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Sunday, March 19, 2023

चीन का सबसे सीक्रेट प्‍लान


 

 

चीन ने अपनी नई बिसात पर पहला मोहरा तो इस सितंबर में ही चल दिया था, उज्‍बेकिस्‍तान के समरकंद में शंघाई कोआपरेशन ऑर्गनाइजेशन की बैठक की छाया में चीन, ईरान और रुस ने अपनी मुद्राओं में कारोबार का एक अनोखा त्र‍िपक्षीय समझौता किया.  यह  अमेरिकी  डॉलर के वर्चस्‍व को  चुनौती देने के लिए यह पहली सामूहिक शुरुआत थी. इस पेशबंदी की धुरी है  चीन की मुद्रा यानी युआन.

नवंबर में जब पाकिस्‍तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ के बीज‍िंग में थे चीन और पाकिस्‍तान के केंद्रीय बैंकों ने युआन में कारोबार और क्‍ल‍ियर‍िंग के लिए संध‍ि पर दस्‍तखत किये. पाकिस्‍तान को चीन का युआन  कर्ज और निवेश के तौर पर मिल रहा है. पाक सरकार इसके इस्‍तेमाल से  रुस से तेल इंपोर्ट करेगी.

द‍िसंबर के दूसरे सप्‍ताह में शी जिनप‍िंग सऊदी अरब की यात्रा पर थे. चीन, सऊदी का अरब का सबसे बडा ग्राहक भी है सप्‍लायर भी. दोनों देश युआन में तेल की खरीद‍ बिक्री पर राजी हो गए. इसके तत्‍काल बाद जिनपिंग न गल्‍फ कोआपरेशन काउंस‍िल की बैठक में शामिल हुए  जहां उन्‍होंने शंघाई पेट्रोलियम और गैस एक्‍सचेंज में युआन में तेल कारोबार खोलने का एलान कर दिया.

डॉलर के मुकाबिल कौन

डॉलर को चुनौती देने के लिए युआन की तैयार‍ियां सात आठ सालह पहले शुरु हुई थीं केंद्रीय बैंक के तहत  युआन इंटरनेशनाइलेजेशन का एक विभाग है. जिसने 2025 चीनी हार्ब‍िन बैंक और रुस के साबेर बैंक से वित्‍तीय सहयोग समझौते के साथ युआन के इंटरनेशनलाइजेशन की मुहिम शुरु की थी. इस समझौते के बाद दुनिया की दो बड़ी अर्थव्‍यवस्थाओं यानी रुस और चीन के बीच रुबल-युआन कारोबार शुरु हो गया. इस ट्रेड के लिए हांगकांग में युआन का एक क्‍ल‍ियर‍िंग सेंटर बनाया गया था.

2016 आईएमएफ ने युआन को इस सबसे विदेशी मुद्राओं प्रीम‍ियम क्‍लब एसडीआर में शामिल कर ल‍िया.  अमेरिकी डॉलर, यूरो, येन और पाउंड इसमें पहले से शामिल हैं. आईएमएफ के सदस्‍य एसडीआर का इस्‍तेमाल करेंसी के तौर पर करते हैं.

चीन की करेंसी व्‍यवस्‍था की साख पर गहरे सवाल रहे हैं  लेक‍िन कारोबारी ताकत के बल पर एसडीआर  टोकरी में चीन का हिस्‍सा, 2022 तक छह साल में करीब 11 फीसदी बढ़कर 12.28  फीसदी हो गया.

कोविड के दौरान जनवरी 2021 में चीन के केंद्रीय बैंक ने ग्‍लोबल इंटरबैंक मैसेजिंग प्‍लेटफार्म स्‍व‍िफ्ट से करार किया. बेल्‍ज‍ियम का यह संगठन दुनिया के बैंकों के बीच सूचनाओं का तंत्र संचालित करता है  इसके बाद चीन में स्‍व‍िफ्ट का डाटा सेंटर बनाया गया.

चीन ने  बैंक ऑफ इंटरनेशनल सेटलमेंट के लिक्‍व‍िड‍िटी कार्यक्रम के तहत इंडोन‍िश‍िया, मलेश‍िया, हांगकांग , सिंगापुर और चिली के साथ मिलकर 75 अरब युआन का फंड भी बनाया है जिसका इस्‍तेमाल कर्ज परेशान देशों की मदद के लिए  के लिए होगा.

ड‍ि‍ज‍िटल युआन का ग्‍लोबल प्‍लान

इस साल जुलाई में चीन शंघाई, गुएनडांग, शांक्‍सी, बीजिंग, झेजियांग, शेनजेन, क्‍व‍िंगादो और निंग्‍बो सेंट्रल बैंक डि‍ज‍िटल युआन पर केंद्र‍ित एक पेमेंट सिस्‍टम की परीक्षण भी शुरु कर दिया. यह सभी शहर चीन उद्योग और व्‍यापार‍ के केंद्र हैं. इस प्रणाली से विदेशी कंपनियां को युआन में भुगतान और निवेश की सुपिवधा देंगी. यह अपनी तरह की पहला ड‍ि‍ज‍िटल करेंसी क्‍ल‍ियरिंग सिस्‍टम है हाल में ही बीजिंग ने ने हांगकांग, थाईलैंड और अमीरात के साथ  डिजिटल करेंसी में लेन देन के परीक्षण शुरु कर दिये हैं.

पुतिन भी चाहते थे मगर ...

2014 में यूक्रेन पर शुरुआती हमले के बाद जब अमेरिका ने प्रतिबंध  लगाये थे तब रुस ने डॉलर से अलग रुबल में कारोबार बढाने के प्रयास शुरु किये थे. और 2020 तक अपने विदेशी मुद्रा भंडार में अमेरिकी डॉलर का हिस्‍सा आधा घटा दिया. जुलाई 2021 में रुस के वित्‍त मंत्री ने एलान किया कि डॉलर आधार‍ित विदेशी कर्ज को पूरी तरह खत्‍म किया जाएगा. उस वक्‍त तक यह कर्ज करीब 185 अरब डॉलर था.

रुस ने 2015 में अपना क्‍लियरिंग सिस्‍टम मीर बनाया.  यूरोप के स्‍व‍िफ्ट के जवाब मे रुस ने System for Transfer of Financial Messages (SPFS) बनाया है जिसे दुनि‍या के 23 बैंक जुड़े हैं.

अलबत्‍ता युद्ध और कड़े प्रतिबंधों से रुबल की आर्थि‍क ताकत खत्‍म हो गई. रुस अब युआन की जकड़ में है. ताजा आंकडे बताते हैं कि रुस के विदेशी मुद्रा भंडार में युआन का हिस्‍सा करीब 17 फीसदी है. चीन फ‍िलहाल रुस का सबसे बड़ा तेल गैस ग्राहक और संकटमोचक है.

यूरोप की कंपनियों की वि‍दाई के बाद चीन की कंपनियां रुस में सस्‍ती दर पर खन‍िज संपत्‍त‍ियां खरीद रही हैं.रुस का युआनाइेजशन शुरु हो चुका है.

भारत तीसरी अर्थव्‍यवस्‍था है जिसने अपनी मुद्रा यानी रुपये में कारोबार भूम‍िका बना रहा है. रुस पर प्रतिबंधों के कारण  भारतीय बैंक दुव‍िधा में हैं. भारत सबसे बड़े आयातक (तेल गैस कोयला इलेक्‍ट्रानिक्‍स) जिन देशों से होते हैं वहां भुगतान अमेरिकी डॉलर में ही होता है.

 

युआन की ताकत

 युआन ग्‍लोबल करेंसी बनने की शर्ते पूरी नहीं करता. लेक‍िन यह  चीन की मुद्रा कई देशों के लिए वैकल्पि‍क भुगतान का माध्‍यम बन रही है. चीन के पास दो बडी ताकते हैं. एक सबसे बडा आयात और निर्यात और दूसरा गरीब देशों को देने के लिए कर्ज. इन्‍ही के जरिये युआन का दबदबा बढा है. 

चीन के केंद्रीय बैंक का आंकड़ा बताता है कि युआन में व्‍यापार भुगतानों में सालाना 15 फीसदी की बढ़ोत्‍तरी हो रही है. 2021 में युआन में गैर वित्‍तीय लेन देन करीब 3.91 ट्र‍िल‍ियन डॉलर पर पहुंचा गए हैं. 2017 से युआन के बांड ग्‍लोबल बांड इंडेक्‍स का हिस्‍सा हैं. प्रतिभूत‍ियों में निवेश में युआन का हिस्‍सा 2017 के मुकाबले दोगुना हो कर 20021 में 60 फीसदी हो गया है.

दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद से अमेर‍िकी डॉलर व्‍यापार और निवेश दोनों की केंद्रीय करेंसी रही है. अब चीन दुन‍िया का सबसे बड़ा व्‍यापारी है इसलिए बीते दो बरस में चीन के केंद्रीय बैंक ने यूरोपीय सेंट्रल बैंक, बैंक ऑफ इंग्‍लैंड, सिंगापुर मॉनेटरी अथॉरिटी, जापान, इंडोनेश‍िया, कनाडा, लाओस, कजाकस्‍तान आद‍ि देशों के साथ युआन में क्‍ल‍िर‍िंग और स्‍वैप के करार किये हैं.दुनिया के केंद्रीय बैकों के रिजर्व में युआन का हिस्‍सा बढ़ रहा है.

इस सभी तैयार‍ियों के बावजूद चीन की करेंसी व्‍यवस्‍था तो निरी अपारदर्शी है फिर भी क्‍या दुनिया चीन की मुद्रा प्रणाली पर भरोसे को तैयार है? करेंसी की बिसात युआन चालें दिलचस्‍प होने वाली हैं

Friday, June 10, 2022

असली ताकत तो इधर है




अमेरिकी राष्‍ट्रपतियों के इतिहास में, जो बाइडेन को क्‍या जगह मिलेगी, यह वक्‍त पर छोड़‍िये फिलहाल तो ब्‍लादीम‍िर पुतिन  की युद्ध लोलुपता से अमेरिका को वह एक ध्रुवीय दुनिया गढ़ने का मौका मिल गया है जिसकी कोश‍िश में बीते 75 बरस में. अमेरिका के 13 राष्‍ट्रपति इतिहास बन गए.

आप यह मान सकते हैं क‍ि युद्ध के मैदान में रुस का खेल अभी खत्‍म नहीं हुआ है लेक‍िन युद्ध के करण बढी महंगाई के बाद ग्‍लोबल मुद्रा बाजार में अमेरिकी डॉलर अब अद्व‍ितीय है. मुद्रा बाजार में अन्‍य करेंसी के मुकाबले अमेरिकी डॉलर की ताकत बताने वाला डॉलर इंडेक्‍स 20 साल के सर्वोच्‍च स्‍तर पर है.

अमेरिका ने फ‍िएट करेंसी (व्‍यापार की आधारभूत मुद्रा) की ताकत के दम पर रुस के विदेशी मुद्रा भंडार को (630 अरब अमेर‍िकी डॉलर) को बेकार कर दिया है. पुतिन का मुल्‍क ग्‍लोबल व‍ित्‍तीय तंत्र से बाहर है. इसके बाद तो चीन भी लड़खड़ा गया है.

विश्‍व बाजार में अमेरिकी डॉलर की यह ताकत निर्मम है और चिंताजनक है.

एसे आई ताकत

अमेर‍िकी डॉलर का प्रभुत्‍व जिस इतिहास की देन है अब फिर वह नई करवट ले रहा है.

दूसरे विश्‍व युद्ध में पर्ल हार्बर पर जापानी हमले ने दुनिया की मौद्रिक व्‍यवस्‍था की बाजी पलट दी थी. इससे पहले तक अमेरिका दूसरी बड़ी जंग में  सीधी दखल से दूर था. जापान की बमबारी के बाद, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्‍टन चर्चिल जंगी जहाज लेकर अमेरिका पहुंच गए और तीन हफ्ते के भीतर अमेरिका को युद्ध में दाख‍िल हो गया. यह न होता तो हिटलर शायद ब्रिटेन को भी निगल चुका होता.

जुलाई 1944 में ब्रेटन वुड्स समझौता हुआ. गोल्‍ड स्‍टैंडर्ड के साथ (अमेरिकी डॉलर और सोने की विन‍िमय दर) आया. दुनिया के देशों ने अमेरिकी डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडान बनाना शुरु कर दिया. 1945 में हिटलर की मौत और दूसरे विश्‍व युद्ध की समाप्‍त‍ि से पहले ही अमेरिकी डॉलर का डंका बजने लगा था.

अमेरिकी में आर्थि‍क चुनौतियों और फ्रांस के राष्‍ट्रपत‍ि चार्ल्‍स ड‍ि गॉल के कूटनीतिक वार के बाद अमेरिकी राष्‍ट्रपत‍ि रिचर्ड निक्‍सन ने 1971 में गोल्‍ड स्‍टैंडर्ड तो खत्‍म कर दिया लेक‍िन तब तक अमेरिकी डॉलर दुनिया की जरुरत बन चुका था. 

डॉलर कितना ताकतवर

अमेरिकी डॉलर की ताकत है कितनी? बकौल फेड रिजर्व ग्‍लोबल जीडीपी में अमेरिका का हिस्‍सा 20 फीसदी है मगर मुद्रा की ताकत देख‍िये क‍ि दुनिया में विदेशी मुद्रा भंडारों में अमेरिकी डॉलर का हिस्‍सा (2021) करीब 60 फीसदी था.

डॉलर, अमेरिका की दोहरी ताकत है. व्‍यापार व निवेश के जरिये विदेशी मुद्रा भंडारों में पहुंचे अमेरिकी डॉलरों का का निवेश अमेरिकी बांड में होता है. अमेरिकी फेडरल रिजर्व की तरफ से जारी कुल बांड में विदेशी निवेशकों का हिस्‍सा 33 फीसदी है. यूरो, ब्रिटिश पौंड और जापानी येन के बांड में निवेश से कहीं ज्‍यादा.  मौद्रिक साख और ताकत का यह मजबूत चक्र टूटना  मुश्‍क‍िल है.

 नकदी के तौर पर भी डॉलर खूब इस्‍तेमाल होता है 2021 की पहली ति‍माही में करीब 950 अरब अमेरिकी डॉलर के बैंकनोट दुनिया विदेश में थे यह बाजार में उपलब्‍ध कुल नकद अमेरिकी डॉलर का लगभग आधा है.

विश्‍व के लगभग 80% निर्यात इनवॉयस, 60% विदेशी मुद्रा बांड और ग्‍लोबल बैंकिंग की करीब 60% देनदारियां भी अमेरिकी डॉलर में हैं.

विकल्‍प क्‍या 

दुनिया के देश एक दूसरे अपनी मुद्राओं में विनिमय क्‍यों नहीं करते ? क्‍यों क‍ि दुनिया की कोई अमेरिकी डॉलर नहीं हो सकती.

पहली शर्त है मुद्रा की साख-  करेंसी के की पीछे मजबूत राजकोषीय व्‍यवस्‍था ही करेंसी स्‍टोर वैल्‍यू बनाती है . एक दशक पहले तक यूरो को अमेरिकी डॉलर का प्रतिद्वंद्वी माना गया था लेकि‍न यूरो के पीछे कई छोटे देशों की अर्थव्‍यवस्‍थायें हैं. किसी भी एक देश में उथल पुथल से यूरो लड़खड़ा जाता है.

विदेशी मुद्रा भंडारों में यूरो का हिस्‍सा केवल 21 फीसदी है.  ब्रिटिश पाउंड, जापानी येन, युआन का हिस्‍सा और भी कम है. 

मुद्रा का मुक्‍त रुप से ट्रेडेबल या व्‍यापार योग्‍य दूसरी शर्त है इसी से  करेंसी की करेंसी यानी गति तय होती है. चीन का युआन दावेदार नहीं बन पाता.  दुनिया का सबसे बडा निर्यातक अपनी करेंसी को कमजोर रखता है, मुद्रा संचालन साफ सुथरे नहीं हैं. इसलिए युआन को विदेश्‍ी मुद्रा भंडारों में दो फीसदी जगह भी नहीं मिली है.

मुद्रा की स्‍थ‍िरता सबसे जरुरी शर्त है. 2008 के वित्‍तीय संकट के बाद मुद्रा स्‍थ‍िरता सूचकांक में अमेरिकी डॉलर करीब 70 फीसदी स्‍थिर रहा है, यूरो 20 फीसदी पर है. येन और युआन काफी नीचे हैं. स्‍थ‍िरता अमेरिकी डॉलर बडी ताकत है.

क्रिप्‍टोकरेंसी के साथ डॉलर के विकल्‍प की कुछ बहसें शुरु हुईं थीं. अलबत्‍ता कोविड के बाद  क्रिप्‍टोकरेंसी बुलबुला फूट गया और रुस पर प्रतिबंधों से डॉलर की क्रूर रणनीतिक ताकत भी सामने आ गई.

इतिहास की वापसी 

अमेरिकी डॉलर का प्रभुत्‍व दूसरे विश्‍व के बाद पूरी तरह स्‍थाप‍ित हो गया था.  डॉलर की ताकत के दम पर यूरोप की मदद के लिए 1948 में अमेरिका ने 13 अरब डॉलर का मार्शल प्‍लान (वि‍देश मंत्री जॉर्ज सी मार्शल)   लागू किया था. युद्ध से तबाह यूरोप के करीब 18 देशों को इसका बड़ा लाभ मिला. हालांक‍ि यही प्‍लान शीत युद्ध की शुरुआत भी था. यूरोप में रुस व अमेरिकी खेमों में नाटो (1948-49) और वारसा संधि (1955) में बंट गया.

अब फिर महामारी और युद्ध का मारा यूरोप अमेरिका ऊर्जा व रक्षा जरुरतों के लिए अमेरिका पर निर्भर हो रहा है डॉलर की इस नई ताकत के सहारे अमेरिकी राष्‍ट्रपति जो बाइडेन एक तरफ यूरोप को रुस के हिटलरनुमा खतरे बचने की गारंटी दे रहे है तो दूसरी तरफ एश‍िया में चीन डरे देशों नई छतरी के नीचे जुटा रहे हैं.  अमेरिकी डॉलर की बादशाहत इन्‍हीं हालात से निकली थी.  महंगा होता अमेरिकी कर्ज डॉलर को नई मौद्रिक ताकत दे रहा है. इसलिए यूरो, युआन,रुपया सबकी हालत पतली है.

विदेशी मुद्रा बाजार वाले कहते हैं डॉलर अमेरिका का सबसे मजबूत सैन‍िक है. यह कभी नहीं हारता. दूसरी करेंसी को बंधक बनाकर वापस अमेरिका के पास लौट आता है


Saturday, January 16, 2021

भविष्य की मुद्रा

 


इतिहास, बड़ी घटनाओं से नहीं बल्कि उनकी प्रति‍क्रिया में हुए बदलावों से बनता है. दूसरा विश्व युद्ध घोड़े की पीठ पर बैठकर शुरू हुआ था लेकिन खेमे उखड़ने तक एटम दो हिस्सों में बांटा जा चुका था. इतिहास बनाने वाले असंख्य बड़े आवि‍ष्कार इसी युद्ध के खून-खच्चर से निकले थे.

कोविड के दौरान भी पूर्व और पश्चि‍म, दोनों ही जगह नई वित्तीय दुनिया की नींव रख दी गई है. सितंबर-अक्तूबर में जब भारत मोबाइल ऐप्लिकेशन पर प्रतिबंध जरिए चीन को 'सबक सि‍खा रहा था उस वक्त कई अर्थव्यवस्थाएं निर्णायक तौर पर डिजिटल और क्रिप्टो मुद्राओं की तरफ बढ़ चली थीं.

चीन ने इस बार भी चौंकाया. अक्तूबर में शेनझेन में पीपल्स बैंक ऑफ चाइना (चीन का रिजर्व बैंक) ने डिजि‍टल युआन का पहला परीक्षण किया. दक्षि‍णी चीन की तकनीक व वित्तीय गतिवि‍धि‍यों का केंद्र, शेनझेन चीन के सबसे नए शहरों में एक है. शहर के प्रशासन ने 15 लाख डॉलर की एक लॉटरी निकाली. विजेताओं को मोबाइल पर डिजिटल युआन का ऐप्लिकेशन मिला, जिसके जरिए वे शेनझेन की 3,000 दुकानों पर खरीदारी कर सकते थे.

यह संप्रभु डिजिटल करेंसी की शुरुआत थी. इधर, सितंबर में अमेरिका के नैसडैक में सूचीबद्ध कंपनी माइक्रोस्ट्रेटजी को शेयर बाजार नियामक (एसईसी) अपने फंड्स (425 मिलियन डॉलर) बिटक्वाइन में रखने की छूट दे दी और इस तरह अमेरिका में क्रिप्टोकरेंसी को आधि‍कारिक मान्यता मिल गई.

दिसंबर 2020 आते आते बिटक्वाइन की कीमत एक साल में 295 फीसद बढ़ गई क्योंकि महामारी के दौरान निवेशकों ने अपने फंड्स का एक हिस्सा सोने की तरह बिटक्वाइन में रखना शुरू कर दिया.

क्रिप्टोकरेंसी 2009 से सक्रिय हैं. बिटक्वाइन (ब्लॉकचेन तकनीक आधारित) एक कोऑपरेटिव करेंसी (इस जैसी 6000 और) है.

ई-करेंसी बाजार का सबसे संभावनामय घटनाक्रम यह है कि दुनिया के करीब आधा दर्जन देशों के केंद्रीय बैंक डिजिटल करेंसी (सीबीडीसी) की तैयारी शुरू कर रहे हैं. यही वजह है महामारी के दौरान, चीन और अमेरिका के घटनाक्रम क्रिप्टो व डिजि‍टल करेंसी के भविष्य का निर्णायक मोड़ बन गए हैं.

स्वीडन का रिक्सबैंक (दुनिया का सबसे पुराना केंद्रीय बैंक) ई-क्रोना का परीक्षण कर रहा है. सिंगापुर की मौद्रिक अथॉरिटी ने सरकारी निवेश कंपनी टेमासेक और जेपी मॉर्गन चेज के साथ ई-करेंसी का परीक्षण पूरा कर लिया है. बहामा और वेनेजुएला भी रास्ते हैं. इन सबमें चीन सबसे आगे है.

दुनिया के केंद्रीय बैंक ई-करेंसी ला क्यों रहे हैं? इसलिए क्योंकि ऑनलाइन पेमेंट की व्यवस्था कुछ ही कंपनियों के हाथ (क्रेडिट कार्ड, मोबाइल वालेट) केंद्रि‍त हो रही है जो मौद्रिक व्यवस्था की लिए चुनौती बन सकती है. आइएमएफ का नया अध्ययन बताता है कि ई-करेंसी से वित्तीय संचालनों को सस्ता कर बड़ी आबादी तक बैंकिंग सुविधाएं पहुंचाई जा सकती हैं और महंगाई  पूंजी का प्रवाह संतुलित कर मौद्रिक नीति को प्रभावी बनाया जा सकता है.

केंद्रीय बैंक ई-करेंसी की डिजाइन, कानूनी बदलाव, साइबर सिक्योरिटी और निजता के सुरक्षा के जटिल मुद्दों पर काम कर रहे हैं.

तकनीकों के इस सुबह के बीच डि‍जिटल इंडिया बदहवास सा है. 2018 में जब कई देशों में डिजिटल करेंसी पर काम शुरू हुआ तब रिजर्व बैंक ने क्रिप्टोकरेंसी के सभी संचालनों पर रोक लगा दी. क्रिप्टोकरेंसी खरीदना-बेचना अवैध हो गया.

सुप्रीम कोर्ट को यह प्रति‍बंध नहीं जंचा. इंटरनेट मोबाइल एसोसिएशन जो भारत में क्रिप्टो एक्सचेंज चलाते हैं उनकी याचिका पर मार्च 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने रिजर्व बैंक के आदेश को रद्द कर दिया. अदालत ने कहा कि भारत में क्रिप्टोकरेंसी के लिए कोई कानून ही नहीं है इसलिए प्रतिबंध नहीं लग सकता. कारोबार फिर शुरू हो गया. ताजा खबरों के मुताबिक, स्थानीय क्रिप्टो एक्सचेंज में कारोबार दस गुना बढऩे की खबर थी.

बीते अगस्त में सुना गया था कि सरकार एक कानून बनाकर क्रिप्टोकरेंसी पर पाबंदी लगाना चाहती है जबकि दिसंबर में यह खबर उभरी कि बिटक्वाइन कारोबार पर जीएसटी लग सकता है.

इधर, बीती जनवरी में नीति आयोग ने एक शोध पत्र में ब्लॉकचेन तकनीकों का समर्थन करते हुए बताया कि इनके जरिए भारत में 2030 तक 3 ट्रिलियन डॉलर के कारोबार किया जा सकता है.

संप्रभु ई-करेंसी अब दूर नहीं हैं. स्टैंडर्ड ऐंड पुअर अगले साल क्रिप्टोकरेंसी इंडेक्स लाने जा रहा है लेकिन भारत के निजाम का असमंजस खत्म नहीं होता.

हम कम से कम चीन-सिंगापुर से तो सीख ही सकते हैं, क्योंकि इतिहास बताता है कि तकनीकों की बस में जो पहले चढ़ते हैं वही आगे रहते हैं.

मार्को पोलो लिखता है कि 13वीं सदी में कुबलई खान ने शहतूत की छाल से बने कागज पर पहली बार गैर धात्विक करेंसी शुरू की. खान का आदेश था यह मुद्रा सोने-चांदी जितनी मूल्यवान है. इसे मानो या मरो. यूरोप ने मार्को पोलो को गंभीरता से नहीं लिया लेकिन वक्त ने साबित किया कि मंगोल सुल्तान वक्त से आगे चल रहा था.

Monday, October 24, 2016

मेड इन चाइना

चीन की भारत में पैठ पटाखों से कहीं ज्यादा गहरी और व्यापक है. देश भक्ति का उच्‍छवास ठीक है लेकिन चीन के दबदबे की हकीकत सख्‍त, कड़वी,  तल्‍ख है  

ब पिछले हफ्ते मेड इन चाइना सामान पर फेसबुक/वॉट्सऐप निर्मित गुस्सा बरस रहा थापटाखों-बल्बों की खरीद रोककर चीन की इकोनॉमी को मटियामेट करने के आह्वान टीवी चैनलों की सुर्खियों में पहुंचने लगे थे. ठीक उसी समय मुंबई में रिजर्व बैंक के अधिकारी यह गणित लगा रहे थे कि भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार का कितना हिस्साकैसे युआन (चीन की करेंसी) में बदला जाना है.

पाक समर्थित आतंकियों पर भारत की सर्जिकल स्ट्राइक के तीन दिन बाद ही युआन दुनिया की पांचवीं सबसे ताकतवर करेंसी बन गया था. अक्तूबर का पहला हफ्ता लगते ही युआन को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के एसडीआर (स्पेशल ड्राइंग राइट्स) में जगह मिल गई. यह मुद्राओं का आभिजात्य क्लब है जिसमें अमेरिकी डॉलरजापानी येनब्रिटिश पाउंड और यूरो के बाद सिर्फ युआन को जगह मिली है. विभिन्न देशों के विदेशी मुद्रा भंडार एसडीआर के फॉर्मूले पर बनते हैं इसलिए भारत सहित दुनिया के सभी देश अब विदेशी मुद्रा खजाने में डॉलरपाउंडयूरोयेन के साथ युआन को भी सहेजेंगे.

भारतीय बाजार में चीन के दबदबे को लेकर हम पिछली सरकारों को कोसकर अपनी कुंठा मिटा सकते हैं लेकिन वित्तीय बाजारों के मजाकिये यूं ही नहीं कहते कि भगवान ने दुनिया बनाई और इसमें जो भी बना वह मेड इन चाइना है. जब कोई देश दुनिया के आधे से अधिक पर्सनल कंप्यूटरदो तिहाई डीवीडीअवनखिलौने बनाता हो तो मेड इन चाइना दुनिया के सभी बाजारों के लिए भारत जैसी ही तल्ख हकीकत है. चीनी जलवे को ग्लोबल अर्थव्यवस्था के ऐसे बदलावों ने गढ़ा है जिन्हें रोक पाना शायद किसी के बस में नहीं था.

ग्लोबल अर्थव्यवस्था में चीन के शिखर पर पहुंचने से पहले के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता.जब कोई एक देश पूरी दुनिया का सबसे बड़ा मैन्युफैक्चरिंग पावरहाउस बनकर दुनिया भर के बाजारों पर काबिज हो जाए. यह कतई नामुमकिन नहीं है कि चीनी सामान के बहिष्कार के मोबाइल संदेश जिस फोन से भेजे या देखे जा रहे हैंवह फोन या उसके पुर्जे चीन में बने हों. संदेश ले जाने वाला मोबाइल नेटवर्क चीनी कंपनियों जीटीई या हुआवे ने बनाया हो या फिर सिम कार्ड चीन से आए हों. अगर फोन कोरिया या जापान का है तो भी उसमें चीन शामिल होगा क्योंकि दोनों देश चीन से 70 अरब डॉलर के इलेक्ट्रॉनिक्स आयात करते हैं. हो सकता हैजिस बिजली से यह फोन चार्ज हुआ हैउसे बनाने वाली इकाई में चीनी टरबाइन लगे हों.

चीन की भारत में पैठ पटाखों से कहीं ज्यादा गहरी और व्यापक है. पटाखों का आयात बमुश्किल 10 लाख डॉलर भी नहीं होगा. विदेश व्यापार के आंकड़ों के मुताबिकचीन से भारत का सबसे बड़ा आयात इलेक्ट्रॉनिक्स (20 अरब डॉलर)न्यूक्लियर रिएक्टर और मशीनरी (10.5 अरब डॉलर)केमिकल्स  (6 अरब डॉलर)फर्टिलाइजर्स  (3.2 अरब डॉलर)स्टील (2.3 अरब डॉलर) का है. 2015-16 में भारत ने चीन से 61 अरब डॉलर का आयात किया जिसमें शीर्ष दस आयात का हिस्सा 48 अरब डॉलर था.

चीन के बाद भारत का सबसे बड़ा आयात अमेरिकासऊदी अरब और अमीरात से होता है. चीन से होने वाला आयात इन तीनों से ज्यादा है. फिर भी पटाखा क्रांतिकारियों को ध्यान रखना होगा कि दुनिया को 2 ट्रिलियन डॉलर से अधिक के चीनी निर्यात में भारत का हिस्सा तीन फीसदी से भी कम है! चीन की चुनौती को भावुक नहीं बल्कि तर्कसंगत ढंग से लेना होगा. भारतीय अर्थव्यवस्था में चीन के दबदबे का ताजा आधिकारिक अध्ययन उपलब्ध नहीं है. आखिरी कोशिश 2011 में हुई थी जब तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था में चीन के दखल का गोपनीय आकलन किया. निष्कर्ष चौंकाने वाले थेः

1. चीन अपने उत्पादों की कीमतें भारत के मुकाबले 40 फीसदी तक सस्ती कर सकता है. बाजार इस हकीकत की तस्दीक करता है.
2. भारत के टेलीकॉम आयात में चीन का हिस्सा 2011 में ही 62 फीसदी था. अब यह 75 फीसदी से ऊपर होगा.
3. चीन दुनिया का सबसे बड़ा बल्क ड्रग (दवा) निर्माता है और एपीआइ (एक्टिव फॉर्मा इनग्रेडिएंटस) और बल्क ड्रग की आपूर्ति के लिए भारत चीन पर शत प्रतिशत निर्भर है.
4. बिजली संयंत्र और इलेक्ट्रॉनिक्स सामान के लिए भारत के अधिकांश सामान की जरूरत चीन से पूरी होती है. और सबसे महत्वपूर्ण
5. भारत के मैन्युफैक्चरिंग जीडीपी में चीन का हिस्सा 2011 में 26 फीसदी था जो अगले पांच साल में 75 फीसदी होना था. यह आकलन सही साबित हुआ है.

पूरी दुनिया दशक भर पहले यह मान चुकी है कि चीन जो खरीदेगा वह महंगा होगा और जो बेचेगावह सस्ता. दुनिया के देश इस समीकरण को स्वीकारते हुए रणनीतियां बना रहे हैं. भारत को भी इस वास्तविकता की रोशनी में बहिष्कार के बजाए उत्पादन लागत घटाने के तरीकों पर काम करना होगा और छोटी इकाइयोंतकनीकशोध पर फोकस करना होगा जो कम लागत वाले चीनी आयात का विकल्प खड़े कर सकते हैं.

चीन-पाकिस्तान गठजोड़ की तरफ लौटते हैंपटाखे जहां से फूटना शुरू हुए हैं. पिछले साल इस्लामाबाद दौरे से पहले चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पाकिस्तान को भविष्य का एशियाई टाइगर (पाकिस्तान के डेली टाइम्स में छपा लेख) कहा था. दुनिया की किसी भी महाशक्ति ने उसमें यह संभावना कभी नहीं देखी. चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर में चीन का निवेश 46 अरब डॉलर है जो पाकिस्तान के जीडीपी का 20 फीसदी है. जाहिर हैअमेरिका ने कई दशकों तक साथ रहकर भी पाकिस्तान को ऐसी आर्थिक ताकत नहीं दी जो चीन लेकर पहुंचा है.



हमें समझना होगा कि चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. उसके इतने बड़े होने के बाद से सुरक्षा का अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य सिरे से बदल गया है. चीन के साथ खड़ा पाकिस्तान दरअसल अमेरिका के साथ छह दशक तक रहे पाकिस्तान से कहीं ज्यादा स्थिर और सक्षम है. चीन अमेरिका की तरह पाकिस्तान से मीलों दूर नहीं बल्कि उसकी अपनी जमीन पर कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहा है. चीन का रणनीतिक रसूख उसकी आर्थिक शक्ति से निकला है. देशभक्ति के भावुक उच्छवास ठीक हैं लेकिन भारत को अपनी आर्थिक ताकत बढ़ानी होगीक्योंकि दुनिया में रणनीतिक शक्ति का झंडा अब कार्गो शिप लेकर चलते हैंबैटल शिप नहीं.

Sunday, November 29, 2015

युआन की दहाड़

युआन का एसडीआर में आना महज वित्तीय घटना नहीं है इससे ग्लोबल आर्थिक-राजनैतिक संतुलन में वे बड़े बदलाव शुरू होंगे जिनका आकलन वर्षों से हो रहा था.
क्कीसवीं सदी का इतिहास लिखते हुए यह जरूर दर्ज होगा कि चीन शायद उतनी तेजी से नहीं बदला जितनी तेजी से उसके बारे में दुनिया का नजरिया बदला. बात इसी सितंबर की है जब अमेरिका में भारतीय प्रधानमंत्री सहित लगभग सभी ग्लोबल राष्ट्राध्यक्ष मौजूद थे लेकिन अहमियत रखने वाली निगाहें केवल चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अमेरिका की यात्रा पर थीं, जो यह सुनिश्चित करने के लिए बीजिंग पहुंचे थे कि चीन की मुद्रा युआन (जिसे रेन्मिन्बी भी कहते हैं) को करेंसी के उस आभिजात्य क्लब में शामिल किया जाएगा जिसमें अब तक केवल अमेरिकी डॉलर, जापानी येन, ब्रिटिश पाउंड और यूरो को जगह मिली है. सितंबर में वाशिंगटन के कूटनीतिक गलियारों में तैरती रही यह मुहिम, बीते पखवाड़े बड़ी खबर बनी जब आइएमएफ ने ऐलान किया कि उसके विशेषज्ञ एसडीआर में युआन के प्रवेश पर राजी हैं. इसके साथ ही तय हो गया कि अक्तूबर 2016 में युआन को दुनिया की पांचवीं सबसे ताकतवर करेंसी बनाने की औपचारिकता पूरी हो जाएगी. एसडीआर में युआन के प्रवेश से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए ऐसी साख मिली है जिसका कोई सानी नहीं है.
विदेशी मुद्रा संकट में फंसे देशों के लिए आइएमएफ की मदद अंतिम सहारा होती है जो कि हाल में ग्रीस या यूरोप के अन्य संकटग्रस्त देशों को और 1991 में भारत को मिली थी. आइएमएफ के तहत एसडीआर यानी स्पेशल ड्राइंग राइट्स एक संकटकालीन व्यवस्था है. एसडीआर एक तरह की करेंसी है जो आइएमएफ के सदस्य देशों के विदेशी मुद्रा भंडार के हिस्से के तौर पर गिनी जाती है. संकट के समय इसके बदले आइएमएफ से संसाधन मिलते हैं. एसडीआर एक तकनीकी इंतजाम है जिसकी जरूरत दुर्भाग्य से ही पड़ती है लेकिन परोक्ष रूप से यह क्लब दरअसल दुनिया के विदेशी मुद्रा भंडारों के गठन का आधार है. दुनिया के लगभग सभी देशों के विदेशी मुद्रा भंडार डॉलर, येन, पाउंड और यूरो पर आधारित हैं, युआन अब इनमें पांचवीं करेंसी होगी.
एसडीआर ने 46 साल के इतिहास में बहुत कम सुर्खियां बटोरी हैं. इस दर्जे को पाने के लिए आइएमएफ की शर्तें इतनी कठिन हैं कि कोई देश इस तरफ देखता ही नहीं. 2001 में कई यूरोपीय मुद्राओं के विलय से बना यूरो इसका हिस्सा बना था. किसी मुद्रा के लिए आइएमएफ के मूल्यांकन की दो शर्तें हैं. पहली शर्त है कि इस मुद्रा को जारी करने वाला देश बड़ा निर्यातक होना चाहिए. विश्व निर्यात में 11 फीसदी हिस्से के साथ चीन इस पैमाने पर बड़ी ताकत है. निर्यात के पैमाने पर युआन डॉलर व यूरो के बाद तीसरे नंबर पर है, येन और पाउंड काफी पीछे हैं.
एसडीआर क्लब में सदस्यता की दूसरी शर्त है कि करेंसी का मुक्त रूप से इस्तेमाल हो सके. इस पैमाने पर चीन शायद खरा नहीं उतरता, क्योंकि युआन पर पाबंदियां आयद हैं और इसकी कीमत भी बाजार नहीं बल्कि सरकार तय करती है, लेकिन यह चीन का रसूख ही है कि आइएमएफ ने मुक्त करेंसी के पैमाने पर युआन के लिए परिभाषा बदली है. आइएमएफ का तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय विनिमय में युआन का हिस्सा काफी बड़ा है. 2014 में यह विभिन्न देशों के मुद्रा भंडारों में सातवीं सबसे बड़ी करेंसी थी. ग्लोबल करेंसी स्पॉट ट्रेडिंग में युआन 11वीं और बॉन्ड बाजारों में सातवीं सबसे बड़ी करेंसी है. यही वजह थी कि अपरिवर्तनीय होते हुए भी युआन को वह दर्जा मिल गया जो लगभग असंभव है.
युआन की यह ऊंचाई, बड़े बदलाव लेकर आएगी. एसडीआर में पांचवीं करेंसी आने के साथ अगले कुछ महीनों में दुनिया के देश अपने विदेशी मुद्रा भंडारों का पुनर्गठन करेंगे और युआन का हिस्सा बढाएंगे. माना जा रहा है कि करीब एक ट्रिलियन डॉलर के अंतरराष्ट्रीय विदेशी मुद्रा भंडार युआन में बदले जाएंगे यानी कि डॉलर की तर्ज पर युआन की मांग भी बढ़ेगी. वल्र्ड बैंक का मानना है कि अगले पांच साल में दुनिया की कंपनियां बड़े पैमाने पर युआन केंद्रित बॉन्ड जारी करेंगी, जिन्हें वित्तीय बाजार 'पांडा बॉन्ड' कहता है. इनका आकार 50 अरब डॉलर तक जा सकता है जो वित्तीय बाजारों में इसकी हनक कई गुना बढ़ाएगा.
युआन ने खुद को ग्लोबल रिजर्व करेंसी बनाने की तरफ कदम बढ़ा दिया है. ग्लोबल बाजारों में ब्रिटिश पाउंड का असर सीमित है, जापानी येन एक ढहती हुई करेंसी है और यूरो का भविष्य अस्थिर है. इसलिए अमेरिकी डॉलर और युआन शायद दुनिया की दो सबसे प्रमुख करेंसी होंगी. दरअसल, चीन चाहता भी यही था, इसलिए युआन का एसडीआर में आना केवल एक वित्तीय घटना नहीं है बल्कि इससे ग्लोबल आर्थिक-राजनैतिक संतुलन में वे बदलाव शुरू होंगे जिनका आकलन वर्षों से हो रहा था. दरअसल, यहां से दुनिया में डॉलर के एकाधिकार की उलटी गिनती पर बहस ज्यादा तथ्य और ठसक के साथ शुरू हो रही है, क्योंकि दुनिया के करीब 45 फीसदी अंतरदेशीय विनिमय अमेरिकी डॉलर में होते हैं जिसके लिए अमेरिकी बैंकिंग सिस्टम की जरूरत होती है, जल्द ही इसका एक बड़ा हिस्सा युआन को मिलेगा.
चीन जिस ग्लोबल आर्थिक ताकत बनने के सफर पर है, उसमें युआन का यह दर्जा सबसे अहम पड़ाव है, लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि दरअसल चीन उतना नहीं बदला है जितना कि दुनिया का नजरिया चीन के प्रति बदल गया है. चीन में आज भी लोकतंत्र नहीं है और वित्तीय तंत्र पहले जैसा अपारदर्शी है फिर से दुनिया ने चीन की ताकत को भी स्वीकार कर लिया है. लेकिन अब चीन को बड़े बदलावों से गुजरना होगा. युआन शायद उन सुधारों की राह खोलेगा, ग्लोबल रिजर्व करेंसी की तरफ बढऩे के लिए विदेशी मुद्रा सुधार, बैंकिंग सुधार, वित्तीय सुधार जैसे कई कदम उठाने होंगे, जिनकी तैयारी शुरू हो गई है. सीमित रूप से उदार और गैर-लोकतांत्रिक चीन अगर इतनी बड़ी ताकत हो सकता है तो सुधारों के बाद चीन का ग्लोबल रसूख कितना होगा, इसका अंदाज फिलहाल मुश्किल है.
भारत में नई सरकार आने से लगभग एक साल पहले चीन के राष्ट्रपति बने जिनपिंग ने अपने राजनैतिक व आर्थिक लक्ष्य बड़ी सूझबूझ व दूरदर्शिता के साथ चुने हैं और सिर्फ दो साल में उन्हें ऐसे नतीजों तक पहुंचाया है जिन्हें चीन ही नहीं, पूरी दुनिया महसूस कर रही है. क्या हम चीन से कुछ सीखना चाहेंगे?