Showing posts with label ASEAN. Show all posts
Showing posts with label ASEAN. Show all posts

Monday, January 22, 2018

भारत, एक नई होड़



तकरीबन डेढ़ दशक बाद भारत को लेकर दुनिया में एक नई होड़ फिर शुरू हो रही है. पूरी दुनिया में मंदी से उबरने के संकेत और यूरोप में राजनैतिक स्थिरता के साथ अटलांटिक के दोनों किनारों पर छाई कूटनीतिक धुंध छंटने लगी है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कूटनीतिक चश्मा कमोबेश साफ हो गया है. ब्रिटेन की विदाई (ब्रेग्जिट) के बाद इमैनुअल मैकरॉन और एंजेला मर्केल के नेतृत्व में यूरोपीय समुदाय आर्थिक एजेंडे पर लौटना चाहते हैं. एशिया के भीतर भी दोस्तों-दुश्मनों के खेमों को लेकर असमंजस खत्‍म हो रहा है.  


मुक्त व्यापार कूटनीति के केंद्र में वापस लौट रहा है, जिसकी शुरुआत अमेरिका ने की है. पाकिस्तान को अमेरिकी सहायता पर ट्रंप के गुस्से के करीब एक सप्ताह बाद अमेरिका ने भारत के सामने आर्थिक- रणनीतिक रिश्तों का खाका पेश कर दिया. ट्रंप के पाकिस्तान वाले ट्वीट पर भारत में पूरे दिन तालियां गडग़ड़ाती रहीं थी लेकिन जब भारत में अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने दिल्ली में एक पॉलिसी स्पीच दी तो दिल्ली के कूटनीतिक खेमों में सन्नाटा तैर गया, जबकि यह हाल के वर्षों में भारत से रिश्तों के लिए अमेरिका की सबसे दो टूक पेशकश थी.

दिल्ली में तैनाती से पहले राष्ट्रपति ट्रंप के उप आर्थिक सलाहकार रहे राजदूत जस्टर ने कहा कि भारत को अमेरिकी कारोबारी गतिविधियों का केंद्र बनने की तैयारी करनी चाहिए, ता‍कि भारत को चीन पर बढ़त मिल सके. अमेरिकी कंपनियों को चीन में संचालन में दिक्कत हो रही है. वे अपने क्षेत्रीय कारोबार के लिए दूसरा केंद्र तलाश रही हैं. भारत, एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी कारोबारी हितों का केंद्र बन सकता है.

व्हाइट हाउस, भारत व अमेरिका के बीच मुक्त व्यापार संधि (एफटीए) चाहता है, यह संधि व्यापार के मंचों पर चर्चा में रही है लेकिन यह पहला मौका है जब अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर दुनिया की पहली और तीसरी शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं के बीच एफटीए की पेश की है. ये वही ट्रंप हैं जो दुनिया की सबसे महत्वाकांक्षी व्यापार संधि, ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) को रद्दी का टोकरा दिखा चुके हैं.

अमेरिका और भारत के बीच व्यापार ब्ल्यूटीओ नियमों के तहत होता है. दुनिया में केवल 20 देशों (प्रमुख देश—कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इज्राएल, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, मेक्सिको) के साथ अमेरिका के एफटीए हैं. इस संधि का मतलब है कि दो देशों के बीच निवेश और आयात-निर्यात को हर तरह की वरीयता और निर्बाध आवाजाही. 

ट्रंप अकेले नहीं हैं. मोदी के नए दोस्त बेंजामिन नेतन्याहू भी भारत के साथ मुक्त व्यापार संधि चाहते हैं. गणतंत्र दिवस पर आसियान (दक्षिण पूर्व एशिया) के राष्ट्राध्यक्ष भी कुछ इसी तरह का एजेंडा लेकर आने वाले हैं. भारत-आसियान मुक्त व्यापार संधि पिछले दो दशक का सबसे सफल प्रयोग रही है.

मार्च में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैकरॉन भी भारत आएंगे. भारत और यूरोपीय समुदाय के बीच एफटीए पर चर्चा कुछ कदम आगे बढ़कर ठहर गई है. यूरोपीय समुदाय से अलग होने के बाद ब्रिटेन को भारत से ऐसी ही संधि चाहिए. प्रधानमंत्री थेरेसा मे इस साल दिल्ली आएंगी तो व्यापारिक रिश्ते ही उनकी वरीयता पर होंगे.

पिछली कई सदियों का इतिहास गवाह है कि दुनिया जब भी आर्थिक तरक्की के सफर पर निकली है, उसे भारत की तरफ देखना पड़ा है. पिछले दस-बारह साल की मंदी के कारण बाजारों का उदारीकरण जहां का तहां ठहर गया और भारत का ग्रोथ इंजन भी ठंडा पड़ गया. कूटनीतिक स्थिरता और ग्लोबल मंदी के ढलने के साथ व्यापार समझौते वापसी करने को तैयार हैं और भारत इस व्यापार कूटनीति का नया आकर्षण है.

अलबत्ता इस बदलते मौसम पर सरकार के कूटनीतिक हलकों में रहस्यमय सन्नाटा पसरा है. शायद इसलिए कि उदार व्यापार को लेकर मोदी सरकार का नजरिया बेतरह रूढ़िवादी रहा है. विदेश व्यापार नीति दकियानूसी स्वदेशी आग्रहों की बंधक है. पिछले तीन साल में एक भी मुक्त व्यापार संधि नहीं हुई है. यहां तक कि निवेश संधियों का नवीनीकरण तक लंबित है. स्वदेशी और संरक्षणवाद के दबावों में सिमटा वणिज्य मंत्रालय मुक्त व्यापार संधियों की आहट पर सिहर उठता है.


ध्यान रखना जरूरी है कि भारत की अर्थव्यवस्था के सबसे अच्छे दिन भारतीय अर्थव्यवस्था के ग्लोबलाइजेशन के समकालीन हैं. दुनिया से जुड़कर ही भारत को विकास की उड़ान मिली है. थकी और घिसटती अर्थव्यवस्था को निवेश व तकनीक की नई हवा की जरूरत है. भारतीय बाजार के आक्रामक उदारीकरण के अलावा इसका कोई और रास्ता नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय कूटनीति में क्रांतिकारी बदलाव के एक बड़े मौके के बिल्कुल करीब खड़े हैं. 

Monday, November 17, 2014

मोदी की कूटनीतिक करवट


अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भारत ने अपना हमसफर चुन लिया है. जी 20 की बैठक के बाद अगर भारत और अमेरिका की दोस्ती देखने लायक होगी तो भारत और चीन के रिश्तों का रोमांच भी दिलचस्‍प रहेगा

मेरिकी अभियान की सफलता के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सलाहकारों को यह एहसास हो गया था कि तमाम पेचोखम से भरपूर, व्यापार की ग्लोबल कूटनीति में भारत कुछ अलग-थलग सा पड़ गया है. चीन और अमेरिका की जवाबी पेशबंदी जिस नए ग्लोबल ध्रुवीकरण की शुरुआत कर रही है, दो विशाल व्यापार संधियां उसकी धुरी होंगी. अमेरिका की अगुआई वाली ट्रांस पैसिफिक नेटवर्क (टीपीपी) और चीन की सरपरस्ती वाली एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) अगले कुछ वर्षों में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को निष्प्रभावी कर सकती हैं. इन दोनों संधियों में भारत का कोई दखल नहीं है और रहा डब्ल्यूटीओ तो वहां भी एक बड़ा समझैता रोक कर भारत हाशिए पर सिमटता जा रहा था. यही वजह थी कि जी20 के लिए प्रधानमंत्री के ब्रिस्बेन पहुंचने से पहले भारत के कूटनीतिक दस्ते ने न केवल अमेरिका के साथ विवाद सुलझकर डब्ल्यूटीओ में गतिरोध खत्म किया बल्कि दुनिया को इशारा भी कर दिया कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भारत ने अपना हमसफर चुन लिया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र् मोदी की कूटनीतिक वरीयताएं स्पष्ट होने लगी हैं. राजनयिक हलकों में इसे लेकर खासा असमंजस था कि चीन के आमंत्रण के बावजूद, प्रधानमंत्री एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग शिखर बैठक के लिए बीजिंग क्यों नहीं गए?