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Saturday, May 4, 2019

ताकत की साझेदारी




ब्बे के शुरुआती दशकों में अगर सत्तर की इंदिरा गांधी या आज के नरेंद्र मोदी की तरह बहुमत से लैस कोई प्रधानमंत्री होता तो क्या हमें टी.एनशेषन मिल पाते या भारत के लोग कभी सोच भी पाते कि लोकतंत्र को रौंदते नेताओं को उनकी सीमाएं बताई जा सकती हैं


अगर 1991 के बाद भारत में साझा बहुदलीय सरकारें न होतीं तो क्या हम उन स्वतंत्र नियामकों को देख पातेजिन्हें सरकारों ने अपनी ताकत सौंपी और जिनकी छाया में आर्थिक उदारीकरण सफल हुआ.

क्या भारत का राजनैतिक व आर्थिक लोकतंत्र बहुदलीय सरकारों के हाथ में ज्यादा सुरक्षित हैपिछले ढाई दशक के अद्‍भुत अखिल भारतीय परिवर्तन ने जिस नए समाज का रचना की हैक्या उसे संभालने के लिए साझा सरकारें ही चाहिए?

भारतीय लोकतंत्र का विराट और रहस्यमय रसायन अनोखे तरीके से परिवर्तन को संतुलित करता रहा हैइंद्रधनुषी (महामिलावटी नहींयानी मिलीजुली सरकारों से प्रलय का डर दिखाने वालों को इतिहास से कुछ गुफ्तगू कर लेनी चाहिएसत्तर पार कर चुके भारतीय लोकतंत्र को अब किसी की गर्वीली चेतावनियों की जरूरत नहीं हैउसके पास इतना अनुभव उपलब्ध है जिससे वह अपनी समझ और फैसलों पर गर्व कर सकता है.

1991 से पहले के दौर की एक दलीय बहुमत से लैस ताकतवर इंदिरा और राजीव गांधी की सरकारों के तहत लोकतांत्रिक आर्थिक संस्थाओं ने खासा बुरा वक्त देखा है.

अचरज नहीं कि भारत के आर्थिक और लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे अच्छे दशक बहुमत के दंभ से भरी सरकारों ने नहीं बल्कि समावेशीसाझा सरकारों ने गढ़े. 1991 के बाद भारत ने केवल ढाई दशक के भीतर गरीबी को कम करनेआय बढ़ानेरिकॉर्ड ग्रोथतकनीक के शिखर छूने और दुनिया में खुद स्थापित करने का जो करिश्मा कियाउसकी अगुआई अल्पमत की सरकारों ने की. 

तो क्या भारत के नए आर्थिक लोकतंत्र की सफलता केंद्र की अल्पमत सरकारों में निहित थी? 

स्वतंत्र नियामकों का उदय भारत का सबसे बड़ा सुधार थादरअसलमुक्त बाजार में निवेशकों के भरोसे के लिए दो शर्तें थीं

एक— नीति व नियमन की व्यवस्था पेशेवर विशेषज्ञों के पास होनी चाहिएराजनेताओं के हाथ नहींयानी कि सरकार को अपनी ताकत कम करनी थी ताकि स्वतंत्र नियामक बन सकें.
दो— सरकार को कारोबार से बाहर निकल कर अवसरों का ईमानदार बंटवारा सुनिश्चित करना चाहिए.

उदारीकरण के बाद कई नए रेगुलेटर बने और रिजर्व बैंक जैसी पुरानी संस्थाओं को नई आजादी बख्शी गईताकतवर सेबी के कारण भारतीय शेयर बाजार की साख दिग-दिगंत में गूंज रही हैबीमादूरंसचारखाद्यफार्मास्यूटिकल्स-पेट्रोलियमबीमापेंशनप्रतिस्पर्धा आयोगबिजली...प्रत्येक नए रेगुलेटर के साथ सरकार की ताकत सीमित होती चली गई.

इसी दौरान पहली बार बड़े पैमाने पर सरकारी कंपनियों का निजीकरण हुआयह आर्थिक लोकतंत्र की संस्थाओं का सबसे अच्छा दौर था क्योंकि इन्हीं की जमानत पर दुनिया भर के निवेशक आए.

साझा सरकारें भारत के राजनैतिक लोकतंत्र के लिए भी वरदान थींचुनाव आयोग को मिली नई शक्ति (जिसे बाद में कम कर दिया गयाराज्य सरकारों को लेकर केंद्र की ताकत को सीमित करने वाले और नए कानूनों को प्रेरित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले इसी दौर में आएसबसे क्रांतिकारी बदलाव दसवें से चौदहवें (1995 से 2015) वित्त आयोगों के जरिए हुआ जिन्होंने केंद्र से राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण का ढांचा पूरी तरह बदलकर राज्यों की आर्थिक आजादी को नई ताकत दी.

बहुमत की कौन-सी सरकार नियामकों या राज्यों को अधिकार सौंपने पर तैयार होगीमोदी सरकार के पांच साल में एक नया नियामक (रियल एस्टेट रेगुलेटर पिछली सरकार के विधेयक परनहीं बनाउलटे रिजर्व बैंक की ताकत कम कर दी गईचुनाव आयोग मिमियाने लगा और सीएजी अपने दांत डिब्बों में बंद कर चुका हैयहां तक कि आधार जैसे कानून को पारित कराने के लिए लोकसभा में मनी बिल का इस्तेमाल हुआ.

सरकारें गलत फैसले करती हैं और माफ भी की जाती हैंमुसीबतें उनके फैसलों के अलोकतांत्रिक तरीकों (मसलननोटबंदीसे उपजती हैंइस संदर्भ मेंसाझा सरकारों का रिकॉर्ड एक दल के बहुमत वाली सरकारों से कहीं ज्यादा बेहतर रहा है.

पिछले सात दशक के इतिहास की सबसे बड़ी नसीहत यह है कि एक दलीय बहुमत वाली ताकतवर सरकारें और सशक्त लोकतांत्रिक संस्थाएं एक साथ चल नहीं पा रही हैंजब-जब हमने एक दलीय बहुमत से लैस सरकारें चुनी हैं तो उन्होंने लोकतंत्र की संस्थाओं की ताकत छीन ली है.

नेता तो आते-जाते रहेंगेउभरते भारत को सशक्त लोकतांत्रिक संस्थाएं चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में ‘‘सरकार को जनता से डरना चाहिएजनता को सरकार से नहीं.’’ 

Sunday, October 28, 2018

ताकत देने के खतरे



''भी युद्ध अंततः खत्म हो जाते हैं, लेकिन सत्ता और सियासत जो ताकत हासिल कर लेती है वह हमेशा बनी रहती है.''    —फ्रैंक चोडोरोव

भारत की शीर्ष जांच एजेंसी (सीबीआइ) की छीछालेदर को देख रहा 71 साल का भारतीय लोकतंत्र अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी दुविधा से मुकाबिल है. यह दुविधा पिछली सदी से हमारा पीछा कर रही है कि हमें ताकतवर लोकतांत्रिक संस्थाएं चाहिए या फिर ताकतवर सरकारें

दोनों एक साथ चल नहीं पा रही हैं. 

यदि हम ताकतवर यानी बहुमत से लैस सरकारें चुनते हैं तो वे लोकतंत्र की संस्थाओं की ताकत छीन लेती हैं.

भारतीय लोकतंत्र के 1991 से पहले के इतिहास में हमारे पास बहुमत से लैस ताकतवर सरकारों (इंदिरा-राजीव गांधी) की जो भी स्मृतियां हैं, उनमें लोकतांत्रिक संस्थाओं यानी अदालत, अभिव्यक्ति, जांच एजेंसियों, नियामकों के बुरे दिन शामिल हैं. 1991 के बाद बहुमत की पहली सरकार हमें मिली तो उसमें भी लोकतंत्र की संस्थाओं की स्‍वायत्तता और निरपेक्षता सूली पर टंगी है.

इस सरकार में भी लोकतंत्र का दम घोंटने का वही पुराना डिजाइन है. ताकतवर सरकार यह नहीं समझ पाती कि वह स्वयं भी लोकतंत्र की संस्था है और वह अन्य संस्थाओं की ताकत छीनकर कभी स्वीकार्य और सफल नहीं हो सकती.

क्या सीबीआइ ताकत दिखाने की इस आदत की अकेली शिकार है? 

- सरकार का कार्यकाल खत्म होने के करीब है लेकिन सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बावजूद लोकपाल नहीं बन पाया. पारदर्शिता तो बढ़ाने वाले व्हिसिलब्लोअर कानून ने संसद का मुंह नहीं देखा लेकिन सूचना के अधिकार को सीमित करने का प्रस्ताव संसद तक आ गया. 

- जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट को सरकार ने अपनी ताकत दिखाई और लोकतंत्र सहम गया. रिजर्व बैंक की स्वायत्तता में दखल हुआ तो पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों में थू-थू हुई.

- सूचना प्रसारण मंत्रालय ने गलत खबरों को रोकने के बहाने खबरों की आजादी पर पंजे गड़ा दिए. विरोध हुआ और प्रधानमंत्री ने भूल सुधार किया.

- याद रखना जरूरी है कि मिनिमम गवर्नमेंट का मंत्र जपने वाली एक सरकार ने पिछले चार साल में भारत में एक भी स्वतंत्र नियामक नहीं बनायाल उलटे यूजीसी, सीएजी (जीएसटीएन के ऑडिट पर रोक) जैसी संस्थाओं की आजादी सिकुड़ गई. चुनाव आयोग का राजनैतिक इस्तेमाल ताकतवर सरकार के खतरे की नई नुमाइश है.

- सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि आखिर आधार का कानून पारित कराने के लिए लोकसभा में मनी बिल के इस्तेमाल की क्या जरूरत थी?

- ताकत के दंभ की बीमारी राज्यों तक फैली. राजस्थान सरकार चाहती थी कि अफसरों और न्यायाधीशों पर खबर लिखने से पहले उससे पूछा जाए. लोकतंत्र की बुनियाद बदलने की यह कोशिश अंततः खेत रही. मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा में सवाल पूछने के अधिकार सीमित करने का प्रस्ताव रख दिया. माननीय बेफिक्र थे, पत्रकारों ने सवाल उठाए और पालकी को लौटना पड़ा.

यह कतई जरूरी नहीं है कि लोकतंत्र में सरकार का हर फैसला सही साबित हो. इतिहास सरकारी नीतियों की विफलता से भरा पड़ा है. लेकिन लोकतंत्र में फैसले लेने का तरीका सही होना चाहिए. ताकतवर सरकारों की ज्यादातर मुसीबतें उनके अलोकतांत्रिक तरीकों से उपजती हैं. नोटबंदी, राफेल, जीएसटी, आधार जैसे फैसले सरकार के गले में इसलिए फंसे हैं क्योंकि जिम्मेदार संस्थाओं की अनदेखी की गई. 

जब अदालतें सामूहिक आजादियों से आगे बढ़कर व्यक्तिगत स्वाधानताओं (निजता, संबंध, लिंग भेद) को संरक्षण दे रही हैं तब लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वयत्तता के दुर्दिन देखने लायक हैं.

क्या 1991 के बाद का समय भारत के लिए ज्यादा बेहतर था जब सरकारों ने खुद को सीमित किया और देश को नई नियामक संस्थाएं मिलीं?

क्या भारतीय लोकतंत्र अल्पमत सरकारों के हाथ में ज्यादा सुरक्षित है?

क्या कमजोर सरकारें बेहतर हैं जिनके तईं लोकतंत्र की संस्थाएं ताकतवर रह सकती हैं?

हम सिर्फ वोट दे सकते हैं. यह तय नहीं कर सकते कि सरकारें हमें कैसा लोकतंत्र देंगी इसलिए वोट देते हुए हमें लेखक एलन मूर की बात याद रखनी चाहिए कि सरकारों को जनता से डरना चाहिए, जनता को सरकारों से नहीं.


Tuesday, March 27, 2018

कमजोर करने वाली 'ताकत'


सरकार
नवंबर 2014: ''सरकार नियामकों की व्यवस्था को सुदृढ़ करेगी. वित्तीय क्षेत्र कानूनी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) की महत्वपूर्ण सिफारिशें सरकार के पास हैंइनमें कई सुझावों को हम लागू करेंगे.''—वित्त मंत्री अरुण जेटलीमुंबई स्टॉक एक्सचेंज
फरवरी 2018: ''रेगुलेटरों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है. भारत में नेताओं की जवाबदेही है लेकिन नियामकों की नहीं.''—अरुण जेटलीपीएनबी घोटाले के बाद

नियामक
मार्च 2018: ''घाटालों से हम भी क्षुब्ध हैं लेकिन बैंकों की मालिक सरकार हैहमारे पास अधिकार सीमित हैं. '' उर्जित पटेल गवर्नररिजर्व बैंक
''बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो और वित्त मंत्रालय के बीच संवाद ही नहीं हुआ. हम वित्त मंत्री के साथ बैठक का इंतजार करते रहे''—विनोद रायबैंकिंग बोर्ड ब्यूरो के अध्यक्ष. (यह ब्यूरो बैंकों में प्रशासनिक सुधारों की राय देने के लिए बना था जो सिफारिशें सरकार को सौंप कर खत्म हो गया है.)

किसकी गफलत   

घोटालों के बाद सरकारें नियामकों या नौकरशाहों के पीछे ही छिप जाती हैं. लेकिन गौर कीजिए कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि पटेल की नियुक्ति या बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो का गठन इसी सरकार ने किया था. वे नियामक हैं इसलिए उन्होंने सरकार के सामने आईना रख दिया.

बैंकों में घोटालों के प्रेत को नियामकों की गफलत ने दावत नहीं दी. 2014 में वित्तीय क्षेत्र में सुधारों का एक मुकम्मल एजेंडा सरकार की मेज पर मौजूद था. कांग्रेस के हाथ-पैर कीचड़ में भले ही लिथड़े थे लेकिन 2011 में उसे इस बात का एहसास हो गया था कि वित्तीय सेवाओं को नए नियामकों व कानूनों की जरूरत है. जस्टिस बी.एन. श्रीकृष्णा के नेतृत्व में एक आयोग (एफएसएलआरसी) बनाया गया. उसकी रिपोर्ट 22 मार्च, 2103 को सरकार के पास पहुंच गई. 2014 में नई सरकार को इसे लागू करना था. वित्त मंत्री ने 2014 में मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के कार्यक्रम में इसी को लागू करने की कसम खाई थी.

एफएसएलआरसी ने सुझाया कि
- एक चूक से पूरे सिस्टम में संकट को रोकने (नीरव मोदी प्रकरण में पीएनबी के फ्रॉड से कई बैंक चपेट में आ गए) के लिए फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ऐंड डेवलपमेंट काउंसिल का गठन
- वित्तीय उपभोक्ताओं को न्याय देने के लिए फाइनेंशियल रेड्रेसल एजेंसी
वित्तीय अनुबंधोंसंपत्तिमूल्यांकन और बाजारों के लिए नए कानून
- जमाकर्ताओं की सुरक्षा के लिए नया ढांचा 

विभिन्न वित्तीय पेशेवरों के लिए नियामक बनाने के लिए प्रस्ताव भी सरकार के पास थे. पिछले चार साल में केवल बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो बना जिसके लिए वित्त मंत्री के पास समय नहीं था. इसलिए वह बगैर कुछ किए रुखसत हो गया. चार्टर्ड अकाउंटेंट्स नियामक की सुध नीरव मोदी घोटाले के बाद आई. अगर यह बन पाया तो भी एक साल लग जाएगा.

दकियानूस गवर्नेंस

हम भले राजनेताओं को गजब का चालाक समझते हों लेकिन दरअसल वे आज भी 'मेरा वचन ही है मेरा शासन' वाली गवर्नेंस के शिकार हैंयानी कि पूरी ताकत कुछ हाथों में. आज जटिल और वैविध्यवपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में इस तरह की सरकार बेहद जोखिम भरी है. अब सुरक्षित गवर्नेंस के लिए स्वंतत्र नियामकों की पूरी फौज चाहिए. इन्हें नकारने वाली सरकार राजनैतिक नुक्सान के साथ अर्थव्यवस्था में मुसीबत को भी न्योता देती हैं. 

मोदी सरकार किसी क्रांतिकारी सुधार को जमीन पर नहीं उतार सकी तो इसकी बड़ी वजह यह है कि निवेशक उस कारोबार में कभी नहीं उतरना चाहते जहां सरकार भी धंधे का हिस्सा है. इसीलिए रेलवेकोयला जैसे प्रमुख क्षेत्रों में स्वतंत्र नियामक नहीं बने. वहां सरकार नियामक भी है और कारोबारी भी.

पिछले चार साल में न नए नियामक बनाए गए और न ही पुराने नियामकों को ताकत मिलीइसलिए घोटालों ने घर कर लिया. हालत यह है कि लोकपाल बनाने पर सुप्रीम कोर्ट की ताजा लताड़ और अवमानना के खतरे के बावजूद सरकार इस पर दाएं-बाएं कर रही है.

राजनेता ताकत बटोरने की आदत के शिकार हैं. पिछले चार साल में केंद्र और राज्यदोनों जगह शीर्ष नेतृत्व ने अधिकतर शक्तियां समेट लीं और सिर्फ चुनावी जीत को सब कुछ ठीक होने की गारंटी मान लिया गया. ताकतवर नेता अक्सर यह भूल जाते हैं कि स्वतंत्र नियामक सरकार का सुरक्षा चक्र हैं. उन्हें रोककर या तोड़कर वे सिर्फ अपने और अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम बढ़ा सकते हैं. पिछले चार साल में यह जोखिम कई गुना बढ़ गया है.

घोटाले कहीं गए नहीं थे वे तो नए रहनुमाओं इंतजार कर रहे थे.

Tuesday, June 2, 2015

जोखिम में है गवर्नेंस



निगहबान और नियामक संस्‍थायें सरकार का सुरक्षा चक्र होती हैं. इनकी गैरमौजूदगी की वजह से पारदर्शिता के मामले में मोदी सरकार के जोखिम बढ़ने लगे हैं
सरकार के पहले एक साल में भ्रष्टाचार के किसी बड़े मामले का सामने न आना सिर्फ राहत की बात है, महोत्सव की हरगिज नहीं. ग्रैंड करप्शन सरकारों के पहले साल में नहीं उपजता. केंद्र में यूपीए की सरकार से लेकर राज्यों तक दर्जनों उदाहरण इसकी ताकीद करते हैं कि पुरानी होती सरकारें भ्रष्टाचार के खतरे के करीब खिसकती जाती हैं. यूपीए के घोटाले तो उसके दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्षों में निकले थे. ज्यादा चिंता इस बात पर होनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी सरकार ने पूरा साल उन जरूरी संस्थाओं को बनाने या मजबूत किए बगैर बिता दिया है जो एक विशाल देश के जटिल तंत्र में साफ-सुथरे कामकाज के लिए जरूरी हैं. मोदी ने पहले साल में न तो सरकारी तंत्र पर निगाह रखने वाली संवैधानिक संस्थाओं को ताकत दी और न ही नियामक सुधारों की सुध ली. निगहबानी संस्थाएं सरकारों का सुरक्षा चक्र होती हैं और स्वतंत्र नियामक खुले बाजार का. इस सुरक्षा चक्र की नामौजूदगी के कारण पारदर्शिता के मामले में मोदी सरकार के जोखिम बढऩे लगे हैं.
पिछले एक साल के फैसलों और उन्हें लेने के तरीकों को गहराई से परखने पर सरकार में गवर्नेंस की दुविधा झलकने लगती है. बात केवल केंद्रीय सतर्कता आयुक्त या केंद्रीय सूचना आयुक्तों की एक साल से लंबित नियुक्ति की ही नहीं है जिसे लेकर विपक्ष के तेवरों के बाद प्रधानमंत्री ने पहली बार सक्रियता दिखाई हैं. हकीकत यह है कि लोकपाल की स्थापना से लेकर विभिन्न क्षेत्रों में नियामक बनाने तक, सरकार पिछले साल में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकी. ऊहापोह केंद्रीकृत बनाम विकेंद्रित गवर्नेंस के बीच चुनाव की है. मोदी सत्ता के केंद्रीकरण को चुनते रहे हैं, जिसमें लोकपाल या सतर्कता आयोग जैसी संस्थाओं या स्वतंत्र आर्थिक नियामकों के लिए जगह मुश्किल से बनती है. जबकि आर्थिक सुधारों के बाद भारत में गवर्नेंस का जो मॉडल विकसित हुआ, उसमें सरकार और बाजार पर निगाह रखने वाली स्वायत्त संस्थाओं की ताकत बढ़ी है. दूरसंचार, बिजली बीमा और वित्तीय सेवाओं तक खुले बाजार को नियामकों ने बखूबी संभाला है जबकि सुप्रीम कोर्ट और सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने सरकारों की निगहबानी की है. इस नई व्यवस्था से अधिकारों में टकराव, फैसलों में देरी जैसी उलझनें जरूर पैदा हुई हैं लेकिन एक विशाल देश के भीमकाय बाजार और मनमाने राजनैतिक तंत्र को संभालने में इनकी उपयोगिता साबित भी हुई है.  मोदी सरकार अपने पहले एक साल में गवर्नेंस के इस बदले हुए ढांचे पर ठोस राय कायम नहीं कर सकी जिससे न केवल एक तदर्थवाद पैदा हुआ है, बल्कि रिजर्व बैंक के अधिकार कम करने की मुहिम ने यह बताया है कि सरकार स्वतंत्र नियामकों को लेकर सहज नहीं हैं. आदर्श तौर पर कोयला खदानों के पुनःआवंटन की प्रक्रिया एक स्वतंत्र नियामक को तय करनी चाहिए थी. यदि आवंटन में जल्दी थी तो उसके तत्काल बाद कोयला नियामक बनना चाहिए था ताकि कोयले की गुणवत्ता तय करने, कंपनियों के विवाद निबटाने, खनन की मॉनीटरिंग करने और कोयले की कीमत निर्धारित करने में सरकार का दखल कम होता. खदानों का आवंटन तो हो गया लेकिन नियामक न होने के कारण कोयला क्षेत्र में अपारदर्शिता व तदर्थवाद जस का तस है.
रेलवे में विदेशी निवेश परवान क्यों नहीं चढ़ा? रेलवे के लिए नियम बनाने का काम किसी स्वतंत्र रेगुलेटर को देना होगा ताकि बाजार में बराबरी की प्रतिस्पर्धा हो सके. रेलवे में सुधार के लिए बिबेक देबराय समिति मोदी सरकार ने ही बनाई थी लेकिन जब समिति ने रेगुलेटर बनाने की सिफारिश की तो सरकार सुस्त पड़ गई. विमानन, वित्तीय सेवाओं और रियल एस्टेट में रेगुलेटर बनाने पर भी कोई सक्रियता नजर नहीं आई है. मोदी को अपने पहले ही साल में लोकपाल के गठन की पहल करनी चाहिए थी. लेकिन यहां तो एक साल में केंद्रीय सतर्कता आयोग के अध्यक्ष का चयन भी नहीं हो सका. मोदी के लिए पारदर्शिता को लेकर अपने संकल्प को साबित करने का यह सबसे अच्छा मौका है, क्योंकि बीजेपी शुरू से सरकारी तंत्र के लिए लोकपाल जैसे ताकतवर नियामक के पक्ष में रही है. काला धन जैसे कानूनों के जरिए सरकारी अधिकारियों को नई ताकत से लैस किया जा रहा है, इस ताकत की निगहबानी के लिए संवैधानिक संस्थाओं का गठन और मजबूती, दरअसल पारदर्शिता को लेकर सरकार के कौल को और मुखर करेगी. मोदी का गवर्नेंस मॉडल राज्यों के लिए नजीर बन रहा है. पिछले बारह महीनों में जिस तरह प्रधानमंत्री कार्यालय में सत्ता का केंद्रीकरण बढ़ा है, ठीक उसी तर्ज पर राज्यों में मुख्यमंत्री कार्यालयों ने भी शक्तियां समेटी हैं. केंद्र में तो कम-से-कम सीएजी, सुप्रीम कोर्ट और दूसरी सक्रिय एजेंसियां हैं जो गवर्नेंस की निगहबानी कर सकती हैं, राज्यों में न तो सतर्कता का ढांचा है और न ही अदालतों के पास निगहबानी का अनुभव है. राज्यों में अभी नियामक सुधार शुरू भी नहीं हुए हैं जबकि निजीकरण और सरकारी खर्च के अगले बड़े आयोजन राज्यों में ही होने हैं.  निगहबानी व नियमन करने वाली संस्थाएं सरकार के अधिकारों में हिस्सा बंटाती हैं जो कोई सियासी नेता आसानी से देना नहीं चाहता. नरेंद्र मोदी ने भले गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर लोकायुक्त की ताकत को सीमित रखा हो या स्वतंत्र नियामक बनाने पर बहुत ध्यान न दिया हो लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें लोकपाल बनाने, सतर्कता ढांचे मजबूत करने और नियामक सुधारों में देर नहीं करनी चाहिए. सरकार को एक साल में यह एहसास हो गया है कि अच्छे दिन लाना जादू नहीं है, ठीक इसी तरह खुले बाजार में एक साफ-सुथरी सरकार चलाना भी जादू नहीं है. नेतृत्व के पारदर्शी होना, पूरे सिस्टम के साफ-सुथरा होने की गारंटी नहीं भी है. इस सरकार में सभी फैसले प्रधानमंत्री केंद्रित हैं इसलिए अगर सरकार पारदर्शिता के मोर्चे पर फिसलती है तो खामियाजे भी प्रधानमंत्री के खाते में ही दर्ज होंगे. मजबूत और ताकतवर नियामक-निगहबान संस्थाओं का सुरक्षा चक्र बनाकर ही मोदी इस जोखिम को सीमित कर सकते हैं. क्या वे ऐसा कर पाएंगे?