एक ऐसी ताकत की कल्पना जो हमेशा हमारे खिलाफ साजिश में लगी है और जिसे लगातार धूल चटाते रहना सफलता के लिए जरूरी है.

भाजपा ने सत्ता में आने के बाद दो काल्पनिक शत्रु गढ़ेएक था वामपंथ जो पहले ही ढूंढो तो जाने की स्थिति में पहुंच चुका था और दूसरा था कांग्रेस मुक्त भारत.

वैसेभारत को कांग्रेस से मुक्त करने का बीड़ा उठाने की कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि यह काम काफी हद तक कांग्रेस ने खुद ही कर लिया था. 2004 के आम चुनाव के बाद से 2014 तक कांग्रेस ने करीब 60 चुनाव हारे (2009 के बाद सर्वाधिक तेज रफ्तार से) और 29 चुनाव जीते. 2009 की लोकसभा जीत और 2014 की भव्य हार इनके अलावा है.

हार के आंकड़ों में कई बड़े राज्य (उत्तर प्रदेशबिहारपश्चिम बंगालतमिलनाडुगुजरातमध्य प्रदेशओडिशा) भी हैंजहां की नई पीढ़ी को गूगल से पूछना होगा कि आखिरी बार कांग्रेस ने वहां कब राज किया था.

2014 के बाद भाजपा को जो कांग्रेस मिली थीवह तो ठीक से विपक्ष होने के बोझ से भी मुक्त हो चुकी थी. 

दुश्मनों का खौफसेनाओं के प्रेरक मनोविज्ञान का हिस्सा होता है फिर चाहे वह जंग चुनावी ही क्यों न हो. अलबत्ता कांग्रेस को उसकी हैसियत से बड़ा प्रतिद्वंद्वी बनाने में भाजपा का सिर्फ यही मकसद नहीं था कि उसकी सेना हमेशा कांग्रेस के खिलाफ युद्ध के ढोल-दमामे बजाती रहे बल्कि इससे कहीं ज्यादा बड़ा मकसद उन क्षेत्रीय दलों को डराना या सिमटाना है जो उसके वास्तविक शत्रु हैं और जिन पर सीधा आक्रमण भविष्य की जरूरतों (गठबंधन) के हिसाब से मुफीद नहीं है.

अखिल भारतीय भाजपा बनाम क्षेत्रीय दलों का यह मुकाबलाअखिल भारतीय कांग्रेस बनाम क्षेत्रीय दल जैसा हरगिज नहीं है. भाजपा जिस एकरंगी राजनैतिक राष्ट्रवाद की साधना में लगी हैउसमें सबसे बड़े विघ्नकर्ता क्षेत्रीय दल हैं जो उप राष्ट्रवादी पहचानों की सियासत पर जिंदा हैं.

भाजपा के सांस्कृतिक धार्मिक राष्ट्रवाद में भी यही दल कांटा हैं जो जातीय अस्मिताओं को चमकाकर हर चुनाव को हिंदू बनाम हिंदू बना देते हैं. ध्यान रहे कि भाजपा को कर्नाटक में कांग्रेस ने नहींजनता दल (एस) ने रोका. बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमारबंगाल में ममता बनर्जीओडिशा में नवीन पटनायक उसकी राह में खड़े हो गए.

कर्नाटक में पिटी कांग्रेस को, अतीत के बोदे अहंकार पर फूलने के बजाय 1995-96 की भाजपा बनना होगा. जब भाजपा क्षेत्रीय पहचानों की छाया में गैर कांग्रेसवाद का फॉर्मूला सिंझा रही थी.

क्षत्रपों को सड़क की धूप और धूल से मिलना होगा क्योंकि भाजपा बड़ी और बहुत बड़ी हो चुकी है और उसकी कांग्रेस मुक्त भारत मुहिम का निशाना राहुल गांधी नहीं बल्कि उन सभी क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व है जिनके नेता कुमारस्वामी के सिर पर ताज रखने के लिए बेंगलूरू आए थे.




Sunday, May 13, 2018

दूसरी लहर


कुछ लड़ाइयां युद्ध बंद होने के बाद शुरू होती हैं. यूं कह लें कि कुछ सफलताएं चुनौतियों की शुरुआत होती हैं जैसे कर्नाटक को ही लें. यकीननकर्नाटक ऊंटों के लिए मशहूर नहीं है लेकिन चुनावी ऊंट तो कहीं भी करवट ले सकते हैं. इसलिए अगर... 
·       लोगों ने कर्नाटक में कांग्रेस को पलट दिया तो क्या गारंटी कि लोग मध्य प्रदेशराजस्थानछत्तीसगढ़ में भाजपा को नहीं पलटेंगे. अगर लोग सरकारें बदलना चाहते हैं तो कहीं भी बदलेंगे. गुजरात में गोली कान के पास से निकल गई.
·      और अगर कांग्रेस बनी रह गई तो पता नहीं कौन-कौन-सी लहरों को कर्नाटक के तट पर सिर पटक कर खत्म हुआ मानना होगा क्योंकि अन्य चुनावों की तरह कर्नाटक का चुनाव प्रधानमंत्री मोदी ही लड़ रहे हैं.

कर्नाटक के बाद नरेंद्र मोदी-अमित शाह की चक्रवर्ती भाजपा उसी चुनौती से रू-ब-रू होने वाली है जिसकी मदद से भाजपा ने सिर्फ पांच साल में भारत के वृहद भूगोल को कमल-कांति से जगमगा दिया. भारत में 2013 से लोगों पर सरकार बदलने का जुनून तारी है. अपवाद नियम नहीं होते इसलिए बिहारगुजरातबंगाल और दिल्ली के जनादेश अस्वाभाविक माने जाते हैं. इनके अलावापिछले पांच साल में केंद्र से लेकर राज्यों और यहां तक कि पंचायत नगरपालिकाओं तक हर जगह लोगों ने सरकारें पलट दीं.

भाजपा ने इस जुनून पर सवारी की और राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों को रौंदते हुए वह कर्नाटक के मोर्चे पर आ डटी. अलबत्ता सरकारें पलटने वाले इस ताजा सफर का टिकटकर्नाटक में खत्म हो जाएगा क्योंकि पूरे देश में पिछले पांच साल से चल रही सत्ता विरोधी लहर का आखिरी पड़ाव है कर्नाटक.

मोदी-शाह की जोड़ी ने सरकारों को पलटने की चाह को इतना उग्र और घनीभूत कर दिया कि देश में चुनाव लडऩे का तौर-तरीका बदल गया. लेकिन अब उन्हें सरकार पलटने की दूसरी लहर से आए दिन और जगह-जगह निबटना होगा जो सीधे उनसे मुकाबिल होगी. 

सूबेदारों की बदली

बीते महीने कर्नाटक में चुनावी आतिशबाजी के बीचदिल्ली के बंद कमरों में सत्ता विरोधी लहर को थामने की कोशिश शुरू की गई. राजस्थान के मोर्चे पर सेनापति बदलने की तैयारी है. मुख्यमंत्री को रुखसत करने के शुरुआती प्रयास परवान नहीं चढ़े तो पार्टी अध्यक्ष अपने पद से हट गए. मुख्यमंत्रियों को बदलना यानी चुनाव से पहले नया चेहरा देनासरकारों के खिलाफ विरोध के तेवर कम करने का पुराना तरीका है. गुजरात में इसे आजमाया गया था.

सरकार से गुस्से की लहर में राज्य पहला निशाना होंगे. राज्य सरकारों की नाकामी केंद्र के खाते में भी जुड़ेगी. मुखिया बदल कर गुस्सा थामा जा सकता है लेकिन बदले गए मुखिया नुक्सान नहीं करेंगेइसकी कोई गारंटी नहीं है. 

नुमाइंदों से चिढ़
भाजपा के आलाकमान को अपने नुमाइंदों (सांसदों) से बढ़ती नाराजगी का एहसास गुजरात चुनाव के पहले ही हो गया था. पार्टी को सरकारी कार्यक्रमों के जमीनी क्रियान्वयन की हकीकत पता चल रही है. असंख्य सांसद व विधायक उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं. सत्ता विरोधी लहर काटने के लिए नए चेहरे चुनाव में उतारे जाते हैं. भाजपा को यह काम बड़े पैमाने पर करना होगा ताकि स्थानीय मोहभंग को कम किया जा सके. लेकिन यह बदलाव निरापद नहीं होगा. विरोध और भितरघात इसके साथ चलते हैं.

परिवर्तन का चक्र 
नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे पिछले चार साल में यथास्थिति के प्रति समग्र इनकार का प्रतीक बनकर उभरे हैं. 2014 के जनादेश के बाद पूरे देश में सत्ता विरोधी मत और परिवर्तन के तेवर उन्हें देखकर परवान चढ़े हैं. यह सरकारों को पलटने का जुनून ही था जिसने भाजपा को सफलता से सराबोर कर दिया. लेकिन चुनाव तो पांच साल पर होने ही हैं. गुजरात में भाजपा को पहली बार एहसास हुआ कि सरकार के खिलाफ लहर का रुख बदल सकता है और उत्तर प्रदेश में गोरखपुर व फूलपुर तक आते-आते यह रुख बदल भी गया.

बेचैन मतदाता परिपक्व होते लोकतंत्र की पहचान हैं. शिक्षा और सूचना जितना बढ़ती हैसरकारों से मोहभंग उतने ही प्रखर होते जाते हैं. प्रचार वीर सरकारें ज्यादा सशक्‍त  मोहभंग आमंत्रित करती हैं.



कर्नाटक के चुनाव का नतीजा चाहे जो निकले लेकिन इसके बाद सत्ता विरोधी जुनून का ग्रह गोचर बदलेगा. कर्नाटक के बाद भाजपा की जद्दोजहद (अपवादों के अलावा)सरकारें पलटने के जुनून को थामने की होगी. केवल 2019 का बड़ा चुनाव ही नहीं बल्कि 2022 तक हर प्रमुख चुनाव में भाजपा को बार-बार यह हिसाब देना होगा कि उसे ही दोबारा क्यों चुना जाए?