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Monday, August 8, 2016

एनडीए की जरुरत


लोकसभा में बहुमत और कमजोर विपक्ष के बावजूद भाजपा को प्रभावी व नतीजे देने वाली सरकार के लिए एनडीए को विस्‍तृत करना होगा

जीएसटी की दिल्ली अभी दूर है और राह भी पेचो-खम से भरपूर है लेकिन जीएसटी के शिलान्यास पर सभी राजनैतिक दलों को राजी कराते हुए बीजेपी के रणनीतिकारों को एहसास जरूर हो गया है कि जीत कितनी भी भव्य हो, संसदीय लोकतंत्र में दोस्ती के बिना बात नहीं बनती. सरकार के आलिम-फाजिलों को यह भी पता चल गया है कि दोस्त बनाने के लिए दूसरों की राय को जगह देनी होती है क्योंकि अंततः नतीजे सामने लाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है. यही मौका है जब बीजेपी को जीत के दंभ से निकलकर एनडीए को नए सिरे से गढऩे की कोशिश शुरू करनी चाहिए जो न केवल सरकार को चलाने के लिए जरूरी है बल्कि चुनावी राजनीति की अगली चुनौतियों से निबटने के लिए भी अनिवार्य है.

सत्ता में ढाई साल पूरे कर रही मोदी सरकार कई तजुर्बों से गुजर रही है. इनमें सबसे बड़ा तजुर्बा यह है कि लोकसभा में बहुमत और आम तौर पर कमजोर व बिखरे विपक्ष के बावजूद केंद्र में प्रभावी सरकार चलाने और केंद्रीय नीतियों को लोगों तक पहुंचाने के लिए एक व्यापक राजनैतिक गठबंधन की जरूरत होती है, क्योंकि राज्यों में अलग-अलग दलों के क्षत्रप शान से राज कर रहे हैं. दो-ढाई साल के इन तजुर्बों में यदि 2014 के बाद विधानसभा चुनावों की जीत और हार की नसीहतें भी मिला ली जाएं तो एनडीए की जरूरत और मुखर हो जाती है. 

यह चाहे बड़ी चुनावी जीत का असर हो या फिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के काम करने की शैली लेकिन 2014 की भव्य जीत के बाद एनडीए कहीं पीछे छूट गया है. मोदी के नेतृत्व में बीजेपी का चुनाव अभियान प्रारंभ होने के बाद वैसे भी एनडीए के बड़े घटक छिटक गए थे. जो छोटे सहयोगी बचे थे वह भी सत्ता में आने के बाद हाशिये पर सिमट गए. यूं तो एनडीए की सूची में लगभग तीन दर्जन दल दर्ज हैं लेकिन बीजेपी के अलावा एनडीए में शिवसेना और तेलुगु देशम ही दो बड़ी पार्टियां हैं, लेकिन संसद (दोनों सदन) में इनकी सदस्य संख्या दहाई में (लेकिन 25 से कम) है.
लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद शिवसेना लगभग किनारे हो गई. 2014 में महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए बीजेपी और शिवसेना के रिश्तों की इबारत नए सिरे से लिखी गई, लेकिन उसकी लिखावट न बीजेपी को भाई और न शिवसेना को. इसलिए गठबंधन में तनाव और बयानों की पत्थरबाजी अब रोज की बात है. दोनों दल मुंबई का नगरीय चुनाव शायद अलग-अलग लड़ेंगे.

आंध्र प्रदेश पुनर्गठन या विभाजन विधेयक के क्रियान्वयन और आंध्र को पर्याप्त आर्थिक मदद न मिलने को लेकर तेलुगु देशम के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू असहज हो रहे हैं. तेलुगु देशम एनडीए का दूसरा बड़ा घटक है. दिल्ली के राजनैतिक हलकों में इस बात की चर्चा है कि बीते सप्ताह नायडू ने एनडीए से अलग होने के लिए अपने संसदीय दल की आपात बैठक तक बुला ली थी, जिसे बाद में रद्द कर दिया गया लेकिन आंध्र के मुख्यमंत्री ने यह ऐलान तो स्पष्ट रूप से किया है कि उनके सांसद दिल्ली में केंद्र सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे.

पंजाब चुनाव में नतीजे यदि अकाली दल के माफिक नहीं हुए तो एनडीए में इस घटक का रसूख भी सीमित हो जाएगा. इनके अलावा लोक जनशक्ति एक छोटा घटक है जबकि एक एक सदस्यों वाली कुछ पार्टियां हैं, जिनकी राष्ट्रीय राजनीति में बहुत अहमियत नहीं है.

ऐसा नहीं है कि बीजेपी ने पिछले दो साल में गठबंधन के प्रयोग नहीं किए लेकिन ये कोशिशें राज्यों का चुनाव जीतने तक सीमित थीं जिनके नतीजे मिले-जुले रहे. बिहार में एक बड़ा गठबंधन बनाने की कोशिश औंधे मुंह गिरी. सहयोगी दलों ने फायदे से ज्यादा नुक्सान कर दिया लेकिन असम में स्थानीय छोटी पार्टियां मददगार साबित हुईं. इन गठबंधनों से राष्ट्रीय एनडीए पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ा जो बीजेपी के विशाल बहुमत की छाया में कहीं दुबक गया है.

बीजेपी के पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने के साथ ही भारतीय राजनीति गैर-भाजपावाद की तरफ मुड़ गई. इसका पहला प्रयोग बिहार में हुआ जहां दो धुर विरोधीलालू और नीतीश एक साथ नजर आए और जीत कर निकले. जबकि दूसरा प्रयोग बंगाल में नजर आया जहां वामदल और कांग्रेस ने दोस्ती की और हार हासिल की
अलबत्ता जीत तीसरी ताकत यानी ममता के हाथ लगी, बीजेपी के हाथ नहीं. अब उत्तर प्रदेश में भी अगर कोई गठबंधन उभरेगा तो वह बीजेपी के विरुद्ध ही होगा.

हमें यह स्वीकार करना होगा कि भले ही 2014 का जनादेश स्पष्ट रूप से बीजेपी के पक्ष में रहा हो लेकिन संसद के गणित में वह जनादेश बहुत काम नहीं आया. सरकार को आगे बढऩे के लिए सहमति और सबको साथ लेना ही पड़ा तब जाकर जीएसटी का पहला कदम सामने आया. हकीकत यह भी है कि बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद से ही एनडीए के विस्तार की कोशिश शुरू कर दी होती और बड़े क्षेत्रीय दलों से दोस्ती बढ़ाई होती तो पिछले साल केंद्र सरकार की नीतियां शायद कहीं ज्यादा बेहतर नतीजे लेकर सामने आतीं और केंद्र सरकार को उसका राजनैतिक लाभ मिलता.

जीएसटी की गहमागहमी के बीच दिल्ली के राजनैतिक हलकों में 2019 यानी लोकसभा चुनाव की दाल पकने लगी है. अमित शाह का मिशन 2019 चर्चा में है ही जो बीजेपी को दोबारा सत्ता में लाने की तैयारियों पर केंद्रित है. यह भी जानते हैं कि लोकसभा के अगले चुनाव में जीत का फॉर्मूला 2017-18 के विधानसभा चुनावों से निकलेगा. इसमें उत्तर पश्चिम और मध्य भारत के सभी बड़े राज्यों में नए जनादेश आएंगे जो गैर-भाजपावाद को मजबूत कर सकते हैं और 2019 में गठबंधन राजनीति की वापसी की राह खोल सकते हैं.

सिर्फ यही नहीं कि जीएसटी की अगली सभी मंजिलों पर केंद्र सरकार को बहुदलीय और बहुराज्यीय राजीनामे की जरूरत होगी बल्कि अगले ढाई साल के सभी सुधारों और स्कीमों के क्रियान्वयन के लिए भी बीजेपी को अब नए क्षेत्रीय दोस्त चाहिए. और रही बात अगले लोकसभा चुनाव की तो, उसके लिए एक बड़े एनडीए का गठन अनिवार्य होने जा रहा है क्योंकि नए दोस्तों के बिना बीजेपी के लिए 2019 का मोर्चा खासा कठिन हो जाएगा.

Tuesday, November 17, 2015

जीत की हार


मोदी की राजनैतिक वापसी का रास्ता साहसी और सुधारक गवर्नेंस के उसी दरवाजे से निकलेगा जहां से मोदी ने केंद्रीय राजनीति के मंच पर कदम रखा था.
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 2014 के जनादेश की क्या सही व्याख्या की है या इसे इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि क्या उन्होंने कोई व्याख्या की भी है या नहीं? बिहार के जनादेश की रोशनी में यह सवाल अटपटा जरूर है लेकिन इसके जवाब में ही बिहार में बीजेपी की जबरदस्त हार का मर्म छिपा है, क्योंकि यदि खुद नरेंद्र मोदी ने 2014 के जनादेश को उसकी चेतना और संभावना में पूरी तरह नहीं समझा तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि बीजेपी दिल्ली के जनादेश का संदेश भी नहीं पढ़ पाई और बिहार के संदेश को समझने में भी गफलत ही होगी.
राजनैतिक दल और विश्लेषक चुनाव नतीजों के सबसे बड़े पारंपरिक ग्राहक होते हैं, क्योंकि उनके दैनिक संवादों और रणनीतियों की बुनियाद राजनैतिक संदेशों पर निर्भर होती है. बिहार के नतीजों को भी बीजेपी के कमजोर होने और नीतीश के गैर-बीजेपी राजनीति की धुरी बनने के तौर पर पढ़ा गया है. ठीक इसी तरह 2014 का जनादेश दक्षिणपंथी पार्टी के पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने या प्रेसिडेंशियल चुनाव की तर्ज पर मोदी के प्रचार की सफलता के तौर पर देखा गया था. अलबत्ता 2014 में चुनावी राजनीति की मुख्यधारा में दो नए वर्ग जोश, उत्सुकता और उम्मीद के साथ सक्रिय हुए थे. एक थे ग्लोबल निवेशक और उद्यमी, जिनके लिए भारत एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और जिन्हें सुधारों के बीस साल बाद भारत में आर्थिक बदलावों की अगली पीढ़ी का इंतजार है. दूसरे हैं, युवा और शिक्षित प्रौढ़ जिनके लिए राजनीति का मतलब दरअसल गवर्नेंस है. इन दो वर्गों के लिए मोदी सरकार का मतलब ठीक वैसा नहीं था जैसा कि इससे पहले होने वाले चुनावों में रहा है.
नरेंद्र मोदी के पक्ष में 2014 के जनादेश के तीन मतलब थे जो शायद इससे पहले कभी किसी भी जनादेश को लेकर इतने स्पष्ट नहीं रहे. सरकार के सोलह माह बीतने और दिल्ली व बिहार के नतीजों के बाद उन मायनों को समझना जरूरी हो गया है जिनके कारण 2014 के एक साल के भीतर ही दो बड़े चुनावों में बीजेपी को दो टूक इनकार झेलना पड़ा है.
पहलाः केंद्रीय राजनीति के फलक से लगभग अनुपस्थित रहे नरेंद्र मोदी इस चुनाव में नेता नहीं बल्कि सीईओ की तरह सामने आए थे. चुनाव के दौरान मोदी मिथकीय हो चले थे. लोग उन्हें दो टूक और बेबाक राजनेता मान रहे थे, जिसे दिल्ली छाप राजनीति की टकसाल में नहीं गढ़ा गया है और जिसे किसी तरह की बेसिर-पैर बातों से नफरत है. अलबत्ता मोदी के सत्ता में आने के कुछ ही माह के भीतर यह दिखने लगा कि उनके साध्वी, योगी, साक्षी कुछ भी बोल सकते हैं, कितनी भी घृणा उगल सकते हैं. नरेंद्र मोदी की बेबाक, गंभीर और ताकतवर नेता होने की छवि को सबसे ज्यादा नुक्सान इन बयानबहादुरों ने पहुंचाया और इनके बयानों के बदले मोदी के मौन ने उन्हें  या तो कमजोर नेता साबित किया या फिर साजिश कथाओं को मजबूत किया.
दूसराः बाजार, रोजगार और निवेश के लिए मोदी मुक्त बाजार के मसीहा बनकर उभरे जो उस गुजरात की जमीन से उठा है जहां निजी उद्यमिता की दंत कथाएं हैं. उनसे बड़े निजीकरण, ग्लोबल मुक्त बाजार का नेतृत्व, क्रांतिकारी सुधारों की अपेक्षा थी, क्योंकि भारत के पिछले दो दशक के रोजगार और ग्रोथ निजी निवेश से निकले हैं, सरकारी स्कीमबाजी से नहीं. मोदी सरकार ने पिछले सोलह माह में कांग्रेस की तरह स्कीमों की झड़ी लगा दी, नई सरकारी कंपनियां पैदा कीं और मुक्त बाजार की सभी कोशिशों को चलता कर दिया. मोदी का यह चेहरा एक आर्थिक उदारवादी की उम्मीदों के लिए बिल्कुल नया है.
तीसराः मोदी की जीत भ्रष्टाचार, पुरानी तर्ज की गवर्नेंस और हर तरह की अपारदर्शिता की हार थी. इसलिए ये अपेक्षाएं जायज थीं कि मोदी सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता बहाल करेंगे. वे जटिल सरकारी भ्रष्टाचार और कंपनी-नेता गठजोड़ों के खिलाफ ठीक उसी तरह का अभियान शुरू करेंगे जैसा चीन में शी जिनपिंग कर रहे हैं. चुनाव सुधार, राजनैतिक दलों में पारदर्शिता, विजिलेंस, लोकपाल जैसी तमाम उम्मीदें मोदी की जीत के साथ अंखुआ गईं थीं, क्योंकि मोदी दिल्ली की सियासत के पुराने खिलाड़ी नहीं थे. सोलह माह बाद ये अपेक्षाएं चोटिल पड़ी हैं और सियासत व सरकार हस्बेमामूल उसी ढर्रे पर है.
यदि आप दिल्ली व बिहार में बीजेपी की बदहाली को करीब से देखें तो आपको इन तीन कारणों की छाप मिल जाएगी. इन नतीजों में महज, क्षेत्रीय पार्टियों का स्वीकार नहीं बल्कि उक्वमीदों के शिखर पर बैठी मोदी सरकार का इनकार भी इसलिए छिपा है, क्योंकि मोदी ने खुद 2014 के जनादेश को नहीं समझा. जनता उन्हें एक ठोस सुधारक के तौर पर चुनकर लाई थी न कि ऐसे नेता के तौर पर जो राष्ट्रीय गवर्नेंस में बदलाव की अपेक्षाओं को स्थागित करते हुए राज्यों के चुनाव लडऩे निकल पड़े और राज्यों के जनादेशों के लिए अपनी साख को दांव पर लगा दे.
दरअसल, सत्ता में आने के बाद मोदी ने अलग तरह के राजनैतिक गवर्नेंस गढऩे की कोशिश की है जो 2014 की उम्मीदों के खिलाफ है. विकेंद्रित गवर्नेंस की अपेक्षाओं के बदले मोदी ने ऐसी गवर्नेंस बनाई जो मंत्रियों तक को स्वाधीनता नहीं देती. यह केंद्रीकरण सत्ता से संगठन तक आया और चुनावी राजनीति में ज्यादा मुखर हो गया, जब मोदी और अमित शाह अपनी ही पार्टी में उन राजनैतिक आकांक्षाओं को रौंदने लगे जो बीजेपी की बड़ी जीत के बाद राज्यों में अंखुआ रही थीं. चुनाव के नतीजे बताते हैं कि इन आकांक्षाओं की आह बीजेपी को ले डूबी है.

उम्मीद है कि बीजेपी और मोदी 2014 की तरह बिहार के जनादेश को पढऩे की गलती नहीं करेंगे जो केंद्रीकृत राजनैतिक गवर्नेंस के खिलाफ है जबकि यह उन सुधारों के हक में है जिनकी उम्मीद 2014 में संजोई गई थी. दिल्ली व बिहार हार कर मोदी बड़ी राजनैतिक पूंजी गंवा चुके हैं. अब उन्हें गवर्नेंस और आर्थिक पूंजी पर ध्यान देना होगा. उनकी राजनैतिक वापसी का रास्ता साहसी और सुधारक गवर्नेंस के उसी दरवाजे से निकलेगा जहां से मोदी ने केंद्रीय राजनीति के मंच पर कदम रखा था.

Saturday, September 19, 2015

कमजोरी में बदलती ताकत


बीजेपी व उनके सहयोगी दलों की सरकारों ने विकास को तो छोड़िएविकास के सकारात्मक संवादों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया है.


बीजेपी शासित राज्यों का मुख्यमंत्री होने के अलावा आनंदीबेन पटेल, देवेंद्र फड़ऩवीस, मनोहर लाल खट्टर, वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के बीच एक और बड़ी समानता है. ये सभी मिलकर गुड गवर्नेंस और प्रगतिगामी राजनीति की उस चर्चा को पटरी से उतारने में अब सक्रिय भूमिका निभाने लगे हैं जो मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद शुरू हुई थी. दरअसल, राज्यों को नई गवर्नेंस का सूत्रधार होना चाहिए था, वे अचानक मोदी मॉडल की सबसे कमजोर कड़ी बन रहे हैं.
कांग्रेस अपने दस साल के ताजा शासन में राज्यों से जिस समन्वय के लिए बुरी तरह तरसती रही, वह बीजेपी को यूं ही मिल गया. दशकों बाद पहली बार ऐसा हुआ, जब 11 राज्यों  में उस गठबंधन की सरकार हैं जो केंद्र में बहुमत के साथ सरकार चला रहा है. बात केवल राजनैतिक समन्वय की ही नहीं है, विकास की संभावनाओं के पैमाने पर भी मोदी के पास शायद सबसे अच्छी टीम है.
राज्यों में विकास के पिछले आंकड़ों और मौजूदा सुविधाओं को आधार बनाते हुए मैकेंजी ने अपने एक अध्ययन में राज्यों की विकास की क्षमताओं को आंका है. देश के 12 राज्य  (दिल्ली, चंडीगढ़, गोआ, पुदुचेरी, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, केरल, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उतराखंड) देश का 50 फीसदी जीडीपी संभालते हैं, जिनमें देश के 58 फीसदी उपभोक्ता बसते हैं. इन 12 राज्यों में पांच में बीजेपी और सहयोगी दलों की सरकार देश का लगभग 25 फीसद जीडीपी संभाल रही हैं. तेज संभावनाओं के अगले पायदान पर आने वाले सात राज्यों (आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, बंगाल, ओडिसा) को शामिल कर लिया जाए तो 19 में नौ बड़े राज्य और देश का लगभग 40 फीसद जीडीपी बीजेपी व उसके सहयोगी दलों की सरकार के हवाले है. मैकेंजी ने आगे जाकर 40 फीसदी जीडीपी संभालने वाले 65 शहरी जिलों को भी पहचाना है. इनमें भी एक बड़ी संख्या बीजेपी के नियंत्रण वाली स्थानीय सरकारों की है.
आदर्श स्थिति में यह विकास की सबसे अच्छी बिसात होनी चाहिए थी. कम से कम इन राज्यों, उद्योग क्लस्टर और शहरी जिलों के सहारे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी अभियान जमीन पर उतरने चाहिए थे, लेकिन पिछले 15 महीनों में इन राज्यों गुड गवर्नेंस के एजेंडे को भटकाने में कोई कमी नहीं छोड़ी. मध्य प्रदेश में हर कुर्सी के नीचे घोटाला निकलता है. महाराष्ट्र सरकार ने घोटालों से शुरुआत की और प्रतिबंधों को गवर्नेंस बना लिया. हरियाणा में विकास की चर्चाएं पाबंदियों और स्कूलों में गीता पढ़ाने जैसी उपलब्धियों में बदल गई हैं. दिलचस्प है कि राज्यों ने भले ही केंद्र की नई शुरुआतों को तवज्जो न दी हो लेकिन बड़े प्रचार अभियानों में केंद्र के मॉडल को अपनाने में देरी नहीं की.
उद्योगपतियों के साथ प्रधानमंत्री की ताजा बैठक में यह बात उभरी कि कारोबार को सहज करने के अभियान राज्यों की दहलीज पर दम तोड़ रहे हैं. औद्योगिक व कारोबारी मंजूरियों को आसान व एकमुश्त बनाने का अभियान पिछड़ गया है. वित्त मंत्री अरुण जेटली को कहना पड़ा कि कारोबार को सहज बनाना एक हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है जबकि मेक इन इंडिया की शुरुआत करते समय सरकार ने सभी मंजूरियों को एकमुश्त करने के लिए एक साल का समय रखा था. केंद्र सरकार के अधिकारी अब इसके लिए कम से कम तीन साल का समय मांग रहे हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि औरों को तो छोड़िए, बीजेपी शासित राज्यों ने भी इस अभियान को भाव नहीं दिया.
मेक इन इंडिया ही नहीं, मंडी कानून बदलने को लेकर बीजेपी के अपने ही राज्यों ने केंद्र की नहीं सुनी. डिजिटल इंडिया पर राज्य ठंडे हैं. आदर्श ग्राम और स्वच्छता मिशन जैसे अभियानों में कैमरा परस्ती छवियों के अलावा राज्यों की सक्रियता नहीं है. प्रशासनिक सुधार, राज्य के उपक्रमों का विनिवेश और पारदर्शिता बढ़ाने वाले फैसलों की बजाए राज्यों ने सरकारी नियंत्रण बढ़ाने और लोकलुभावन स्कीमों के मॉडल चुने हैं जो निवेशकों और युवा आबादी की उम्मीदों से कम मेल खाते हैं.  
मोदी सरकार ने इस साल के बजट के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, नगर विकास जैसी सामाजिक सेवाओं की जिम्मेदारी पूरी तरह राज्यों को सौंप दी और केंद्र को केवल संसाधन आवंटन तक सीमित कर लिया. इसका नतीजा है कि 15 महीने में शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में सबसे बड़ा शून्य दिख रहा है. सामाजिक सेवाओं में केंद्र परोक्ष भूमिका निभाना चाहता है जबकि राज्यों के पास संसाधनों की नहीं बल्कि नीतिगत क्षमताओं की कमी है. इसलिए शिक्षा, सेहत, ग्रामीण विकास में क्षमताओं का विकास और विस्तार पिछड़ गया है. बीजेपी के नेता भी मान रहे हैं कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों को पूरी तरह राज्यों पर छोडऩे के राजनैतिक नुक्सान होने वाले हैं.
मोदी के सत्ता में आने से पहले और बाद में बनी राज्य सरकारें अपेक्षाओं की कसौटी पर कमजोर पड़ रही हैं, जबकि कुछ बड़े राज्य या तो केंद्र से रिश्तों में हाशिए पर हैं या फिर चुनाव की तैयारी शुरू कर रहे हैं. पूरे देश में करीब दस प्रमुख राज्य ऐसे हैं जिनकी सरकारों के पास समय, संसाधन और संभावनाएं मौजूद हैं और इनमें अधिकांश बीजेपी व उनके सहयोगी दलों की हैं. इंडिया ब्रांड और अभियानों को नतीजों से सजाने का दारोमदार इन्हीं पर है लेकिन किस्म-किस्म के प्रतिबंधों और अहम फैसलों की दीवानी इन सरकारों ने विकास को तो छोड़िए, विकास के सकारात्मक संवादों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया है.
चुनावी राजनीति का कोई अंत नहीं है. 2016 का चुनाव कार्यक्रम इस साल से ज्यादा बड़ा है. प्रधानमंत्री को चुनावी राजनीति से अलग अपनी गवर्नेंस के मॉडल को नए  सिरे से फिट करना होगा और राज्यों को बड़ी व ठोस योजनाओं से बांधना होगा नहीं तो बिहार चुनाव का नतीजा चाहे जो हो, लेकिन अगर राज्य सरकारें चूकीं तो निवेश, विकास और रोजगार की रणनीतियां बुरी तरह उलटी पड़ जाएंगी.