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Tuesday, July 14, 2015

यह तो मौका है!


सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था.
याने लोग कहते हैं कि बार-बार मौके मुश्किल से मिलते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी इस कहावत को गलत साबित कर रहे हैं. भारत की सामाजिक-आर्थिक गणना मोदी के लिए ऐसा अवसर लेकर आई है, जो शायद उनको मिले जनादेश से भी ज्यादा बड़ा है. देश की अधिकांश आबादी में गरीब और सामाजिक सुरक्षा के प्रयोगों की विफलता के आकलन पहले से मौजूद थे. ताजा सर्वेक्षण ने इन आकलनों को आंकड़ों का ठोस आधार देते हुए मोदी सरकार को, पूरे आर्थिक-सामाजिक नीति नियोजन को बदलने का अनोखा मौका सौंप दिया है.

इस सर्वेक्षण ने नीति नियोजन ढांचे की सबसे बड़ी कमी पूरी कर दी है. भारत दशकों से अपने लोगों की कमाई के अधिकृत आंकड़े यानी एक इन्कम डाटा की बाट जोह रहा था, जो हर आर्थिक फैसले के लिए अनिवार्य है. यहां सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के पांच बड़े नतीजों को जानना जरूरी है जो नीतियों और सियासत को प्रभावित करेंगेः (1) भारत में दस में सात लोग गांव में रहते हैं, (2) 30 फीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं और 51 फीसदी लोग सिर्फ मजदूर हैं, (3) गांवों में हर पांच में चार परिवारों में सर्वाधिक कमाने वाले सदस्य की अधिकतम आय 5,000 रु. प्रति माह है. यानी पांच सदस्यों के परिवार में प्रति व्यक्ति आय प्रति माह एक हजार रु. से भी कम है, (4) 56 फीसद ग्रामीण भूमिहीन हैं, (5) 36 फीसदी ग्रामीण निरक्षर हैं. केवल तीन फीसदी लोग ग्रेजुएट हैं. ये आंकड़े केवल ग्रामीण आबादी की आर्थिक स्थिति बताते हैं. इसी सर्वेक्षण का शहरी हिस्सा अभी जारी होना है. जो शायद यह बताएगा कि शहरों में बसे 11 करोड़ परिवारों में 35 लाख परिवारों के पास आय का कोई साधन नहीं है.
ग्रामीण और शहरी (अनाधिकारिक) आर्थिक सर्वेक्षण के तीन बड़े निष्कर्ष हैं. पहला, देश की 70 फीसदी आबादी ग्रामीण है. दूसरा, शहरों-गांवों को मिलाकर करीब 90 फीसदी आबादी ऐसी है जो केवल 200 से 250 रु. प्रति दिन पर गुजारा करती है, और तीसरा भारत में मध्य वर्ग केवल 11 करोड़ लोगों का है जिनके पास एक सुरक्षित नियमित आय है.
इस आंकड़े के बाद कोई भी यह मानेगा कि देश में नीतियों के गठन की बुनियाद बदलने का वक्त आ गया है जिसकी शुरुआत उन पैमानों को बदलने से होगी जो सभी आर्थिक-सामाजिक नीतियों का आधार हैं. देश में गरीबी की पैमाइश बदले बिना अब काम नहीं चलेगा क्योंकि इन आंकड़ों ने साबित किया है कि भारत में गरीबी पिछली सभी गणनाओं से ज्यादा है. खपत सर्वेक्षण, महंगाई की गणना, रोजगारों का हिसाब-किताब, सामाजिक सुरक्षा की जरूरत हैं. फॉर्मूले भी नए सिरे से तय होंगे. खपत को आधार बनाकर भारत में असमानता घटने का जो आकलन (गिन्नी कोइफिशिएंट) किया जाता रहा है, इस आंकड़े की रोशनी में वह भी बदल जाएगा.
इन पैमानों को बदलते ही सरकारी नीतियां एक निर्णायक प्रस्थान बिंदु पर खड़ी दिखाई देंगी. सामाजिक-आर्थिक सेंसस के आंकड़े साबित करते हैं कि भारत में मनरेगा जैसे कार्यक्रम राजनैतिक सफलता क्यों लाते हैं? सस्ते अनाज के सहारे रमन सिंह, नवीन पटनायक या सस्ते भोजन के सहारे जयललिता लोकप्रिय और सफल कैसे बने रहते हैं जबकि औद्योगिक निवेश और बुनियादी ढांचे की सफलता पर वोटर नहीं रीझते. अलबत्ता आंकड़े यह भी बताते हैं कि लोकलुभावन नीतियों का ढांचा सिर्फ लोगों को जिंदा रख सकता है, उनकी जिंदगी बेहतर नहीं कर सकता.
अर्थव्यवस्था पर आर्थिक सुधारों के प्रभाव के समानांतर इन आंकड़ों की गहरी पड़ताल की जाए तो शायद नीतियों के एक नए रास्ते की जरूरत महसूस होगी, जो विकास के पूरे आयोजन को बदलने, गवर्नेंस के बड़े सुधार, तकनीकों का इस्तेमाल, संतुलित रूप से खुले बाजार और नए किस्म की स्कीमों से गढ़ा जाएगा. गरीबी की राजनीति यकीनन बुरी है लेकिन जब 90 फीसदी लोगों के पास आय सुरक्षा ही न हो तो रोजगार या भोजन देने वाली स्कीमों के बिना काम नहीं चलता. ऐसे में सामाजिक सुरक्षा देने के नए तरीके खोजने होंगे और रोजगारों को मौसमी व अस्थायी स्तरों से निकालकर स्थायी की तरफ ले जाना होगा.
आप पिछले छह दशक की ग्रामीण बदहाली को लेकर कांग्रेस को कोसने में अपना वक्त बर्बाद कर सकते हैं लेकिन सच यह है कि इन आंकड़ों के सामने आने का यह सबसे सही वक्त है. कांग्रेस के राज में अगर ये आंकड़े आए होते तो लोकलुभावनवाद का चरम दिख जाता. केंद्र में अब ऐसी सरकार है जो अतीत का बोझ उठाने के लिए बाध्य नहीं है. इसके पास मौका है कि वह भारत में नीतियों का रसायन नए सिरे से तैयार करे.
सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण और पुराने तजुर्बे ताकीद करते हैं कि देश को नीतियों व स्कीमों के भारी मकडज़ाल की जरूरत नहीं है. अचूक तकनीक, मॉनिटरिंग, राज्यों के साथ समन्वय से लैस और तीन चार बड़े सामाजिक कार्यक्रम पर्याप्त हैं, जिन्हें खुले और संतुलित बाजार के समानांतर चलाकर महसूस होने वाला बदलाव लाया जा सकता है.
सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था. सर्वेक्षण के अनुसार 200 रु. से 250 रु. रोज पर गुजरा करने वाली अधिकांश आबादी के लिए बैंक खाते, बीमा वाली जनधन योजना लगभग बेमानी है. मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया या इस तरह के अन्य कार्यक्रम अधिकतम दस फीसदी लोगों को प्रभावित कर सकते हैं. यही वजह है कि दिहाड़ी पर जीने वाले 90 फीसदी और उनमें भी अधिकांश अल्पशिक्षित और अशिक्षित भारत पर मोदी सरकार के मिशन और स्कीमों का असर नजर नहीं आया है.
मोदी की नीतियों का पानी उतरे, उससे पहले देश की सामाजिक-आर्थिक हकीकत उनके हाथ में है. इन आंकड़ों की रोशनी में वे नीतियों और गवर्नेंस की नई शुरुआत कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें लोगों ने नई शुरुआत के लिए ही चुना है, अतीत की लकीरों पर नए रंग-रोगन के लिए नहीं.

Monday, December 15, 2014

वाजपेयी,गवर्नेंस और मोदी


वाजपेयी की गवर्नेंस की रोशनी में मोदी सरकार को परखनाकीमती निष्कर्ष उपलब्ध कराता है.
ह अक्तूबर 1998 की दोपहर थी. वाजपेयी सरकार की दूसरी पारी को कुछ महीने बीते थे और मेल-मोबाइल से परे उस दौर में सरकार की रणनीति के सूत्रधार प्रमोद महाजन से मिलने के लिए अशोक रोड के बीजेपी दफ्तर में बाट जोहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. कमरे में घुसते ही महाजन मुस्कराए, टेलीकॉम! मैंने तुरंत सवाल दागा कि लाइसेंसों का क्या होगा? महाजन ने कुछ सोचते हुए कहा, ''नई दूरसंचार नीति लाएंगे और क्या?” दूरसंचार के उदारीकरण को पहले दिन से रिपोर्ट कर रहे मेरे जैसे पत्रकार के लिए महाजन की टिप्पणी, सनसनीखेज से कम कुछ भी नहीं थी. नेशनल टेलीकॉम पॉलिसी (1994) को सिर्फ चार साल बीते थे. टेलीकॉम क्षेत्र विवादों का एक्सचेंज बन गया था. ऊंची बोली लगाकर बुरी तरह फंस चुकी कंपनियां लाइसेंस फीस देने की स्थिति में नहीं थीं. इस बीच केंद्र में तीन सरकारें गुजर चुकी थीं और वाजपेयी सरकार की दूसरी पारी में भी दो संचार मंत्री (बूटा सिंह और सुषमा स्वराज) रुखसत हो चुके थे. संचार मंत्रालय तब प्रधानमंत्री के पास था और महाजन उनके सलाहकार थे. मैंने महाजन से पूछा कि अभी तो पिछली नीति ही लागू नहीं हुई है? उन्होंने कहा, ''वाजपेयी जी चाहते हैं विवादों का कीचड़ साफ करने के लिए नई नीति बनाई जाए. हम बजट तक इसे ले आएंगे.मार्च,1999 में नई दूरसंचार नीति लागू हो गई और उसके बाद भारत की टेलीकॉम क्रांति दुनिया के लिए अध्ययन का सबब बन गई.
वाजपेयी की गवर्नेंस की रोशनी में मोदी सरकार को परखना, कीमती निष्कर्ष उपलब्ध कराता है. दूरसंचार निजीकरण के पहले दौर (1995) में लाइसेंसों के लिए ऊंची बोली लगाना कंपनियों की गलती थी. लेकिन गठजोड़ की सरकार के लिए अस्थिर राजनैतिक माहौल में इस फैसले को पलटना, लाइसेंस फीस माफ करना और नई नीति लाना सियासी जोखिम का चरम था क्योंकि 50,000 करोड़ रु. के घोटाले (लाइसेंस फीस माफी) के आरोप सरकार का इंतजार कर रहे थे.
तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने अपनी किताब कन्फेशंस ऑफ अ स्वदेशी रिफॉर्मर में स्वीकार किया कि ''यह फैसला नैतिक रूप से कठिन था.यह संवेदनशील फैसला सिर्फ वाजपेयी के राजनैतिक साहस से निकला था कि दूरसंचार क्षेत्र में तरक्की के लिए कंपनियों का 'बेल आउटजरूरी है. यह फैसला न सिर्फ संसद और अदालत में सही साबित हुआ बल्कि करोड़ों हाथों में मौजूद मोबाइल फोन आज भी इसकी तस्दीक करते हैं.
राजनैतिक साहस का इम्तिहान चुनाव नहीं, सरकारें लेती हैं, जब संकट प्रबंधन की चुनौती मेज पर होती है. मोदी सरकार को दो संकट विरासत में मिले. एक कोयला और प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन और दूसरा डूबते कर्ज से दबे बैंक. इन दोनों को ठीक किए बिना ग्रोथ और नई नौकरियां नामुमकिन हैं. इन संकटों के समाधान के जरिए प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन और बैंकिंग में दूरदर्शी बदलाव हो सकते हैं, जो टेलीकॉम में हुआ था.
कोयला खदानों का आवंटन रद्द हुए चार माह बीत रहे हैं. हमारे पास सिर्फ एक कामचलाऊ फैसला है जिसके जरिए रद्द की गई खदानें अगले साल मार्च तक आवंटित हो जाएं तो बड़ी बात होगी. समग्र खनन सुधार चर्चा में नहीं है और सड़ती बैंकिंग पर जन-धन का पोस्टर लगा दिया गया है. वाजपेयी के पास मोदी जैसा संख्या बल नहीं था. तेरह माह बाद अप्रैल, 1999 में जयललिता ने समर्थन खींचकर सरकार को कार्यवाहक बना दिया लेकिन नई दूरसंचार नीति सिर्फ तीन माह (दिसंबर,1998-मार्च,1999) में बन गई. एक कमजोर सरकार में गवर्नेंस की यह साहसी रफ्तार हर तरह से अनोखी थी.
सरकारें, सूझ-बूझ, दूरदर्शिता और कालजयी फैसलों से परखी जाती हैं. आर्थिक सुधारों के सूत्रधार डॉ. मनमोहन सिंह के दस साल और नरेंद्र मोदी के छह माह देखने के बाद ऐसा लगता है कि वाजपेयी सरकार मानो, दूरदर्शिता के शून्य से भरे अगले दस साल और छह माह के लिए ही नीतियों का ईंधन जुटा रही थी. घाटे नियंत्रित करने वाला बजट मैनेजमेंट कानून, कम्पीटिशन कानून, स्वदेशी के आग्रहों को नकार कर डब्ल्यूटीओ नियमों के तहत भारतीय बाजार के दरवाजे खोलना, सरकारी उपक्रमों का सबसे बड़ा निजीकरण, फेरा की समाप्ति और नया कानून, पेट्रोलियम सुधार, सड़क परियोजनाएं, कंपनियों को विदेशी कर्ज की छूट, दूरसंचार और सूचना तकनीक सेवाओं में सिलसिलेवार उदारीकरण...साहस और सूझ-बूझ की फेहरिस्त वाकई बड़ी लंबी है.
गठजोड़ की सरकार में वाजपेयी इतना कुछ कैसे कर सके? शायद इसलिए कि उनके पास गवर्नेंस के लक्ष्यों का रोड मैप था और दंभ रहित, जिंदादिल और ठहाकेबाज वाजपेयी ने अपने मंत्रियों को दूर की सोचने तथा फैसले करने की छूट दी थी. जबरदस्त बहुमत वाली मोदी सरकार में इन दोनों की कमी बुरी तरह खलती है. वाजपेयी ऐसा इसलिए भी कर सके क्योंकि उन्होंने प्रचार के कंगूरे नहीं बल्कि गवर्नेंस की बुनियाद गढ़ी थी. चुनाव तब भी होते थे. अलबत्ता वाजपेयी गवर्नेंस के लिए राजनीति कर रहे थे, राजनीति के लिए गवर्नेंस नहीं.
एक वरिष्ठ उद्योगपति ने मई में चुनाव नतीजों के बाद मुझसे कहा था कि वाजपेयी सरकार ने पांच साल में जितना काम किया, अगर मोदी उसका 30 फीसदी भी कर दें तो देश की ग्रोथ को 15 साल का ईंधन मिल जाएगा. अपनी तीसरी पारी के पहले स्वाधीनता दिवस (2000) पर लाल किले से वाजपेयी ने आह्वान किया था कि भारत को अगले एक दशक में अपनी प्रति व्यक्ति आय दोगुनी करनी होगी. 2007-08 में यह लक्ष्य हासिल हो गया. महंगाई को निकाल दें तो भी प्रति व्यक्ति आय 50 फीसदी बढ़ी है जो 125 करोड़ की आबादी के लिए छोटी बात नहीं है. क्या नरेंद्र मोदी के पहले छह महीनों से यह भरोसा मिलता है कि अगले एक दशक में यह करिश्मा दोहराया जाएगा? प्रचार भरे छह माह के साथ मोदी सरकार के कार्यकाल का दस फीसदी हिस्सा गुजर गया है लेकिन सरकार में वह हिम्मत, सूझ और दूरदर्शिता अब तक नदारद है जो वाजपेयी सरकार के पहले हफ्तों में ही नजर आ गई थी.

Monday, February 3, 2014

चुनावी सियासत के आर्थिक कौतुक

लोकलुभावन नीतियां ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्‍य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है।
भारत की चुनावी राजनीति का शिखर आने से पहले आर्थिक राजनीति की ढलान आ गई है। देश केवल नई सरकार ही नहीं पिछले सुधारों में सुधार और कुछ मौलिक प्रयोगों का इंतजार भी कर रहा था और उम्मीद थी कि ग्रोथ, रोजगार व बेहतर जीवन स्‍तर से जुड़ी नई सूझ, चुनावी विमर्श का हिससा बनेगी लेकिन चुनावी बहसें अंतत: एक तदर्थवादी और दकियानूसी आर्थिक सोच में फंसती जा रही है। भारत में सत्‍ता परिवर्तन पर बड़े दांव लगा रहे ग्‍लोबल निवेशकों को भी यह अंदाज होने लगा है कि यहा के राजनीतिक सूरमा चाहे जितना दहाड़ें लेकिन आर्थिक सुधारों की बात पर  वह चूजों की तरह दुबक जाते हैं। सुधारों की बाहें फटकारने वाली कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी को लेकर प्‍याज और पत्‍थर दोनों ही खा लिये और यह साबित कर दिया सुधारों की बात उसने धोखे से कर दी थी। विदेशी निवेश जैसे मुद्दों पर  भाजपा का अतीत तो वामपं‍थियों जैसा रहा है इसलिए आर्थिक सुधारों पर वह ज्‍यादा ही दब्‍बू व भ्रमित दिख रही है। और चुनावी सियासत के नए सूरमा आम आदमियों के पास तो सुधारों की सोच ही गड्मड्ड है। अधिसंख्‍य भारत जो बदले हुए परिवेश में नई सूझबूझ की बाट जोह रहा था वह इन चुनावों को  भी गंभीर आर्थिक मुद्दों पर करतब व कौतुक के तमाशे में बदलता देख रहा है।
एलपीजी सब्सिडी की ताजी कॉमेडी सबूत है आर्थिक सुधार भारत के लिए अपवाद ही हैं। कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी की प्रणाली किसी दूरगामी सोच व तैयारी के साथ नहीं बदली थी। वह फैसला तो बीते साल उस वक्‍त हुआ, जब भारत की रेटिंग पर तलवार टंगी थी और सरकार को सुधार करते हुए दिखना था। इसलिए पहले छह और फिर नौ सिलेंडर किये गए। सरकार को उस वक्‍त भी यह नहीं पता था कि सब्सिडी वाले नौ और शेष महंगे सिलेंडरों की यह राशनिंग प्रणाली कैसे लागू होगी और भोजन पकाने के सिर्फ एकमात्र ईंधन पर निर्भर शहरी आबादी इसे कैसे अपनाएगी। वह फैसला तात्‍कालिक सुधारवादी आग्रहों से निकला और बगैर किसी होमवर्क के लागू हो गया। सरकार आधार और डायरेक्‍ट बेनीफिट ट्रांसफर स्‍कीम के जोश में थी इसलिए एक एलपीजी सब्सिडी के एक अधकचरे फैसले को एक पायलट स्‍कीम से जोड़कर उपभोक्‍ताओं की जिंदगी मुश्किल कर दी गई। लोग सब्सिडी पाने के लिए आधार नंबर व बैंक खाते की जुगत में धक्के खाने लगे और गिरते पड़ते जब करीब 20 फीसद एलपीजी उपभोक्‍ताओं ने 291 जिलों में आधार से जुड़े बैंक खाते जुटा लिये तो अचानक राहुल गांधी ने बकवास अध्यादेश की तर्ज पर पूरी स्‍कीम खारिज कर दी। आर्थिक नीतियों के मामले में कांग्रेस अब वहीं खड़ी है जहां वह 2009 के चुनाव के पहले थी।
सुधारों को लेकर कांग्रेस का यह करतब तो दस साल से चल रहा है लेकिन भाजपा में सुधारों की सूझ को लेकर नीम अंधेरा ज्‍यादा चिंतित करता है क्‍यों कि नरेंद्र मोदी के भाषण आर्थिक चुनौतियों की बहस को अक्‍सर अलादीन के चिराग जैसे कौतुक में बदल देते हैं। आर्थिक सुधारों की बहस सब्सिडी, विदेशी निवेश और निजीकरण के इर्द गिर्द घूमती रही है। यह तीन बड़े सुधार एक व्‍यापक पारदर्शिता के ढांचे के भीतर आर्थिक बदलाव बुनियादी रसायन बनाते दिखते हैं। इन चारों मुद्दों पर राजनीतिक सर्वानुमति कभी नहीं बनी । जबकि देशी विदेशी निवेशक भारत की अगली सरकार को इन्‍ही कसौटियों पर कस रहे हैं। सब्सिडी की बहस राजकोष की सेहत सुधारने से लेकर सरकारी भ्रष्‍टाचार तक फैली है। इस बहस में भाजपा का पिछला रिकार्ड कोई उम्‍मीद नहीं जगाता। केंद्र में अपने एकमात्र कार्यकाल में भाजपा ने सब्सिडी को लेकर निष्क्रिय रही जबक यूपीए राज के सब्सिडी सुधारो में भाजपा ने विपक्ष की लीक पीटी क्‍यों कि उसकी राज्‍य सरकारें सब्सिडी के तंत्र को पोस रहीं हैं।
उदारीकरण के पिछले दो दशकों में विदेशी निवेश की बड़ी भूमिका रही है लेकिन यह इस पहलू पर भाजपा का असमंजस ऐतिहासिक है। तभी तो क्‍यों कि राजसथान की नई सरकार ने खुदरा में विदेशी निवेश का फैसला पलट दिया है। विदेशी निवेश खिलाफ भाजपा की आक्रामक स्‍वदेशी मुद्रायें, भारत में निवेश क्रांति लाने के नरेंद्र मोदी के दावों की चुगली खाती हैं। ठीक इसी तरह सरकारी उपक्रमों व सेवाओं के निजीकरण पर भाजपा में सोच का कुहरा, निवेशकों को उलझाता है। पारदर्शिता, आर्थिक विमर्श का नया कोण है। समाजवादी और निजी दोनों तरह की अर्थव्‍यवसथाओं का प्रसाद पा चुके लोग अब भ्रष्‍टाचार के खात्‍मे को तरक्‍की से जोड़ते हैं और आर्थिक सुधारों पर ऐसी बहस की चाहते हैं, जो आम लोगों के अनुभवों से जुड़ी हो और तर्कसंगत अपेक्षायें जगाती है। भाजपा जब इस बहस के बदले बुलेट ट्रेन, नए शहरों व ब्रॉड बैंड नेटवर्क के दावे करती है तो नारेबाजी की गंध पकड़ में आ जाती है।  
देश में आर्थिक तरक्‍की राह में नए पत्थर अड़ गए हैं जिन पर भाषणों के करतब कारगर नहीं होते। जमीन, खदान, स्‍पेक्‍ट्रम जैसे  प्राकृतिक संसाधनों का पारदर्शी आवंटन, सस्‍ता कर्ज, महंगाई में कमी, केंद्र व राज्‍य के बीच इकाईनुमा तालमेल, नियामकों की ताकत, नेताओं के विवेकाधिकारों में कमी, छोटे कारोबार शुरु करने की सुविधा व लागत जैसे जटिल मुद्दे  सुधारों की बहस का नया पहलू हैं जबकि अभी तो केंद्र सरकार के स्‍तर पर सब्सिडी, विदेशी निवेश व निजीकरण की पुरानी बहसें ही हल होनी हैं। राज्‍यो में तो इन बहसों की शुरुआत तक नहीं हुई है। यही वजह है कि चुनाव आते ही सियासी दल की अपनी उस आर्थिक हीनग्रंथि जगा दिया है जो जटिल बहसों से उनकी रक्षा करती है। अभी तक के चुनावी विमर्श बता रहे हैं कि लोकलुभावन नीतियां ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्‍य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है। सब्सिडी भारत की लोकलुभावन राजनीति का वह किनारा है जहां भाजपा व कांग्रेस की धारायें मिलकर एक हो जाती है और चुनाव के पहले इस धारा में स्‍नान होड़ शुरु हो गई है। ठोस सुधारों के घाट पर कोई नहीं उतरना चाहता।

Monday, October 8, 2012

सुधार, दरार और इश्तिहार



श्तिहार एक काम तो बाखूबी करते हैं। दीवार पर उनकी मौजूदगी कुछ वक्‍त के लिए दरारें छिपा लेती है। सियासत इश्तिहारों पर भले झूम जाए मगर बात जब अर्थव्‍यवस्‍था की हो तो इशितहारों में छिपी दरारें ज्‍यादा जोखिम भरी हो जाती हैं। भारत के इश्तिहारी आर्थिक सुधारों ने ग्‍लोबल निवेशकों को रिझाने के बजाय कनफ्यूज कर दिया है। सुर्खियों में चमकने वाले सुधारों के ऐलान, देश की आर्थिक सेहत के आंकड़े सामने आते ही सहम कर चुप हो जाते हैं। केलकर और दीपक पारिख जैसी समितियों की रिपोर्टें तो सरकार की सुधार  वरीयताओं की ही चुगली खाती हैं। सरकार सुधारों के पोस्‍टर से संकट की दरारों को छिपाने में लगी है। सुधार एजेंडे का भारत की ताजा आर्थिक चुनौतियों से कोई तालमेल ही हीं दिखता, इसलिए ताजा कोशिशें भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था की व्यापक तस्‍वीर को बेहतर करती नजर नहीं आती। उत्‍पादन, ग्रोथ, महंगाई, ब्‍याज दरों, निवेश, खर्च, कर्ज का उठाव, बाजार में मांग और निर्यात के आंकड़ों में उम्‍मीदों की चमक नदारद है। शेयर बाजार में तेजी और रुपये की मजबूती के बावजूद किसी ग्‍लोबल निवेश या रेटिंग एजेंसी ने भारत को लेकर अपने नजरिये में तब्‍दीली नहीं की है।
दरारों की कतार   
वित्‍त मंत्री की घोषणाओं और कैबिनेट से निकली ताजी सुधार सुर्खियों को अगर कोई केलकर समिति की रिपोर्ट में रोशनी में पढ़े तो उत्‍साह धुआं हो जाएगा। केलकर समिति तो कह रही है कि भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था तूफान में घिरी है। कगार पर टंगी है। भारत 1991 के जैसे संकट की स्थिति में खड़ा है। चालू खाते का घाटा  जो विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी में अंतर दिखाता है, वह जीडीपी के अनुपात में 4.3 प्रतिशत पर है जो कि 1991 से भी ऊंचा स्‍तर है। विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर 1991 जैसे संकट की बात अप्रैल में रिजर्व बैंक गवर्नर डी सुब्‍बाराव ने भी कही थी। ग्‍लोबल वित्‍तीय संकट, भारत के भारी आयात बिल और निवेशकों के अस्थिर रुख के कारण यह दरार बहुत जोखिम भरी है। राजकोषीय संतुलन के मामले में भारत अब गया कि तब

Monday, July 2, 2012

याद हो कि न याद हो


ह जादूगर यकीनन करामाती था। उसने सवाल उछाला। कोई है जो बीता वक्‍त लौटा सके। .. मजमे में सन्‍नाटा खिंच गया। जादूगर ने मेज से यूपीए सरकार के पिछले बजट उठाये और पढ़ना शुरु किया। भारी खर्च वाली स्‍कीमें, अभूतपूर्व घाटेभीमकाय सब्सिडी बिलकिस्‍म किस्‍म के लाइसेंस परमिट राज, प्रतिस्‍पर्धा पर पाबंदी,.... लोग धीरे धीरे पुरानी यादों में उतर गए और अस्‍सी के दशक की समाजवादी सुबहें, सब्सिडीवादी दिन और घाटा भरी शामें जीवंत हो उठीं। यह जादू नही बल्कि सच है। उदार और खुला भारत अब अस्सी छाप नीतियों में घिर गया है। यह सब कुछ सुनियोजित था या इत्तिफाकन हुआ अलबत्‍ता संकटों की इस ढलान से लौटने के लिए भारत को अब बानवे जैसे बड़े सुधारों की जरुरत महसूस होने लगी है। इन सुधारों के लिए प्रधानमंत्री को वह सब कुछ मिटाना होगा जो खुद उनकी अगुआई में पिछले आठ साल में लिखा गया है।
बजट दर बजट
ढहना किसे कहते हैं इसे जानने के लिए हमें 2005-06  की रोशनी में 2011-12 को देखना चाहिए। संकटों के सभी प्रमुख सूचकांक इस समय शिखर छू रहे हैं। जो यूपीए की पहली शुरुआत के वक्‍त अच्‍छे खासे सेहत मंद थे। राजकोषीय घाटा दशक के सर्वोच्‍च स्‍तर पर (जीडीपी के अनुपात में छह फीसद) है और विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी का अंतर यानी चालू खाते का घाटा बीस साल के सबसे ऊंचे स्‍तर (4.5 फीसद) पर। ग्रोथ भी दस साल के गर्त में है। राजकोषीय संयम और संतुलित विदेशी मुद्रा प्रबंधन भारत की दो सबसे बडी ताजी सफलतायें थीं, जिन्‍हें हम पूरी तरह गंवा चुके हैं।  ऐसा क्‍यों हुआ इसका जवाब यूपीए के पिछले आठ बजटों में दर्ज है। उदारीकरण के सबसे तपते हुए वर्षों में समाजवादी कोल्‍ड स्‍टोरेज से निकले पिछले बजट ( पांच चिदंबरम चार प्रणव) भारत की आर्थिक बढ़त को कच्‍चा खा गए। बजटों की बुनियाद यूपीए के न्‍यूनतम साझा कार्यक्रम ने तैयार की थी। वह भारत का पहला राजनीतिक दस्‍तावेज था जिसने देश के आर्थिक संतुलन को मरोड़ कर