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Saturday, October 19, 2019

वक्त की करवट


 ‘‘भविष्य हमेशा जल्दी आ जाता है और वह भी गलत क्रम में यानी कि भविष्य उस तरह कभी नहीं आता जैसे हम चाहते हैं.’’

मशहूर फ्यूचरिस्ट यानी भविष्य विज्ञानी (भविष्य वक्ता नहींएल्विन टॉफलर ने यह बात उन सभी समाजों के लिए कही थी जो यह समझते हैं कि वक्त उनकी मुट्ठी में हैभारतीय समाज की राजनीति बदले या नहीं लेकिन भारत के लिए उसके सबसे बड़े संसाधन या अवसर गंवाने की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है.

भारत बुढ़ाते हुए समाज की तरफ यात्रा प्रारंभ कर चुका हैअगले दस साल में यानी 2030 से यह रफ्तार तेज हो जाएगी.

भारत की युवा आबादी अगले एक दशक में घटने लगेगीविभिन्न राज्यों में इस संक्रमण की गति अलग-अलग होगी लेकिन इस फायदे के दिन अब गिने-चुने रह गए हैंसनद रहे कि पिछले दो-तीन दशकों में भारत की तरक्की का आधार यही ताकत रही हैइसी ने भारत को युवा कामगार और खपत करने वाला वर्ग दिया है.

2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण ने बताया है किः
  •       भारत की जनसंख्या विकास दर घटकर 1.3 फीसद (2011-16) पर आ चुकी है जो सत्तर-अस्सी के दशकों में 2.5 फीसद थी  
  •    बुढ़ाती जनसंख्या के पहले बड़े लक्षण दक्षिण के राज्योंहिमाचल प्रदेशपंजाबपश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में दिखने लगे हैंअगर बाहर से लोग वहां नहीं बसे तो 2030 के बाद तमिलनाडु में जनसंख्या वृद्धि दर घटने लगेगीआंध्र प्रदेश में यह शून्य के करीब होगीअगले दो दशकों में उत्तर प्रदेशराजस्थानमध्य प्रदेश और बिहार में आबादी बढ़ने की दर आधी रह जाएगी
  •    टोटल फर्टिलिटी रेट यानी प्रजनन दर में तेज गिरावट के कारण भारत में 0-19 साल के आयु वर्ग की आबादी सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई हैदेश में प्रजनन दर अगले एक दशक में घटकर 1 फीसद और 2031-41 के बीच आधा फीसद रह जाएगीजो आज यूरोप में जर्मनी और फ्रांस की जनसंख्या दर के लगभग बराबर होगी
  •  2041 तक 0-19 आयु वर्ग के लोग कुल आबादी में केवल 25 फीसद (2011 में 41 फीसदीरह जाएंगेतब तक भारत की युवा आबादी का अनुपात अपने चरम पर पहुंच चुका होगा क्योंकि कार्यशील आयु (20 से 59 वर्षवाले लोग आबादी का करीब 60 फीसद होंगे
  •    आर्थिक समीक्षा बताती है कि 2021 से 2031 के बीच भारत की कामगार आबादी हर साल 97 लाख लोगों की दर से बढ़ेगी जबकि अगले एक दशक में यह हर साल 42 लाख सालाना की दर से कम होने लगेगी 

युवा आबादी की उपलब्धि खत्म होने को बेरोजगारी के ताजा आंकड़ों की रोशनी में पढ़ा जाना चाहिएएनएसएसओ के चर्चित सर्वेक्षण (2018 में 6.1 फीसद की दर से बढ़ती बेकारीमें चौंकाने वाले कई तथ्य हैं:
  • ·       शहरों में बेकारी दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा यानी 7.8 फीसद हैविसंगति यह कि शहरों में ही रोजगार बनने की उम्मीद है
  •     2011 से 2018 के बीच खेती में स्वरोजगार पाने वाले परिवारों की संख्या बढ़ गईलक्ष्य यह था कि शहरों और उद्योगों की मदद से खेती के छोटे से आधार पर रोजगार देने का बोझ कम होगायानी कि शहरों से गांवों की तरफ पलायन हुआ है बावजूद इसके कि गांवों में मजदूरी की दर पिछले तीन साल में तेजी से गिरी है
  •     कामगारों में अशिक्षितों और अल्पशिक्षितों (प्राथमिक से कमकी संख्या खासी तेजी से घट रही हैयानी कि रोजगार बाजार में पढ़े-लिखे कामगार बढ़ रहे हैं जिन्हें बेहतर मौकों की तलाश है
  •  लवीश भंडारी और अमरेश दुबे का एक अध्ययन बताता है कि 2004 से 2018 के बीच गैर अनुबंध रोजगारों का हिस्सा 18.1 फीसद से 31.8 फीसद हो गयायानी कि रोजगार असुरक्षा तेजी से बढ़ी हैलगभग 68.4 फीसद कामगार अभी असंगठित क्षेत्र में हैं
  •      सबसे ज्यादा चिंता इस बात पर होनी चाहिए कि देश में करीब लगभग आधे (40-45 फीसदकामगारों की मासिक पगार 10 से 12,000 रुपए के बीच हैउनके पास भविष्य की सुरक्षा के लिए कुछ नहीं है

भारतीय जनसांख्यिकी में बुढ़ापे की शुरुआत ठीक उस समय हो रही है जब हम एक ढांचागत मंदी की चपेट में हैंबेरोजगारों की बड़ी फौज बाजार में खड़ी हैभारत के पास अपने अधिकांश बुजर्गों के लिए वित्तीय सुरक्षा (पेंशनतो दूरसामान्य चिकित्सा सुविधाएं भी नहीं हैं.

सात फीसद की विकास दर के बावजूद रिकॉर्ड बेकारी ने भारत की बचतों को प्रभावित किया हैदेश की बचत दर जीडीपी के अनुपात में 20 साल के न्यूनतम स्तर (20 फीसदपर हैयानी भारत की बड़ी आबादी इससे पहले कि कमा या बचा पातीउसे बुढ़ापा घेर लेगा

भारत बहुत कम समय में बहुत बड़े बदलाव (टॉफलर का ‘फ्यूचर शॉक’) की दहलीज पर पहुंच गया हैकुछ राज्यों के पास दस साल भी नहीं बचे हैंहमें बहुत तेज ग्रोथ चाहिए अन्यथा दो दशक में भारत निम्न आय वाली आबादी से बुजुर्ग आबादी वाला देश बन जाएगा और इस आबादी की जिंदगी बहुत मुश्किल होने वाली है.


Saturday, March 16, 2019

सत्ता की चाबी


क्या नरेंद्र मोदी को दोबारा जीत के करिश्मे के लिए 2014 से बड़ी लहर चाहिए? 

क्या लोग सरकार चुनते नहीं बल्कि बदलते हैं?

क्यों सत्ता विरोधी मत चुनावों का स्थायी भाव है?

चुनाव सर्वेक्षणों की गणिताई में इनके जवाब मिलना मुश्किल है. जातीय रुझानों या चेहरों की दीवानगी के आंकड़ों से परेतथ्यों की एक दूसरी दुनिया भी है जहां से हम वोटरों के मिजाज को आंक सकते हैं.

इसके लिए भारत के ताजा आर्थिक इतिहास की एक चुनावी यात्रा पर निकलना होगा. इस सफर के लिए जरूरी साजो-सामान कुछ इस प्रकार हैं:

-  गुजरातपंजाबकर्नाटकमध्य प्रदेशछत्तीसगढ़राजस्थानतेलंगाना के ताजा चुनाव नतीजे. गुजरात और कर्नाटक उद्योग-निर्यात-कृषि-खनिज-सेवा आधारित अर्थव्यस्थाएं हैं जबकि मध्य प्रदेशपंजाब और तेलंगाना की अर्थव्यवस्था में कृषि का बड़ा हिस्सा है. छत्तीसगढ़ कृषि व खनिज आधारित और राजस्थान सेवा व कृषि आधारित राज्य हैं. ये राज्य देश की अन्य अर्थव्यवस्थाओं का सैम्पल हैं. 

-     पिछले एक दशक मेंग्रामीण मजदूरीआर्थिक विकासकृषि विकास दर के आंकड़े और चुनाव नतीजे साथ रखने होंगे.
-     भारत में लोकसभा की करीब 380 सीटें पूरी तरह ग्रामीण हैं जिनमें 86 सीटें उन राज्यों में हैं जिनके सबसे ताजा नतीजे हमारे सामने हैं.

राज्यों के आर्थिक और कृषि विकास की रोशनी में विधानसभा नतीजों को देखने पर तीन निष्कर्ष हाथ लगते हैं.

1-   गुजरातकर्नाटकमध्य प्रदेशछत्तीसगढ़राजस्थान में चुनाव के साल आर्थिक विकास दर पिछले पांच साल के औसत से कम (क्रिसिल रिपोर्ट) थी. गुजरात में भाजपा मुश्किल से सत्ता में लौटी. अन्य राज्‍यों में बाजी पलट गई जबकि कुछ राज्यों में तो विपक्ष था ही नहीं या देर से जागा था. जहां मंदी का असर गहरा था जैसे छत्तीसगढ़वहां इनकार ज्यादा तीखा था. यानी लोगों के फैसले वादों पर नहींसरकारों के काम पर आधारित थे.

2-   2015-16 के बाद (चुनाव से एक या दो साल पहले) उपरोक्त सभी राज्यों में कृषि विकास दर में गिरावट आई. पूरे देश में ग्रामीण मजदूरी दर में कमी और सकल कृषि विकास दर में गिरावट के ताजा आंकड़े इसकी ताकीद करते हैं.

3- 2014 के बाद जिन राज्यों में सत्ता बदली है वहां चुनावी साल के आसपास राज्य की आर्थिक व कृषि विकास दर घटी है. तेलंगाना (बिहार और बंगाल भी) अपवाद हैं जहां विकास दर पांच साल के औसत से ज्यादा थी. यहां खेती की सूरत देश की तुलना में ठीकठाक थी इसलिए नतीजे सरकार के माफिक रहे.

इन आंकड़ों की रोशनी में लोकसभा चुनाव का परिदृश्य कैसा दिखता है.

  खेती महकमे के मुताबिकदेश के 11 राज्यों में खेती की हालत ठीक नहीं है. इनमें हरियाणापंजाबमध्य‍ प्रदेशगुजरात और उत्तर प्रदेश में पिछले तीन से पांच वर्षों में सामान्य से कम बारिश हुई है. बिहारआंध्र प्रदेश और बंगाल ऐसे बड़े राज्य हैं जहां खेती की मुसीबतें देश के अन्य हिस्सों से कुछ कम हैं.

-     ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भारी संसाधन झोंक कर मंदी रोकी जा सकती है. यूपीए ने 2004 के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भारी निवेश किया थावैसा ही कुछ तेलंगाना में सरकार ने किया.

मोदी सरकार के बजटों की पड़ताल बताती है कि 2015 से 2018 के बीच ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सरकार की मददइससे पहले के पांच वर्ष की तुलना में कम थी. ग्रामीण मंदी का सियासी असर देखकर 2017 के बाद राज्यों में कर्ज माफ हुए और केंद्र ने समर्थन मूल्य बढ़ाया. किसान नकद सहायता भी इसी का नतीजा है. लेकिन शायद देर हो चुकी है और कृषि संकट ज्यादा गहरा है. 

अपवादों को छोड़कर वोटरों का यही रुख 1995 के बाद हुए अधिकांश चुनावों में दिखा है. जिन राज्यों में आर्थिक या कृषि विकास दर ठीक थी वहां सरकारें लौट आईं. 2000 के बाद के एक दशक में राज्यों में सबसे ज्यादा सरकारें दोहराई गईं क्योंकि वह खेती और आर्थिक विकास का सबसे अच्छा दौर था. 2004 के चुनाव में वोटरों के फैसले पर सूखा और कृषि में मंदी का असर दिखाई दिया (राजग की पराजय). जबकि 2009 में महंगाई के बावजूद केंद्र में यूपीए को दोबारा चुना गया. 2014 में भ्रष्टाचार के अलावा खेती की बदहाली सरकार पलटने की एक बड़ी वजह थी.

आर्थिक आंकड़े सबूत हैं कि नेताओं की चालाकी के अनुपात में मतदाताओं की समझदारी भी बढ़ी है. लोग अपनी ज‌िंदगी की सूरत देखकर बटन दबाते हैं. ध्यान रहे कि कृ‍षि संकट वाले राज्यों में करीब 230 सीटें पूरी तरह ग्रामीण प्रभाव वाली हैं. सत्ता‍ की चाबी शायद इनके पास हैकिसी एक उत्तर या दक्षिण प्रदेश के पास नहीं. 

Sunday, January 20, 2019

नया समीकरण


जब किसी देश के लोग चुनाव दर चुनाव समझदार और स्मार्ट होते जाते हैं तो क्या वहां की सियासत उतनी ही बदहवास व दकियानूस होने लगती है!

2019 में जनता और नेताओं के बीच एक नया समीकरण बन रहा है. एक तरफ होंगे वे वोटर जो अपनी जिंदगी देखकर वोट देने लगे हैं और दूसरी तरफ हैं नेता जिनकी सियासत और पीछे खिसक गई है.

मोदी सरकार पूरे पांच साल अपनी मनरेगा के आविष्कार में जुटी रही, जिसके जरिए 2009 जैसा करिश्मा किया जा सके. वह भूल गई कि यूपीए की दूसरी जीत मनरेगा नहीं बल्कि 2005-08 के बीच गांव और शहरी अर्थव्यवस्था में तेज वृद्धि से निकली थी. मनरेगा ने तो आय बढ़ाने में मदद की थी. 

भाजपा अब चंद ऐसी स्कीमों (जन धन, स्वास्थ्य, बीमा, गांवों में बिजली) को करामाती बताकर चुनाव में उतरने वाली हैं जिन्हें बार-बार आजमाया गया पर नतीजे नहीं बदलते.

सरकार में 29 लाख पद खाली हैं, भर्ती करने के संसाधन नहीं हैं और आर्थिक आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण के गुब्बारे उड़ा दिए गए.
दूसरी तरफ विपक्ष के बीच गठबंधनों का वही लेन देन, अंकगणित का खेल. खजाना लुटाने के वादे और कर्ज माफी की राजनीति.

चुनावों की तैयारी में जुटे सत्ता पक्ष और विपक्ष के संवादों में भयानक भविष्यहीनता है. लगता है इनकी निगाहें एक अंधेरी सुरंग में फिट कर दी गईं, जिसके छोर पर सिर्फ चुनाव दिखते हैं और कुछ नहीं. राजनैतिक दल पिछले दशक में जिस तरह वादे करते थे जैसी स्कीमें गढ़ते थे जैसे अवसरवादी गठजोड़ करते थे, आज भी सब कुछ वैसा ही है.

जबकि मतदाता कहीं ज्यादा समझदार हो चले हैं.

नेता हमेशा मुगालते में रहते हैं कि वोटर भावनाओं, करिश्माई नेता और विभाजक सियासत पर रीझ जाता है. लेकिन 13 प्रमुख राज्यों में पिछले तीन लोकसभा चुनावों और इस दौरान हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि राज्यों का जीडीपी यानी आर्थिक विकास दर गांवों में मजदूरी की दर में कमी या बढ़ोतरी मतदान के फैसलों में निर्णायक रही है.

2004 और 2018 के बीच जिन राज्यों में आर्थिक विकास दर या मजदूरी बढ़ी वहां सत्तारुढ़ दलों को ज्यादा वोट मिले और विकास दर कम होने पर उलटा हुआ. यही वजह है कि 2018 के पहले चुनाव चक्रों में उन राज्यों (केंद्र में भी) में सरकारों को दोबारा मौका मिला जिनकी विकास दर ठीक थी.

शहरी मध्य वर्ग ही राजनैतिक बहसों का मिजाज तय करता है. भारत का मध्यम वर्ग लगातार बढ़ रहा है. अब इसमें 60 से 70 करोड़ लोग (द लोकल इंपैक्ट ऑफ ग्लोबलाइजेशन इन साउथ ऐंड साउथईस्ट एशिया) शामिल हैं जिनमें शहरों के छोटे हुनरमंद कामगार भी हैं.

पिछले दो दशकों में यह पहला मौका है जब भारत में मध्य वर्ग के लिए रोजगार, कमाई, खपत और बचत एक साथ बुरी तरह गिरे हैं. गुजरात तक, जो शहरी मध्य वर्ग सत्तारुढ़ भाजपा के साथ था वह बाद के चुनावों में सत्ता विरोधी लहर के हक में आ गया.

25 साल के आर्थिक उदारीकरण में देश भली तरह से तीन बातें समझ गया है जो नेता नहीं समझ सके.
एक: बाजार जितना बड़ा और सरकार जितनी छोटी होगी रोजगार उतने ही बढ़ेंगे
दो: सरकार का खर्च रोजगार और कमाई का विकल्प नहीं है. सरकार अगर ईमानदार है तो वह हद से हद कमाई के अवसर बढ़ा सकती है
तीन: सरकारी स्कीमें केवल संकटों में मदद कर सकती हैं और सुविधा बढ़ा सकती हैं बशर्ते सरकारों के काम करने के तरीकों में तब्दीली आए.  

गौर से देखिए, चुनाव से पहले भारत की राजनीति हमें क्या थमा रही है: आरक्षण, गठबंधन और आजमाई जा चुकी स्कीमें.

पश्चिम के देश चुनावों से अच्छी सरकारें न निकलने को लेकर फिक्रमंद हो रहे हैं. उनको लगता है कि मतदाता सही फैसला नहीं कर पाते क्रिस्टोफर एचेन और लैरी बार्टेल्स की ताजा पुस्तक डेमोक्रेसी फॉर रियलिस्ट्सव्हाई इलेक्शसन्स डू नॉट प्रोड्यूस रिस्पांसिव गवर्नेमेंट खासी चर्चा में रही है जो बताती है कि चुनावों में मतदाता विभाजक राजनीति में बह जाते हैं लेकिन भारत के चुनाव नतीजे बार-बार इस बात की ताकीद करते हैं कि यहां के भोले मतदाता यूरोप और अमेरिका के वोटरों से कहीं ज्यादा समझदार हैं.

भारत पर जैसी जनता, वैसे नेता की कहावत हमेशा गलत साबित होती रही है. यह संयोग है या दुर्योग लेकिन 2019 में पहले से कहीं ज्यादा सयाना मतदाता, पहले से कहीं ज्यादा पिछड़ी राजनीति के सामने होगा. हमें जैसी राजनीति मिल रही है, हम उससे कहीं ज्यादा बेहतर नेताओं के हकदार हैं.


Sunday, June 10, 2018

नई पहेली


गांव क्यों तप रहे हैं?

किसान क्यों भड़के हैं?

उनके गुस्से को किसी एक आंकड़े में बांधा जा सकता है?

आंकड़ा पेश-ए-नजर हैः

गांवों में मजदूरी की दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गई जो पिछले दस साल का सबसे निचला स्तर है. यह गांवों में खुशहाली को नापने का जाना-माना पैमाना है. चार साल की गिरावट के बाद, पिछले साल के कुछ महीनों के दौरान ग्रामीण मजदूरी बढ़ती दिखी थी लेकिन वेताल फिर डाल पर टंग गया है.

ठहरिए! यह गिरावट सामान्य नहीं है क्योंकि...

Ø पिछले साल मॉनसून बेहतर रहा और रिकॉर्ड उपज भी. इस साल भी अब तक तो बादल मेहरबान हैं ही

Ø  समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी इतनी भी बुरी नहीं रही.

Ø 2014 से अब तक आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, कर्नाटक में किसानों के कर्ज माफ किए गए या किए जा रहे हैं.

Ø  पिछले एक साल में केंद्र और राज्यों ने गांवों में रिकॉर्ड (2009 के बाद सर्वाधिक) संसाधन डाले.

Ø और सस्ता आयात रोकने के लिए गेहूं, चीनी, खाद्य तेल के आयात पर कस्टम ड्यूटी (हाल में चीनी पर 100 फीसदी, चने पर 50 फीसदी, गेहूं पर 30 फीसदी) बढ़ाई गई.

फिर भी गांवों में कमाई गिर रही है!

कमाई कम होना केवल वोट वालों के लिए ही डरावना नहीं है, गांव के बाजार पर टिकी मोबाइल, बाइक, साबुन, तेल, मंजन, दवा, कपड़ा, सीमेंट बनाने वाली सैकड़ों कंपनियां भी पसीना पोछ रही हैं.

सरकार को उसके हिस्से की सराहना मिलनी चाहिए कि उसने पिछले चार साल में अन्य सरकारों की तर्ज पर खेती में जगह-जगह आग बुझाने की भरसक कोशिश की है. इन कोशिशों में समर्थन मूल्य को अधिकतम सीमा तक बढ़ाने का वादा शामिल है. किसानों की आय दोगुनी करने के इरादे के नीचे नीतियों की नींव नजर नहीं आई लेकिन यह मानने में हर्ज नहीं कि सरकार गांवों में घटती आय की हकीकत से गाफिल नहीं है. 

दरअसल, खेती की छांव में उम्मीदों को पोसती ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पिछले दो साल में एक पहेलीनुमा बदलाव हुआ है. बादलों की बेरुखी खेती को तोड़ती है लेकिन अच्छे मेघ से कमाई नहीं उगती. सरकार की मदद का खाद-पानी भी बेकार जाता है.

क्या ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्थाओं का एकीकरण, गांव में गहरी मंदी की वजह है?

आंकड़ों के भूसे से धान निकालने पर नजर आता है कि गांवों से शहरों के बीच श्रमिकों की आवाजाही, ताजी मंदी का कारण हो सकती है. इसे समझने के लिए हमें शहरों की उन फैक्ट्रियों-धंधों पर दस्तक देनी होगी जो अधिकांशतः श्रम आधारित हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था में इनका हिस्सा काफी बड़ा है.

2005 से 2012 के बीच बड़ी संख्या में गांवों से लोग शहरों में आए थे जब भवन निर्माण, ट्रांसपोर्ट जैसे कारोबार फल-फूल रहे थे. यही वह दौर था जब गांवों की कमाई में सबसे तेज बढ़ोतरी देखी गई.

ग्रामीण आय में गिरावट का ताजा अध्याय, शहरों में श्रम आधारित उद्योगों में मंदी की वंदना से प्रारंभ होता है. चमड़ा, हस्त शिल्प, खेल का सामान, जूते, रत्न-आभूषण, लकड़ी, कागज उद्योगों में नोटबंदी और जीएसटी के बाद गहरी मंदी आई. ये उद्येाग पारंपरिक रूप से श्रमिकों पर आधारित हैं. भवन निर्माण के सितारे तो 2014 से ही खराब हैं.

शुरुआती आंकड़े हमें इस आकलन की तरफ धकेलते हैं कि शहरी मंदी, गांवों की सबसे बड़ी मुसीबत है. पिछले दो साल में बड़े पैमाने पर शहरों से गांवों की ओर श्रमिकों का पलायन हुआ है. गांव में अब काम कम और मांगने वाले हाथ ज्यादा हैं तो मजदूरी कैसे बढ़ेगी? वहां जबरदस्त गुस्सा यूं ही नहीं खदबदा रहा है.

गांवों की अर्थव्‍यवस्था का बड़ा हिस्सा यकीनन अब शहरों पर निर्भर हो गया है इसलिए जीडीपी में रिकॉर्ड बढ़ोतरी (2017-18 की चौथी तिमाही) पर रीझने से बात नहीं बनेगी.

गांवों को अपनी खुशहाली वापस पाने के लिए शहरों की पटरी पर बैठकर लंबा इंतजार करना होगा. अब गांवों के अच्छे दिन शहरों से मंदी खत्म होने पर निर्भर हैं. शहर में धंधा-रोजगार बढ़ेगा तब गांव में बारात चढ़ेगी. तेल की महंगाई, ऊंची ब्याज दरों व कमजोर रुपए के बीच शहर के रोजगार घरों का ताला खुलने में लंबा वक्त लग सकता है 

अगर अच्छी फसल, कर्ज माफी और सरकारी कोशिशों के बावजूद शहरी मंदी ने गांव को लपेट ही लिया है तो फिर दम साध कर बैठिए, क्योंकि यह उलटफेर सियासत की तासीर बदल सकता है.