Showing posts with label transport sector. Show all posts
Showing posts with label transport sector. Show all posts

Monday, September 25, 2017

भारत की शिंकानसेन


व्यजगमगाती या तेज रफ्तार दुविधा क्या  होती हैइसे समझने के लिए बुलेट ट्रेन में बैठकरभीमकाय बांध और परमाणु बिजली घर की यात्रा कर आइए.

तीनों ही बुनियादी ढांचा वंश की कामयाब लेकिन विवादित संतानें हैं.

बुलेट ट्रेन की मेट्रो से तुलना असंगत है. नगरीय व उपनगरीय रेल परिवहन की तीन पीढिय़ां (ट्राम—मुंबई लोकल—दिल्ली रिंग रेलवे—कोलकता मेट्रो) भारत में पहले से हैं. दिल्ली की मेट्रो इनका नया संस्करण है. हालांकि मेट्रो राजनीति पर सवार होकर ऐसे शहरों में भी पहुंच गई जहां इसकी आर्थिक सफलता संदिग्ध है.

बुलेट ट्रेन भारत में अंतर्देशीय परिवहन की नीति के लिए असमंजस की चिट्ठी है. यह असमंजस रफ्तार और विस्तार के बीच समन्वय का है. यूरोप का विमानन उद्योग भी (1970 से 2003) रफ्तार की दीवानगी में सुपरसोनिक कांकॉर्ड विमान सेवाएं लेकर आया. सन् 2000 की जुलाई में एयरफ्रांस की कांकॉर्ड दुर्घटना के बाद यह सेवा बंद हुई और विमानन उद्योग ने एक नई करवट ली. अब होड़ रफ्तार की नहींबल्कि विस्तार की थी. नए शहरों के लिए सस्ती उड़ानें शुरू हुईं.विमानों का आकार (एयरबस 380) बढ़ाया गया. विस्तार व सस्ती सेवा से यात्री बढ़े और एविएशन उद्योग को सफलता के सुपरसोनिक पंख लग गए.

भारत की बुलेट ट्रेन को अंतर्देशीय परिवहन के अंतरराष्ट्रीय प्रयोगों के संदर्भ में देखना जरूरी हैः 

- अमेरिका में बुलेट ट्रेन नहीं हैं. भौगोलिक विशालता के कारण रेलवे को माल परिहवन पर केंद्रित यात्रियों के लिए निजी वाहनों और विमान सेवा को वरीयता दी गई. इसलिए ऑटोमोबाइल और विमानन उद्योग विकसित हुआ.

- यूरोपीय देशों ने छोटे भूगोल के मुताबिक रेलवे (कुछ देशों में हाइ स्पीड रेल भी) को यात्री और सड़कों को माल परिवहन का जरिया बनायाहालांकि सस्ती विमान सेवएं अंतरयूरोपीय यात्राओं में रेलवे के लिए चुनौती हैं.

- बेहद घनी बसावट वाले छोटे जापान (केवल 20 फीसदी भूगोल रहने लायक) 'शिकानसेन' (भारत की बुलेट ट्रेन का आधार) ने और छोटा कर दिया. जापानी बुलेट ट्रेन आम लोगों के लिए खासी महंगी है. कर्मचारी अपनी कंपनियों के खर्च पर शिंकानसेन के जरिए बड़े शहरों तक आते-जाते हैं. जापान की विमान सेवाएंबाजार के लिए बुलेट ट्रेन से लड़ रहीं हैं.

- चीन ने पिछले दो दशकों में दुनिया का सबसे बड़ा हाइ स्पीड ट्रेन नेटवर्क (दुनिया से 40 फीसदी कम लागत पर) बना लिया है लेकिन बुलेट ट्रेन के कारण तीनों सरकारी विमान सेवाओं का मुनाफा पिघल रहा है.

बुलेट ट्रेन अपनी लागत लाभ (कॉस्ट बेनीफिट) असंगति को लेकर खासी विवादित हैं. चीन व जापान सरकारें निजी जमीन लेने को स्वतंत्र हैंप्रोजेक्ट को खूब सब्सिडी भी देती हैं. यूरोप में महंगी जमीन के कारण हाइ स्पीड रेल की लागत ऊंची है. अमेरिका में लॉस एंजेलिस-सैन फ्रांसिस्को और डलास-ह्यूस्टन के हाइ स्पीड रेल प्रोजेक्ट जमीन अधिग्रहण के झगड़ों और लागत बढऩे के कारण लंबित हैं.

हम बुलेट ट्रेन को चुनावी शोशा नहीं बल्कि एक गंभीर परियोजना मानते हैं जो अंतर्देशीय परिवहन नीति और रेलवे के पुनर्गठन का संदेश होनी चाहिए. 

1. माल परिवहन के कारोबार में रेलवेसड़क से हार चुकी है. रेलवे की ढुलाई कोयलालोहासीमेंट तक सीमित है. रेलवे का कारोबार अब यात्री परिवहन से ही चलेगा. डेडिकेटेड फ्रेट (माल) कॉरिडोर को लंबी दूरी के हाइ स्पीड यात्री परिवहन कॉरिडोर में बदलना चा‍हिए जबकि पुराना नेटवर्क माल परिवहन के लिए इस्तेमाल होना चाहिए. रेलवे को यात्री परिवहन के नए राजस्व मॉडल की जरूरत है जिसे निजी भागीदारी के साथ विकसित किया जा सकता है.

2. पिछले दशकों में सड़कों पर रेलवे से ज्यादा निवेश हुआ है. यहां अब हाइ स्पीड फ्रेट कॉरिडोर बनाने की जरूरत है ताकि बड़े ट्रक बगैर रुके लंबी यात्रा कर सकें. फायदा ऑटोमोबाइल उद्योग को होगा.

3. भारत में नगरों की बहुतायत है. छोटी दूरियों को परिवहन को बेहतर सड़कों और निजी वाहनों पर केंद्रित किया जा सकता है.  

4. सस्ती विमान सेवाएं और लंबी दूरी की हाइ स्पीड ट्रेनें मिलकर अंतर्देशीय परिवहन को आधुनिक बना सकती हैं.



रेलवे के सामाजिक और वणिज्यिक दायित्वों को अलग करना होगा. सामाजिक दायित्वों को बजट से वित्त पोषण मिलना चाहिए. बुलेट ट्रेन के साथ भारत की अंतर्देशीय परिवहन नीति बदलना जरूरी है. नहीं तो यह महंगी (रेलवे के सालाना बजट का ढाई गुना) परियोजना जापान के कर्ज से, अगर बन भी गई तो यह पर्यटकों के लिए हाइ स्पीड पैलेस ऑन व्हील्स हो जाएगी. आम रेल यात्रियों की जिंदगी में इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

Wednesday, February 17, 2016

इक्यानवे के फेर में रेलवे



अगर रेलवे कोई कंपनी होती तो निवेशक इससे पूरी तरह किनारा कर चुके होते और इसे बीमार घोषित कर दिया जाता

सुरेश प्रभु क्या रेलवे के लिए मनमोहन सिंह हो सकते  हैं? इक्यानवे वाले मनमोहन सिंह! यह सवाल वित्त मंत्री अरुण जेटली के लिए इसलिए नहीं उठता क्योंकि उनकीट्रेन तो स्टेशन छोड़ चुकी है. अलबत्ता 2016 रेल मंत्री प्रभु का साल हो सकता है.
बजट हमेशा बड़े, महत्वपूर्ण और निर्णायक होते हैं लेकिन सभी बजट हरगिज नहीं. कुछ ही बजटों को 1991 जैसा होने का मौका मिलता है जो कि किसी देश की अर्थव्यवस्था का चेहरा-मोहरा कौन कहे, पूरा डीएनए ही बदल दे. वक्त, मौके और दस्तूर के मुताबिक, सुरेश प्रभु रेलवे के मामले में ठीक वहीं खड़े हैं जहां डॉ. मनमोहन सिंह 1991 में खड़े थे. और रेलवे भी ठीक उसी हाल में है जहां भारतीय अर्थव्यवस्था इक्यानवे में थी. जैसे 1991 में क्रांतिकारी सुधारों पर आगे बढऩे के अलावा कोई रास्ता नहीं था ठीक उसी तरह प्रभु के पास रेलवे को जैसे का तैसा बनाए रखने का विकल्प भी खत्म हो गया है.

1991 में भारत के आर्थिक हालात से आज की रेलवे के हालात की तुलना हमें उसके संकट और प्रभु के लिए अवसर को समझने में मदद कर सकती है. 1991 में भारत प्रतिस्पर्धा रहित, वित्तीय संकट से भरपूर, सरकारी एकाधिकार से लदा-फदा मुल्क था जिसमें नई तकनीक और तेज रफ्तार बदलावों का प्रवेश वॢजत था. इस दकियानूसी ढांचे ने भारत को देशी से लेकर विदेशी मोर्चों तक कई आर्थिक दुष्चक्रों से घेर दिया था. रेलवे ऐसे ही दुष्चक्र का शिकार है.

कुछ आंकड़े जानना जरूरी है. माल भाड़ा और यात्री परिवहन रेलवे का मुख्य कारोबार है. अर्थव्यवस्था में ग्रोथ और लोगों की आय बढऩे के साथ दोनों ही तरह का परिवहन बढ़ रहा है लेकिन परिवहन बाजार में रेलवे का हिस्सा 1990 में 56 फीसदी से घटकर 2012 में 30 फीसदी हो गया. माल भाड़े के बाजार में रेलवे का हिस्सा तीन दशक में 62 से 36 फीसदी और यात्री कारोबार में 28 से घटकर 14 फीसदी रह गया. एक्सिस डायरेक्ट रिसर्च की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय रेल प्रति किलोमीटर यात्री परिवहन पर 54 पैसे खर्च करती है और 26 पैसे का राजस्व कमाती है. इसकी तुलना में चीन की रेलवे का राजस्व 63 फीसदी ज्यादा है. रेलवे ने घाटे की भरपाई के लिए लगतार भाड़ा बढ़ाकर माल परिवहन बाजार से खुद को बाहर कर लिया है.
माल ढुलाई और यात्री परिवहन की मांग के बावजूद रेलवे पिछले 20 साल में अपना नेटवर्क नाम को भी नहीं बढ़ा पाई. भारतीय रेल दुनिया की सबसे धीमी रेल है जहां मालगाडिय़ों की औसत स्पीड 25 किमी और यात्री ट्रेनों की गति 70 किमी है. इसकी कुल कमाई का 91 फीसदी हिस्सा वेतन भत्तों, कर्ज पर ब्याज और पुराने तरीके के कामकाज पर खर्च हो जाता है. आधुनिकीकरण के अभाव में इसका पूरा नेटवर्क चरमरा चुका है, जहां दुर्घटनाओं की संख्या विश्व में सबसे ज्यादा है.  
दरअसल, अगर रेलवे कोई कंपनी होती तो निवेशक इससे पूरी तरह किनारा कर चुके होते और इसे बीमार घोषित कर दिया जाता, इसलिए प्रभु के आने तक रेलवे दरअसल कर्ज हासिल करने में भी चूकने लगी थी और फिलहाल भारतीय जीवन बीमा निगम से मिले कर्ज पर चल रही है.
1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधारों की शुरुआत व्यापक पुनर्गठन और कुछ बड़ी परियोजनाओं से हुई थी जिन्हें बनने-बैठने में करीब पांच साल का वक्त लगा था. इस मामले में प्रभु मनमोहन के मुकाबले किस्मत के धनी हैं. उनके पास सुधारों का एजेंडा मौजूद है और यह भी पता है कि किस वरीयताक्रम पर क्या करना है.
रेलवे की सबसे बड़ी तात्कालिक जरूरत इसके नेटवर्क पर भीड़ कम करना है. अगर किसी रेल मंत्री को सचमुच सुधारक साबित होना है तो उसे सब कुछ छोड़कर सिर्फ एक परियोजना पर पूरी ताकत झोंक देनी चाहिए और वह परियोजना है मुंबई को दिल्ली (1,500 किमी) और लुधियाना को कोलकाता (1,800 किमी) से जोडऩे वाला डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी), जो रेलवे से माल परिवहन की पूरी तस्वीर बदल देगा. दोनों कॉरिडोर के लिए क्रमशः 90 और 75 फीसदी भूमि अधिग्रहण पूरा हो चुका है और जापान व विश्व बैंक से मदद मिलना भी तय हो गया.
डीएफसी भले ही माल परिवहन की परियोजना हो लेकिन इसका असली फायदा रेलवे के यात्री परिवहन को मिलेगा. डीएफसी बनते ही मालगाडिय़ों का पूरा नेटवर्क इस कॉरिडोर के हवाले होगा, जिससे रेलवे को अपनी यात्री गाडिय़ों के लिए पटरियां खाली करने, ट्रेनों की गति बढ़ाने और नई ट्रेनें चलाने में मदद मिलेगी. डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर को इस सरकार में वैसे ही वरीयता मिलनी चाहिए थी जैसी कि सड़क परियोजनाओं को वाजपेयी सरकार में मिली थी.
डीएफसी के लिए संसाधनों का जुगाड़ हो रहा है लेकिन रेल के वर्तमान नेटवर्क को इससे ज्यादा संसाधन चाहिए. रेलवे दुनिया की सबसे बड़ी परिवहन कंपनी है, जिसे कर्ज पर चलाना नामुमकिन है. प्रभु अगर सच में साहसी हैं तो यह बजट रेलवे के पुनर्गठन का सबसे माकूल मौका है. जिस तरह 1991 में मनमोहन सिंह ने रुपए को एकमुश्त नियंत्रण मुक्त कर भारत को आधुनिक देशों की श्रेणी में पहुंचा दिया था, ठीक उसी तरह प्रभु रेलवे का पुराना ढांचा ढहाकर इसे एक आधुनिक रेलवे कंपनी बनाने का सफर शुरू कर सकते हैं. एक ऐसी कंपनी जो सही कीमत पर शानदार सेवा देती हो न कि स्कूल और दवाखाने चलाने से लेकर पहिया और धुरा सब कुछ खुद बनाती हो.

रेलवे का पुनर्गठन ही उसे बचाने का जरिया है, जो रेलवे मैन्युफैक्चरिंग के निजीकरण और रेलवे संपत्तियों की बिक्री का रास्ता खोलेगा. इससे रेलवे को संसाधन मिलेंगे ताकि वह अपने नेटवर्क को आधुनिक बना सके.

रेल मंत्री प्रभु चाहें तो किराया, माल भाड़ा बढ़ाकर और कुछ प्रतीकात्मक सुविधाओं का ऐलान करके एक और बजट को जाया कर सकते हैं या फिर सचमुच क्रांतिकारी हो सकते हैं. रेलवे भारत की सबसे बड़ी परिवहन प्रणाली है. सूझ-बूझ और संसाधनों की कमी रेलवे की बदहाली की उतनी बड़ी वजह नहीं है जितना कि राजनैतिक नेतृत्व के असमंजस व दकियानूसीपन. 2016 का रेल बजट सूझ-बूझ पर नहीं, सुरेश प्रभु के साहस के पैमाने पर कसा जाएगा.