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Tuesday, January 1, 2019

एक था जीएसटी



99 फीसदी सामान व सेवाओं पर 18 फीसदी तक जीएसटी! 
97 फीसदी सामान सेवाएं तो पहले इसी दायरे में हैं
तो क्रांतिकारी उदारता का  यशोगान! 

कभी दूध कुछ इस तरह फट जाता है कि उससे पनीर तो दूररायता भी नहीं बनता. जीएसटी का हाल अब कुछ ऐसा ही समझिए. भारत की दूसरी आजादी (जैसा कि संसद में अर्धरात्रि इसकी शुरुआत के वक्त कहा गया था) 18 माह में ऐसी प्रणाली में बदल गई है जिसके आर्थिक मकसद ध्वस्त हो चुके हैं. जीएसटी दम तोड़ता हुआ एक सुधार हैचुनाव से पहले जिससे सियासी लाभ की बची-खुची बूंदें निचोड़ी जा रही हैं.

जीएसटी का राजस्व‍ संग्रह लक्ष्य से मीलों दूर है और खजानों का हाल खस्ता है. अगर सरकार शुरू से ही दो टैक्स दरों वाला जीएसटी लेकर चली होती तो बात दूसरी थी लेकिन अब तो जटिलताओं का अंबार गढ़ा जा चुका है.

सरकार को ठोस तौर पर यह भी पता नहीं कि गुजरात चुनाव से लेकर आज तक जीएसटी में रियायतों के बाद उत्पादों या सेवाओं की कीमतें कम हुई भी हैं क्योंकि कंपनियां लागत बढऩे के कारण मूल्य बढ़ा रही हैं. जीएसटी के तहत मुनाफाखोरी रोकने वाला तंत्र अभी शुरू नहीं हुआ जिससे पता चले कि रियायतों का फायदा किसे मिला है.

रियायतों के असर से खपत या मांग बढऩे या कंपनियों का कारोबार बढऩे के प्रमाण भी नहीं हैं.

तो फिर अचानक इस टैक्स दयालुता की वजह

·       पिछले 18 माह में सरकार को एहसास हो गया है कि राजस्व के मामले में मासिक एक लाख करोड़ रु. के संग्रह का लक्ष्य फिलहाल मुश्किल है. सेवाओं से टैक्‍स संग्रह में कमी आई है. जीएसटी अब केवल बड़े निर्माता और सेवा प्रदाता (जो पिछली प्रणाली में भी प्रमुख करदाता थे) के कर योगदान पर चल रहा है. छोटे करदाता और नए पंजीकरण वाले कारोबारी रियायतों की मदद से टैक्स चोरी के पुराने ढर्रे पर लौट आए हैं.

·       जीएसटी में अभी औसतन 60 फीसदी कारोबारी रिटर्न भर रहे हैं. ई वे बिल लागू होने के बाद पारदर्शिता आने की उम्मीदें भी खेत रही हैं. चुनाव के मद्देजनर टैक्स चोरी पर सख्ती मुश्किल है.

·       जीएसटी की प्रणालियां व नियम अभी तक स्थिर नहीं हैं. रफू-पैबंद जारी हैं. 

·       इसलिए चुनाव से पहले सरकार ने दो काम किए एकरिटर्न फॉर्म सालाना रिटर्न (9को अगले साल तक के लिए टाल दिया. इसके बिना करदाताओं के हिसाब सुचारु (इनवॉयस मैचिंग) करना और टैक्स क्रेडिट संभव नहीं है. यही वजह है कि जीएसटी का अर्थव्यवस्था पर कोई सकारात्मक असर नहीं दिखा. दोजीएसटी तो चल नहीं रहा तो इससे कम से कम चुनावी फायदा ही हो जाए.

जीएसटी के सियासी इस्तेमाल का केंद्र सरकार के पास यह आखिरी मौका था. पिछले 18 महीने में देश का राजनैतिक भूगोल बदल गया है. जीएसटी काउंसिल में अब विपक्ष के राज्यों की संख्या बढ़ चुकी है इसलिए आगे सहमति मुश्किल होने वाली है. काउंसिल की हालिया बैठक में इसके संकेत भी मिले. विपक्ष शासित राज्यजीएसटी को सिरे से बदलने की बातें करने लगे हैं.

कभी किसी मंत्री ने कहा था कि देश में हवाई चप्पल या कार पर एक जैसा कर नहीं हो सकता (अब 99 फीसदी...) या जीएसटी देश से टैक्स चोरी को मिटा देगा अथवा इससे कारोबार की लागत कम होगी या इससे जीडीपी बढ़ जाएगा. आज सरकार इन पर सवाल भी सुनना नहीं चाहती.

क्या जीएसटी राज्यों के वैट जैसे भविष्य की तरफ बढ़ रहा हैअपने शुरुआती वर्षों (2005-08में सफलता के बादराजनीति और वित्तीय दिक्कतों के चलते राज्यों ने वैट का अनुशासन तार-तार कर दिया. हालांकि जीएसटी वैट से कहीं ज्यादा सुगठित है लेकिन जब केंद्र सरकार ही चुनावी राजनीति के खातिर इसके अनुशासन का मुरब्बा बना चुकी तो राज्य भी अनुशासन तोड़ेंगे. ई वे बिल में राज्य स्तरीय रियायतें इसका नमूना हैं.

इसी फरवरी में हमने लिखा था कि जीएसटी का सुधारवाद अब इतिहास की बात है. भारत का सबसे नया सुधार सिर्फ सात माह में पुराने रेडियो की तरह हो गयाजिसे ठोक-पीट कर चलाया जा रहा है. अठारह माह बाद इस रेडियो में अब केवल चुनावी प्रसारण चल रहे हैं. कहना मुश्किल है कि अगले साल जीएसटी का क्या होगा लेकिन 2019 लगते-लगते यह साबित हो गया है कि हमारी सियासत सुधारों की समझ और साहस सिरे से दरिद्र हैं.

Sunday, November 4, 2018

कायम रहे बीमारी !



कागज देखना कुछ नहींटेलीफोन आयालोन दे दो. लोन चुकाने का समय आया तो नया लोन दे दो. जो गया सो गयाजमा करने के लिए नया लोन दे दो. यही कुचक्र चलता गया और भारत के बैंक एनपीए के जंजाल में फंस गए!

यह थे प्रधानमंत्रीदो माह पहले लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान! वे बता रहे थे कि यूपीए के दौर में किस तरह बैंकों को लूटा गया था. नेतासरकारबिचैलिए मिलकर बकाया कर्ज की देनदारी टाल (रिस्ट्रक्चर कर) देते थे. सरकार बदली तो यह लूट खुली. सक्चती की जा रही है. अब किसी को माफ नहीं किया जाएगा.

साठ दिन भी नहीं बीते कि अब सरकार रिजर्व बैंक पर ही आंखें तरेर रही है कि बकाया कर्ज को लेकर बैंकों पर कुछ ज्यादा ही सख्ती हो गई. कर्ज की किल्लत हो रही है. कर्जदारों को रियायत मिलनी चाहिए. बिजली कंपनियों के बकाया कर्ज की वसूली टाली जानी चाहिए.

इस दिल बदल का सबब क्या है?

चुनाव की धमक के साथ पारदर्शिता के संकल्पों की शवयात्रा प्रारंभ हो गई है.

छह माह पहले बैंकों के स्वच्छता अभियान की कसम खा रही सरकार ने जमा बकाया कर्ज के कीचड़ को ढकने के लिए रिजर्व बैंक की स्वायत्तता पर पंजे गड़ा दिए हैं. बैंकिंग सुधारों के सारे दावे और वादे सिर के बल खड़े होकर नृत्य कर रहे हैं.

2015 में इस सरकार के वही मंत्रीजो आज नियामकों को संविधान पढ़ा रहे हैंकह रहे थे कि अगर मोदी सरकार न आई होती तो देश को पता ही नहीं चलता कि किस तरह कर्ज पर कर्ज दिए गए. सरकार को फख्र था कि उसने रिजर्व बैंक को एनपीए (बकाया कर्ज) पहचानने का फॉर्मूला बदलने को कहा ताकि सच सामने आ सके.

रिजर्व बैंक ने फॉर्मूला बदलकर बकाया कर्ज से जूझते बैंकों को एक नई व्यवस्था के तहत रखा जिसे प्रॉम्प्ट करेक्टिव ऐक्शन (पीसीए) कहते हैं. इसके तहत रखे गए 11 सरकारी बैकों को ब्रांच नेटवर्क बढ़ानेकर्ज वितरण सीमित करनेलाभांश बांटने पर रोक लगाई गई. उन्हें अपने मुनाफों का बड़ा हिस्सा बकाया कर्ज के बदले पूंजी बनाने में लगाना पड़ रहा है. उनका मुनाफा गिर रहा है. रिजर्व बैंक ने बैंकों से कहा है कि अपने मालिक या सरकार से पूंजी लेकर आएं नहीं तो उनके डूबने का खतरा है.

अचरज देखिए कि पीसीए पिछले एक साल से अमल में है. अभी कल तक सरकार इस सख्ती पर फूल कर गुब्बारा हो रही थी. उसे लगता था कि बैंकों को बचाने के लिए यह जरूरी है. जून मेंइसी पीसीए के तहत सरकारी बैंकों ने अपनी पुनरोद्धार योजना सरकार को सौंपी थी लेकिन अब सरकार के अधिकारी यह कहते सुने जा रहे हैं कि रिजर्व बैंक ने पीसीए बनाने में वित्त मंत्रालय से राय नहीं ली.

यही सरकार है जो संसद में मेज ठोक कर कह रही थी कि बैंकों के कर्जदारों को बचाने की यूपीए की नीति अब खत्म हो चुकी है. लेकिन अब उसे लगता है कि निजी बिजली कंपनियों को इससे बाहर रखा जाए. बैंक उन्हें बकाया कर्ज में रियायत दें.

दरअसलचुनावी झोंक में ईमानदारी के हलफनामों और सुधारों के कौल की चिंदिया उड़ रही हैं. बकाया कर्ज को लेकर रिजर्व बैंक की सख्ती अचानक सरकार को इसलिए खलने लगी है क्योंकि उसे अब बैंकों से सस्ते कर्ज बंटवाने यानी लोकलुभावन इस्तेमाल की जरूरत है. सरकार तो यह भी चाहती है कि रिजर्व बैंक को मुश्किल में फंसी गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को भी पूंजी देनी चाहिए. लेकिन कोई भी नियामक कैसे सहमत होगा कि सुधारों की इबारत चुनाव देखकर बदल दी जानी चाहिए. अगर चुनाव है तो बैंकों को बकाया कर्ज के भंवर से निकालने के लिए सख्ती क्यों रुकनी चाहिएएनपीए के नियम सबके लिए एक जैसे होने चाहिए! कारोबारी गलतियों के लिए जमाकर्ताओं के पैसे से खैरात बांटना कैसे नैतिक है! 

दरअसलभारत में सिर्फ एक जमात ऐसी है जो सब कुछ केवल चुनाव को देखकर करती है. और शायद कोई काम या कारोबार सिर्फ पांच साल की एक्सपायरी डेट के साथ शुरू नहीं होता. राजनैतिक दल अपने चुनावी वादों से चाहे जो कॉमेडी कराएंलेकिन जब वे नीतियों को सिर के बल खड़ा करने लगते हैं तो स्वतंत्र नियामकों का यह दायित्व है कि वे सरकार को आईना दिखाएं. रिजर्व बैंक को धमका रही सरकार क्या समझ पा रही है कि लोकतंत्र में चुने प्रतिनिधि इसलिए सर्वोच्च हैं क्योंकि वे संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता की हिफाजत करने के लिए भेजे जाते हैंउन्हें डराने के लिए नहीं.

Sunday, August 5, 2018

लुटे या पिटे?



आज मैं एनपीए की कहानी सुनाना चाहता हूं......
'' बैंकों की अंडरग्राउंड लूट 2008 से 2014 तक चलती रही. छह साल में अपने चहेते लोगों को खजाना लुटा दिया गया बैकों से. तरीका क्या था कागज देखना कुछ नहींटेलीफोन आयालोन दे दो. लोन चुकाने का समय आया तो नया लोन दे दो. जो गया सो गयाजमा करने के लिए नया लोन दे दो. यही कुचक्र चलता गया और भारत के बैंक एनपीए के जंजाल में फंस गए!
एनपीए बढऩे का एक और कारण! यूपीए सरकार की नीतियों के कारण कैपिटल गुड्स आयात बढ़ा जिसका फाइनेंस बैंक लोन के जरिए किया गया.
(प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए)

यह पहला मौका नहीं था जब प्रधानमंत्री ने बैंक एनपीए को लूट कहा था. फरवरी में भी संसद में उन्होंने कहा था कि नेतासरकारबिचौलिए मिलकर कर्ज रिस्ट्रक्चर करते थे. देश लूटा जा रहा था.

प्रधानमंत्री की टिप्पणीबैंक कर्जों की वह कहानी हरगिज नहीं है जो पिछले चार साल में देश को बार-बार सुनाई गई है कि आर्थिक मंदी की वजह से कंपनियों की परियोजनाएं फंस गईंजिससे भारतीय बैंक आज 10 लाख करोड़ रु. के एनपीए में दबे हुए कराह रहे हैं.

क्या बैंकों के एनपीए संगठित लूट थेजो कंपनियों को कर्जों की रिस्ट्रक्चरिंग या लोन पर लोन देकर की गई थी?

क्या आयात के लिए भी कर्ज में घोटाला हुआ?

क्या बकाया बैंक कर्ज आपराधिक गतिविधि का नतीजा हैंआर्थिक उतार-चढ़ाव का नहीं?

अगर बैंकों के एनपीए यूपीए सरकार के चहेतों के संगठित भ्रष्टाचार की देन हैं तो फिर पिछले चार साल में इन्हें लेकर जो किया गया हैवह हमें दोहरे आश्चर्य से भर देता है.

2014 के बाद बैंकों के एनपीए पर सरकार कुछ इस तरह आगे बढ़ी:

·       फंसे हुए कर्जों की पहचान के तरीके और उन्हें एनपीए घोषित करने के पैमाने बदले गए. इनमें वे लोन भी थे जिन्हें 2008 के बाद रिस्ट्ररक्चर (विलंबित भुगतान) किया गया. 2008 के बाद बैंक कर्ज में सबसे बड़ा हिस्सा इन्हीं का है और प्रधानमंत्री ने इसी को बैंकों की लूट कहा है. यानी कि सरकार को पूरी जानकारी मिल गई कि यह कथित लूट किसने और कैसे की? 

· बैंकों को इन कर्जों के बदले अपनी पूंजी और मुनाफे से राशि निर्धारित (प्रॉविजनिंग) करनी पड़ीजिससे सभी बैंकों को 2017-18 में 85,370 करोड़ रु. का घाटा (इससे पिछले साल 473.72 करोड़ रु. का मुनाफा) हुआ. बैंकों के शेयर बुरी तरह पिटे.

·    कर्ज उगाही के लिए बैंकों ने दिवालिया कानून की शरण ली. इस प्रक्रिया में बैंकों को बकाया कर्जों का औसतन 60 फीसदी हिस्सा तक गंवाना होगा.

·   सरकार ने बैंकों को बजट से पूंजी दीयानी बैंकों की जो पूंजी यूपीए के चहेते उड़ा ले गए थेउसका एक बड़ा हिस्सा करदाताओं के पैसे से लौटाया गया.

यह सारी कार्रवाई तो कहीं से यह साबित नहीं करती कि बैंक एनपीएयूपीए के चहेतों की लूट थे!

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले साल अगस्त में राज्यसभा में बैं‌किंग नियमन संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान कहा था‘‘औद्योगिक और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में सरकारी बैंक ज्यादा कर्ज देते हैं. वहीं निजी बैंक उपभोक्ता बैंकिंग पर ज्यादा फोकस करते हैं. मैं इसका राजनीतिकरण करना नहीं चाहताकब दिएक्यों दिएग्लोबल इकोनॉमी बढ़त पर थी. कंपनियों ने अपनी क्षमताएं बढ़ाई. बैंकों ने लोन दिया. बाद में जिंसों की कीमतें गिर गई और कंपनियां फंस गईं.’’ 

वित्‍त मंत्री का आकलन तो प्रधानमंत्री से बिल्‍कुल उलटा है!

प्रधानमंत्री ने जो कहा है और सरकार ने बैकों के डूबे हुए कर्जों का जैसे इलाज किया हैउसके बाद बैंकों के एनपीए का शोरबा जहरीला हो गया है. 


पिछले चार साल में सरकार ने इसे कभी लूट माना ही नहीं और न ही आपराधिक कार्रवाई हुई. बैंकरप्टसी कानून सहित जो भी किया जा रहा है वह आर्थिक मुश्किल (वित्‍त मंत्रालय की सूझ के मुताबिक) का इलाज था. 

बैंकों और बजट को एनपीए का नुक्सान उठाना होगा लेकिन अगर यह लूट है तो यूपीए के चहेते कर्जदारों के खिलाफ कार्रवाई नजर नहीं आई? 

देश को यह बताने में क्या हर्ज है कि बैंकों का कितना एनपीए आर्थिक मंदी की देन हैकितना कर्ज यूपीए के चहेतों की उस लूट का हिस्सा है जिसका जिक्र प्रधानमंत्री बार-बार करते हैं.

बैंकों से लूटा गया पैसा आम लोगों की बचत है और बैंकों को मिलने वाली सरकारी पूंजी भी करदाताओं की है.

फिर किसे बचाया जा रहा है और क्यों?

ऐसा क्या है जिसकी परदादारी है?

Sunday, June 24, 2018

एक सुधार, सौ बीमार


  
 देर से आने वाले हमेशा दुरुस्त होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है. जैसे जीएसटी. सरकार को लोगों का धन्यवाद करना चाहिए कि उन्होंने दुनिया के सबसे घटिया जीएसटी के साथ एक साल गुजार लिया जो कहने को दुनिया में सबसे नया टैक्स सुधार था.

 पहली सालगिरह पर हमें, टीवी पर जीएसटी की पाठशाला चलाते मंत्री, जीडीपी के एवरेस्ट पर चढ़ जाने का दावा करते अर्थशास्त्री, टैक्स चोरी को मौत की सजा सुनाते भाजपा प्रवक्ताओं और संसद में एक जुलाई की आधी रात के उत्सव को नहीं भूलना होगा, जिसे भारत की दूसरी आजादी कहा गया था.

जीएसटी, यकीनन भव्य था. वजह थी तीन उम्मीदें. एकखपत पर टैक्स में कमी, दोकारोबार में सहजता यानी लागत में बचत, तीनटैक्स चोरी पर निर्णायक रोक.  सुधारों को दो दशक बीत गए लेकिन ये तीन नेमतें हमें नहीं मिली थीं. तेज विकास दर और बेहतर राजस्व के लिए इनका होना जरूरी था.

जीएसटी नोटबंदी नहीं है कि इसके असर को मापा न जा सके. सबसे पहले सरकार से शुरू करते हैं.

-  पिछली जुलाई से इस मई तक औसत मासिक जीएसटी संग्रह 90,000 (केंद्र-राज्य सहित) करोड़ रु. रहा है. न्यूनतम 107 से 110 लाख करोड़ रु. हर माह चाहिए ताकि जीएसटी से पहले का राजस्व स्तर मिल सके. यह इस साल मुश्किल है.

राजस्व मोर्चे पर जीएसटी औंधे मुंह क्यों गिरा?

- क्योंकि देश में बहुत छोटे कारोबारियों को छोड़कर सभी पर जीएसटी लगाया जाना था. हर माह तीन रिटर्न भरे जाने थे. लागत में शामिल टैक्स की वापसी होनी थी. लेकिन जीएसटी ने तो पहले दिन से ही कारोबारी सहजता का पिंडदान करना शुरू कर दिया. मरियल नेटवर्क, किस्म-किस्म की गफलतें देखकर गुजरात चुनाव के पहले सरकार ने 75 फीसदी करदाताओं को निगहबानी से बाहर कर दिया. दर्जनों रियायतें दी गईं.

पहले तीन माह के भीतर वह जीएसटी बचा ही नहीं, सुधार मानकर जिसका अभिषेक हुआ था. जीएसटी का सुधार पक्ष टूटते ही इससे मिलने वाले राजस्व की गणित बेपटरी हो गई. 

तो फिर जीएसटी सुधार क्यों नहीं बन पाया?

- क्योंकि कारोबारी सहजता इसके डीएनए में थी ही नहीं. जीएसटी एक या दो टैक्स दरें लेकर आने वाला था, पांच दरें और सेस नहीं. पूरे तंत्र में जटिलताएं इतनी थीं कि जीएसटी के खिलाफ कारोबारी बगावत की नौबत आ गई.
जन्म से ही दुर्बल और पेचीदा जीएसटी ने तीन माह बाद ही सुधारों वाले सभी दांत दान कर दिए. और फिर लामबंदी, दबावों, असफलताओं के कारण 375 से अधिक बदलावों की मार से जीएसटी उसी नेटवर्क जैसा लुंज-पुंज हो गया जिस पर उसे बिठाया गया था. बड़ी मुश्किल से अंतरराज्यीय कारोबार के लिए ई वे बिल अब लागू हो पाया है.   

किस्सा कोताह यह कि जीएसटी अब निन्यानवे के फेर में है.

- जीएसटी ने सरकारों के खजाने का बाजा बजा दिया है. कारोबारी सहजता के लिए टैक्स दरों की असंगति दूर करना जरूरी है. वह तब तक नहीं हो सकता जब तक राजस्व संग्रह संतोषजनक न हो जाए.

- पेट्रो उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने की मंजिल भी अभी दूर है.

- टैक्स चोरी जीएसटी की सबसे बड़ी ताजा मुसीबत है, यानी जिसे रोका जाना था वह भरपूर है. अगर राजस्व चाहिए या उपभोक्ताओं को जीएसटी को फायदे देने हैं तो अब कारोबारियों पर सख्ती करनी होगी यानी उनकी नाराजगी को न्योता देना होगा.

कारोबारी दार्शनिक निकोलस नसीम तालेब ने अपनी नई किताब स्किन इन द गेम में कहा है कि हमारे आसपास ऐसे बहुत लोग हैं जो समझने या सुनने की बजाए समझाने की आदत के शिकार हैं. जीएसटी शायद सरकार की इसी आदत का मारा है. इसे बनाने वाले जमीन से कटे और जड़ों से उखड़े थे.

याद रखना होगा कि आर्थिक सुधार तमाम सतर्कताओं के बाद भी उलटे पड़ सकते हैं. दो माह पहले की ही बात है कि मलेशिया का जीएसटी, खुद भी डूबा और सरकार को भी ले डूबा. इसे भारत के लिए आदर्श माना गया था जो अपने भारतीय संस्‍करण की तुलना में हर तरह से बेहतर भी था.

जीएसटी नेटवर्क की विफलता ने पूरी दुनिया में डिजिटल इंडिया की चुगली की और इसकी ढांचागत खामियों ने सुधारों को लेकर सरकार की काबिलियत पर भरोसे की चूले हिला दी. जीएसटी की पहली छमाही देखकर विश्‍व बैंक को कहना पड़ा कि भारत का जीएसटी दुनिया में सबसे जटिल है. नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय बोल पड़े कि जीएसटी को स्थिर होने में दस साल लगेंगे.

एक साल बाद अब ताजा कोशिशें जीएसटी के संक्रमण को दूर करने यानी एक सुधार के नुकसानों को सीमित करने की हैं. जीएसटी खुद कब ठीक होगा इसका कार्यक्रम बाद में घोषित होगा

Tuesday, March 27, 2018

कमजोर करने वाली 'ताकत'


सरकार
नवंबर 2014: ''सरकार नियामकों की व्यवस्था को सुदृढ़ करेगी. वित्तीय क्षेत्र कानूनी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) की महत्वपूर्ण सिफारिशें सरकार के पास हैंइनमें कई सुझावों को हम लागू करेंगे.''—वित्त मंत्री अरुण जेटलीमुंबई स्टॉक एक्सचेंज
फरवरी 2018: ''रेगुलेटरों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है. भारत में नेताओं की जवाबदेही है लेकिन नियामकों की नहीं.''—अरुण जेटलीपीएनबी घोटाले के बाद

नियामक
मार्च 2018: ''घाटालों से हम भी क्षुब्ध हैं लेकिन बैंकों की मालिक सरकार हैहमारे पास अधिकार सीमित हैं. '' उर्जित पटेल गवर्नररिजर्व बैंक
''बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो और वित्त मंत्रालय के बीच संवाद ही नहीं हुआ. हम वित्त मंत्री के साथ बैठक का इंतजार करते रहे''—विनोद रायबैंकिंग बोर्ड ब्यूरो के अध्यक्ष. (यह ब्यूरो बैंकों में प्रशासनिक सुधारों की राय देने के लिए बना था जो सिफारिशें सरकार को सौंप कर खत्म हो गया है.)

किसकी गफलत   

घोटालों के बाद सरकारें नियामकों या नौकरशाहों के पीछे ही छिप जाती हैं. लेकिन गौर कीजिए कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि पटेल की नियुक्ति या बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो का गठन इसी सरकार ने किया था. वे नियामक हैं इसलिए उन्होंने सरकार के सामने आईना रख दिया.

बैंकों में घोटालों के प्रेत को नियामकों की गफलत ने दावत नहीं दी. 2014 में वित्तीय क्षेत्र में सुधारों का एक मुकम्मल एजेंडा सरकार की मेज पर मौजूद था. कांग्रेस के हाथ-पैर कीचड़ में भले ही लिथड़े थे लेकिन 2011 में उसे इस बात का एहसास हो गया था कि वित्तीय सेवाओं को नए नियामकों व कानूनों की जरूरत है. जस्टिस बी.एन. श्रीकृष्णा के नेतृत्व में एक आयोग (एफएसएलआरसी) बनाया गया. उसकी रिपोर्ट 22 मार्च, 2103 को सरकार के पास पहुंच गई. 2014 में नई सरकार को इसे लागू करना था. वित्त मंत्री ने 2014 में मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के कार्यक्रम में इसी को लागू करने की कसम खाई थी.

एफएसएलआरसी ने सुझाया कि
- एक चूक से पूरे सिस्टम में संकट को रोकने (नीरव मोदी प्रकरण में पीएनबी के फ्रॉड से कई बैंक चपेट में आ गए) के लिए फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ऐंड डेवलपमेंट काउंसिल का गठन
- वित्तीय उपभोक्ताओं को न्याय देने के लिए फाइनेंशियल रेड्रेसल एजेंसी
वित्तीय अनुबंधोंसंपत्तिमूल्यांकन और बाजारों के लिए नए कानून
- जमाकर्ताओं की सुरक्षा के लिए नया ढांचा 

विभिन्न वित्तीय पेशेवरों के लिए नियामक बनाने के लिए प्रस्ताव भी सरकार के पास थे. पिछले चार साल में केवल बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो बना जिसके लिए वित्त मंत्री के पास समय नहीं था. इसलिए वह बगैर कुछ किए रुखसत हो गया. चार्टर्ड अकाउंटेंट्स नियामक की सुध नीरव मोदी घोटाले के बाद आई. अगर यह बन पाया तो भी एक साल लग जाएगा.

दकियानूस गवर्नेंस

हम भले राजनेताओं को गजब का चालाक समझते हों लेकिन दरअसल वे आज भी 'मेरा वचन ही है मेरा शासन' वाली गवर्नेंस के शिकार हैंयानी कि पूरी ताकत कुछ हाथों में. आज जटिल और वैविध्यवपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में इस तरह की सरकार बेहद जोखिम भरी है. अब सुरक्षित गवर्नेंस के लिए स्वंतत्र नियामकों की पूरी फौज चाहिए. इन्हें नकारने वाली सरकार राजनैतिक नुक्सान के साथ अर्थव्यवस्था में मुसीबत को भी न्योता देती हैं. 

मोदी सरकार किसी क्रांतिकारी सुधार को जमीन पर नहीं उतार सकी तो इसकी बड़ी वजह यह है कि निवेशक उस कारोबार में कभी नहीं उतरना चाहते जहां सरकार भी धंधे का हिस्सा है. इसीलिए रेलवेकोयला जैसे प्रमुख क्षेत्रों में स्वतंत्र नियामक नहीं बने. वहां सरकार नियामक भी है और कारोबारी भी.

पिछले चार साल में न नए नियामक बनाए गए और न ही पुराने नियामकों को ताकत मिलीइसलिए घोटालों ने घर कर लिया. हालत यह है कि लोकपाल बनाने पर सुप्रीम कोर्ट की ताजा लताड़ और अवमानना के खतरे के बावजूद सरकार इस पर दाएं-बाएं कर रही है.

राजनेता ताकत बटोरने की आदत के शिकार हैं. पिछले चार साल में केंद्र और राज्यदोनों जगह शीर्ष नेतृत्व ने अधिकतर शक्तियां समेट लीं और सिर्फ चुनावी जीत को सब कुछ ठीक होने की गारंटी मान लिया गया. ताकतवर नेता अक्सर यह भूल जाते हैं कि स्वतंत्र नियामक सरकार का सुरक्षा चक्र हैं. उन्हें रोककर या तोड़कर वे सिर्फ अपने और अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम बढ़ा सकते हैं. पिछले चार साल में यह जोखिम कई गुना बढ़ गया है.

घोटाले कहीं गए नहीं थे वे तो नए रहनुमाओं इंतजार कर रहे थे.