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Monday, September 25, 2017

भारत की शिंकानसेन


व्यजगमगाती या तेज रफ्तार दुविधा क्या  होती हैइसे समझने के लिए बुलेट ट्रेन में बैठकरभीमकाय बांध और परमाणु बिजली घर की यात्रा कर आइए.

तीनों ही बुनियादी ढांचा वंश की कामयाब लेकिन विवादित संतानें हैं.

बुलेट ट्रेन की मेट्रो से तुलना असंगत है. नगरीय व उपनगरीय रेल परिवहन की तीन पीढिय़ां (ट्राम—मुंबई लोकल—दिल्ली रिंग रेलवे—कोलकता मेट्रो) भारत में पहले से हैं. दिल्ली की मेट्रो इनका नया संस्करण है. हालांकि मेट्रो राजनीति पर सवार होकर ऐसे शहरों में भी पहुंच गई जहां इसकी आर्थिक सफलता संदिग्ध है.

बुलेट ट्रेन भारत में अंतर्देशीय परिवहन की नीति के लिए असमंजस की चिट्ठी है. यह असमंजस रफ्तार और विस्तार के बीच समन्वय का है. यूरोप का विमानन उद्योग भी (1970 से 2003) रफ्तार की दीवानगी में सुपरसोनिक कांकॉर्ड विमान सेवाएं लेकर आया. सन् 2000 की जुलाई में एयरफ्रांस की कांकॉर्ड दुर्घटना के बाद यह सेवा बंद हुई और विमानन उद्योग ने एक नई करवट ली. अब होड़ रफ्तार की नहींबल्कि विस्तार की थी. नए शहरों के लिए सस्ती उड़ानें शुरू हुईं.विमानों का आकार (एयरबस 380) बढ़ाया गया. विस्तार व सस्ती सेवा से यात्री बढ़े और एविएशन उद्योग को सफलता के सुपरसोनिक पंख लग गए.

भारत की बुलेट ट्रेन को अंतर्देशीय परिवहन के अंतरराष्ट्रीय प्रयोगों के संदर्भ में देखना जरूरी हैः 

- अमेरिका में बुलेट ट्रेन नहीं हैं. भौगोलिक विशालता के कारण रेलवे को माल परिहवन पर केंद्रित यात्रियों के लिए निजी वाहनों और विमान सेवा को वरीयता दी गई. इसलिए ऑटोमोबाइल और विमानन उद्योग विकसित हुआ.

- यूरोपीय देशों ने छोटे भूगोल के मुताबिक रेलवे (कुछ देशों में हाइ स्पीड रेल भी) को यात्री और सड़कों को माल परिवहन का जरिया बनायाहालांकि सस्ती विमान सेवएं अंतरयूरोपीय यात्राओं में रेलवे के लिए चुनौती हैं.

- बेहद घनी बसावट वाले छोटे जापान (केवल 20 फीसदी भूगोल रहने लायक) 'शिकानसेन' (भारत की बुलेट ट्रेन का आधार) ने और छोटा कर दिया. जापानी बुलेट ट्रेन आम लोगों के लिए खासी महंगी है. कर्मचारी अपनी कंपनियों के खर्च पर शिंकानसेन के जरिए बड़े शहरों तक आते-जाते हैं. जापान की विमान सेवाएंबाजार के लिए बुलेट ट्रेन से लड़ रहीं हैं.

- चीन ने पिछले दो दशकों में दुनिया का सबसे बड़ा हाइ स्पीड ट्रेन नेटवर्क (दुनिया से 40 फीसदी कम लागत पर) बना लिया है लेकिन बुलेट ट्रेन के कारण तीनों सरकारी विमान सेवाओं का मुनाफा पिघल रहा है.

बुलेट ट्रेन अपनी लागत लाभ (कॉस्ट बेनीफिट) असंगति को लेकर खासी विवादित हैं. चीन व जापान सरकारें निजी जमीन लेने को स्वतंत्र हैंप्रोजेक्ट को खूब सब्सिडी भी देती हैं. यूरोप में महंगी जमीन के कारण हाइ स्पीड रेल की लागत ऊंची है. अमेरिका में लॉस एंजेलिस-सैन फ्रांसिस्को और डलास-ह्यूस्टन के हाइ स्पीड रेल प्रोजेक्ट जमीन अधिग्रहण के झगड़ों और लागत बढऩे के कारण लंबित हैं.

हम बुलेट ट्रेन को चुनावी शोशा नहीं बल्कि एक गंभीर परियोजना मानते हैं जो अंतर्देशीय परिवहन नीति और रेलवे के पुनर्गठन का संदेश होनी चाहिए. 

1. माल परिवहन के कारोबार में रेलवेसड़क से हार चुकी है. रेलवे की ढुलाई कोयलालोहासीमेंट तक सीमित है. रेलवे का कारोबार अब यात्री परिवहन से ही चलेगा. डेडिकेटेड फ्रेट (माल) कॉरिडोर को लंबी दूरी के हाइ स्पीड यात्री परिवहन कॉरिडोर में बदलना चा‍हिए जबकि पुराना नेटवर्क माल परिवहन के लिए इस्तेमाल होना चाहिए. रेलवे को यात्री परिवहन के नए राजस्व मॉडल की जरूरत है जिसे निजी भागीदारी के साथ विकसित किया जा सकता है.

2. पिछले दशकों में सड़कों पर रेलवे से ज्यादा निवेश हुआ है. यहां अब हाइ स्पीड फ्रेट कॉरिडोर बनाने की जरूरत है ताकि बड़े ट्रक बगैर रुके लंबी यात्रा कर सकें. फायदा ऑटोमोबाइल उद्योग को होगा.

3. भारत में नगरों की बहुतायत है. छोटी दूरियों को परिवहन को बेहतर सड़कों और निजी वाहनों पर केंद्रित किया जा सकता है.  

4. सस्ती विमान सेवाएं और लंबी दूरी की हाइ स्पीड ट्रेनें मिलकर अंतर्देशीय परिवहन को आधुनिक बना सकती हैं.



रेलवे के सामाजिक और वणिज्यिक दायित्वों को अलग करना होगा. सामाजिक दायित्वों को बजट से वित्त पोषण मिलना चाहिए. बुलेट ट्रेन के साथ भारत की अंतर्देशीय परिवहन नीति बदलना जरूरी है. नहीं तो यह महंगी (रेलवे के सालाना बजट का ढाई गुना) परियोजना जापान के कर्ज से, अगर बन भी गई तो यह पर्यटकों के लिए हाइ स्पीड पैलेस ऑन व्हील्स हो जाएगी. आम रेल यात्रियों की जिंदगी में इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

Sunday, August 20, 2017

ऑक्सीजन की कमी



ऑक्सीजन चाहिए 
तो सवालों को रोपते-उगाते रहिए.
लोकतंत्र को ऑक्सीजन इसी हरियाली से मिलती है. सवाल जितने लहलहाएंगे, गहरे, घने और छतनार होते जाएंगे, लोकतंत्र का प्राण उतना ही शक्तिशाली हो जाएगा.


देखिए न, ऑक्सीजन (सवालों) की कमी ने गोरखपुर में बच्चों का दम घोंट दिया. पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन्सेफलाइटिस को रोकने को लेकर योगी आदित्यनाथ की गंभीरता संसद के रिकॉर्ड में दर्ज है लेकिन जो काम वे अपने पूरे संसदीय जीवन के दौरान लगातार करते रहे, उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद वह काम धीमा पड़ा और बंद हो गया.

यह काम था सरकार और उसकी व्यवस्था पर सवाल उठाने का. उत्तर प्रदेश के पूरब में मच्छरों से उपजी महामारी हर साल आती है. योगी आदित्यनाथ निरंतर इससे निबटने की तैयारियों पर सवाल उठाकर दिल्ली को जगाते थे. उन्हें इन सवालों की ताकत अखबारों और लोगों की प्रतिक्रियाओं से मिलती थी. इससे गफलतों पर निगाहें रहती थीं, चिकित्सा तंत्र को रह-रहकर झिंझोड़ा जाता था और व्यवस्था को इस हद तक सोने नहीं दिया जाता था कि मरीजों को ऑक्सीजन देना ही भूल जाए.

सरकार बदलने के बाद न तो जापानी बुखार के मच्छर मरे, न पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंदगी कम हुई और न ही अस्पताल सुधरे लेकिन इन्सेफलाइटिस से जुड़े सवालों की ऑक्सीजन कम हो गई. नतीजाः 60 बच्चे हांफ कर मर गए. हैरानी इस बात पर थी कि बच्चों की मौत के बाद अपनी पहली प्रेस वार्ता में, मुख्यमंत्री उन्हीं सवालों पर खफा थे जिन्हें लेकर वे हर साल दिल्ली जाते थे.

नमूने और भी हैं. रेलवे को ही लें. पिछली भूलों से सीखकर व्यवस्था को बेहतर करना एक नियमित प्रक्रिया है. पिछले तीन साल से रेलवे में कुछ सेवाएं सुधरीं लेकिन साथ ही कई पहलुओं पर अंधेरा बढ़ गया जिन पर सवालों की रोशनी पडऩी चाहिए थी लेकिन प्रश्नों को लेकर बहुत सहजता नहीं दिखी. फिर आई रेलवे में कैटरिंग, सफाई, विद्युतीकरण की बदहाली पर सीएजी की ताजा रिपोर्ट, जिसने पूरे गुलाबी प्रचार अभियान को उलट दिया. 

नोटबंदी के दौरान जब लोग इसके असर और क्रियान्यवयन पर सवाल उठा रहे थे, तब उन सवालों से नाराज होने वाले बहुतेरे थे. अब आठ माह बाद इस कवायद के रिपोर्ट कार्ड में जब केवल बचत निकालने के लिए बैंकों की कतार में मरने वालों के नाम नजर आ रहे हैं तो उन सवालों को याद किया जा रहा है.

सवालों की कोई राजनैतिक पार्टी नहीं होती. प्रश्न पूछना फैशन नहीं है. व्यवस्था पर सवाल किसी भी गवर्नेंस की बुनियादी जरूरत है. भाजपा की पिछली सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री इसे दिलचस्प ढंग से आजमाते थे. यदि उनका विभाग खबरों से बाहर हो जाए तो वे पत्रकारों से पूछते थे, क्या हमारे यहां सब अमन-चैन है? वे कहते थे कि मैं अंतर्यामी तो हूं नहीं जो अपने हर दफ्तर और कर्मचारी को देख सकूं. सवाल और आलोचनाएं ही मेरी राजनैतिक ताकत हैं जिनके जरिए मैं व्यवस्था को ठीक कर सकता हूं.

आदित्यनाथ योगी हो सकते हैं लेकिन वे अंतर्यामी हरगिज नहीं हैं. वे गोरखपुर में बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज जाकर भी यह नहीं जान पाए कि वहां पिछले कई हफ्तों से ऑक्सीजन की कमी है. प्राण वायु की सप्लाई के लिए चिट्ठियां फाइलों में टहल रही हैं और बच्चों की मौत बढ़ती जा रही हैं, जबकि इस क्षेत्र के सांसद के तौर पर उनके पास यह सारी जानकारियां रहतीं थीं और इन्हीं पर सवाल उठाकर वे केंद्र और प्रदेश सरकार को जगाते थे.

गोरखपुर की घटना से पूरा देश सदमे में है.भाजपा और सरकार भी कम असहज नहीं हैं. नेता और अधिकारी अब यह कहते मिलने लगे हैं कि जिन्हें फैसला लेना है, उनके पास सही सूचनाएं नहीं पहुंच रही हैं. सवालों से परहेज और आलोचनाओं से डर पूरी व्यवस्था को अनजाने खतरों की तरफ ढकेल देता है. 

कुर्सी को तो वही सुनाया जाएगा जो वह सुनना चाहती है. सरकारें हमेशा अपना प्रचार करती हैं और लोकतंत्र की अन्य संस्थाएं हमेशा उस पर सवाल उठाती हैं. यही सवाल नेताओं को जड़ों से कटने से बचाकर, उनके राजनैतिक जोखिम को कम करते हैं. 

भारत का संविधान लिखने वाली सभा ने अध्यक्षीय लोकतंत्र की तुलना में संसदीय लोकतंत्र को शायद इस वजह से भी चुना था, क्योंकि यह सत्ता के सबसे बड़े हाकिम से भी सवाल पूछने की छूट देता है. लोकतंत्र के वेस्टमिंस्टर मॉडल में संसद में प्रश्न काल की परंपरा है जिसमें प्रधानमंत्री भी मंत्री के रूप में सवालों के प्रति जवाबदेह है. अध्यक्षीय लोकतंत्र में इस तरह की परंपरा नहीं है.

सवालों को उगने से मत रोकिए, नहीं तो पता नहीं कितनों का दम घुट जाएगा. सयानों ने भी हमें सिखाया था कि कोई प्रश्न मूर्खतापूर्ण नहीं होता, क्योंकि मूर्ख कभी सवाल नहीं पूछते.


Wednesday, September 21, 2016

बजट बंद होने से दौड़ेगी रेल ?


रेल बजट का आम बजट में विलय दरअसल भारतीय रेल के पुनर्गठन का आखिरी मौका है


राजधानी दिल्ली में रेल भवन के गलियारे रहस्यमय हो चले हैं. असमंजस तो रेल भवन से महज आधा किलोमीटर दूर रायसीना हिल्स की उत्तरी इमारत में भी कम नहीं है जो वित्त मंत्रालय के नाम से जानी जाती है. 93 साल पुराना रेल बजट, 2017 से वित्त मंत्री अरुण जेटली का सिरदर्द हो जाएगा. रेल मंत्री सुरेश प्रभु बेचैन हैंवे रेल बजट के आम बजट में विलय के सवालों पर खीझ उठते हैं. अलबत्ता उनके स्टाफ से लेकर सुदूर इलाकों तक फैले रेल नेटवर्क का हर छोटा-बड़ा कारिंदा दो बजटों के मिलन की हर आहट पर कान लगाए हैक्योंकि रेल बजट का आम बजट में विलय आजादी के बाद रेलवे के सबसे बड़े पुनर्गठन का रास्ता खोल सकता है.

सुरेश प्रभु की बेचैनी लाजिमी है. तमाम कोशिशों के बावजूद वे रेलवे की माली हालत सुधार नहीं पाए हैं. बीते एक माह में उन्होंने रेलवे की दो सबसे फायदेमंद सेवाओं को निचोड़ लिया. पहले कोयले पर माल भाड़ा बढ़ा. रेलवे का लगभग 50 फीसदी ढुलाई राजस्व कोयले से आता है. फिर प्रीमियम ट्रेनों में सर्ज प्राइसिंग यानी मांग के हिसाब से महंगे किराये बढ़ाने की नीति लागू हो गई. गहरे वित्तीय संकट में फंसी रेलवे अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता खत्म करने पर मजबूर है. रेलवे अपना माल और यात्री कारोबार अन्य क्षेत्रों को सौंपना चाहती है ताकि घाटा कम किया जा सके. रेल मंत्री ने भाड़ा और किराये बढ़ाकरवित्त मंत्री की तकलीफें कम करने की कोशिश की हैजो रेलवे का बोझ अपनी पीठ पर उठाएंगे.

रेलवे और वित्त मंत्रालय के रिश्ते पेचीदा हैं. रेलवे कोई कंपनी नहीं हैफिर भी सरकार को लाभांश देती है. रेलवे घाटे में हैइसलिए यह लाभांश नहीं बल्कि बजट से मिलने वाले कर्ज पर ब्याज है. एक हाथ से रेलवे सरकार को ''लाभांश" देती है तो दूसरे हाथ से आम बजट से मदद लेती है. यह मदद रेलवे नेटवर्क के विस्तार और आधुनिकीकरण के लिए हैक्योंकि दैनिक खर्चोंवेतनपेंशन और ब्याज चुकाने के बाद रेलवे के पास नेटवर्क विस्तार के लिए संसाधन नहीं बचते. रेलवे के तहत कई कंपनियां हैंजिन्हें अलग से केंद्रीय खजाने से वित्तीय मदद मिलती है.

बजट से मदद के अलावा रेलवे को भारी कर्ज लेना पड़ता हैजिसके लिए इंडियन रेलवे फाइनेंस कॉर्पोरेशन है. भारत में रेलवे अकेला सरकारी विभाग है जिसके पास कर्ज उगाहने वाली कंपनी हैजो रेलवे को वैगन-डिब्बा आदि के लिए कर्ज संसाधन देती है. प्रभु के नेतृत्व में रेलवे ने जीवन बीमा निगम से भी कर्ज लिया हैजो खासा महंगा है.

रेलवे सिर्फ परियोजनाओं के लिए ही आम बजट की मोहताज नहीं हैबल्कि उसके मौजूदा संचालन भी भारी घाटे वाले हैं. यह घाटा सस्ते यात्री किराये (34,000 करोड़ रु.) और उन परियोजनाओं का नतीजा है जो रणनीतिक या सामाजिक जरूरतों से जुड़ी हैं. इसके अलावा रेलवे को लंबित परियोजनाओं के लिए 4.83 लाख करोड़ रु. और वेतन आयोग के लिए 30,000 करोड़ रु. चाहिए.

रेल बजट के आम बजट में विलय के साथ यह सारा घाटादेनदारीकर्ज आदि आदर्श तौर पर अरुण जेटली की जिम्मेदारी बन जाएगा. रेल मंत्री रेलवे के राजनैतिक दबावों और लाभांश चुकाने की जिम्‍मेदारियों से मुक्त हो जाएंगे और रेल मंत्रालय दरअसल डाक विभाग जैसा हो जाएगाजिसका घाटा और खर्चे केंद्रीय बजट का हिस्सा हैं. अलबत्ता रेलवे डाक विभाग नहीं है. भारत के सबसे बड़े ट्रांसपोर्टर की जिम्मेदारियांदेनदारियां और वित्तीय मुसीबतें भीमकाय हैं. उसका घाटादेनदारियांपेंशनवेतन खर्चे अपनाने के बाद बजट का कचूमर निकल जाएगाराजकोषीय घाटे को पंख लग जाएंगे. सो बजटों के विलय के बाद रेलवे का पुनर्गठन अपरिहार्य है. यह बात अलग है कि सरकार इस अनिवार्यता को स्वीकारने से डर रही है.

बजट-विलय के बाद रेलवे के पुनर्गठन के चार आयाम होने चाहिएः

पहलाः अकाउंटिंग सुधारों के जरिए रेलवे की सामाजिक जिम्मेदारियों और वाणिज्यिक कारोबार को अलग-अलग करना होगा और चुनिंदा सामाजिक सेवाओं और प्रोजेक्ट के लिए बजट से सब्सिडी निर्धारित करनी होगी. शेष रेलवे को माल भाड़ा और किराया बढ़ाकर वाणिज्यिक तौर पर मुनाफे में लाना होगा. किराये तय करने के लिए स्वतंत्र नियामक का गठन इस सुधार का हिस्सा होगा.
दूसराः रेलवे के अस्पताल और स्कूल जैसे कामों को बंद किया जाए या बेच दिया जाए ताकि खर्च बच सकें.
तीसराः देबरॉय समिति की सिफारिशों के आधार पर रेलवे के ट्रांसपोर्ट संचालन और बुनियादी ढांचे को अलग कंपनियों में बदला जाए और रेलवे के सार्वजनिक उपक्रमों के लिए एक होल्डिंग कंपनी बनाई जाए.
चौथाः रेलवे की नई कंपनियों में निजी निवेश आमंत्रित किया जाए या उन्हें विनिवेश के जरिए शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराया जाए जैसा कि दूरसंचार सेवा विभाग को बीएसएनएल में बदल कर किया गया था.

बजटों के विलय के साथ रेलवे अपने सौ साल पुराने इतिहास की तरफ लौटती दिख रही है. 1880 से पहले लगभग आधा दर्जन निजी कंपनियां रेल सेवा चलाती थीं. ब्रिटिश सरकार ने अगले 40 साल तक इनका अधिग्रहण किया और रेलवे को विशाल सरकारी ट्रांसपोर्टर में बदल दिया. इस पुनर्गठन के बाद 1921 में एकवर्थ समिति की सिफारिश के आधार पर स्वतंत्र रेलवे बजट की परंपरा प्रारंभ हुईजिसमें रेलवे का वाणिज्यिक स्वरूप बनाए रखने के लिए केंद्र सरकार की ओर से ''रेलवे की लाभांश व्यवस्था" तय की गई थी. अब बजट मिलन के बाद रेलवे को समग्र कंपनीकरण की तरफ लौटना होगा ताकि इसे वाणिज्यिक और सामाजिक रूप से लाभप्रद और सक्षम बनाया जा सके. डिब्बा पहियाइंजनकैटरिंगरिजर्वेशन के लिए अलग-अलग कंपनियां पहले से हैंसबसे बड़े संचालनों यानी परिवहन और बुनियादी ढांचे के लिए कंपनियों का गठन अगला कदम होना चाहिए.

पर अंदेशा है कि राजनैतिक चुनौतियों के डर से सरकार रेल बजट की परंपरा बंद करने तक सीमित न रह जाए. रेल बजट का आम बजट में विलय भारतीय रेल को बदलने का आखिरी मौका है. अब सियासी नेतृत्व को रेलवे के पुनर्गठन की कड़वी गोली चबानी ही पड़ेगी वरना रेलवे का बोझ जेटली की वित्तीय सफलताओं को ध्वस्त कर देगा.

Wednesday, February 17, 2016

इक्यानवे के फेर में रेलवे



अगर रेलवे कोई कंपनी होती तो निवेशक इससे पूरी तरह किनारा कर चुके होते और इसे बीमार घोषित कर दिया जाता

सुरेश प्रभु क्या रेलवे के लिए मनमोहन सिंह हो सकते  हैं? इक्यानवे वाले मनमोहन सिंह! यह सवाल वित्त मंत्री अरुण जेटली के लिए इसलिए नहीं उठता क्योंकि उनकीट्रेन तो स्टेशन छोड़ चुकी है. अलबत्ता 2016 रेल मंत्री प्रभु का साल हो सकता है.
बजट हमेशा बड़े, महत्वपूर्ण और निर्णायक होते हैं लेकिन सभी बजट हरगिज नहीं. कुछ ही बजटों को 1991 जैसा होने का मौका मिलता है जो कि किसी देश की अर्थव्यवस्था का चेहरा-मोहरा कौन कहे, पूरा डीएनए ही बदल दे. वक्त, मौके और दस्तूर के मुताबिक, सुरेश प्रभु रेलवे के मामले में ठीक वहीं खड़े हैं जहां डॉ. मनमोहन सिंह 1991 में खड़े थे. और रेलवे भी ठीक उसी हाल में है जहां भारतीय अर्थव्यवस्था इक्यानवे में थी. जैसे 1991 में क्रांतिकारी सुधारों पर आगे बढऩे के अलावा कोई रास्ता नहीं था ठीक उसी तरह प्रभु के पास रेलवे को जैसे का तैसा बनाए रखने का विकल्प भी खत्म हो गया है.

1991 में भारत के आर्थिक हालात से आज की रेलवे के हालात की तुलना हमें उसके संकट और प्रभु के लिए अवसर को समझने में मदद कर सकती है. 1991 में भारत प्रतिस्पर्धा रहित, वित्तीय संकट से भरपूर, सरकारी एकाधिकार से लदा-फदा मुल्क था जिसमें नई तकनीक और तेज रफ्तार बदलावों का प्रवेश वॢजत था. इस दकियानूसी ढांचे ने भारत को देशी से लेकर विदेशी मोर्चों तक कई आर्थिक दुष्चक्रों से घेर दिया था. रेलवे ऐसे ही दुष्चक्र का शिकार है.

कुछ आंकड़े जानना जरूरी है. माल भाड़ा और यात्री परिवहन रेलवे का मुख्य कारोबार है. अर्थव्यवस्था में ग्रोथ और लोगों की आय बढऩे के साथ दोनों ही तरह का परिवहन बढ़ रहा है लेकिन परिवहन बाजार में रेलवे का हिस्सा 1990 में 56 फीसदी से घटकर 2012 में 30 फीसदी हो गया. माल भाड़े के बाजार में रेलवे का हिस्सा तीन दशक में 62 से 36 फीसदी और यात्री कारोबार में 28 से घटकर 14 फीसदी रह गया. एक्सिस डायरेक्ट रिसर्च की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय रेल प्रति किलोमीटर यात्री परिवहन पर 54 पैसे खर्च करती है और 26 पैसे का राजस्व कमाती है. इसकी तुलना में चीन की रेलवे का राजस्व 63 फीसदी ज्यादा है. रेलवे ने घाटे की भरपाई के लिए लगतार भाड़ा बढ़ाकर माल परिवहन बाजार से खुद को बाहर कर लिया है.
माल ढुलाई और यात्री परिवहन की मांग के बावजूद रेलवे पिछले 20 साल में अपना नेटवर्क नाम को भी नहीं बढ़ा पाई. भारतीय रेल दुनिया की सबसे धीमी रेल है जहां मालगाडिय़ों की औसत स्पीड 25 किमी और यात्री ट्रेनों की गति 70 किमी है. इसकी कुल कमाई का 91 फीसदी हिस्सा वेतन भत्तों, कर्ज पर ब्याज और पुराने तरीके के कामकाज पर खर्च हो जाता है. आधुनिकीकरण के अभाव में इसका पूरा नेटवर्क चरमरा चुका है, जहां दुर्घटनाओं की संख्या विश्व में सबसे ज्यादा है.  
दरअसल, अगर रेलवे कोई कंपनी होती तो निवेशक इससे पूरी तरह किनारा कर चुके होते और इसे बीमार घोषित कर दिया जाता, इसलिए प्रभु के आने तक रेलवे दरअसल कर्ज हासिल करने में भी चूकने लगी थी और फिलहाल भारतीय जीवन बीमा निगम से मिले कर्ज पर चल रही है.
1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधारों की शुरुआत व्यापक पुनर्गठन और कुछ बड़ी परियोजनाओं से हुई थी जिन्हें बनने-बैठने में करीब पांच साल का वक्त लगा था. इस मामले में प्रभु मनमोहन के मुकाबले किस्मत के धनी हैं. उनके पास सुधारों का एजेंडा मौजूद है और यह भी पता है कि किस वरीयताक्रम पर क्या करना है.
रेलवे की सबसे बड़ी तात्कालिक जरूरत इसके नेटवर्क पर भीड़ कम करना है. अगर किसी रेल मंत्री को सचमुच सुधारक साबित होना है तो उसे सब कुछ छोड़कर सिर्फ एक परियोजना पर पूरी ताकत झोंक देनी चाहिए और वह परियोजना है मुंबई को दिल्ली (1,500 किमी) और लुधियाना को कोलकाता (1,800 किमी) से जोडऩे वाला डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी), जो रेलवे से माल परिवहन की पूरी तस्वीर बदल देगा. दोनों कॉरिडोर के लिए क्रमशः 90 और 75 फीसदी भूमि अधिग्रहण पूरा हो चुका है और जापान व विश्व बैंक से मदद मिलना भी तय हो गया.
डीएफसी भले ही माल परिवहन की परियोजना हो लेकिन इसका असली फायदा रेलवे के यात्री परिवहन को मिलेगा. डीएफसी बनते ही मालगाडिय़ों का पूरा नेटवर्क इस कॉरिडोर के हवाले होगा, जिससे रेलवे को अपनी यात्री गाडिय़ों के लिए पटरियां खाली करने, ट्रेनों की गति बढ़ाने और नई ट्रेनें चलाने में मदद मिलेगी. डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर को इस सरकार में वैसे ही वरीयता मिलनी चाहिए थी जैसी कि सड़क परियोजनाओं को वाजपेयी सरकार में मिली थी.
डीएफसी के लिए संसाधनों का जुगाड़ हो रहा है लेकिन रेल के वर्तमान नेटवर्क को इससे ज्यादा संसाधन चाहिए. रेलवे दुनिया की सबसे बड़ी परिवहन कंपनी है, जिसे कर्ज पर चलाना नामुमकिन है. प्रभु अगर सच में साहसी हैं तो यह बजट रेलवे के पुनर्गठन का सबसे माकूल मौका है. जिस तरह 1991 में मनमोहन सिंह ने रुपए को एकमुश्त नियंत्रण मुक्त कर भारत को आधुनिक देशों की श्रेणी में पहुंचा दिया था, ठीक उसी तरह प्रभु रेलवे का पुराना ढांचा ढहाकर इसे एक आधुनिक रेलवे कंपनी बनाने का सफर शुरू कर सकते हैं. एक ऐसी कंपनी जो सही कीमत पर शानदार सेवा देती हो न कि स्कूल और दवाखाने चलाने से लेकर पहिया और धुरा सब कुछ खुद बनाती हो.

रेलवे का पुनर्गठन ही उसे बचाने का जरिया है, जो रेलवे मैन्युफैक्चरिंग के निजीकरण और रेलवे संपत्तियों की बिक्री का रास्ता खोलेगा. इससे रेलवे को संसाधन मिलेंगे ताकि वह अपने नेटवर्क को आधुनिक बना सके.

रेल मंत्री प्रभु चाहें तो किराया, माल भाड़ा बढ़ाकर और कुछ प्रतीकात्मक सुविधाओं का ऐलान करके एक और बजट को जाया कर सकते हैं या फिर सचमुच क्रांतिकारी हो सकते हैं. रेलवे भारत की सबसे बड़ी परिवहन प्रणाली है. सूझ-बूझ और संसाधनों की कमी रेलवे की बदहाली की उतनी बड़ी वजह नहीं है जितना कि राजनैतिक नेतृत्व के असमंजस व दकियानूसीपन. 2016 का रेल बजट सूझ-बूझ पर नहीं, सुरेश प्रभु के साहस के पैमाने पर कसा जाएगा.


Monday, June 15, 2015

'बुलेट ट्रेन' का यू टर्न


रेलवे को बदलने पर यू टर्न मोदी सरकार के संकल्प में कमजोरी का पहला ऐलान था. इससे एक विशाल आबादी की बड़ी उम्मीदें मुरझा गईं जिसके पास परिवहन के लिए रेलवे के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
ह पिछले साल नवंबर का आखिरी हफ्ता था जब प्रधानमंत्री गुवाहाटी व मेंदीपाथर (मेघालय) के बीच ट्रेन को हरी झंडी दिखाते हुए कह रहे थे, रेलवे की सुविधाएं 100 साल पुरानी दिखती हैं. रेलवे स्टेशनों का निजीकरण कीजिए. उन्हें आधुनिक बनाइए. स्टेशन एयरपोर्ट से अच्छे होने चाहिए. रेलवे को अपनी जमीन पर        लग्जरी होटल बनाने के लिए निजी क्षेत्र को आमंत्रित करना चाहिए. रेलवे को समझने वाले मानेंगे कि यह बड़ी बात थी. भारत का कोई प्रधानमंत्री पहली बार रेलवे के निजीकरण की चर्चा का साहस दिखा रहा था. लेकिन ठीक एक माह के भीतर सब कुछ बदल गया. प्रधानमंत्री ने वाराणसी के डीजल इंजन कारखाने पहुंचने के बाद कहा, रेलवे के निजीकरण को लेकर अफवाहें फैलाई जा रही हैं, न मैंने कभी ऐसा सोचा है और न कभी करूंगा. रेलवे को बदलने पर यू टर्न न केवल कठोर सुधारों को लेकर मोदी सरकार के संकल्प में कमजोरी का पहला ऐलान था, बल्कि इससे एक विशाल आबादी की उम्मीदें भी मुरझा गईं जिसके पास परिवहन के लिए रेलवे के अलावा कोई विकल्प नहीं है और जिसे बुलेट ट्रेन का सपना दिखाया गया था.
अंदाजा नहीं था कि कि सत्ता में आते ही रेलवे में विदेशी निवेश का बिगुल बजाने वाली मोदी सरकार कुछ ही महीनों में इतनी दब्बू हो जाएगी कि रेलवे के पुनर्गठन पर बात करने से भी डरेगी. सरकार अब भले ही रेलवे को घिसटता हुआ बनाए रखने पर मुतमइन हो लेकिन हकीकत यह है कि रेलवे में सुधार अपेक्षाकृत आसान है. रेलवे के पास सुधारों के कई ब्लू प्रिंट मौजूद हैं. पिछले दो वर्ष में सात समितियां सुधारों की सिफारिश कर चुकी हैं. बिबेक देबरॉय कमेटी तो मोदी सरकार ने ही बनाई थी, जिसे रेलवे में सुधारों की महत्वाकांक्षी पहल माना गया था. लेकिन जब मार्च में इसकी अंतरिम रिपोर्ट आई तब तक रेलवे को बदलने के उत्साह को अनजाना डर निगल चुका था, इसलिए कमेटी ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में एकमुश्त सुधारों की सिफारिश को नरम कर दिया है.
इस महाकाय परिवहन कंपनी में सुधारों पर राजनैतिक सहमति बनाना मुश्किल नहीं है. भारतीय रेल में बदलाव के तर्क किसी आम आदमी के भी गले उतर जाएंगे, जो रोज इसमें धक्के खाता है. मसलन, दुनिया में कौन-सी परिवहन कंपनी 125 अस्पताल, 586 दवाखाने चलाती होगी? या विश्व की कौन रेलवे डिग्री कॉलेज और स्कूल चला रही होगी? स्वाभाविक है कि ट्रेन चलाना रेलवे का काम है, स्कूल-अस्पताल चलाना नहीं. ठीक इसी तरह दुनिया की कोई बस सेवा या एयर सर्विस अपने लिए बसें और विमान नहीं बनाती होगी या सड़कें और हवाई अड्डे नहीं चलाती होगी. इसलिए जब देबरॉय समिति ने रेलवे के बुनियादी ढांचे को अलग कंपनी को सौंपने, कोच, इंजन व धुरा-पहिया बनाने वाली रेलवे की छह इकाइयों को मिलाकर इंडियन रेलवे मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाने और स्कूलों को केंद्रीय विद्यालय को सौंपने की सिफारिश की तो सरकार को सांप सूंघ गया. देबरॉय समिति ने रेलवे के पुनर्गठन के लिए ब्रिटेन, जर्मनी, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया के मॉडल सुझाए हैं, जिनका हवाला मोदी के संबोधनों में मिलता है जब वे जापान व चीन की तर्ज पर रेलवे को आधुनिक बनाने की बात करते थे.
रेलवे को लेकर दूरदर्शिता भाषणों तक रह गई. इसका बड़ा प्रमाण डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी) है, जो 2005 से लटका है. यह प्रोजेक्ट रेलवे में माल परिवहन को तेज गति का नेटवर्क देने के लिए बना. इसके शुरू होने से वर्तमान नेटवर्क यात्री ट्रेनों के लिए खाली हो सकता है. डीएफसी के 3,300 किमी के पश्चिम (हरियाणा से महाराष्ट्र) और पूर्व (पंजाब से पश्चिम बंगाल) गलियारे स्वीकृत हो चुके हैं. पूर्वी कॉरिडोर में पटरी बिछाने के लिए टाटा और एलऐंडटी के नेतृत्व में दो संयुक्त उपक्रम भी बन चुके हैं. मोदी सरकार चाहती तो इन्हें सक्रिय करने के साथ रेलवे को बुनियादी ढांचे और मैन्युफैक्चरिंग (मेक इन इंडिया) का झंडाबरदार बना सकती थी.
रेलवे से प्रधानमंत्री के भावनात्मक रिश्तों पर तमाम कविताई के बावजूद, पिछले एक साल में सरकार ने रेलवे में सुधारों की लगभग सभी तैयारियों को फाइलों की नींद सुला दिया है. रेलवे के पुनर्गठन की बात करना मना है और निजीकरण की चर्चा पर करंट लगता है. देबरॉय कमेटी ने अंतरिम रिपोर्ट की सिफारिशों के विरोध को देखते हुए सुधारों से पहले एक स्वतंत्र नियामक की सिफारिश की है, जिससे सरकार कन्नी काटती रही है. भारतीय रेल फिलहाल सरकारी बीमा कंपनियों से मिले कर्ज पर चल रही है और रेलवे से लेकर यात्रियों तक सब जगह यह एहसास गाढ़ा हो चला है कि रेलवे में तेज सुधार दूर की कौड़ी हैं. ताजा हालात में रेलवे में विदेशी निवेश आने की उम्मीद न के बराबर है. गैर-परिवहन गतिविधियों में विदेशी निवेश की इजाजत तो 2001 में ही मिल गई थी मथुरा और मधेपुरा में इंजन बनाने की परियोजनाएं सात साल से विदेशी निवेशकों के स्वागत में कालीन बिछाए बैठी हैं.
भारतीय रेल का हाल जानने के लिए, इस दहकती गर्मी में ट्रेनों में सफर करने के अलावा दूसरा रास्ता यह भी है कि आप गूगल की मदद से मोदी के उन भाषणों को पढ़ें, जो चुनाव से लेकर सत्ता में आने तक दिए गए थे. ये भाषण देश की सबसे बड़ी परिवहन प्रणाली में बदलाव की उम्मीदों के शिखर पर चढ़ने और ढह जाने का दस्तावेजी सबूत हैं. इनमें खास तौर पर पिछले साल 19 जनवरी को दिल्ली के रामलीला मैदान में बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद का वह भाषण सबसे महत्वपूर्ण है, जहां से रेलवे में बदलाव की उम्मीद जगी थी. तब मोदी ने कहा था कि मारे पास विशाल रेलवे नेटवर्क है, लेकिन दुर्भाग्य से हमने इस पर ध्यान नहीं दिया. अगर रेलवे आधुनिक हो तो हम विकास को नई गति दे सकते हैं. यह पहली बार था जब कोई सत्ता की तरफ बढ़ते एक राजनैतिक दल का सबसे बड़ा नेता रेलवे में सुधारों की बात कर रहा था.

नई सरकार बनने के एक साल बाद आज रेलवे में सुधारों की ज्यादातर उम्मीदें अगर बुझती महसूस हो रही हैं तो हमें यह मानना पड़ेगा कि भारत की सबसे बड़ी परिवहन प्रणाली की बदहाली केवल पिछली सरकारों की अक्षमता का ही नतीजा नहीं है. भारतीय रेलवे अब एक सक्षम सरकार के असमंजस और डर का शिकार भी हो गई है.