Tuesday, March 24, 2015

'जमीन' से कटी सियासत

 नेता हमेशा जनता की नब्ज सही ढंग से नहीं पढ़ते हैं. भूमि अधिग्रहण पर जल्‍दबाजी में मोदी सरकार ने काफी कुछ बिगाड़ लिया है।

भूमि अधिग्रहण पर बीजेपी के कुछ नेताओं की चर्चाओं से बाहर निकल कर आसपास के ग्रामीण इलाकों में भ्रमण किया जाए तो आप खुद से यह सवाल पूछते नजर आएंगे कि क्या इस कानून में बदलाव से पहले बीजेपी ने ग्रामीण राजनीति की जमीन पर अपनी मजबूती परखने की कोशिश की थी? अचरज उस वक्त और बढ़ जाता है जब निजी कंपनियों के कप्तान व निवेशक आंकड़ों के साथ यह बताते हैं कि मंदी अब गंवई व कस्बाई बाजारों में भी पैठ गई है जहां उपभोक्ता उत्पादों, बाइक, जेनसेट, भवन निर्माण सामग्री की मांग लगातार गिर रही है. जब तक शहरी बाजार दुलकी चाल नहीं दिखाते, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को झटका देना ठीक नहीं है. अलबत्ता सबसे ज्यादा विस्मय तब होता है जब राज्यों के अधिकारी यह कहते हैं कि उनकी सरकारें नए कानून के बाद ऊंचे मुआवजे पर किसानों को भूमि देने के लिए राजी करने लगी थीं लेकिन केंद्र सरकार की अध्यादेशी आतुरता के चलते जमीन राजनीति से तपने लगी है.

कांग्रेस का भूमि अधिग्रहण कानून उद्योगों के हक में नहीं था लेकिन वह एक लंबी राजनैतिक सहमति से निकला था जिसमें बीजेपी सहित सभी दल शामिल थे, जिनकी सरकारें अलग-अलग राज्यों में हैं. जमीन अंततः राज्यों का विषय है इसलिए राज्यों ने नए कानून के तहत अपने तरीके से किसानों को सहमत करने व राज्य के कानून में बदलाव के जरिए उद्योगों की चिंताओं को जगह देने की कवायद शुरू कर दी थी. उत्तर प्रदेश सरकार ने दो साल में करीब 30,000 हेक्टेयर जमीन किसानों से ली. यह एकमुश्त अधिग्रहण नहीं था बल्कि प्रत्येक भूस्वामी से जिलाधिकारियों ने सीधे बात की और उन्हें नए कानून के तहत मुआवजा देकर जमीन की रजिस्ट्री सरकार के नाम कराई. अगर उत्तर प्रदेश सरकार का आंकड़ा सही है तो ऐसी करीब 28,000 रजिस्ट्री हो चुकी हैं. बड़े भूमि अधिग्रहणों में प्रभावितों पर सामाजिक-आर्थिक असर के आकलन और 80 फीसदी भूस्वामियों की सहमति की शर्त बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में देरी की वजह बन सकती है. राजस्थान ने इसका समाधान निकालने के लिए राज्य के भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों को मुआवजे की राशि बढ़ाने का प्रस्ताव दिया. कुछ सुझाव राज्य विधानसभा सेलेक्ट कमेटी ने दिए जिससे कानून कमोबेश संतुलित हो गया. 

पश्चिम और दक्षिण के राज्यों ने लैंड पूलिंग के जरिए भूमि अधिग्रहण को सहज किया. इस प्रक्रिया में जमीन के छोटे-छोटे हिस्सों को किसानों से जुटाकर सरकार बड़ा पैकेज बनाती है और वहां बुनियादी ढांचा विकसित करने के बाद उससे विकास की लागत निकाल कर जमीन वापस भूस्वामियों को दे दी जाती है जिससे भूमि की कीमत बढ़ जाती है और विक्रेताओं को निजी डेवलपर्स से अच्छे दाम मिलते हैं. आंध्र प्रदेश सरकार ने विजयवाड़ा को अपनी नई राजधानी बनाने के लिए, लैंड पूलिंग के जरिए केवल तीन माह में 30,000 एकड़ जमीन किसानों से जुटा ली है. छत्तीसगढ़ सरकार ने नया रायपुर बसाने के लिए लैंड पूलिंग का ठीक उसी तरह सफल प्रयोग किया जैसा कि गुजरात में हुआ. जमीन पर राजनीति की आंधी शुरू होने के बाद आंध्र प्रदेश को अब विजाग एयरपोर्ट के लिए 15,000 एकड़ जमीन जुटाने में मुश्किल होगी और राजधानी दिल्ली में लैंड पूलिंग भी सहज नहीं रहेगी.
जमीन संवेदनशील है. राज्य सरकारें इसके अधिग्रहण को ज्यादा व्यावहारिक तौर पर संभाल सकती हैं. बेहतर होता कि उद्योग की जरूरतों के हिसाब से राज्य अपने कानूनों को बदलते जैसा कि उत्तर प्रदेश और राजस्थान में हुआ या फिर लैंड पूलिंग जैसी कोशिशें करते जो पश्चिम और दक्षिण के राज्यों ने कीं. लेकिन मोदी सरकार ने अति आत्मविश्वास में जमीन की जटिल राजनीति में खुद को उलझा लिया और राज्यों की कोशिशों को भी कमजोर कर दिया है.
एक सजग सरकार को ग्रामीण अर्थव्यव्स्था की ताजा सूरत देखते हुए खेतिहर जमीन पर ठहर कर बढऩा चाहिए था. नई सरकार ने आते ही समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी रोक दी. इससे महंगाई तो नहीं घटी लेकिन खेती से आय जरूर कम हो गई. मॉनसून औसत से खराब रहा. दुनिया में कृषि उत्पादों की कीमतें घटीं जिससे निर्यात भी कम हुआ. ग्रामीण इलाकों में मजदूरी बढऩे की दर अब घट गई है. इस बीच 2014 में  किसानों की आत्महत्या के मामलों में 26 फीसदी के इजाफे से खेती को लेकर बढ़ी चिंताओं की रोशनी में, भूमि अधिग्रहण को उदार करने के लिए राजनैतिक जमीन कतई सक्त हो चुकी है. 

भारत में दुपहिया वाहन, उपभोक्ता उत्पाद, जेनसेट, सीमेंट व भवन निर्माण सामग्री का बाजार बड़े पैमाने पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर निर्भर है. इन उत्पादों की कंपनियों के आंकड़े बिक्री और आय में बड़ी गिरावट दिखा रहे हैं. कंपनियों की चिंता यह है कि शहरी और औद्योगिक अर्थव्यवस्था में ग्रोथ की रोशनी अभी तक नहीं चमकी है. भूमि अधिग्रहण के बाद अगर गांवों में राजनैतिक माहौल बिगड़ा तो रही सही मांग और चुक जाएगी. भूमि अधिग्रहण पर सिर खपाने का यह सही वक्त नहीं था. आर्थिक ग्रोथ व रोजगार वापस लौटने के बाद इस तरफ मुडऩा बेहतर होता जबकि बीजेपी के नेता भुनभुना रहे हैं कि पार्टी ने चुनाव के दौरान भूमि अधिग्रहण पर मुंह तक नहीं खोला और सत्ता में आने के बाद, अब उन्हें आग का यह गोला किसानों के गले उतारने की जिम्मेदारी दी जा रही है.

भूमि अधिग्रहण को लेकर सियासी व आर्थिक तापमान परखने के बाद यह धारणा चोट खाती है कि नेता हमेशा जनता की नब्ज सही ढंग से पढ़ते हैं. बात केवल इतनी नहीं है कि भूमि अधिग्रहण पर अध्यादेश की जल्दबाजी ने हताश और बिखरे विपक्ष को एकजुट होने का मौका दे दिया है बल्कि इस कानून पर गतिरोध से देश के माहौल में उपजा फील गुड खत्म हो रहा है. भूमि अधिग्रहण में बदलाव जिद के साथ संसद से पारित भी हो जाए तो भी माहौल बेहतर नहीं पाएगा. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लोकसभा में चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर तंज कसा था कि मुझे राजनीति अच्छी तरह से आती है, लेकिन भूमि अधिग्रहण पर बदली सियासत तो कुछ और ही इशारा कर रही है.

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