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Monday, May 24, 2010

शायलाकों से सौदेबाजी

शुतुरमुर्ग एक समस्या का नाम भी है। इसके शिकार लोग अक्सर लैला और कैटरीना जैसे चक्रवातों से बचने के लिए छतरी लगा लेते हैं। संप्रभु कर्ज संकट में फंसे देशों में यह रोग बहुत आम है। इन्हें कभी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ऑक्सीजन में जिंदगी नजर आती है तो कभी वह टैक्स से जनता को निचोड़ कर ताकत जुटाने की कोशिश करते हैं। मगर इससे न तो संकट टलता है और न खत्म होता है। कर्ज में चूकना और देनदारी को नए सिरे से तय करने का दर्द भरा इलाज ही वस्तुत: इनकी नियति होती है। कर्जदार देशों को अंतत: उस निर्मम दुनिया से निबटना होता है जिस पर दर्जनों शायलॉक (मर्चेट आफ वेनिस- शेक्सपियर) राज करते हैं। कर्ज देने वाले बैंकों व देशों के साथ देनदारी के पुनर्गठन का मतलब ऐसी लंबी सुरंग से गुजरना है, जिससे क्षत विक्षत हुए बिना बाहर आना मुश्किल है। हाल का सबसे बड़ा (2002 में 141 बिलियन डॉलर) डिफॉल्टर अर्जेटीना पिछले आठ साल से इस सुरंग में भटक रहा है। इस खतरनाक रास्ते पर किसी अंतरराष्ट्रीय संधि या व्यवस्था की रोशनी भी नहीं है।
....और सूद में चिडि़यों की बीट
र्ज व्यक्ति पर हो या देश पर, वसूली गलादाब ही होती है। 1890 के करीब दक्षिण अमेरिकी मुल्क पेरु जब कर्ज चुकाने में चूका तो कर्जदारों से सौदा दो मिलियन टन गुआनो (चिडि़यों की उर्वर बीट), 66 साल के लिए रेलवे पर नियंत्रण और टिटिकाका झील में बोट चलाने के अधिकारों के बदले छूटा। दुनिया के ताकतवर महाजन अभी पिछली सदी के मध्य तक कर्जो के बदले दक्षिण अमेरिकी व अफ्रीकी देशों के रेलवे, नौवहन, टैक्स तंत्र जैसे आय के मुख्य स्रोत कुर्क करते रहे हैं। मैक्सिको कर्ज न चुकाने के कारण 1861 में फ्रांस के हमले (स्पेन व ब्रिटेन की मदद से) का शिकार होकर गुलाम बना था। वेनेजुएला के समुद्री परिवहन पर जर्मनी, ब्रिटेन व इटली का प्रतिबंध हो या निकारागुआ और डोमनिकन रिपब्लिक के सीमा शुल्क प्रशासन पर अमेरिका का कब्जा, पिछली सदी की इन चर्चित घटनाओं के मूल में संप्रभु कर्जो से चूकने की ही कहानी है। वैसे यह बातें कुछ पुरानी सी लगती हैं क्योंकि आधुनिक दुनिया अब कर्ज के बदले चिडि़यों की बीट और रेलवे पर कब्जे जैसे सौदे नहीं करती। मगर यकीन मानिए कि कर्ज में चूकने वालों के प्रति वह उतनी ही निर्मम है। यही वजह है कि देशों को दिए जाने वाले कर्ज के बाजार में आज भी महाजनों का ही राज है।
महाजनों के क्लब
यूरोप के पिग्स (पुर्तगाल, इटली, ग्रीस, स्पेन आदि) अगर कर्ज देने में चूके तो हो सकता है कि दुनिया को एक बार फिर संप्रभु कर्ज की समस्या के अंतरराष्ट्रीय तंत्र (सॉवरिन डेट रिस्ट्रक्चरिंग मेकेनिज्म-एसआरडीएम) की याद आए लेकिन हकीकत यह है कि पिछली दो सदियों से संप्रभु कर्ज के बाजार पर महाजनों का ही राज है। दुनिया चाहे जितनी काबिल हो गई हो लेकिन वह कर्ज के फेर में बर्बाद होने वाले देशों को पारदर्शी ढंग से कर्ज चुकाने का तंत्र नहीं दे सकी है। इसके बदले दुनिया को मिले हैं पेरिस क्लब और लंदन क्लब। यकीनन, यही नाम हैं कर्ज देने वाले पक्षों के दो समूहों के। लंदन क्लब सातवें दशक में बना, जबकि पेरिस क्लब उसे बीस साल पहले बन चुका था। यह समूह तदर्थ हैं। इनका कोई कानूनी आधार नहीं है लेकिन कर्ज देने वाले इनके जरिए ही सौदेबाजी करते रहे हैं। लंदन क्लब वाणिज्यिक कर्जो के लिए सौदेबाजी करता है। जबकि पेरिस क्लब सरकारों के स्तर से दिए गए संप्रभु कर्जो की। संप्रभु कर्ज के खेल में विश्व बैंक व आईएमएफ की भूमिका केवल परेशान देश को ऑक्सीजन देने तक है। कर्ज देने वाले अपनी शर्तो पर कर्ज का पुनर्गठन करते हैं। 2002 में अर्जेटीना के कर्ज संकट के बाद दुनिया संप्रभु कर्जो को लेकर कुछ सतर्क हुई है। संप्रभु बांड जारी करने वाले देशों के अधिकारों की फिक्र होने लगी है और निर्मम हेज फंड (वल्चर फंड) की मनमानी को रोकने के कुछ नए नियम बनाए गए हैं लेकिन यह सब कोई अंतरराष्ट्रीय संधि या कानून नहीं है। अर्जेटीना का इतिहास बताता है कि वह अपना 75 फीसदी कर्ज ही पुनर्गठित कर सका। 20 बिलियन डॉलर के मूलधन, 10 बिलियन डॉलर काब्याज और कुछ अन्य विवादित कर्ज दक्षिण अमेरिका के इस मुल्क के हलक में अभी भी फंसा है।
कर्ज का 'हेयरकट' साख का मुंडन
डिफॉल्टर देश जब कर्ज देने वालों के सामने लेन देन पूरा करने के लिए कर्ज घटाने का प्रस्ताव करता है तो उसे वित्तीय बाजार हेयरकट कहता है। मगर कर्ज पुनर्गठन की यह प्रक्रिया उस देश की साख का मुंडन कर देती है। अर्जेटीना के 141 बिलियन डॉलर के डिफॉल्ट में करीब 82 बिलियन डॉलर मूलधन था और हेयरकट कर्ज समायोजन प्रस्ताव का हिस्सा था। संप्रभु कर्ज के पुनर्गठन की लंबी व पेचीदा सौदेबाजी के बाद कर्जो की देनदारी आगे खिसकाई जाती है और कर्जदारों को नए बांड दिए जाते हैं, जिसमें कर्ज देने वाले पक्षों को नुकसान भी होता है। कई देश वाणिज्यिक कर्जदारों को अपनी कंपनियों में इक्विटी देकर स्वैप करते हैं। चिली इसका ताजा और सफल उदाहरण है। मगर पूरी प्रक्रिया डिफॉल्टर देश को वित्तीय बाजार में दागी कर देती है। अर्जेटीना ने इसी अप्रैल में अपने कर्जदारों को हेयरकट का नया प्रस्ताव दिया है। अर्जेटीना की पेशकश है कि कर्जदार पिछले कर्ज के बदले नए बांडों को डिस्काउंट पर खरीदकर बात नक्की करें। अर्जेटीना अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार में अभी भी कालेपानी की सजा झेल रहा है। वह निर्वासन दूर करने व सामान्य देश बनने के लिए गिड़गिड़ा रहा है।
शायलॉक याद है आपको? शेक्सपियर के मशहूर नाटक मर्चेट ऑफ वेनिस का खलनायक, सूदखोर (लोन शार्क) महाजन, जो एंटोनियो से कर्ज के बदले उसके शरीर का एक हिस्सा मांगता है। कर्ज की दुनिया शेक्सपियर के जमाने से आज तक लगभग वैसी ही बेढंगी है। यहां रंग और ढंग बदला है लेकिन तासीर नहीं। अब तो यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने खुद बाजार से यूरोपीय देशों के कचरा रेटिंग वाले बांड (16 बिलियन डॉलर के सौदे) खरीद रहा है। यह यूरो जोन के केंद्रीय बैंक का (बाजार की भाषा में न्यूक्लियर ऑप्शन) ब्रह्मास्त्र है। इसके बावजूद वित्तीय बाजार मान रहा है कि यूरोपीय बैंक का मंत्र, आईएमएफ की मदद और जर्मनी की दया ग्रीस को उबार नहीं सकती। महाजनों की दुनिया, 130 बिलियन डॉलर के कर्जदार ग्रीस को कर्ज पुनर्गठन की कीलों भरी कुर्सी पर बैठाने के लिए बेताब है। स्पेन, पुर्तगाल भी शायद इसी कतार में हैं।
इतनी बारिश हो चुकी है रात इस दीवार पर
कल सुबह जो धूप निकली तो भी यह गिर
जाएगी
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Monday, April 5, 2010

डूबे तो.. उबरेंगे

दुनिया के वित्तीय बाजारों में इस समय एक अजीब सी गंध तैर रही है, कुछ जलने की गंध! ताजे वित्तीय संकट की आंच पर यूरोप की अनोखी बेमेल (मौद्रिक एकता) खिचड़ी शायद जलने लगी है। यूरोप में अलग आकार और स्वरूप की अर्थव्यवस्थाओं को यूरो नामक एकल मुद्रा का जो अनोखा परिधान पहनाया गया था वह छोटों की गर्दन पर कसने और बड़ों के बदन पर ढीला होने लगा है। ओलंपिक के मुल्क ग्रीस में वित्तीय संकट सुलग रहा है, जिसमें सोलह यूरोपीय देशों की एकता घुलने लगी है। बाजार घुस फुसा रहा है कि एक से अधिक यूरोपीय देश दीवालिया हो सकते हैं।
देश अलग, अर्थव्यवस्थाओं के आकार अलग, बजट अलग, वित्तीय कायदे अलग, राजनीति अलग मगर मुद्रा यानी करेंसी एक। .. सवाल दस साल पहले भी उठे थे, लेकिन संकट अब उठा है। वित्तीय बाजारों के महासंकट ने अपारदर्शी वित्तीय प्रणाली वाले ग्रीस, आयरलैंड जैसे कमजोरों के पैर उखाड़ दिए। सोलह यूरोपीय देशों वाला यूरो क्लब ग्रीस को उबारने पर बंट गया है। बीते सप्ताह ब्रुसेल्स की बैठक में यूरोजोन के बड़ों (फ्रांस व जर्मनी) के बीच दरारें साफ दिख गई। यूरो की साख टूट रही है। यूरो क्लब की एकता पर ही बन आई है। यह मानने वाले अब बहुत से हैं कि यूरो क्लब डूब कर ही उबर सकता है।
परेशान 'पिग्स'
पिग्स से मतलब है कि यूरोप के पांच परेशान छोटे अर्थात पुर्तगाल, इटली, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन। इनकी समस्या है इनका भारी कर्ज। यूरोप की इन छोटी अर्थव्यवस्थाओं को ताजी मंदी और वित्तीय बाजारों के हाहाकार ने बेदम कर दिया। रही बची कसर इन के वित्तीय कुप्रबंध ने पूरी कर दी है। ग्रीस (यूनान) सबसे बुरी हालत में है। जहां सरकार का कुल कर्ज देश के जीडीपी का 125 फीसदी हो गया है। ग्रीस की सरकार का डिफाल्टर होना तय है। इसे बचाने के तरीकों पर यूरोप में चख-चख जारी है। बात सिर्फ ग्रीस की ही नहीं, इस समूह में जनमों का कर्जदार इटली, दीवालियेपन के लिए कुख्यात और अभी तक मंदी से जूझ रहा स्पेन, प्रापर्टी मार्केट टूटने से बदहाल हुआ आयरलैंड (जीडीपी के अनुपात में कर्ज 82 फीसदी) और कर्ज में दबा पुर्तगाल (कर्ज जीडीपी अनुपात 85 फीसदी) भी हैं। दरअसल यूरो क्लब में होना या यूरो मुद्रा अपनाना इस गाढ़े वक्त में इन्हें बहुत साल रहा है। अगर इनकी स्वतंत्र मुद्राएं होतीं तो अब तक ये अवमूल्यन करने अपने कर्ज को घटाने का जुगाड़ बिठा चुके होते। मगर ऐसा होना नामुमकिन है और क्योंकि यूरो की कीमत गिरने में यूरोप के बड़ों का बहुत बड़ा नुकसान है।
और हैरान दिग्गज
पिग्स परिवार को मदद का चारा देने में भी कम नुकसान नहीं हैं। यूरो क्लब में जबर्दस्त ऊहापोह है। अगर पिग्स को नहीं उबारा जाता तो यूरो जोन दीवालिया मुल्कों का जोन बन जाएगा, लेकिन इनको उबारने का मतलब होगा कि बड़े अपने खजाने से इसका बिल चुकाएं। यानी कि जर्मनी व फ्रांस जैसे बड़े यूरोपीय देश इनके कर्ज की जिम्मेदारी उठाएं। यूरो क्लब की बुनियादी संधि (स्टेबिलटी एंड ग्रोथ पैक्ट) किसी तरह के बेल आउट या उद्धार पैकेजों की छूट नहीं देती। इसी संधि के जरिए सभी सदस्यों के लिए कर्ज व घाटा कम करने की कड़ी शर्ते भी तय की गई थीं, मगर छोटों ने ये बंदिशें कायदे से नहीं मानीं। बड़े अगर मदद कर भी दें तो भी इस बात की गारंटी नहीं है कि कमजोर और बदहाल पिग्स अपनी राजकोषीय सेहत सुधारने के लिए खर्च में कमी कर सकेंगे। मंदी व महंगाई के बाद वेतन और खर्चो में कटौती कठिन राजनीतिक फैसला है। यूरोप के बड़े अगर अपने बजट से इनका कर्ज उठाते हैं तो उनकी अपनी और यूरो की साख टूटेगी, लेकिन अगर मुल्क दीवालिया हुए तो भी यूरो टूटने से नहीं बचेगा। तीसरा विकल्प आईएमएफ को बीच में लाने का है, लेकिन इससे बुरा विकल्प कोई नहीं है। आईएमएफ की मदद का मतलब एकल यूरोपीय मुद्रा का असफल होना है। क्योंकि तब दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुद्रा किसी छोटे देश की कमजोर मुद्रा जैसी हो जाएगी जो बाहरी मदद की बैसाखियों पर टिकी होगी।
क्या अब लौट चलें?
चर्चा तो वापस लौटने की ही है। वित्तीय संकट ने यूरो क्लब को तोड़ दिया है। अब जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रिया, फिनलैंड, नीदरलैंड जैसे मजबूत मुल्क एक तरफ हैं तो पिग्स जैसे कर्ज में दबे दक्षिण यूरोप के मुल्क दूसरी तरफ। कहा यह भी जा रहा है कि दक्षिण के छोटों ने यूरो क्लब का हिस्सा बनने और एकल मुद्रा के फायदे पाने के लिए अपनी वित्तीय असलियत दुनिया से छिपाई। ग्रीस को लेकर यह तो यह चर्चा काफी प्रामाणिक है। दक्षिण के मुल्कों की साख ध्वस्त है। वित्तीय बाजार उनके बांडों से बिदक रहा है। यूरोप में ऐसा मानने वाले बहुत से हैं कि यूरो मुद्रा इन घायल पिग्स सिपाहियों के सहारे वित्तीय दुनिया में जंग में टिक नहीं सकती। क्या जर्मनी व फ्रांस के नेतृत्व में एक नया मौद्रिक ब्लाक बनना चाहिए? जैसा 1999 के पहले था जब यूरोप में ड्यूश मार्क, पौंड और फ्रैंक तीन बड़ी मुद्राएं थीं। दरअसल यूरो क्लब सातवें व आठवें दशक की मंदी और मुद्रास्फीति यानी महंगाई की बुनियाद पर बना था। नतीजतन कड़े मौद्रिक नियंत्रण व महंगाई पर काबू, इस एकता की बुनियाद थे। अब वह एकता बिखर चुकी है। क्या यूरो क्लब से कमजोर मुल्कों की निकासी होगी? या एक नया मौद्रिक ब्लाक बनेगा? अथवा दुनिया एक कमजोर और लुढ़कते यूरो के साथ जिएगी? .इन सवालों के फिलहाल कोई जवाब नहीं हैं। वैसे चाहे यूरोप में कुछ देश दीवालिया हों या फिर यूरो क्लब में टूट हो .. यूरो का जलवा अब ढलने वाला है।
मशहूर अर्थविद मिल्टन फ्रीडमैन सही साबित होते दिख रहे हैं। एकल यूरोपीय मुद्रा के जन्म के समय 1999 में उन्होंने कहा था कि यह क्लब पहला वित्तीय संकट नहीं झेल पाएगा। कहां तो बात डालर का विकल्प बनने से शुरू हुई थी और अब यूरो की साख के लाले हैं। दुनिया ताजी वित्तीय बदहाली में अपना चेहरा देखकर पहले से ही हैरत में थी, इस बीच यूरो क्लब का शीराजा भी दरकने लगा है।.. हैरां थे अपने अक्स पर घर के तमाम लोग, शीशा चटख गया तो हुआ एक काम और।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)