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Tuesday, January 19, 2016

सुधारों का सूचकांक


क्‍या धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण वाली गवर्नेंस लौट रही हैजो बीजेपी के साथ सुधारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था की वापसी की उम्मीदों के विपरीत है.
जब मौजूदा स्टील उद्योग मांग में कमी से परेशान हो और मदद मांग रहा हो तो केंद्र सरकार राज्यों के साथ नई स्टील कंपनियां क्यों बनाने जा रही है? छोटे उद्यमियों को कर्ज देने के लिए नए सरकारी बैंक (मुद्रा बैंक) की क्या जरूरत है जबकि कई सरकारी वित्तीय संस्थाएं यही काम कर रही हैं? गंगा सफाई के लिए सरकारी कंपनी बनाने की जरूरत क्यों है जबकि विभिन्न एजेंसियां व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसी का कमा-खा रहे हैं? व्यावसायिक शिक्षा और रोजगार निजी क्षेत्र से मिलने हैं तो स्किल डेवलपमेंट के लिए अधिकारियों का नया काडर बनाने की क्या जरूरत है? सरकारी स्कीमों की भव्य विफलताओं के बाद मिशन और स्कीमों की गवर्नेंस हमें कहां तक ले जाएंगी? क्या अब भी वह वक्त नहीं आया है कि रेलवे, कोयला, बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में सरकारी एकाधिकार खत्म किया जाए और सरकारी कंपनियों व बैंकों का निजीकरण किया जाए?
  फरवरी की 13 तारीख को जब मुंबई में मेक इन इंडिया के पहले सालाना जलसे में दुनिया भर की कंपनियां (60 देशों से 1,000 कंपनियों के आने की संभावना) जुटेंगी तो उनके दिमाग में ऐसे सवाल गूंज रहे होंगे. दरअसल, निवेशकों का सबसे बड़ा मलाल यह नहीं है कि बीजेपी बिहार-दिल्ली हार गई है बल्कि यह आशंका साबित होना है कि धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण वाली गवर्नेंस लौट रही है, जो बीजेपी के साथ सुधारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था की वापसी की उम्मीदों के विपरीत है.
  राजनीति में दक्षिणपंथ, वामपंथ, समाजवाद, सेकुलरवाद, जातिवाद, राष्ट्रवाद की चाहे जो छौंक लगाई जाए लेकिन आम लोगों ने तजुर्बों के आधार पर सरकारों को सुधारक मानने के अपने पैमाने तय किए हैं. दिलचस्प यह है कि निवेशक और उद्यमी भी इन्हीं  पैमानों से इत्तेफाक रखते हैं जो कि देश के अधिकांश लोगों ने तय किए हैं. तेज आर्थिक सुधार, आय में बढ़ोतरी और रोजगार देने वाली सरकारें न केवल लोगों की चहेती रही हैं बल्कि निवेशकों ने भी इन्हें सिर आंखों पर बिठाया. यही वजह है कि मोदी का भव्य जनादेश तेज ग्रोथ, मुक्त बाजार और रोजगार देने वाली सरकार के लिए था.
  आर्थिक सुधारों की दमकती सफलता ने यह सुनिश्चित किया है कि मुक्त बाजार और निजी उद्यमिता के प्रबल पैरोकार को भारत में सुधारक राजनेता माना जाएगा. मोदी से मुक्त बाजार का चैंपियन बनने की उम्मीदें इसलिए हैं, क्योंकि वे खुले बाजार के करीब हैं और मोदी गुजराती उद्यमिता के अतीत से प्रभावित रहे हैं. कांग्रेस ने इक्लूसिव ग्रोथ की जिद में उदारीकरण पर जो बंदिशें थोप दी थीं, मोदी उन्हें खत्म करने वाले मसीहा के तौर पर उभरे थे.
  अलबत्ता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले 18 माह में ऐसे दस फैसले भी नहीं किए जो सैद्धांतिक या व्यावहारिक तौर पर उनकी सरकार को साहसी सुधारक या मुक्त बाजार की पैरोकार साबित करते हों. दूसरी तरफ ऐसे फैसलों की फेहरिस्त लंबी है जो मोदी सरकार को बंद बाजार, संरक्षणवाद की हिमायती यानी वामपंथी आर्थिक दर्शन के करीब खड़ा दिखाती है.
  मोदी सरकार ने पिछले 18 माह में आधा दर्जन नई सरकारी कंपनियों की बुनियाद रखी है. दूसरी तरफ बैंकिंग, एयर इंडिया, रेलवे और कोल इंडिया के विनिवेश या खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर पसीना आ गया है और विश्व के देशों से मुक्त व्यापार समझौतों पर स्वदेशी हावी हो गया है.
  मोदी से उदारीकरण का मसीहा बनने की उम्मीदें नाहक नहीं थीं. पिछले दो दशक के आंकड़े और अनुभव, दोनों ही यह साबित करते हैं कि सरकार ने नहीं, बाजार ने भारत का उद्धार किया है. 1991 में सुधारों के बाद से अगले एक दशक में भारत में अतिनिर्धनता करीब दस फीसद कम हुई, जिसमें बड़ा योगदान लोगों की आय बढऩे का है जो निजी क्षेत्र से आए रोजगारों के कारण बढ़ी है.
  आर्थिक उदारीकरण की सूत्रधार होते हुए भी कांग्रेस ने पिछले एक दशक में गवर्नेंस बदलने का कोई जोखिम नहीं लिया इसलिए शुरुआती सफलताओं के बाद आर्थिक सुधार दागी होते चले गए. मोदी जब मिनिमम गवर्नमेंट की बात कर रहे थे तो एहसास हुआ कि शायद उन्होंने अपेक्षाएं समझ ली हैं, क्योंकि मिनिमम गवर्नमेंट में ब्यूरोक्रेसी छांटने, हर तरह की पारदर्शिता लाने, प्रशासनिक सुधार, जैसे वे सभी पहलू आते हैं जिन्होंने भारत में ग्रोथ को दागी किया है. इसके विपरीत मोदी सरकर एक नया स्कीमराज लेकर आ गई जो इसे मैक्सिमम गवर्नेंस जैसा बनाता है.
  जिन सुधारों का जिक्र हमने किया वे मोदी से न्यू्नतम तौर पर अपेक्षित थे. दरअसल, सरकार को तो इसके आगे जाकर बाजार में किस्म-किस्म के कार्टेल ताोड़ने , कॉर्पोरेट गवर्नेंस, राज्यों में निजीकरण, नए नियामकों का गठन और राजनैतिक दलों में पारदर्शिता जैसे कदम उठाने थे, जिनसे भारत में दूरगामी बदलावों की दिशा तय होनी है.
 सरकारी हलकों में इस तल्ख हकीकत को अब महसूस किया जा रहा है कि स्कीमों, ब्यूरोक्रेसी और संरक्षणवाद से लदी-फदी यह ऐसी गवर्नेंस है जो न तो निचले तबके को छू सकी है और न ही युवा और निवेशकों और उद्यमियों में कोई उत्साह पैदा कर पाई है. मेक इन इंडिया सम्मेलन में लोगों के जेहन में वे आंकड़े भी तैरेंगे जो गवर्नेंस के लिए पहली बड़ी चुनौती का सायरन बजा रहे हैं. आर्थिक परिदृश्य को चाहे खेती, उद्योग, विदेश व्यापार में बांटकर देखें या केंद्रीय, राज्यीय और अंतरराष्ट्रीय पक्षों में, यह पहला मौका है जब खेती, निर्यात, उद्योग, रोजगार आदि कई क्षेत्रों में लाल बत्तियां एक साथ जल उठी हैं और आर्थिक बहस को सुधारों की बजाए संकट प्रबंधन की तरफ मोडऩे वाली हैं.
2014 के जनादेश के बाद लोगों ने नरेंद्र मोदी में मार्गरेट थैचर, रोनाल्ड रेगन और ली क्वान यू की झलक देखी थी जो साहस और संकल्प से अपने देशों की कायापलट के लिए जाने जाते हैं. मोदी को थैचर, रेगन होने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी होना है जो सूझ, संकल्प और समावेश में मोदी सरकार के 18 महीनों पर भारी पड़ते हैं. अब बीजेपी की चुनौती किसी राज्य में सत्ता में पहुंचना हरगिज नहीं होनी चाहिए. सरकार को यह धारणा बनने से रोकना होगा कि नरेंद्र मोदी के रूप में भारत को वह सुधारक नहीं मिल पाया है जिसकी हमें तलाश थी. क्या 2016 का बजट इस धारणा को खारिज करने की शुरुआत करेगा?


Tuesday, August 11, 2015

पटकथा बदलने का मौका


मोदी जब अगले सप्ताह लाल किले की प्राचीर से देश से मुखातिब होंगे तो देश उनसे नैतिक शिक्षा व स्‍कीम राज नहीं बल्कि दो टूक सुधार सुनना चाहेगा 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से रेलवे, रिटेल और बैंकिंग जैसे बड़े आर्थिक सुधारों की घोषणा करने की हिम्मत जुटा सकते हैं? क्या मोदी ऐलान करेंगे कि संसद के शीत सत्र में एक विधेयक आएगा जो उच्च पदों पर हितों का टकराव रोकने का कानूनी इंतजाम करता हो? क्या यह घोषणा हो सकती है कि सरकार कानून बनाकर सभी खेल संघों में सियासी मौजूदगी खत्म करेगी? क्या प्रधानमंत्री इस ऐलान का साहस दिखा सकते हैं कि राजनैतिक दलों के चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए छह माह में कानून बन जाएगा?
प्रधानमंत्री ने देश से यह पूछा है न कि लोग स्वाधीनता दिवस पर उनसे सुनना क्या चाहते हैं, तो यह रही अपेक्षाओं सूची. यकीनन, देश अब उनसे नैतिक शिक्षा नहीं सुनना चाहेगा. नई स्कीमों की घोषणाएं तो हरगिज नहीं.
जब किसी दल के पास भव्य जनादेश हो, विपक्ष बुरी तरह टूट चुका हो, केंद्र के साथ देश के 11 राज्यों में उस दल या उसके दोस्तों की सरकार हो, उस दल की सरकार, दरअसल, पिछली सरकार की ही नीतियां लागू कर रही हो और पिछली सरकार चलाने वाली पार्टी अपना राजनैतिक मूलधन भी गवां चुकी हो तो फिर संसद न चल पाने की वजह सिर्फ मुट्ठी भर विपक्ष की उग्रता नहीं है. मोदी सरकार को यह सवाल अब खुद से पूछना होगा कि पिछले 15 अगस्त से इस 15 अगस्त के बीच उसने ऐसा क्या-क्या कर दिया है जिससे हताश विपक्ष को ऐसी एकजुटता और ऊर्जा मिल गई है.
एनडीए सरकार की उलझनों का मजमून मानूसन सत्र में संसदीय गतिरोध की धुंध के पार छिपा है. सरकार एक साल के भीतर ही विश्वसनीयता की दोहरी चुनौती से मुकाबिल है, जो यूपीए की दूसरी पारी से ज्यादा बड़ी है. पहली चुनौती यह है मोदी सरकार भारतीय लोकतंत्र के तीन अलिखित मूल्यों पर कमजोर दिख रही है, जो बहुमत से भरपूर सरकारों को भी अप्रासंगिक कर देते हैं. पहला नियम यह है कि किसी भी स्थिति में सरकार को अभिव्यक्ति की आजादी को रोकते हुए नजर नहीं आना चाहिए. दूसरा सिद्धांत है कि बहुमत हो या अल्पमत, विपक्ष को साथ लेकर चलने की क्षमता होनी चाहिए और तीसरा नियम जो हाल में ही जुड़ा है कि उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर कोई भी समझौता साख पर बुरी तरह भारी पड़ सकता है.
इस साल में मार्च में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश की दलील (सूचना तकनीक कानून की धारा 66 ए) खारिज होने के बाद सरकार को चेत जाना चाहिए था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में (आधार केस) निजता को मौलिक अधिकार न मानने की ताजा दलील, वेबसाइट पर प्रतिबंधों और उनकी वापसी, सूचना के अधिकार पर रोक और स्वयंसेवी संस्थाओं पर चाबुक चलाते हुए लगातार सरकार संकेत दे रही है कि वह कुछ मौलिक आजादियों को लेकर सहज नहीं है. संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष को साथ लेकर चलना 'रकार' होने के लिए अनिवार्य है. राजीव गांधी के 413 सदस्यों के बहुमत के सामने 15 सदस्यों का विपक्ष नगण्य था लेकिन उसे नकारने का नतीजा इतिहास में दर्ज है. बीजेपी को कांग्रेस से मिले सबक की रोशनी में ही उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर क्रांतिकारी हदों तक सख्त होना चाहिए था. अलबत्ता लोकसभा में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जब फरार ललित मोदी की मदद को उनकी बीमार पत्नी की मदद मानने की भावुक अपील कर रही थीं तो स्वराज और मोदी परिवार के कारोबारी रिश्तों का अतीत पीछे से झांक रहा था.
सबसे बड़ी असंगति यह है कि भारतीय लोकतंत्र के इन तीन मूल्यों को बीजेपी से बेहतर कोई नहीं समझता, जिसका पूरा राजनैतिक जीवन कांग्रेस के साथ इन्हीं को लेकर लड़ते और उत्पीडऩ झेलते बीता है. लेकिन बीजेपी ने एक साल के भीतर ही उस कांग्रेस को अभिव्यक्ति की आजादी, विपक्ष की अहमियत और पारदर्शिता का सबसे बड़ा पैरोकार बना दिया जो हमेशा इन मूल्यों पर अपने कमजोर अतीत को लेकर असहज रही है.
दूसरी चुनौती भी हलकी नहीं है. मोदी को यह नहीं भूलना होगा कि वे खुले बाजार की पैरोकारी, निजीकरण, सुधार और निजी उद्यमिता को बढ़ावा देने के मॉडल को बखानते हुए सत्ता में आए थे लेकिन पिछले एक साल में उनके नेतृत्व में जो गवर्नेंस निकली है उसमें रेलवे सुधार, बैंकिंग सुधार, सब्सिडी पुनर्गठन, प्रशासनिक सुधार जैसे साहसी फैसले नहीं दिखते. सरकार तो नए सार्वजनिक स्टील प्लांट (राज्यों के साथ) लगा रही है, कांग्रेस की तरह सार्वजनिक उपक्रमों की अक्षमता को ढंक रही है, सरकारी स्कीमों की कतार खड़ी कर रही है, नए मिशन और नौकरशाही गढ़ रही है और सब्सिडी बांटने के नए तरीके ईजाद कर रही है. सामाजिक स्कीमों पर आपत्ति नहीं है लेकिन गवर्नेंस में सुधार का साहस दिखाए बगैर पुराने सिस्टम पर नए मिशन और स्कीमें थोप दी गई हैं. इसलिए हर मिशन सांकेतिक सफलताओं से भी खाली है.
मोदी सरकार से अपेक्षा थी कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों और उदारीकरण के नए प्रतिमान गढ़ेगी जो न केवल गवर्नेंस की कांग्रेसी रीति-नीति से अलग होंगे बल्कि विपक्ष के तौर पर बीजेपी की भूलों का प्रतिकार भी करेंगे. लेकिन मोदी सरकार पता नहीं क्यों यह साबित करना चाहती है कि बड़ी सफलताएं अपना विरोधी चरम (ऐंटी क्लाइमेक्स) साथ लेकर आती हैं?

यह कतई जरूरी नहीं है कि संक्रमण का क्षण आने में वर्षों का समय लगे, कभी-कभी एक संक्रमण के तत्काल बाद दूसरा आ सकता है. 2014 नरेंद्र मोदी के पक्ष में आए जनादेश को भारत के ताजा इतिहास का सबसे बड़ा संक्रमण मानने वाले शायद अब खुद को संशोधित करना चाहते होंगे, क्योंकि असली संक्रमण तो दरअसल अब आया है जब मोदी सत्ता में एक साल गुजार चुके हैं और उम्मीदों का उफान ऊब, झुंझलाहट और मोहभंग की नमी लेकर बैठने लगा है. मोदी जब अगले सप्ताह लाल किले की प्राचीर से देश से मुखातिब होंगे तो देश उनसे 'न की बात' नहीं बल्कि गवर्नेंस की दो टूक सुनना चाहेगा, क्योंकि देश के लोग इस बात को एक बार फिर पुख्ता करना चाहते हैं कि उन्होंने कमजोर कंधों पर अपनी उम्मीदों का बोझ नहीं रखा है.

Monday, March 9, 2015

साहस का हिसाब-किताब

 यह एक डरा हुआ बजट था जो कहीं भी कुछ नया व बड़ा करने से ठिठक गया है और ठहराव व ठगे जाने का एहसास छोड़ गया है.
साहसी होना ताकत व माहौल पर निर्भर नहीं होता इसके लिए नीयत और मंशा ज्यादा जरूरी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस राजनैतिक साहस के साथ कश्मीर में 'परिवारवादी' और अलगाववादी लोगों (सज्जाद लोन) के साथ सरकार बना ली, वही हिम्मत बजट में नजर क्यों नहीं आई? कश्मीर में बीजेपी के राजनैतिक दर्शन से इतर जाने का फैसला जिस इच्छा शक्ति से निकला था, क्रांतिकारी सुधारों भरे बजट के लिए ठीक ऐसे ही संकल्प की दरकार थी. मोदी सरकार के नौ माह बीतने और बेहद महत्वपूर्ण बजटों (रेल व आम बजट) के औसत होने के बाद अब यह सवाल उठना लाजमी है कि सरकार गवर्नेंस में कोई बड़ा परिवर्तन करने की नीयत रखती भी है या बिग आइडिया की पुकार और बदलाव के कौल केवल चुनावी जबानी जमा खर्च थे? उपभोक्ताओं, किसानों, रोजगार तलाशते युवाओं से लेकर कंपनियां और विदेशी रेटिंग एजेंसियां (फिच, स्टैंडर्ड ऐंड पुअर) भी इस बजट के असर को लेकर मुतमईन नहीं हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि यह एक डरा हुआ बजट था जो कहीं भी कुछ नया व बड़ा करने से ठिठक गया है और ठहराव व ठगे जाने का एहसास छोड़ गया है.
रेलवे व आम बजट में क्या मिला, यह सबको पता है. मगर यह जानना बेहतर होगा कि ऐेसा क्या हो सकता था जो इन्हें 1991 के बाद के सबसे परिवर्तनकारी बजटों में बदल देता. बीजेपी ने जिस ठसक के साथ झारखंड में दल बदल के जरिए सरकार बना ली, लगभग उसी तरह के राजनैतिक साहस के आधार पर सुरेश प्रभु यह ऐलान कर सकते थे कि रेलवे अब सिर्फ  रेल चलाएगी. रेल नीर की बोतलें भरना, पहिए-स्लीपर बनाना, इंजन-डिब्बे गढ़ना रेलवे का काम नहीं है. इन कारखानों में सरकार का हिस्सा बेचकर मिले संसाधनों को रेल नेटवर्क  में लगाया जा सकता था. यह रेलवे का मेक इन इंडिया हो सकता था. रेलवे को इस तरह के बिग आइडिया की ही जरूरत थी जो एकमुश्त बदलाव की राह खोलता. अब अगर एक साल बाद भी रेलवे जस की तस रहे तो चौंकिएगा नहीं, क्योंकि रेल नेटवर्क  के लिए पांच साल में 8.5 लाख करोड़ रु. कहां से आएंगे, यह खुद 'प्रभु' भी नहीं बता सकते.
जिस जिद के साथ भूमि अधिग्रहण कानून पर राजनैतिक करवट बदली गई, ठीक वैसा ही साहस खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश खोलने के फैसले पर क्यों नहीं दिखाया जा सकता? सरकार के भीतर यह सबको मालूम है कि 2018 तक करीब 950 अरब डॉलर पर पहुंचने वाला देश का खुदरा बाजार रोजगार का सबसे बड़ा जरिया हो सकता है. इस 'ट्रेड इन इंडिया' में खेती समेत तमाम क्षेत्रों के लिए संभावनाएं छिपी हैं जो कैश ट्रांसफर के साथ बढ़ने वाले उपभोक्ता खर्च के माफिक है. खुदरा में विदेशी निवेश को लेकर बीजेपी को सिर्फ  अपने स्वदेशी कुनबे को मनाना था, जो भूमि अधिग्रहण की कंटीली राह से ज्यादा आसान होता. सरकार को कारोबार से बाहर निकलने और गवर्नेंस करने की सलाह देने वाले प्रधानमंत्री अगर एअर इंडिया, भारत संचार निगम, बीमा निगम जैसी कंपनियों के विनिवेश का ऐलान नहीं कर पाए तो यह सिर्फ  कमजोर इच्छा शक्तिका नमूना है.
बजट के आंकड़े मोदी सरकार से की गई उम्मीदों की चुगली खाते हैं. मुफ्तखोरी पर बाहें फटकारने के विपरीत बजट में गैर पेट्रो सब्सिडी का बिल जस का तस है. सरकार उन्हीं पुरानी समाजिक सुरक्षा स्कीमों पर लौट आई, जिनकी विफलता प्रामाणिक है. खर्च तो शिक्षा व स्वास्थ्य पर कम हुआ है जो आम जनता के लिए मोदी की 'मन की बातों' का ठीक उलटा है. राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण के नए मॉडल से सहमत होने के लिए साधुवाद, अलबत्ता वित्त आयोग की सिफारिशें इस बदलाव का जरिया बनी हैं जिन्हें कोई भी सरकार स्वीकार करती.   
रियायतों के बावजूद कंपनियां और विदेशी एजेंसियां अगर बजट पर मुतमईन नहीं हो पा रही हैं तो वजह यही है कि मोदी-अरुण जेटली आर्थिक सुधारों के अगले चरण का वादा करते हुए आए थे, न कि एक कामचलाऊ और कतरब्योंत वाले बजट का. मोदी-जेटली को यह याद रखना होगा कि टुकड़ों-टुकड़ों में बदलावों पर शक-शुबहे होते हैं लेकिन बड़े व एकमुश्त सुधार सरकार को साहसी साबित करते हैं. यूपीए सरकार के डायरेक्ट कैश ट्रांसफर या आधार स्कीमों को स्वीकारना उदारता का प्रमाण है लेकिन इनसेआगे न बढ़ पाना इस बात का प्रमाण भी है कि नई सरकार यथास्थिति को बेहतर करने से ज्यादा का साहस नहीं जुटा सकी. यही वजह है कि बजट की सामाजिक स्कीमों के अमल पर ठीक वैसे ही शक हैं जैसे कि यूपीए के साथ थे और बजट के आंकड़ों में ठीक वैसा ही लोचा है जैसा कि हमेशा से होता आया है.
चिंता यह नहीं है कि बजट औसत है बल्कि निराशा इस बात की है कि मोदी सरकार जिस नई और बड़ी सूझ का भरोसा देकर सत्ता में आई थी वह नौ माह में कहीं नहीं दिखी. पिछले साल दिसंबर में हमने इस स्तंभ में लिखा था कि सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से देखना बेहतर होता है, क्योंकि पांच साल का समय बहुत ज्यादा नहीं होता. मोदी सरकार के पास अब केवल दो बजट बचे हैं. दो कीमती बजट यूं ही गुजर गए. जुलाई के बजट में सरकार का एजेंडा आना चाहिए था और इस बजट में ऐक्शन प्लान. 2016 के बजट में सुधारों का असर आंक कर संतुलन की कोशिश होती और 2017 में नए कदम उठाए जाने चाहिए थे क्योंकि 2018 का बजट चुनावी होगा और 2019 का बजट नई सरकार पेश करेगी. लोगों ने मोदी सरकार से तारे तोड़ने की अपेक्षा नहीं जोड़ी थी. उम्मीद सिर्फ  यही थी कि कारोबार और जिंदगी की सूरत बदलनी चाहिए. अब चाह कर भी बहुत कुछ करने का वक्त नहीं है क्योंकि अगले दो बजट तो बस गलतियां सुधारते ही बीत जाएंगे

Monday, February 25, 2013

भूल सुधार बजट



भरोसा जुटाने के लिए चिदंबरम को निर्ममता के साथ पिछले वित्‍त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बजटों को गलत साबित करना होगा।

ह महासंयोग कम ही बनता है जब सियासत के पास खोने के लिए कुछ न हो और अर्थव्‍यवस्‍था भी अपना सब कुछ गंवा चुकी हो। भारत उसी मुकाम पर खड़ा है जहां सत्‍तारुढ़ राजनीति अपनी साख व लोकप्रियता गंवा चुकी है और अर्थव्‍यवस्‍था अपनी बढ़त व ताकत। 2013 का बजट इस दुर्लभ संयोग की रोशनी में देश के सामने आएगा। यह अपने तरह का पहला चुनाव पूर्व बजट है जिससे निकलने वाले राजनीतिक फायदे इस तथ्‍य पर निर्भर होंगे बजट के बाद आर्थिक संकट बढ़ते हैं या उनमें कमी होगी। इस बजट के लिए आर्थिक सुधारों का मतलब दरअसल पिछले बजटों की गलतियों का सुधार है। चिदंबरम मजबूर हैं, वोटर और निवेशक, दोनों का भरोसा जुटाने के लिए उन्‍हें निर्ममता के साथ पिछले वित्‍त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बजटों को गलत साबित करना होगा। मुखर्जी ने तीन साल में करीब एक लाख करोड़ के नए टैक्‍स थोपे थे जिनसे जिद्दी महंगाई, मरियल ग्रोथ, रोजगारों में कमी और वित्‍तीय अनुशासन की तबाही निकली है। प्रणव मुखर्जी के आर्थिक दर्शन को सर के बल खड़ा करने के बाद ही चिदंबरम

Monday, February 18, 2013

सुधार पुरुष का आखिरी मौका



स यह बजट और !! .... इसके बाद उस नामवर शख्सियत की इतिहास में जगह अपने आप तय हो जाएगी जिसने 24 जुलाई 1991 की शाम, फ्रेंच लेखक विक्‍टर ह्यूगो की इस पंक्ति के साथ, भारत को आर्थिक सुधारों की सुबह सौंपी थी कि दुनिया की कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसके साकार होने का समय आ गया है। लेकिन सुधारों का वह विचार अंतत:  रुक गया और 1991 जैसे संकटों का प्रेत फिर वापस लौट आया। सुधारों के सूत्रधार की अगुआई में ही भारत की ग्रोथ शिखर से तलहटी पर आ गई जो अवसरों का अरबपति रहा है। आने वाला बजट पी चिदंबरम के लिए एक और मौका नहीं है, यह तो भारत के सुधार पुरुष के लिए अंतिम अवसर है। यह डा. मनमोहन सिंह का आखिरी बजट है।  
पांच साल वित्‍त मंत्री और दस साल प्रधानमंत्री अर्थात आर्थिक सुधारों के बाइस साल में पंद्रह साल तक देश की नियति का निर्धारण। डा मनमोहन सिंह से ज्‍यादा मौके शायद ही किसी को मिले होंगे। संयोग ही है कि प्रख्‍यात अर्थशास्‍त्री और सुधारों के प्रवर्तक ने 1991 में इकतीस पेज के बजट भाषण में भारत के तत्‍कालीन संकट की जो भी वजहें गिनाई थीं, देश नए संदर्भो में उन्‍हीं को

Monday, December 10, 2012

बाजार खुलने के बाद


बाजार खुल गया है। अब सौदे शुरु होने का वक्‍त है। भारत की सियासत ने अपने सबसे बड़े कारोबार को विदेशी पूंजी के लिए ऐसे अनोखे अंदाज में खोला है कि अब बाजार के भीतर नए बाजार खुलने वाले हैं। अरबों के डॉलर के खुदरा खेल में देश के मुख्‍यमंत्री सबसे बडी ताकत बन गए हैं। विदेशी पूंजी के बड़े फैसले अब राज्‍यों की राजधानियों में होंगे जहां वाल मार्ट, टेस्‍को, कार्फू जैसे ग्‍लोबल रिटेल दिग्‍गज, नीतियों को  ‘प्रभावित ’ करने की अपनी क्षमता का इम्‍तहान देंगे और नतीजे इस बात पर निर्भर होंगे कौन सा मुख्‍यमंत्री कब और कैसे प्रभावित होता है। सौदों का दूसरा बाजार खुद देशी रिटेल उद्योग होने वाला है। ताजा बहस में हाशिये पर रहे करीब 1150 अरब रुपये के देशी संगठित रिटेल उद्योग में कंपनियों व ब्रांडों की मंडी लगने वाली है जिसमें ग्‍लोबल रिटेलर कंप‍नियां ही ग्राहक होंगी।
मंजूरियों का बाजार 
खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी पर संसद की बहस का से देश का इतना तो अंदाज हो ही गया है कि ग्‍लोबल रिटेल का सौदा फूल और कांटों का मिला जुला कारोबार है। बाजार खुलने के बाद अब विदेशी पूंजी के गुण दोष की बहस बजाय इन फूल कांटों का हिसाब करना ज्‍यादा समझदारी है। विदेशी निवेश को लेकर यह शायद यह पहला फैसला है जिसमें राज्‍य सरकारें विदेशी कंपनियों की आमद तय करेंगी। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर जो फैसला संसद की दहलीज से बाहर आया है उसे भारत के नक्‍शे पर रखकर देखने के बाद रिटेल की राजनीतिक तस्‍वीर

Monday, September 24, 2012

सुधार, समय और सियासत


भारत में एक राजनेता था। आर्थिक नब्‍ज पर उसकी उंगलियां चुस्‍त थीं मगर सियासत और वक्‍त की नब्‍ज से हाथ अक्‍सर फिसल जाता था। 1991 में उसके पहले आर्थिक सुधारों को लेकर देश बहुत आगे निकल गया मगर उस की पार्टी कहीं पीछे छूट गई। बहुत कुछ गंवाने के बाद 2012 में जब दूसरे सुधारो का कौल लिया तो उसकी राजनीतिक ताकत छीज चुकी थी और जनता को इनके फायदे दिखाने का वकत नहीं बचा था। अफसोस! उस राजनेता के साहसी सुधार उसकी पार्टी की सियासत के काम कभी नहीं आए।... आज से एक दशक बाद जब इतिहास में आप यह पढ़ें तो समझियेगा कि डा. मनमोहन सिंह और कांग्रेस का जिक्र हो रहा है। आर्थिक सुधारों के डॉक्‍टर के  समय और सियासत के साथ सुधारों की केमिस्‍ट्री नहीं बना पाते। उनके सुधारों का लाभ उनके राजनीतिक विपक्ष को ही मिलता है।
संकट के सूत्रधार 
पैसों के पेड़ पर लगने का सवाल बड़ा मजेदार है। लेकिन इसे तो सरकार के राजनीतिक नेतृत्‍व से पूछा जाना चाहिए। यूपीए के नए राजनीतिक अर्थशास्‍त्र ने पिछले सात साल में राजकोषीय संतुलन का श्राद्ध कर दिया। इक्‍कीसवीं सदी का भारत जब तरक्‍की के शिखर पर था तब कांग्रेस का आर्थिक चिंतन आठवें दशक की कोठरी में घुस गया। देश की आर्थिक किस्‍मत साझा कार्यक्रमों और राष्ट्रीय सलाहकार परिषदों जैसी सुपर सरकारों ने तय की जिन्‍हें ग्रोथ और सुधार के नाम पर मानो ग्‍लानि महसूस