Tuesday, June 28, 2016

रघुराम राजन और मध्‍य वर्ग


क्‍या रघुराम राजन मौद्रिक नीति को उन लोगों की तरफ मुखातिब कर रहे थे जो कर्ज तो नहीं लेते लेकिन मौद्रिक नीति से बुरी तरह से प्रभावित जरूर होते हैं. 
घुराम राजन क्या भारतीय मध्य वर्ग का बैंकर बनने की कोशिश कर रहे थे? क्या वे ऐसी मौद्रिक नीति बनाने की  कोशिश में लगे थे जो बहुसंख्यक मध्य वर्ग की जरूरतों को तवज्जो देती हो? क्या लोकलुभावन और संवेदनशील दिखने वाली सरकार, दरअसल कर्ज लेने वालों के प्रति अतिरिक्त उदार हो चली है या फिर राजन कुछ ज्यादा ही जनवादी हो गए थे? क्या राजन मुट्ठीभर कर्ज लेने वालों के बजाए लाखों बैंक जमाकर्ताओं और उपभोक्ताओं का प्रवक्ता बनने की कोशिश कर रहे थे? क्या बड़े बैंक कर्जदारों और उन्हें बचाने वाले बैंकरों के प्रति राजन की निर्ममता उन्हें ऐसा केंद्रीय बैंकर बना रही थी जो भारत में उद्योग-नेता गठजोड़ के माफिक नहीं था?
अब तक हमने मौद्रिक नीति पर बहुसंख्यकों के मतलब वाली बहस कभी नहीं की है. हमारी चर्चाएं कर्ज की आपूर्ति और ब्याज दरों में कमी-बेशी से बाहर कभी नहीं निकलतीं, जो सीमित लोगों की चिंता है. भारतीय बैंकिंग और मौद्रिक नीति के प्रभाव को व्यापक दायरे में देखने के बाद महसूस होता है कि शायद राजन इस नीति को उन लोगों की तरफ मुखातिब कर रहे थे जो कर्ज तो नहीं लेते लेकिन मौद्रिक नीति से बुरी तरह से प्रभावित जरूर होते हैं. 
राजन के पूर्ववर्ती गवर्नर सुब्बा राव इस बात पर अचरज में थे कि उनके बाल तो कम हो रहे हैं लेकिन बाल कटाने की लागत बढ़ती जाती है. राजन ने महंगाई की उलझन को पकडऩे की कोशिश की, जो औसत भारतीय मध्य वर्ग की सबसे बड़ी मुसीबत है. महंगाई नियंत्रण किसी भी केंद्रीय बैंक का पहला कर्तव्य है. इस काम के लिए ब्याज दरों में कमी-बेशी के जरिए मुद्रा के प्रवाह को नियंत्रित किया जाता है ताकि बाजार में कम चीजों के पीछे ज्यादा रुपया न दौड़े और कीमतें यानी महंगाई काबू में रहे. 
राजन से पहले तक ब्याज दरें तय करने के लिए थोक महंगाई को आधार बनाया जाता था और जीडीपी ग्रोथ की जरूरत को लक्ष्य किया जाता था. यह फॉर्मूला उस महंगाई को रोकता ही नहीं था, जो हमारी जेब काटती है. राजन ने ब्याज दरें तय करने के फॉर्मूले को खुदरा महंगाई से जोड़ दिया, जो ज्यादा पारदर्शी और स्थायी था. इसे वित्तीय बाजार ने भी स्वीकार किया.
फॉर्मूला बदलने के साथ रिजर्व बैंक ने सरकार को बाध्य किया कि ब्याज दरों में कमी के लिए उपभोक्ता महंगाई को कम किया जाए. कर्ज पर ब्याज दरें कम होने का सबसे ज्यादा फायदा सरकार को होता है जो बैंकों से सबसे ज्यादा कर्ज लेती है. यह नीति सरकार को फालतू के खर्च घटाकर कर्ज कार्यक्रम (राजकोषीय घाटे) को सीमित रखने पर भी बाध्य करती थी जो बाजार में कर्ज की मांग को प्रभावित करता है. पिछले तीन साल के आंकड़े बताते हैं कि उपभोक्ता महंगाई भी घटी और सरकार ने घाटे पर भी काबू किया.
राजन ने अपने एक भाषण में महंगाई और ब्याज दरों के रिश्ते को समझाने के लिए दोसे का उदाहरण दिया था. मतलब यह कि महंगाई बढ़ती रहे और ब्याज दरें कम की जाएं तो पेंशनर और जमाकर्ताओं के लिए दोसे खरीदने की क्षमता सीमित होती चली जाती है. यह उदाहरण उन्हें पहला ऐसा केंद्रीय बैंकर बनाता है जो बैंकिंग ढांचे में जमाकर्ताओं के हितों को कर्ज लेने वालों के बराबर तरजीह दे रहे थे. जाहिर है कि बैंक में जमा रखने वाले लोगों की संक्चया कर्ज लेने वालों के मुकाबले बहुत बड़ी है. जमा ही बैंकिंग का आधार है.
राजन जमाकर्ताओं को सकारात्मक रिटर्न (महंगाई दर-जमा ब्याज दर) देने के हिमायती थे. उन्होंने सुझाया था कि सरकार को अपने एक साल के कर्जों पर महंगाई दर से दो फीसदी ज्यादा ब्याज देना चाहिए ताकि जमा पर ब्याज दरें तर्कसंगत रहें. यह राय वित्त मंत्रालय को नहीं भाई, जिसने इसी मार्च में छोटी बचतों पर ब्याज दरें कम की हैं. उल्लेखनीय है कि राजन के गवर्नर बनने के कुछ माह बाद जनवरी 2014 से जमा पर रियल टर्म रिटर्न सकारात्मक हो गए थे.
हम भले ही बैंकों के मामले में कर्ज और ब्याज से आगे कुछ न सोचते हों लेकिन भारत में बैंकिंग की हकीकत में बिल्कुल फर्क है. यहां 45 फीसदी वयस्क आबादी के पास बैंक खाते नहीं हैं यानी कि वह बैंकिंग के दायरे से बाहर हैं. केवल 6.4 फीसदी वयस्क ऐसे हैं जिन्होंने किसी वित्तीय संस्थान से कर्ज लिया है. (वर्ल्ड बैंक ग्लोबल फिनडेक्स डाटाबेस 2014) इनमें भी उपभोक्ता कर्ज लेने वालों की संख्या और उनके कर्जों के आकार बहुत सीमित है.
दरअसल, भारत में कर्ज का वास्तविक संसार बड़े उद्योगों का है. ब्याज दरों में चैथाई फीसदी की कटौती से आम उपभोक्ता की मासिक किस्त कुछ सौ रुपए घटती है लेकिन कर्ज के सबसे बड़े ग्राहकों यानी उद्योगों और सरकार के लिए यह कमी करोड़ों रु. का मामला है. रिजर्व बैंक के आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि पिछले साल 31 मार्च तक सरकारी बैंकों के कुल फंसे हुए कर्ज का एक-तिहाई हिस्सा केवल 30 कर्जदारों के नाम था. पांच प्रमुख सरकारी बैंकों के करीब 4.87 लाख करोड़ रु. के कर्ज सिर्फ 44 कर्जदारों के खाते में दर्ज हैं और यह सभी औसत 5,000 करोड़ रु. के ऊपर के कर्जदार हैं. इस कर्ज की वसूली के बिना बैंकों की लागत घटना और कर्ज सस्ता होना नामुमकिन है. समझना मुश्किल नहीं है कि राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक ने बड़े कर्जदारों से वसूली और बैंकों की सफाई का जो अभियान चलाया, वह किसे परेशान कर रहा होगा.
राजन के विरोधी उन्हें अमेरिका से प्रभावित बताते हैं लेकिन अमेरिका में उपभोग के लिए भी कर्ज लिया जाता है, वहां महंगाई कोई मुद्दा नहीं है और वहां सस्ता कर्ज ही सब कुछ है. इसके उलट भारत की बैंकिंग जमाकर्ताओं की है, जिनके लिए बैंक बैलेंस पर रिटर्न और महंगाई सबसे बड़ी चिंता है.
राजन की मौद्रिक कोशिशों को भारत के बैंकिंग परिदृश्य के संदर्भ में देखने के बाद यह सवाल पीछा नहीं छोड़ता कि क्या रघुराम राजन मध्य वर्ग के हितों को मौद्रिक नीति का स्थायी कारक बनाना चाहते थे जबकि उन्हें हटाने की मुहिम छेडऩे वाले कुछ और ही चाह रहे थे?
ध्यान रहे कि केंद्र सरकार मौद्रिक नीति को तय करने के नए पैमाने जारी करने वाली है. यदि वह जमाकर्ताओं से ज्यादा कर्ज लेने वालों के पक्ष में हुए तो हमारे कई संदेह सही साबित हो सकते हैं.

2 comments:

Unknown said...

जनता के बैंकर हैं रघुराम राजन

Unknown said...

अंशुमान जी बिलकुल स्पष्ट है रघुराम राजन जी का नजरिया पर राजनीतिक उठा पठक के कारण इसका परिणाम कुछ भी आ सकता है। आपने बहुत ही अच्छा एवं उत्क्रष्ठ मत प्रस्तुत किया है।आप अपने इसी तरह के महत्वपूर्ण लेख अब
शब्दनगरी पर लिखकर और भी लोगों तक पहुंचा सकते हैं।