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Monday, July 16, 2012

पिछड़ने की कला

फिसड्डी होने के लिए दौड़ना कतई जरुरी नहीं है। हारने के कई नायाब तरीके भी होते हैं। मसलन दौड़ ही बंद करा दी जाए। या दौड़ने के तरीकों पर कमेटियां बिठा दी जाएं। अथवा दौड़ की तैयारी को इतना कनफ्यूज कर दिया जाए कि स्‍पर्धा का वक्‍त गुजर जाए। इसके बाद दौड़ने की जहमत भी नहीं उठानी पड़ती और हारना आदत बन जाता है। भारत की सरकार ने पिछले आठ वर्षों में हारने के लिए दरअसल इन्‍हीं बेजोड़ नुस्‍खों का इस्‍तेमाल किया है। फैसलों पर ऊंघते मंत्रिसमूह, एक दूसरे के प्रस्‍तावों में टंगड़ी फंसाते विभाग, राजकाज के तरीकों पर लड़ती संस्थायें और विवादित होते नियामक !.... पिछले आठ साल भारत ऐसे ही चल रहा है। भारत को क्रांतिकारी सुधारों कमी ने नहीं बल्कि गवर्नेंस के एक निहायत नाकारा तरीके ने विकलांग कर दिया है। भारत का नेतृत्‍व दुनिया की निगाह में फिसड्डी (अंडरअचीवर) इसलिए है क्‍यों कि सरकार को संकट का इलहाम हुए काफी वक्‍त बीत चुका है मगर   घटिया, लटकाऊ और लचर गवर्नेंस की लत इतनी मजबूत है कि पिछले एक माह में उम्‍मीद को दो बूंद पानी देने वाला एक फैसला नहीं हुआ।
गवर्नेंस का पत्‍थर   
यूपीए ने पिछले एक आठ साल में राजकाज के एक बिल्‍कुल अनसुने तरीके का ईजाद किया। मंत्रियों की समिति, सचिवों की समिति और विशेषज्ञ समितियों के जरिये फैसले करने (दरअसल रोकने) की नई पद्धति ने देश को वस्‍तुत: ठप कर दिया। यह फैसले न करने वाली सरकार का जन्‍म था,  वह भी  ठीक उस वक्‍त पर जब देश और तेज फैसलों की उम्‍मीद बांधे बैठा था। गार (कर चोरी रोकने के सामान्‍य नियम) के नियमों पर इसी सप्‍ताह (छह माह में) तीसरी समिति बैठ गई है। यह हाल उस मुद्दे का है जिस पर प्रधानमंत्री सबसे ज्‍यादा फिक्रमंद थे और प्रणव मुखर्जी के रुखसत होते ही सक्रिय हो गए थे। एक विशालकाय केंद्रीय कैबिनेट के अंतर्गत और सामानांतर करीब 27 मंत्रिसमूह , दवा, अनाज, जंगल, सरकारी कंपनियों का विनिवेश, गैस, महिलाओं के उत्‍पीड़न, भ्रष्‍टाचार, मंत्रियों के विवेकाधिकार खत्‍म करने तक दर्जनों प्रस्‍ताव इन समितियों फाइलों में बंद हैं। पिछले चार साल से किसी मंत्रिसमूह किसी भी नीति या प्रस्‍ताव को मंजूरी की मेज तक नहीं पहुंचाया है। प्रणव मुखर्जी सरकार छोड़ने तक 13 मंत्रिसमूहों और 12 अधिकार प्राप्‍त समूहों के मुखिया थे। यह गवर्नेंस इतनी महंगी क्‍यों पड़ी इसे समझना जरुरी है। 2005-06 में ग्रोथ के शिखर पर बैठा देश केवल सरकारी मंजूरियों में तेजी चाहता था। ठीक ऐसे मौके पर मनमोहन सरकार ने गवर्नेंस के पैरों में मंत्रिसमूहों के पत्‍थर बांध दिये। सरकार में  मंत्रिमंडल सर्वशक्तिमान होता है। विभाग या मंत्रालय कैबिनेट को प्रस्‍ताव भेजते हैं जिन पर हरी झंडी मिलती है। सरकारें वर्षों से ऐसा करती आईं हैं। लेकिन मंत्रिसमूहों और समितियों के नए तरीके ने कैबिनेट से इतर निर्णय के नए स्‍तर बना दिये। कई जगह मंत्रियों की समिति के नीचे सचिवों की समिति और फिर अलग से विशेषज्ञ समि‍ति भी बन गईं!!  यानी कि विभाग से लेकर कैबिनेट तक जाने के चार या पांच स्‍तर। अगर इसके बाद अगर संसद से मंजूरी लेनी हो तो फिर संसदीय समिति और संसद के दरवाजे एक्‍सट्रा। सिंगल विंडो क्लियरेंस की उम्‍मीद लगाये भारत की नीतियां और फैसले, कुछ इस तरह से समितियों की अंधी गलियों में खो गए। गवर्नेंस का दूसरा काला पक्ष यह भी है कि जब आर्थिक मशीन को तेल पानी देने जैसे आसान फैसलों (बिजली के लिए कोयला आपूर्ति) पर मंत्रिसमूह बैठ रहे थे तब स्‍पेक्‍ट्रम, खदाने और ठेके बांटने बड़े बड़े फैसले घंटो में हो रहे थे। नतीजन फैसले न लेने का भी दाग लगा और और दागी फैसलों का भी।

Monday, May 28, 2012

रुपये के मुजरिम

स्ताद जी, रुपया ही क्यों खेत रहा ? भोले निवेशक ने चतुर ब्रोकर से पूछा। दलाल बोला चुप रहो जी, हमारी पुरानी पोल फिर खुल गई। और बहुत सतर्क रहो क्यों। कि इस बार मामला कुछ ज्याजदा ही संगीन है। बाजार की नब्ज थामे वह ब्रोकर बिल्कुल ठीक समझ रहा है। रुपये का मामला यकीनन संगीन है। विकलांग सरकार की संकट न्योता नीति रुपये को ही ले डूबी क्यों। कि रुपया भारत आर्थिक शरीर की सबसे कमजोर नस है। विदेशी मुद्रा प्रबंधन में इतना लोचा है कि 1991 के संकट लेकर आज तक, हम ज्यादा वित्ती्य मुसीबतें इसी दरवाजे से आई हैं और रुपये ने ही तबाही की कहानी बनाई है। शेयर बाजार में विदेशी निवेश कमी को मत कोसिये, विदेशी मुद्रा बाजार और भंडार के प्रबंधन की दरारें तो पिछले कई वर्षों से संकट का स्वागत करने को आतुर हैं। आत्म निर्भरता की कमी, महंगाई, प्राकृतिक संसाधनों का घरेलू उत्पादन, विदेशी मुद्रा की आवक निकासी के असंतुलन, रुपये की बदहाली के लिए जिम्मेदारों की फेहरिस्त छोटी नहीं है। विदेशी मुद्रा का मोर्चा सबसे संवेदनशील होता है, इसे तो सबसे ज्यादा मजबूत होना चाहिए था मगर यही भारत का सर्वाधिक कमजोर और असुरिक्षत मोर्चा साबित हुआ है। रुपया ही सबसे गिरा और बेसहारा है।
कुप्रबंध का विनिमय
रुपये की तोहमत बेचारे ग्रीस के सर क्यों ? यह त्रासदी यूरोजोन ने नहीं हमने खुद लिखी है। ऐतिहासिक गलतियों से लेकर, किस्म किस्म के घाटे और सरकार की नीतिगत निष्क्रियता तक सबने रुपये को तोड़ने में बखूबी काम किया है। रिजर्व बैंक से लेकर वित्ता मंत्रालय सबको यह खबर थी कि रुपये पर हमला होना तय है क्यों कि भारतीय अर्थव्यवस्‍था  दोहरे घाटे (राजकोषीय और चालू खाता) के दुष्च‍क्र में फंस गई है। भुगतान संतुलन (विदेशी देनदारियों और विदेशी पंजी की आवक के बीच का अंतर) के तीन साल में पहली बार घाटे में आने की खबर बाजार को पिछले साल ही मिल गई थी और इसलिए अक्टूबर नवंबर से रुपये की बुरी गत बननी शुरु हो गई थी। इसके बाद से बाजार को विदेशी मुद्रा प्रबंधन के मोर्चे पर कुछ भी अच्छा नहीं