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Sunday, February 17, 2019

पारदर्शिता का वसंत



दुनिया अपनी लोकतांत्रिक आजादियों के लिए किस पर ज्यादा भरोसा कर सकती है?  

राजनीति पर या बाजार पर?

वक्त बदल रहा है. सियासत और सरकारें शायद अभिव्यक्ति की आजादी के लिए ज्यादा बड़ा खतरा हैं जबकि मुनाफे पर टिके होने के बावजूद, मुक्त बाजार अपनी साख की गरज से आजादियों व पारदर्शिता का नया सिपहसालार है.

दो ताजा घटनाक्रमों को देखने पर लगता है कि बाजार ने सियासत को ललकार दिया है. आने वाले चुनाव में झूठ की गर्मी कम होगी.

एकदंभ से भरी सियासत ने बीते सप्ताह भारतीय लोकतंत्र के शिखर यानी संसद की किरकिरी कराई. एक नामालूम से संगठन के उलाहने पर संसद की एक समिति ने ट्विटर के प्रबंधन को तलब कर लिया. शिकायत यह थी कि ट्विटर सरकार समर्थक दक्षिणपंथी संदेशों के साथ भेदभाव करता है. समिति को पता नहीं था कि वह अमेरिकी सोशल नेटवर्क के प्रबंधन को हाजिरी का आदेश नहीं दे सकती. ट्विटर ने मना कर दिया. आदेश की पालकी लौट गई.

दुनिया में बहुतों को महसूस हुआ कि सरकारें सब जगह एक जैसी हैं. स्वतंत्र अभिव्यक्ति की जद्दोजहद राजनैतिक भूगोल की सीमाओं से परे हो चली है.

दोदेश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं को घर-घर झंडा स्टिकर लगाने के लिए उतार दिया है. मन की गति से चलने वाली संदेश तकनीकों के दौर में कस्बों और शहरों के चिचियाते ट्रैफिक के लिए यह अभियान क्यों? 

संसद को ट्विटर का इनकार और भाजपा का पुराने तरीके का प्रचार बेसबब नहीं है. तकनीक से लैस दुनिया में राजनैतिक संवादों के लिए मुश्किल दौर की शुरुआत हो रही है. यह बात दीगर है कि सियासत के लिए बुरी खबरें स्वाधीनताओं के लिए अच्छी होती हैं.

तकनीक की ताकत, आर्थिक आजादी और ग्लोबल आवाजाही के बीच सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं, जो दोतरफा संवाद की आजादी देते हैं और संदेशों की पावती को प्रमाणित भी करते हैं. लेकिन सियासत जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. इसलिए...

1. भारत, नाइजीरिया, यूक्रेन और यूरोपीय समुदाय के लिए फेसबुक ने राजनैतिक विज्ञापनों के नए नियम बना दिए हैं. विदेश की जमीन से विज्ञापन नहीं किए जाएंगे. विज्ञापन के साथ इसके भुगतान का ब्योरा होगा. इनके साथ एक आर्काइव होगा जिसके जरिए लोग राजनैतिक विज्ञापनों के बारे में ज्यादा जानकारी पा सकेंगे. फेसबुक बताएगा कि राजनैतिक विज्ञापनों के पेज किस जगह से संचालित हो रहे हैं. भारत में 30 करोड़ लोग फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं. नए नियम 21 फरवरी से लागू होंगे.

2. व्हाट्सऐप थोक में मैसेज फॉरवर्ड करने की प्रक्रिया बंद कर चुका है. उसने भारतीय राजनैतिक दलों को चेतावनी दी है कि अगर उन्होंने नियम तोड़े तो उनके एकाउंट बंद हो जाएंगे. कंपनी ने 120 करोड़ रु. खर्च कर झूठ का प्रसार रोकने का अभियान चलाया है.

3. ट्विटर अपने शेयर की कीमत में गिरावट का जोखिम उठाकर भी फर्जी एकाउंट बंद कर रहा है. उसने राजनैतिक विज्ञापनों के लिए एक डैशबोर्ड बनाया है जिससे पता चलेगा कि कौन इन पर कितना पैसा खर्च कर रहा है.

4. गूगल भी फेसबुक और ट्विटर जैसे नियमों को लागू करने के अलावा विज्ञापनदाता से चुनाव आयोग का प्रमाणपत्र भी मांगेगा और एक पारदर्शिता रिपोर्ट भी जारी करेगा.

गफलत में रहने की जरूरत नहीं. गूगल, फेसबुक, ट्विटर आदि मुनाफे के लिए काम करते हैं. राजनैतिक विज्ञापनों पर सख्ती से विज्ञापन की मद में कमी से उन्हें भारी कारोबारी नुक्सान होगा. फिर भी सख्ती?

क्योंकि अभिव्यक्ति के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है. खतरे की शुरुआत किस्म-किस्म के झूठ से हुई थी जो इनके कंधों पर बैठ कर दिग-दिगंत में फैल रहा था. झूठ से लड़ाई करते हुए इन्हें पता चला कि इसकी सप्लाई चेन तो पूरी दुनिया में सियासत के पास है. ये बाजार अगर कुटिल सियासत और झूठ से बोलने की आजादी को नहीं बचा सके तो इनका धंधा तो बंद हुआ समझिए.

एक झटके में ही नेता सड़क पर आ गए हैं. जनसंचार की जगह जनसंपर्क की वापसी हो रही है. क्या चुनाव आयोग भी सोशल नेटवर्कों की पारदर्शिता से कुछ सीखना चाहेगा?

तकनीक मूलत: मूल्य निरपेक्ष है. इस्तेमाल से यह अच्छी या बुरी बनती है. रसायन-परमाणु के बाद सोशल नेटवर्किंग ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार अपने इस्तेमाल के नियम तय कर रहा है ताकि कोई सिरफिरा नेता लोकतंत्रों को गैसीय कत्लखाने में न बदल दे. 

स्वागत कीजिए, पारदर्शिता के इस सोशल वसंत का!

Monday, July 23, 2018

झूठ के बुरे दिन



ट्विटर रोज दस लाख फर्जी अकाउंट खत्‍म कर रहा है और कंपनी का शेयर गिर रहा है.

व्‍हाट्सऐप अब हर मैसेज पर प्रचार और विचार का फर्क (फॉरवर्ड फंक्‍शन) बताता है और इस्तेमाल में कमी का नुक्सान उठाने को तैयार है.

रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से फेसबुक रूस से भारत तक विवादित और झूठ से सराबोर सामग्री खत्‍म करने में लगी है. इससे कंपनी की कमाई में कमी होगी.

यह सब मुनाफों को दांव पर लगा रहे हैं ताकि झूठे होने का कलंक न लगे.

क्‍यों?

जवाब नीत्शे के पास है जो कहते थे''मैं इससे परेशान नहीं हूं कि तुमने मुझसे झूठ बोला. मेरी दिक्‍कत यह है कि अब मैं तुम पर भरोसा नहीं कर सकता.''

नीत्‍शे का कथन बाजार पर सौ फीसदी लागू होता है और सियासत पर एक फीसदी भी नहीं.

नीत्‍शे से लेकर आज तक सच-झूठ काजो निजी और सामूहिक मनोविज्ञान विकसित हुआ है उसके तहत झूठ ही सियासत की पहचान हैं. लेकिन झूठे बाजार पर कोई भरोसा नहीं करता. बाजार को तपे हुए खरे विश्‍वास पर चलना होता है.

फेसबुकव्‍हाट्सऐपट्विटर यानी सोशल नेटवर्कों की बधाई बजने से पहले पूरी दुनिया में लोग इस हकीकत से वाकिफ थे कि सियासत महाठगिनी है. वह विचारप्रचारव्‍यवहारभावना में लपेट कर झूठ ही भेजेगी लेकिन बाजार को हमेशा यह पता रहना चाहिए कि झूठ का कारोबार नहीं हो सकता है. लोगों को बार-बार ठगना नामुमकिन है.

कंपनियां अपने उत्‍पाद वापस लेती हैंमाफी मांगती हैंमुकदमे झेलती हैंसजा भोगती हैंयहां तक कि बाजार से भगा दी जाती हैं क्‍योंकि लोग झूठ में निवेश नहीं करते. उधरसियासत हमेशा ही बड़े और खतरनाक झूठ बोलती रही हैजिन्‍हें अनिवार्य बुराइयों की तरह बर्दाश्‍त किया जाता है.

झूठ हमेशा से था लेकिन अचानक तकनीक कंपनियां राशन-पानी लेकर झूठ से लडऩे क्‍यों निकल पड़ी हैंइसलिए क्‍योंकि राजनीति का चिरंतन झूठ एक नए बाजार पर विश्‍वास के लिए खतरा है.

सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्‍ठ अभिव्‍यक्ति हैं. तकनीक की ताकत से लैस यह लोकशाही नब्‍बे के दशक में आर्थिक आजादी और ग्‍लोबल आवाजाही के साथ उभरी. दोतरफा संवाद बोलने की आजादी का चरम पर है जो इन नेटवर्कों के जरिए हासिल हो गई.

बेधड़क सवाल-जवाबइनकार-इकरारसमूह में सोचने की स्‍वाधीनताऔर सबसे जुडऩे का रास्‍ता यानी कि अभिव्‍यक्ति का बिंदास लोकतंत्र! यही तो है फेसबुकट्विटरव्‍हाट्सऐप का बिजनेस मॉडल. इसी के जरिए सोशल नेटवर्क और मैसेजिंग ऐप अरबों का कारोबार करने लगे.

सियासत के झूठ की घुसपैठ ने इस कारोबार पर विश्‍वास को हिला दिया है. अगर यह नेटवर्ककुटिल नेताओं से लोगों की आजादी नहीं बचा सके तो इनके पास आएगा कौन?

झूठ से लड़ाई में सोशल नेटवर्क को शुरुआती तौर पर कारोबारी नुक्सान होगा. इन्हें न केवल तकनीकअल्‍गोरिद्म (कंप्‍यूटर का दिमाग) बदलनेझूठ तलाशने वाले रोबोट बनाने में भारी निवेश करना पड़ रहा है बल्कि विज्ञापन आकर्षित करने के तरीके भी बदलने होंगे. सोशल नेटवर्कों पर विज्ञापनप्रयोगकर्ताओं की रुचिव्‍यवहारराजनैतिक झुकावआदतों पर आधारित होते हैं. इससे झूठ के प्रसार को ताकत मिलती है. इसमें बदलाव से कंपनियों की कमाई घटेगी.

फिर भीकोई अचरज नहीं कि खुद पर विश्‍वास को बनाए रखने के लिए सोशल नेटवर्क राजनैतिक विज्ञापनों को सीमित या बंद कर दें. अथवा राजनैतिक विचारों के लिए नेटवर्क के इस्‍तेमाल पर पाबंदी लगा दी जाए

सियासत जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. अभिव्‍यक्ति के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है इसलिए यह अपनी पूरी शक्ति के सा‍थ अपने राजनैतिक इस्‍तेमाल के खिलाफ खड़ा हो रहा है.

तकनीक बुनियादी रूप से मूल्‍य निरपेक्ष (वैल्‍यू न्‍यूट्रल) है. लेकिन रसायन और परमाणु तकनीकों के इस्‍तेमाल के नियम तय किए गए ताकि कोई सिरफिरा नेता इन्‍हें लोगों पर इस्‍तेमाल न कर ले. सोशल नेटवर्किंग अगली ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार खुद इसके इस्‍तेमाल के नियम तय करेगा.

बाजार सियासत के झूठ को चुनौती देने वाला है!

राजनीति के लिए यह बुरी खबर है.

सियासत के लिए बुरी खबरें ही आजादी के लिए अच्‍छी होती हैं.



Saturday, April 21, 2018

आईने से चिढ़



- पिछले महीने मध्य प्रदेश की विधानसभा के सदस्यों की एक बड़ी आजादी जाते-जाते बची. राज्य विधानसभा में सवाल पूछने के अधिकार सीमित किए जा रहे थे और माननीयों को पता भी नहीं था. प्रस्ताव चर्चा के लिए अधिसूचित हो गया. लोकतंत्र की फिक्र की पत्रकारों ने. सवाल उठे और अंतत: पालकी को लौटना पड़ा.

- एक और पालकी दिल्ली में लौटी. राजीव गांधी के मानहानि विधेयक की तर्ज पर सूचना प्रसारण मंत्रालय ने गलत खबरों को रोकने के बहाने खबरों की आजादी पर पंजे गड़ा दिए. विरोध हुआ और प्रधानमंत्री ने भूल सुधार किया.

- राजस्थान सरकार भी चाहती थी कि अफसरों और न्यायाधीशों पर खबर लिखने से पहले उससे पूछा जाए. लोकतंत्र की बुनियाद बदलने की यह कोशिश भी अंतत: खेत रही.

- और सबसे महत्वपूर्ण कि बहुमत के बावजूद विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव से डरी सरकार ने संसद का पूरा सत्र गवां दिया लेकिन विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव रखने के हक का इस्तेमाल नहीं करने दिया.

लोकतंत्र बुनियादी रूप से सरकार से प्रश्न, उसकी आलोचना, विरोध और निष्पक्ष चुनाव (जिसमें इनकार या स्वीकार छिपा है) पर टिका है. ऊपर की चारों घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि लोकतंत्र की छाया में पले-बढ़े लोग उन्हीं मूल्यों का गला दबाना चाहते हैं जो उन्हें सत्ता तक लाए हैं.

प्रश्न
मध्य प्रदेश सरकार के चुने हुए प्रतिनिधि अपनी आजादी को सूली पर चढ़ाने जा रहे थे. सरकार चाहती थी कि वे वीआइपी सुरक्षा (खास तौर से मुख्यमंत्री की सुरक्षा), सांप्रदायिक राजनीति आदि पर सवाल न पूछें.

क्यों?

अगर जनता के नुमाइंदे भी सवाल नहीं पूछेंगे, तो भला कौन पूछेगा?

अमेरिका के अध्यक्षीय लोकतंत्र में प्रश्नोत्तरकाल नहीं है. अमेरिकी कांग्रेस इसे शुरू करने पर चर्चा कर रही है ताकि सांसद सरकार से सीधे सवाल पूछ सकें. संसदीय लोकतंत्र इस मामले में ज्यादा आधुनिक है. इसमें सदन का पहला सत्र ही प्रश्नकाल होता है यानी दिन की शुरुआत सरकार को सवालों में कठघरे में खड़ा करने से होती है.

संविधान निर्माता चाहते थे कि सरकारें हर छोटे-बड़े सवालों का सामना करें. उनसे मौखिक ही नहीं, लिखित जवाब भी मांगे जाएं. सवालों पर कोई रोक न हो. संसद की एक (आश्वासन) समिति सवालों में सरकार के झूठ सच पर निगाह रखती है.

अभी तक  सरकारें प्रश्न से जुड़ी सूचनाएं अभी एकत्रित की जा रही हैं कहकर बच निकलती थीं लेकिन अब तो उन्हें  सवालों से ही डर लग रहा है. कोई गारंटी नहीं कि मध्य प्रदेश जैसी कोशिश फिर नहीं होगी.

शायद इससे हमारे नुमाइंदों पर कोई फर्क नहीं पड़ता! उनके लिए लोकतंत्र का मतलब बदल चुका है.

विपक्ष
संसद में पहला अविश्वास प्रस्ताव 1963 में नेहरू के खिलाफ आया था. अब तक कुल 26 बार अविश्वास प्रस्ताव आए हैं जिनमें 25 असफल रहे. सिर्फ एक प्रस्ताव ऐसा था जिस पर मतदान से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इस्तीफा दे दिया था.

इसके बावजूद संसद की परंपरा है, सभापति अविश्वास प्रस्ताव को किसी दूसरे कामकाज पर वरीयता देते हैं. यह सिद्ध करना संसद का दायित्व है कि देश को सरकार पर भरोसा है. सरकारें भी इस प्रस्ताव पर मतदान में देरी नहीं करतीं क्योंकि इसके गिरने से उन्हें ताकत मिलती है.

अचरज है कि इस बार बहुमत वाली सरकार जिसे कोई खतरा नहीं था, वह अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने से डर गई. उसने एक नई परंपरा शुरू कर दी. अब अगली सरकारें अविश्वास प्रस्ताव को रोकने के लिए खुद ही संसद नहीं चलने देंगी. दिलचस्प है कि विधायकों को सवाल पूछने से रोकने वाले मध्य प्रदेश सरकार के प्रस्ताव में यह प्रावधान भी था कि सत्ता पक्ष के विधायक विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ विश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं.

हम विपक्ष या विरोध के बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं कर सकते. यह समझना जरूरी है कि जिन्होंने तेजतर्रार विपक्ष के तमगे जुटाए थे, वे ही अब हर विरोध में षड्यंत्र देखते हैं और सरकार पर उठे हर सवाल को पाप मानते हैं.

सत्तारूढ़ राजनैतिक दलों के नेतृत्व को खुशफहमी की बीमारी सबसे पहले घेरती है. उन्हें वही बताया या सुनाया जाता है जो वे सुनना चाहते हैं. यह बीमारी उन्हें अधिनायक में बदलने लगती है. सवाल, आलोचनाएं, विरोध और निगहबानी वे आईने हैं जिनमें हर सरकार को अपना अक्स बार-बार देखना चाहिए, इन्‍हें तोडऩे वाले तुझे ख्याल रहे, अक्स तेरा भी बंट जाएगा कई हिस्सों में.