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Monday, July 23, 2018

झूठ के बुरे दिन



ट्विटर रोज दस लाख फर्जी अकाउंट खत्‍म कर रहा है और कंपनी का शेयर गिर रहा है.

व्‍हाट्सऐप अब हर मैसेज पर प्रचार और विचार का फर्क (फॉरवर्ड फंक्‍शन) बताता है और इस्तेमाल में कमी का नुक्सान उठाने को तैयार है.

रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से फेसबुक रूस से भारत तक विवादित और झूठ से सराबोर सामग्री खत्‍म करने में लगी है. इससे कंपनी की कमाई में कमी होगी.

यह सब मुनाफों को दांव पर लगा रहे हैं ताकि झूठे होने का कलंक न लगे.

क्‍यों?

जवाब नीत्शे के पास है जो कहते थे''मैं इससे परेशान नहीं हूं कि तुमने मुझसे झूठ बोला. मेरी दिक्‍कत यह है कि अब मैं तुम पर भरोसा नहीं कर सकता.''

नीत्‍शे का कथन बाजार पर सौ फीसदी लागू होता है और सियासत पर एक फीसदी भी नहीं.

नीत्‍शे से लेकर आज तक सच-झूठ काजो निजी और सामूहिक मनोविज्ञान विकसित हुआ है उसके तहत झूठ ही सियासत की पहचान हैं. लेकिन झूठे बाजार पर कोई भरोसा नहीं करता. बाजार को तपे हुए खरे विश्‍वास पर चलना होता है.

फेसबुकव्‍हाट्सऐपट्विटर यानी सोशल नेटवर्कों की बधाई बजने से पहले पूरी दुनिया में लोग इस हकीकत से वाकिफ थे कि सियासत महाठगिनी है. वह विचारप्रचारव्‍यवहारभावना में लपेट कर झूठ ही भेजेगी लेकिन बाजार को हमेशा यह पता रहना चाहिए कि झूठ का कारोबार नहीं हो सकता है. लोगों को बार-बार ठगना नामुमकिन है.

कंपनियां अपने उत्‍पाद वापस लेती हैंमाफी मांगती हैंमुकदमे झेलती हैंसजा भोगती हैंयहां तक कि बाजार से भगा दी जाती हैं क्‍योंकि लोग झूठ में निवेश नहीं करते. उधरसियासत हमेशा ही बड़े और खतरनाक झूठ बोलती रही हैजिन्‍हें अनिवार्य बुराइयों की तरह बर्दाश्‍त किया जाता है.

झूठ हमेशा से था लेकिन अचानक तकनीक कंपनियां राशन-पानी लेकर झूठ से लडऩे क्‍यों निकल पड़ी हैंइसलिए क्‍योंकि राजनीति का चिरंतन झूठ एक नए बाजार पर विश्‍वास के लिए खतरा है.

सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्‍ठ अभिव्‍यक्ति हैं. तकनीक की ताकत से लैस यह लोकशाही नब्‍बे के दशक में आर्थिक आजादी और ग्‍लोबल आवाजाही के साथ उभरी. दोतरफा संवाद बोलने की आजादी का चरम पर है जो इन नेटवर्कों के जरिए हासिल हो गई.

बेधड़क सवाल-जवाबइनकार-इकरारसमूह में सोचने की स्‍वाधीनताऔर सबसे जुडऩे का रास्‍ता यानी कि अभिव्‍यक्ति का बिंदास लोकतंत्र! यही तो है फेसबुकट्विटरव्‍हाट्सऐप का बिजनेस मॉडल. इसी के जरिए सोशल नेटवर्क और मैसेजिंग ऐप अरबों का कारोबार करने लगे.

सियासत के झूठ की घुसपैठ ने इस कारोबार पर विश्‍वास को हिला दिया है. अगर यह नेटवर्ककुटिल नेताओं से लोगों की आजादी नहीं बचा सके तो इनके पास आएगा कौन?

झूठ से लड़ाई में सोशल नेटवर्क को शुरुआती तौर पर कारोबारी नुक्सान होगा. इन्हें न केवल तकनीकअल्‍गोरिद्म (कंप्‍यूटर का दिमाग) बदलनेझूठ तलाशने वाले रोबोट बनाने में भारी निवेश करना पड़ रहा है बल्कि विज्ञापन आकर्षित करने के तरीके भी बदलने होंगे. सोशल नेटवर्कों पर विज्ञापनप्रयोगकर्ताओं की रुचिव्‍यवहारराजनैतिक झुकावआदतों पर आधारित होते हैं. इससे झूठ के प्रसार को ताकत मिलती है. इसमें बदलाव से कंपनियों की कमाई घटेगी.

फिर भीकोई अचरज नहीं कि खुद पर विश्‍वास को बनाए रखने के लिए सोशल नेटवर्क राजनैतिक विज्ञापनों को सीमित या बंद कर दें. अथवा राजनैतिक विचारों के लिए नेटवर्क के इस्‍तेमाल पर पाबंदी लगा दी जाए

सियासत जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. अभिव्‍यक्ति के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है इसलिए यह अपनी पूरी शक्ति के सा‍थ अपने राजनैतिक इस्‍तेमाल के खिलाफ खड़ा हो रहा है.

तकनीक बुनियादी रूप से मूल्‍य निरपेक्ष (वैल्‍यू न्‍यूट्रल) है. लेकिन रसायन और परमाणु तकनीकों के इस्‍तेमाल के नियम तय किए गए ताकि कोई सिरफिरा नेता इन्‍हें लोगों पर इस्‍तेमाल न कर ले. सोशल नेटवर्किंग अगली ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार खुद इसके इस्‍तेमाल के नियम तय करेगा.

बाजार सियासत के झूठ को चुनौती देने वाला है!

राजनीति के लिए यह बुरी खबर है.

सियासत के लिए बुरी खबरें ही आजादी के लिए अच्‍छी होती हैं.



Sunday, October 29, 2017

याद हो के न याद हो


राजनेताओं की सबसे बड़ी सुविधा खत्म हो रही है. लोगों की सामूहिक विस्मृति का इलाज जो मिल गया है.

जॉर्ज ऑरवेल (1984) ने लिखा था कि अतीत मिट गया है, मिटाने वाली रबड़ (इरेजर) खो गई है, झूठ ही अब सच है. ऑरवेल के बाद दुनिया बहुत तेजी से बदली. अतीत मिटा नहीं, रबड़ खोई नहीं, झूठ को सच मानने की उम्र लंबी नहीं रही.

लोगों की कमजोर याददाश्त ही नेताओं की सबसे बड़ी नेमत है. लोगों का सामूहिक तौर पर याद करना और भूलना दशकों तक नेताओं के इशारे पर होता था लेकिन अब बाजी पलटने लगी है. अचरज नहीं कि अगले कुछ वर्षों में इंटरनेट राजनीति का सबसे बड़ा दुश्मन बन जाए. सरकारें सोशल मीडिया सहित इंटरनेट के पूरे परिवार से बुरी तरह खफा होने लगी हैं.

इंटरनेट लोगों का सामूहिक अवचेतन है. यह न केवल करोड़ों लागों की साझी याददाश्त है बल्कि इसकी ताकत पर लोग समूह में सोचने व बोलने लगे हैं.

तकनीकें आम लोगों के लिए बदली हैं, राजनीति के तौर-तरीके तो पुराने ही हैं. झूठ और बड़बोलापन तो जस के तस हैं. दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा और धुंधली हो गई है.

राजनेता चाहते हैं:
·       लोग उन्हें समूह में सुनें लेकिन अकेले में सोचें.

·       अगर समूह में सोचें तो सवाल न करें.

·       अगर सवाल हों तो उन्हें दूसरे समूहों से साझा न करें. 

·       सवाल अगर सामूहिक भी हों तो वे केवल इतिहास से पूछे जाएं, वर्तमान को केवल धन्य भाव से सुना जाए.

दकियानूसी राजनीति और बदले हुए समाज का रिश्ता बड़ा रोमांचक हो चला है. इस चपल, बातूनी, बहसबाज और खोजी समाज पर कभी-कभी नेताओं को बहुत दुलार आता है लेकिन तब क्या होता है जब यही समाज पलट कर नेताओं के पीछे दौड़ पड़ता है. लोगों की सामूहिक डिजिटल याददाश्त अब राजनीति के लिए सुविधा नहीं बल्कि समस्या है.

अकेलों के समूह
राजनैतिक रैलियां अप्रासंगिक हो चली हैं. भारी लाव-लश्कर, खरीद या खदेड़ कर रैलियों में लाए गए लोग जिनमें समर्थकों या विरोधियों की पहचान भी मुश्किल है. तकनीक कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से नेताओं को उनके जिंदाबादियों से जोड़ सकती है. इसके बाद भी रैलियां पूरी दुनिया में होती हैं.

नेता चुपचाप बैठी भीड़ से खि‍ताब करना चाहते हैं. यही उनकी ताकत का पैमाना है. रैली राजनीति के डिजाइन के अनुसार लोगों को सिर्फ सुनना चाहिए. लेकिन अब लोग सुनते ही नहीं, समूह या नेटवर्क में सोचते भी हैं. वे अपनी साझी याददाश्त से किस्म-किस्म के तथ्य निकाल कर सवालों के जुलूस को लंबा करते चले जाते हैं.

आंकड़े बनाम अनुभव
अपनी तरह का पहला, अभी तक का सबसे बड़ा, देश के इतिहास में पहली बारअब, नेताओं के भाषण इनके बिना नहीं होते. पिछली पीढ़ी के राजनेता इतने आंकड़े नहीं उछालते थे. अब तो कच्चे-पक्के, खोखले-पिलपिले आंकड़ों के बिना समां ही नहीं बंधता. शायद इसलिए कि लोग आंकड़े समझने लगे हैं और वे समूह में सोचें तो इनका इस्तेमाल कर सकें.

मुसीबत यह है कि लोगों के अनुभव आंकड़ों से ज्यादा ताकतवर हैं. भोगा हुआ विकास, बतलाए गए विकास पर भारी पड़ता है. इसलिए जब लोगों के निजी और अधिकृत एहसास, सामूहिक चिंतन तंत्र (सोशल नेटवर्क) पर बैठ आगे बढ़ते हैं तो सरकारी आंकड़ों की साख का कचरा बन जाता है.

इतिहास का चुनाव
यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के प्रोफेसर जॉन जे. मियरशीमर, राजनेताओं के झूठ का (पुस्तक: व्हाई लीडर्स लाइ) अध्ययन करते हैं. उनके मुताबिक, इतिहास, राजनैतिक झूठ का सबसे कारगर कारिंदा है. इसके सहारे खुद को महान और अतीत को बुरा बताना आसान है. इतिहास के सहारे एक लक्ष्यनहीन गुस्से को लंबे वक्त तक सिंझाया जा सकता है. इतिहास है तो वर्तमान मुसीबतों पर उठ रहे सवालों के जवाब गुजरे वक्त से मांगे जा सकते हैं.

राजनेता चाहते हैं इतिहास के चयन में उनकी बातें मानी जाएं. अलबत्ता नेता यह भूल जाते हैं कि वे खुद भी तो प्रतिक्षण इतिहास गढ़ रहे हैं. लोग इतिहास अपनी सुविधा से चुनते हैं जिसमें अक्सर नेताओं का ताजा इतिहास सबसे लोकप्रिय पाया जाता है.

राजनीति गहरी मुश्किल में है. लोग नहा-धोकर सियासी झूठ के पीछे पड़े हैं. झूठ पकडऩा अब एक रोमांचक पेशा है. लोगों की उंगलियां प्रति सेकंड की रक्रतार से सवाल उगल रही हैं. लोकतंत्र के लिए इससे अच्छा युग और क्या हो सकता है.

सुनो जिक्र है कई साल का, कोई वादा मुझ से था आप का

वो निभाने का तो जिक्र क्या, तुम्‍हें याद हो के न याद हो

Monday, December 8, 2014

सियासत के झूठे सच

पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी हैतो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. चुनावों की प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ कर चांद-तारे बांटने लगते हैं

विदेश में जमा काला धन वापस लाने के वादे पर मोदी सरकार की किरकिरी को समझने के लिए खोजी पत्रकार होने की जरूरत नहीं है. कोई भी सर्च इंजन, एक क्लिक पर आपके सामने मोदी के चुनावी भाषणों के दर्जनों वीडियो उगल देगा, जो यह बताते हैं कि काले धन पर तब क्या-क्या कहा गया था और अब क्या फरमाया जा रहा है? गूगल की थोड़ी-सी मदद से अब, नेताओं के झूठ, अर्धसत्य व कुछ भी बोल देने के नमूनों का पिटारा खुल जाता है और सियासत कुछ ज्यादा ही खोखली नजर आने लगती है. राजनीति ही इकलौता पेशा है जिसमें झूठ बोलना, वादे करना और मुकर जाना, कानूनी तौर पर मान्य है. इसलिए अगर तकनीक की मदद न आती तो, सियासत के झूठे सचों पर लगाम के बारे में सोचना भी मुश्किल था. तकनीक, शोध और खोजी पत्रकारिता ने, अमेरिका में सियासी भाषणों और बयानों के झूठ उघाड़कर नेताओं को शर्मिंदा करने का अभियान एक दशक पहले ही शुरू कर दिया था. भारत में नेताओं के मनमाने बयानों की तासीर परखने का प्रचलन इसलिए जड़ें नहीं पकड़ पाया क्योंकि इस हमाम में कपड़े न पहनने की रवायत सभी सियासी दलों ने मिलकर बनाई है. लेकिन अब मौका भी है और साधन भी, जिनके जरिए भारत में भी नेताओं के लिए कुछ भी बोल-बताकर बच निकलने के रास्ते बंद किए जाने चाहिए.
‘‘
धोखा देने और झूठ बोलने के मामले में अव्वल कौन है? मोअम्मर गद्दाफी, होस्नी मुबारक, सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाह या जिमी कार्टर, जॉर्ज डब्ल्यू. बुश या बराक ओबामा जैसे लोकतांत्रिक दिग्गज?’’
वाशिंगटन पोस्ट ने यह सवाल, अप्रैल 2011 में एक किताब की समीक्षा में पूछा था. किताब थी व्हाइ लीडर्स लाइ? ट्रूथ अबाउट लाइंग इन इंटरनेशनल पॉलिटिक्स (नेता झूठ क्यों बोलते हैं? अंतरराष्ट्रीय राजनीति में झूठ का सच) शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रो. जॉन जे. मर्शेइमर की यह दिलचस्प और अनोखी पुस्तक मानती है कि गलतबयानी करने में लोकतांत्रिक नेता, तानाशाहों से कहीं आगे हैं. राजनीति और खास तौर पर चुनावी सियासत में कुछ भी कह देना या आसमान के सितारे तोडऩे छाप वादे करना गैर-कानूनी नहीं हैं, इसलिए नेताओं के झूठ सियासत का स्वभाव बन गए हैं. बड़े और प्रभावशाली झूठ के उदाहरण जुटाते हुए मर्शेइमर की किताब यह भी बताती है कि नेताओं के झूठ की एक नहीं, कई किस्में हो सकती हैं. ग्रीस (यूनान) का हाल बताता है कि नेताओं के झूठ कितने महंगे पड़ते हैं. ग्रीस ने यूरोपीय संघ का हिस्सा बनने के लिए अपने बजट घाटों को छिपाया और बाद में पूरा देश ही दिवालिया हो गया. यही वजह है कि जैसे ही बयानों व दस्तावेजों को संजोने और वापस तलाशने की तकनीक हाथ आई, दुनिया के कई देशों में जनता नेताई वचनों का सच जांचने के लिए उतावली हो उठी. पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका में सियासी बयानों की फैक्ट चेकिंग एक अभियान बन गई है. अखबारों से लेकर स्वयंसेवी संस्थाएं तक फैक्ट चेकर और ट्रुथ-ओ-मीटर पर सियासी बयानों की सच्चाई नापती हैं, चुनावी वादों का क्रियान्यावन परखती हैं और भाषणों व वादों को ‘‘सफेद झूठ’’, ‘‘आधा सच’’ और ‘‘सच’’ जैसी रेटिंग देती हैं. अमेरिका में चुनावी विज्ञापनों को रोकने पर मजेदार कानूनी लड़ाई शुरू हो चुकी है. चुनावी बयानबाजी के पैरोकार नेताओं के बड़बोले भाषणों को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ रहे हैं जबकि विरोधी इसे जनता के साथ धोखा मानते हैं.
चुनावों की प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ जाते हैं और चांद-तारे तोड़कर बांटने लगते हैं. भारत की सियासत ने भी गरीबी हटाने व हर हाथ को काम जैसे सपने बांटे हैं, तल्ख, धीमी व कठिन गवर्नेंस ने जिन्हें हमेशा झूठा साबित कर दिया है क्योंकि मौजूदा शहरों का इंतजाम ठीक करते हुए ही स्मार्ट सिटी का प्रयोग हो सकता है, ट्रेनों का सुरक्षित चलना तय करने के साथ बुलेट ट्रेन सोची जा सकती है, कमाई का स्तर बढ़ाकर सबके सिर पर छत का सपना संजोया जा सकता है. फिर भी शुक्र है कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में है जहां लोग लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में भरोसा करते हैं. विज्ञापन एजेंसी एडलमैन का ग्लोबल ट्रस्ट सर्वे इस साल जनवरी में आया था जो बिजनेस, सरकार, मीडिया और स्वयंसेवी संस्थाओं पर, सजग लोगों के भरोसे की पैमाइश करता है. यह सर्वे भारत को उन पांच शीर्ष देशों में रखता है, जो विश्वास से भरपूर हैं, अलबत्ता सरकार पर भरोसा घटने के कारण भारत 2014 में इस रैंकिंग में तीसरे से पांचवें स्थान पर खिसक गया है. सरकार पर विश्वास में यह कमी नेताओं के बड़बोलेपन से उपजी है. चुनाव अभियानों के वादे ढहने से पहले केवल एक निराशा फैलती थी लेकिन अब पढ़ा-लिखा समाज के वादे पूरे न होने के बाद इनके पीछे के षड्यंत्र तलाशता है, ऊबता है और संदेह से भर उठता है. पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी है, तो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. इस झूठ की वजहें खंगालने वाले मर्शेइमर का दिलचस्प निष्कर्ष है कि नेता आपस में एक-दूसरे से उतना झूठ नहीं बोलते जितना कि वे जनता से बोलते हैं. ये झूठ बड़े मिथकों, तरह-तरह के वादों (लिबरल लाइज) और खौफ फैलाने के तरीकों में लपेटे जाते हैं और चुनावों में इनका भरपूर इस्तेमाल होता है. भारत का ताजा लोकसभा चुनाव भी इससे अलग नहीं था. यह चुनाव वादों, घोषणाओं और अपेक्षाओं का सबसे मुखर उत्सव तो था ही लेकिन किस्मत से इस बार तकनीक हर कदम पर साथ थी, अब यही तकनीक हमारे दुलारे नेताओं को उनके बोल-वचन दुरुस्त करने पर मजबूर करेगी. क्योंकि नेता इस चुनाव में जिस आधुनिक समाज से मुखातिब थे वह ठगे जाने के एहसास से सबसे ज्यादा चिढ़ता है.