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Saturday, September 7, 2019

मंदी के आर-पार


मंदी या लंबी आर्थिक गिरावट सिर्फ इसलिए बुरी नहीं होती कि वह हमें तोड़ देती है बल्कि ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वह हमें किस हाल में ले जाकर छोड़ देती हैअठारह महीने से जारी यह मंदी कब थमेगीइसके संकेत मिलने अभी बाकी हैंअगली तिमाही और मुश्किल भरी हो सकती है लेकिन मंदी से उबरने तक भारतीय बाजार में प्रतिस्पर्धा कमोबेश हमारा साथ छोड़ चुकी होगी.

·     मोबाइल नेटवर्क चाहे जितने घटिया हों लेकिन अगले कुछ माह में हमें शायद दो कंपनियों में एक को चुनना होगाबीएसएनल की बीमारी लाइलाज हो चुकी हैमंदी के बीच वोडाफोन-आइडिया संकट में है यानी कि टेलीकॉम सेवा में प्रतिस्पर्धा आखिरी सांसें ले रही है.
·     स्मार्ट फोन के बाजार में भी बहुत से विकल्प नहीं रहेंगेवहां भी चीन और कोरिया की दो कंपनियां करीब 50 फीसदी बाजार हिस्सा कब्जा चुकी हैंदेशी कंपनियां किसी गिनती में नहीं रहीं.

·     पिछले सात साल में सबसे बुरा वक्त देख रहे विमानन उद्योग में जेट एयरवेज की विदाई के बाद अब प्रतिस्पर्धा सिर्फ दो कंपनियों के बीच सिमट गई है.

·     2015 में एक दर्जन से अधिक ई-कॉमर्स कंपनियां भारत में हंस खेल रही थीं लेकिन अब पूरा रिटेल (ऑनलाइन और स्टोरबाजार अब पूरी तरह दो अमेरिकी कंपनियों के पास चला गया हैअमेरिकी ग्लोबल रिटेल स्टोर दिग्गज वालमार्ट ने फ्लिपकार्ट के अधिग्रहण के साथ खुद को ई-कॉमर्स में स्थापित कर लिया तो ई-कॉमर्स की सुल्तान अमेरिकी कंपनी अमेजन ने भारतीय रिटेल दिग्गज फ्यूचर ग्रुप में हिस्सेदारी खरीद ली हैअब रिटेल बाजार वालमार्ट बनाम अमेजन में बदल गया है.

·     बीते बरस सितंबर में सेबी के चेयरमैन इस बात पर फिक्रमंद थे कि भारत के म्युचुअल फंड बाजार केवल चार कंपनियां या फंड 47 फीसदी निवेश क्यों संभाल रहे हैं जबकि (ऐसेट मैनेजमेंटकंपनियां तो 38 हैंशेयर बाजार में ताजा गिरावट के बाद तो अब दो या तीन खिलाड़ी ही बचेंगे.

भारतीय बाजार पहले से ही एकाधिकारों और कंपनियों की मिलीभगत का दर्द झेल रहा हैकोयलापेट्रो ईंधनबिजली ग्रिडबिजली उत्पादन जैसे बड़े क्षेत्रों में सरकार का एकाधिकार हैइंडियन ऑयल जल्द ही भारत पेट्रोलियम का अधिग्रहण कर लेगी यानी कि पेट्रो उद्योग में प्रतिस्पर्धा और सिमट जाएगीस्टीलदुपहिया वाहनप्लास्टिकएल्युमिनियमट्रक और बसेंकार्गोरेलवेसड़क परिवहनकई प्रमुख उपभोक्ता उत्पाद सहित करीब एक दर्जन उद्योगों या सेवाओं में एक से लेकर तीन कंपनियां (निजी या सरकारीकाबिज हैं.

लंबी खिंचती मंदी प्रतिस्पर्धा के लिए सबसे बड़ी सजा का ऐलान हैमंदी से लड़ने के तरीके बहुत सीमित हैंउद्योग सरकार से मदद की उम्मीद करते हैं लेकिन जब सरकार के पास खर्च बढ़ाने या टैक्स घटाने के मौके नहीं (जैसा कि अब हैहोते तो उद्योगों के पास कीमत कम करने का आखिरी विकल्प बचता हैत्योहारी मौसम के मद्देनजर देश में यह आखिरी कोशिश शुरू हो रही है.

मगर ठहरिएकीमतें कम होने से हालात बदल नहीं जाएंगेयहां से एक दुष्चक्र शुरू होने का खतरा हैयह मंदी कीमतें ऊंची होने की वजह से नहीं हैमहंगाई रिकॉर्ड न्यूनतम स्तर पर हैजीएसटी कम हुआ हैमंदी तो आय न बढ़ने के कारण हैलोगों के पास बचत नहीं हैइसलिए खपत नहीं बढ़ी.

दुनिया के अन्य बाजारों के तजुर्बे बताते हैं कि मंदी के दौर में जब कंपनियां कीमत घटाती हैं तो सिर्फ बड़ी कंपनियां इस होड़ में टिक पाती हैंक्योंकि मंदी के बीच कीमत घटाकर उसका असर झेलने की क्षमता सभी कंपनियों में नहीं होतीटेलीकॉम इसका उदाहरण हैजहां कीमतें कम होने से कंपनियां ही मर गईं.
पिछले छह-सात वर्षों मेंभारतीय बाजार में प्रतिर्स्धा सिकुड़ गई हैविदेशी कंपनियों के आक्रामक विलयअधिग्रहण और कर्ज के कारण बड़े पैमाने पर कंपनियां बंद हुई हैंनोटबंदीजीएसटी ने मझोली कंपनियों को सिकोड़कर स्थानीय बाजारों में प्रतिस्पर्धा को भी सीमित कर दियाजिसकी वजह से कई लोकल ब्रांड खेत रहे.

कहते हैं कि मंदी के बाद अमेरिकी पूंजीवाद को वापस लौटने में पांच दशक लग गएभारत भी जब इस मंदी से उबरेगा तो यहां कई क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा सिमट चुकी होगीकंपनियां हमेशा एकाधिकार चाहती हैंगूगल-फेसबुक वाली नई दुनिया तो वैसे ही एकाधिकार से परेशान है.

कंपनियों के एकाधिकार सरकारों के लिए भी मुफीद होते हैं क्योंकि राजनीति-कॉर्पोरेट गठजोड़ आसानी से चलता हैलाइसेंस परमिट राज में यही तो होता थालेकिन इस पर सवाल उठाने होंगेक्योंकि अर्थव्यवस्था को खुली होड़ चाहिएसीमित प्रतिस्पर्धा वाले क्षेत्रों में नई कंपनियों के प्रवेश की नीति जरूरी हैपांच-छह बड़ी और असंख्य छोटी कंपनियां हर क्षेत्र में होनी ही चाहिएइससे निवेश आएगा और रोजगार भी.

हैरत नहीं कि प्रसिद्ध कारोबारी बोर्ड गेम ‘मोनोपॉली’ (भारत में व्यापारअमेरिका की महामंदी के दौरान सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ थाबेकारी के दौर में लोग खेल वाले नोटों की अदला-बदली से समय काटते थे और कृत्रिम कारोबार खरीदते-बेचते थेअगर हम नहीं चेते तो बड़ी कंपनियां मंदी की बिसात पर यह खेल शुरू कर देंगीजिसकी कीमत हम रोजगार में कमीखराब सेवाएं और घटिया उत्पाद खरीद कर चुकाएंगे.

Sunday, January 6, 2019

महंगाई की दूसरी धार


अभी खुदरा महंगाई सोलह महीने के सबसे निचले स्तर पर है और थोक महंगाई चार महीने के न्यूनतम स्तर पर लेकिन..

·       महंगाई में कमी और जीएसटी दरें कम होने के बावजूद खपत में कोई बढ़त नहीं है.

·   बिक्री में लगातार गिरावट के बावजूद कार कंपनियां कीमत बढ़ा रही हैं

·       जीएसटी में टैक्स कम होने के बावजूद सामान्यतः खपत खर्च में घरेलू सामान की खरीद का हिस्सा 50 फीसदी रह गया है, जो दस साल पहले 70 फीसदी होता था

·       जीएसटी के असर से उपभोक्ता उत्पादों या सेवाओं की कीमतें नहीं घटी 
हैं. कुछ कंपनियों ने लागत बढऩे की वजह से कीमतें बढ़ाई ही हैं

·       पर्सनल लोन की मांग जनवरी 2018 से लगातार घट रही है

·       उद्योगों को कर्ज की मांग में कोई बढ़त नहीं हुई क्योंकि नए निवेश नहीं हो रहे हैं  

·      महंगाई में कमी का आंकड़ा अगर सही है तो ब्याज दरें मुताबिक कम नहीं हुई हैं बल्कि बढ़ी ही हैं

इतनी कम महंगाई के बाद अगर लोग खर्च नहीं कर रहे तो क्या बचत बढ़ रही है?

लेकिन मार्च 2017 में बचत दर पांच साल के न्यूनतम स्तर पर थी. अब 
इक्विटी म्युचुअल फंड में निवेश घट रहा है.

महंगाई कम होना तो राजनैतिक नेमत है. इससे मध्य वर्ग प्रसन्न होता है. लेकिन तेल की कीमतों में ताजा बढ़त और रुपए की कमजोरी के बावजूद महंगाई नहीं बढ़ी है.

अर्थव्यवस्था जटिल हो चुकी है और सियासत दकियानूसी. महंगाई दुधारी तलवार है. अब लगातार घटते जाना अर्थव्यवस्था को गहराई से काट रहा है. महंगाई के न बढ़ने के मतलब मांग, निवेश, खपत में कमी, लागत के मुताबिक कीमत न मिलना होता है. महंगाई में यह गिरावट इसलिए और भी जटिल है क्योंकि दैनिक खपत वस्तुओं में स्थानीय महंगाई कायम है. यानी आटा, दाल, सब्जी, तेल की कीमत औसतन बढ़ी है जिसके स्थानीय कारण हैं.



पिछले चार साल में वित्त मंत्रालय यह समझ ही नहीं पाया कि उसकी चुनौती मांग और खपत में कमी है न कि महंगाई. किसी अर्थव्यवस्था में मांग को निर्धारित करने वाले चार प्रमुख कारक होते है.

एक —निजी उपभोग खर्च जिसका जीडीपी में हिस्सा 60 फीसदी होता था, वह घटकर अब 54 फीसदी के आसपास है. 2015 के बाद से शुरू हुई यह गिरावट अभी जारी है, यानी कम महंगाई और कथित तौर पर टैक्स कम होने के बावजूद लोग खर्च नहीं कर रहे हैं.

दो—अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश खपत की मांग से बढ़ता है. 2016-17 की पहली तिमाही से इसमें गिरावट शुरू हुई और 2017-18 की दूसरी तिमाही में यह जीडीपी के अनुपात में 29 फीसदी पर आ गया. रिजर्व बैंक मान रहा है कि मशीनरी का उत्पादन ठप है. उत्पादन क्षमताओं का इस्तेमाल घट रहा है. दिसंबर तिमाही में निवेश 14 साल के निचले स्तर पर है. ऑटोमोबाइल उद्योग इसका उदाहरण है.

तीन— निर्यात मांग को बढ़ाने वाला तीसरा कारक है. पिछले चार साल से निर्यात में व्यापक मंदी है. आयात बढ़ने के कारण जीडीपी में व्यापार घाटे का हिस्सा दोगुना हो गया है.

चार—100 रुपए जीडीपी में केवल 12 रुपए का खर्च सरकार करती है. इस खर्च में बढ़ोतरी हुई लेकिन 88 फीसदी हिस्से में तो मंदी है. खर्च बढ़ाकर सरकार ने घाटा बढ़ा लिया लेकिन मांग नही बढ़ी.

गिरती महंगाई एक तरफ किसानों को मार रही है, जिन्हें बाजार में समर्थन मूल्य के बराबर कीमत मिलना मुश्किल है. खुदरा कीमतें भले ही ऊंची हों लेकिन फल-सब्जियों की थोक कीमतों का सूचकांक पिछले तीन साल से जहां का तहां स्थिर है. दूसरी ओर, महंगाई में कमी जिसे मध्य वर्ग लिए वरदान माना जाता है वह आय-रोजगार के स्रोत सीमित कर रही है.

आय, खपत और महंगाई के बीच एक नाजुक संतुलन होता है. आपूर्ति का प्रबंधन आसान है लेकिन मांग बढ़ाने के लिए ठोस सुधार चाहिए. 2012-13 में जो होटल, ई कॉमर्स, दूरसंचार, ट्रांसपोर्ट जैसे उद्योग व सेवाएं मांग का अगुआई कर रहे थे, पिछले वर्षों में वे भी सुस्त पड़ गए. मोदी सरकार को अर्थव्यवस्था में मांग का प्रबंधन करना था ताकि लोग खपत करें और आय व रोजगार बढ़ें लेकिन नोटबंदी ने तो मांग की जान ही निकाल दी.

2009 में आठ नौ फीसदी की महंगाई के बाद भी यूपीए इसलिए जीत गया क्योंकि मांग व खपत बढ़ रही थी और सबसे कम महंगाई की छाया में हुए ताजा चुनावों में सत्तारूढ़ दल खेत रहा. तो क्या बेहद कम या नगण्य महंगाई 2019 में मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है, न कि महंगाई का बढ़ना? 

Sunday, April 15, 2018

हंगामा है यूं बरपा


- किस दूसरी पार्टी के पास होंगे इतने दलित सांसद और विधायकआंबेडकर स्मारकों से लेकर राष्ट्रपति बनाने तकदलित अस्मिता प्रतीकों को साधने में भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी. फिर भी दलित समुदाय में भाजपा के खिलाफ गुस्सा खौल रहा है.

- नरेंद्र मोदी ने 2014 चुनाव का बिगुल फूंकने के साथ ही किसान रटना शुरू कर दिया था. सत्ता में आने के बाद फसल बीमाखाद की आपूर्तिजनधन से लेकर कर्ज माफी तक वह सब कुछ किया गया जो किसानों को राजनैतिक रूप से करीब रखने के लिए जरूरी था. लेकिन गुजरात और महाराष्ट्र से लेकर मध्य प्रदेश तक किसान भाजपा सरकारों को सिर के बल खड़ा करने को बेताब हैं.

- मुद्रास्टार्ट अपस्किल इंडियामाइक्रोफाइनेंस... युवाओं का भला न भी हुआ हो लेकिन मोदी सरकार ने इस संवेदनशील राजनीतिक समूह को नीतियों को केंद्र में रखने की भरसक कोशिश की है लेकिन देश में युवा और छात्र सरकार के खिलाफ बगावत की मशालें जला रहे हैं. 

पोस्ट ट्रुथ (जब सार्वजनिक समझ अकाट्य तथ्यों पर आधारित न होकर भावनात्मक या आस्थाजन्य प्रचार से प्रभावित होती है) समय का पहला चरण नेताओं के नाम था. वे तथ्यहीन भावनात्मक उभार से जनमत बदल कर फलक पर छा गए. लेकिन क्या लोग अब भावना के क्षितिज से उतर कर सचाई की जमीन पर आने लगे हैंसरकार के चाणक्य यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जिन्हें उन्होंने सबसे ज्यादा दुलारा-पुचकारावे ही क्यों बागी हो चले हैं?

भाजपा सरकारों के विरोध में तनी दलितकिसान और युवा (पाटीदारमराठाजाटगूजर) मुट्ठियों को. सरकारी पार्टी विपक्षी साजिश की कथाओं में लपेट रही है लेकिन यह तर्क विपक्ष में अचानक इतनी ताकत भर देता है जो उसमें है ही नहीं. केंद्र से लेकर 20 राज्यों में बहुमत की ताकत से लैस सरकारों के सामने विपक्ष इतने सारे आंदोलन कैसे पैदा कर पा रहा है?

कुछ ऐसी आवाजें भी सुनाई पड़ती हैं कि सरकार लोगों तक अपनी बात नहीं पहुंचा पा रही है. ध्यान रखिए यह तर्क उस सरकार की तरफ से आ रहा हैअभी हाल तक जिसकी संवाद प्रयोगशालाओं पर अभिनंदन बरस रहे थे.

इस बहुआयामी घनीभूत विरोध की वजहें कुछ दूसरी हैं जो अपनी बांसुरी की बेसुरी धुन में मुग्ध सरकारों को शायद ही सुनाई दें. 

- जातीय और धार्मिक विभाजनों की परत के ऊपर आर्थिक विभाजन परत चढ़ी है. पिछले करीब एक दशक की मंदी ने भारतीय समाज को आर्थिक रूप से सुरक्षित और असुरिक्षत वर्गों में बांट दिया है. सरकारी कर्मचारीनिजी रोजगारीमझोले कारोबारीबड़े उद्योगपतिपेंशनयाफ्ता पहले वर्ग में हैं. मंदी से इनका कारोबार व कमाई भले ही न बढ़ी हो लेकिन उनका काम चल रहा है. इनका संगठित रसूख वेतन आयोग या जीएसटी की रियायतों में दिख जाता है. 

किसान और बेरोजगार युवा असुरक्षित आर्थिक तबके का हिस्सा हैंनई सरकार बनने के बाद जिनकी दुश्वारियां कई गुना बढ़ी हैं. जैसे कि पिछले एक दशक में सबसे ज्यादा नई नौकरियां लाने वाले दूरसंचार उद्योग में 2015 के बाद से करीब 50,000 नौकरियां जा चुकी हैं. लगभग इतने ही लोग 2018 में बेकार हो जाएंगे. किसानों की मुसीबत ने ही सरकार को समर्थन मूल्य पर शीर्षासन करा दिया है.

सामाजिक अर्थशास्त्र बताता है कि मंदी हमेशा सबसे पहले सबसे निचले तबके को मारती है और ग्रोथ सबसे पहले सबसे ऊंचे तबके को फलती है. नोटबंदी व जीएसटी से सबसे पहले अकुशल लोगों का रोजगार गया. जातीय ढांचे में जो सबसे नीचे हैंआर्थिक क्रम में भी उनकी वही जगह है. इसलिए आर्थिक नाउम्मीदी का दर्द जातीय पहचानों के गुस्से में फूट रहा है.

- राजनीति में प्रतीकवाद बढ़ रहा है. पिछले तीन-चार साल में भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों ने दलितयुवाकिसान प्रतीकों को चमकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. आंबेडकर के नाम पर इतना अधिक प्रचार कभी नहीं हुआ होगा.

एक सीमा से अधिक प्रतीकवाद गवर्नेंस के लिए राजनैतिक जोखिम बन जाता है. जमीन पर जब स्थितियां विपरीत हों और बदलाव न दिखे तो प्रतीकों को चमकाना चिढ़ पैदा करता है. भाजपा सरकारों का अति प्रचार और शून्य बदलाव झुंझलाहट और क्षोभ पैदा कर रहा है.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार आंदोलनों का चरित्र बदला हुआ है. सरकार से कुछ मांगा नहीं जा रहा है बल्कि जद्दोजहद हक को बचाने की है. दलितोंकिसानों और युवाओं को यह महसूस हो रहा है कि जो उन्हें  मिला थाउसे भी छीना जा सकता है. इसलिए सरकारों को बार-बार यथास्थिति बनाए रखने की दुहाई देनी पड़ रही है.

यह मोहभंग है या सरकारों पर अविश्वासलेकिन जो भी हैबेहद खतरनाक है. 

Monday, January 8, 2018

जिसका डर था...


मंदी हमेशा बुरी होती है, लंबी मंदी और भी बुरी. 2018 में सात वर्ष पूरे कर रही मंदी ने भारत की सबसे बड़ी आर्थिक दरार खोल दी है. 1991 के बाद पहली बार किसान और उपभोक्ता आमने-सामने खड़े हो गए हैं. पिछले 25 वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ जब गांव और शहर इस तरह आमने-सामने आए हों.

आर्थिक सुधारों की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि इसने गांव और शहर के बीच राजनैतिक बंटवारे को सिकोड़ दिया था. सुधारों के पहले पांच साल में ही गांव और शहरों के बीच की दूरी घटने लगी थी. दोनों अर्थव्यवस्थाओं के पास एक दूसरे को देने के लिए कुछ न कुछ था. शहरों के पास बढ़ती आबादी थी और गांवों के पास उपज. शहरों के पास अवसर थे, गांवों के पास श्रम था. शहरों के पास सुविधाएं, सेवाएं, तकनीक थीं, गांवों के पास उनकी मांग.

सुधारों के करीब ढाई दशक बाद आज यह समझा जा सकता है कि इस बदलाव ने सरकारों और राजनीति को, गांव और शहरों को (सड़क, मोबाइल, बिजली) जोडऩे पर बाध्य किया न कि बांटने पर. 2006-07 में तेज आर्थिक विकास के बीच कांग्रेस ने मनरेगा के जरिए गांवों को राजनीति के केंद्र में लाने की आंशिक कोशिश की. मनरेगा तेज आर्थिक विकास के बीच आई थी इसलिए इससे एक ओर गांवों में आय बढ़ी तो दूसरी ओर उद्योगों को नई मांग मिली.

यही वह समय था जब गांवों में एक नया मध्य वर्ग तैयार हुआ. पिछले एक दशक में शिक्षा, चिकित्सा, संचार की अधिकांश नई मांग इसी ग्रामीण और अर्धनगरीय मध्य वर्ग से निकली है. 2007 के बाद ग्रामीण और कस्बाई बाजार के लिए रणनीतियां हर कंपनी की वरीयता पर थीं.

ताजा मंदी ने यह संतुलन बिगाड़ दिया. मंदी ने हमें 2011-12 में पकड़ा. 2014 में सरकार बदलते वक्त ई-कॉमर्स, शेयर बाजार, होटल और यात्रा जैसे कुछ क्षेत्र ही दहाई के अंकों की रफ्तार दिखा रहे थे. औद्योगिक उत्पादन और भवन निर्माण ठप था, सेवाएं भी सुस्त पड़ गई थीं.

फिर भी 2008 से 2014 के बीच माकूल मौसम, समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी, नगरीय आबादी की बढ़ती मांग, गांवों में जमीन की बेहतर कीमत और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कृषि जिंसों की तेजी ने खेती को दौड़ाए रखा था. 2014 के सूखे के बाद चार साल में उपज बिगड़ी और कीमतें गिरीं.

पिछले 25 साल में आर्थिक सुस्ती के छोटे दौर आए हैं लेकिन यह पहला सबसे लंबा कालखंड है जबकि अर्थव्यवस्था के सभी इंजन सुस्त या बंद हैं.

सबसे बड़ी दुविधा

2014 में सरकार ने इस संकल्प के साथ शुरुआत की थी कि अब समर्थन मूल्य नहीं बढ़ेंगे क्योंकि इनसे महंगाई बढ़ती है. भूमि अधिग्रहण कानून पर राजनैतिक चोट और सूखे के कारण समर्थन मूल्य बढ़ाना पड़ा. महंगाई आई तो दालों के आयात से बाजार में कीमतें टूट गईं. नतीजतन मंदसौर में दाल की कीमत मांगते किसानों को पुलिस की गोलियां मिलीं.

गांव और शहर अब दो ध्रुवों पर खड़े हैं:

- किसान को अपनी उपज का मूल्य चाहिए. पैदावार पर 50 फीसदी मुनाफे का चुनावी वादा (जो तर्कसंगत नहीं था) राजनैतिक आफत है. कहां 2014 में सरकार समर्थन मूल्यों को सीमित कर रही थी लेकिन अब हरियाणा में सब्जी पर भी सरकारी कीमत देने की कोशिश हो रही है, हालांकि वह बेहद कम है. सरकारों के बजट इससे ज्यादा की इजाजत नहीं देते.

- दूसरी तरफ समर्थन मूल्य में कोई भी बढ़त महंगाई को दावत है. इस साल की शुरुआत मुद्रास्‍फीति के साथ हुई है. तेल कीमतें, बजट घाटा सब मिलकर महंगाई के लिए ईंधन जुटा रहे हैं. शहरों में बेकारी और आय में कमी के बीच चुनाव के साल में महंगाई का जोखिम राजनैतिक मुसीबत बन जाएगा.

किसान और उपभोक्ता के बीच संतुलन का इलाज खुदरा बाजार में विदेशी निवेश और मंडी कानून की समाप्ति हो सकती थी लेकिन वहां भाजपा का पारंपरिक वोट बैंक है, जिसने दोनों बेहद संवेदनशील सुधार परवान नहीं चढऩे दिए. इन्हीं की एक घुड़की में जीएसटी का शीर्षासन हो गया.


पिछले दो दशक में यह पहला मौका है जब किसान और उपभोक्ता, दोनों एक साथ परेशान हैं. दोनों जगह आय घटी है और अवसर कम हुए हैं. प्रोत्साहन की चौखट पर अब किसान और उपभोक्ता, दोनों को एक साथ बिठाना असंभव हो चला है. इस साल का बजट बताएगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गांव की पूंछ पकड़ चुनावी वैतरणी उतरेंगे या उपभोक्ताओं को पुचकार कर सियासत साधेंगे. मंदी न चाहते हुए भी गांव बनाम शहर की विभाजक सियासत को चुनाव के केंद्र में ले आई है.

Sunday, December 10, 2017

इसलिए खास है गुजरात, इस बार


Image- The mint 2015

हार्दिक पटेल की चमत्‍कारिक लोक‍प्रियताराहुल गांधी की तुर्शीभाजपा के राज्‍य नेतृत्‍व के फीकेपन और जीएसटी की मार के बावजूद कोई समझदार राजनीतिक प्रेक्षक गुजरात में भाजपा को कमजोर आंकने की गलती नहीं कर सकता.

फिर भी इस बार गुजरात खास क्‍यों है  ऐसा क्‍या है जो गुजरात की जंग इतनी कंटीली हो गई है. ?

यह पिछले तीन साल का कमाल है जिसने गुजरात के चुनाव को भारत में पिछले पच्‍चीस सालों का सबसे रहस्‍यमय चुनाव बना दिया है  यह चुनाव तीन ऐसे सवालों के जवाब लेकर आएगा जिनसे भारतीय राजनीति पहली बार मुकाबिल है

पहला - क्‍या गहरी आर्थिक मंदी का चुनावी राजनीति से क्‍या रिश्‍ता है 

दो - क्‍या तरक्‍की के बावजूद असमानतायें बढ़ती रह सकती हैं और उनके चुनावी फलित भी हो सकते हैं

तीसरा - क्‍या खौलते जनआंदोलनों के बावजूद लोगों के चुनावी फैसले अपरिवर्तित रह सकते हैं

बीते तीन साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्‍य में जो कुछ हुआ है वह भी शेष भारत से पूरी तरह फर्क है. ठीक उसी तरह जैसे कि पिछले दो दशक में गुजरात देश से अलग चमकता रहा था. यह उठा पटक नरेंद्र मोदी के गांधीनगर से दिल्‍ली जाने के बाद हुई. राजनीतिक आबो हवा में इस बदलाव की जड़ें राज्‍य की अर्थव्‍यवस्‍था में हैं.

गुजरात में माहौल बदलने की पहली सरकारी मुनादी जुलाई 2016 में हुई थी जब देश को पता चला कि 2014-15 के दौरान गुजरात गुजरात भारत में सबसे तेज विकास दर वाले पांच राज्यों से बाहर निकल गया है वह अब दसवें नंबर पर था और गहरी मंदी में धंस गया था. यह आंकड़ा जिस वित्‍तीय साल की तस्‍वीर बता रहा था वह नरेंद्र मोदी के बाद गुजरात का पहला वर्ष था.

इस वक्‍त तक पाटीदार आंदोलन पहला साल पूरा कर चुका था. आरक्षण की मांग कर रहे बेरोजगार युवाओं का आंदोलन भाजपा को राज्‍य का मुखिया बदलने पर मजबूर करने वाला था और 2017 में गुजरात को भाजपा के लिए सबसे करीबी लड़ाई बना देने वाला था जिसे वह चुटकियों में जीतती आई थी

मंदीबेकार और पाटीदार
गुजरात अगर कोई देश होता तो उसकी मंदी दुनिया में चर्चा का विषय होती. पिछले दो दशकों में गुजरात की ग्रोथ जितनी तेज रही है ढलान उससे कहीं ज्‍यादा तेज है. औद्योगिक बुनियादतटीय भूगोल और निजी पूंजी के कारण गुजरात औद्योगिक ग्रोथ का करिश्‍मा रहा है. भारत में सिर्फ छह फीसदी जमीन और पांच फीसदी जनसंख्‍या वाला गुजरात पूरे देश से तेज (दस फीसदी तक) दौड़ा. गुजरात ने देश के जीडीपी में 7.6 फीसदी व निर्यात में 22 फीसदी हिस्‍सा ले लिया. (रिजर्व बैंक और नीति आयोग के आर्थिक आंकड़ों की हैंडबुक में गुजरात के ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट- जीएसडीपी के वित्त वर्ष 2013-14 के बाद के आंकडे उपलब्‍ध नहीं हैं.)

लेकिन मैन्‍युफैक्‍चरिंग पर आधारित अर्थव्‍यवस्‍थायें मंदी में (सेवा या कृषि वाली अर्थव्‍यवस्‍थाओं के मुकाबले) ज्‍यादा तेजी से टूटती हैं इस‍लिए गुजरात में मंदी व बेकारी शेष भारत से कहीं ज्‍यादा गहरी है. यह ढलान 2013 से शुरु हुई. पाटीदार युवा आंदोलन और गुजरात में मंदी की शुरुआत समकालीन हैं. मंदी से कराहता गुजरात का कारोबार नोटबंदी और जीएसटी की चोट से  बिलबिला उठा और चुनावी नुकसान के डर से भाजपा को पूरा जीएसटी सर के बल खड़ा करना पड़ा. 

करिश्‍मे का असमंजस
मोदी के गुजरात का करिश्‍मा उसकी खेती के पुर्नजागरण में छिपा है. 2001 से 2011-12 तक गुजरात का कृषि उत्‍पादन देश की तुलना ( 3 फीसदी के मुकाबले 11 फीसदी) में अप्रत्‍याशित रुप से तेज था. खेतिहर ग्रोथ के बावजूद ग्रामीण गुजरात में सामाजिक सुविधायें पिछड़ी रही जो गवर्नेंस की पिछले दो दशक सबसे बड़ी उलझन है. 2013 से ही खेती भी मुश्किल में है जिसकी वजह मौसम (सूखा-बाढ़) भी है बाजार भी. शहर उद्योगसेवाओं और सरकारी नौकरी के कारण किसी तरह चल रहे हैंलेकिन मंदी ने गांवों के लिए मौके खत्‍म कर दिये हैं इसलिए ग्रामीण गुजरात का गुस्‍सा इस चुनाव में भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल है

आंदोलनों की हुंकार
गुजरात देश से कितना से अलग है पिछले तीन साल इसके गवाह हैं जब शेष भारत केंद्र की नई सरकार के नेतृत्‍व में अच्‍छे दिनों पर चर्चा कर रहा था तब गुजरात आंदोलनों से सुलग रहा था. इस राज्‍य ने जितने आंदोलन पिछले तीन साल में देखे हैं उतने हाल के वर्षों में नहीं हुए. ज्‍यादातर आंदोलन युवाओकिसान, कामगारों और व्‍यापारियों के थे  जो मंदी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं.

गुजरात अपने छोटे से भूगोल में आार्थिकसामाजिक और राजनीतिक कारकों की पेचीदगी समेटे है इसलिए  गुजरात का चुनाव पिछले दो दशक का सबसे रोमांचक चुनाव हो गया है.

गुजरात के नतीजे पहली बार हमें स्‍पष्‍ट रुप से बतायेंगे कि मंदी और बेकारी के बीच लोग कैसे वोट देते हैं लिखना जरुरी नहीं है कि यह निष्‍कर्ष भारत के भविष्‍य की आर्थिक राजनीति के लिए बहुत कीमती होने वाले हैं.