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Tuesday, August 21, 2018

मध्य में शक्ति


आधुनिक राजनैतिक दर्शन के ग्रीक महागुरु भारत में सच साबित होने वाले हैं. अरस्तू ने यूं ही नहीं कहा था कि किसी भी देश में मध्य वर्ग सबसे मूल्यवान राजनैतिक समुदाय हैजो निर्धन और अत्यधिक धनी के बीच खड़ा होता है. बीच के यही लोग संतुलित और तार्किक शासन का आधार हैं.

सियासत पैंतरे बदलती रहती है लेकिन अरस्तू से लेकर आज तक मध्य वर्ग ही राजनैतिक बहसों का मिज़ाज तय करता है. 2014 में कांग्रेस की विदाई का झंडा इन्हीं के हाथ था. भारत का मध्यम वर्ग लगातार बढ़ रहा है. अब इसमें 60 से 70 करोड़ लोग (द लोकल इंपैक्ट ऑफ ग्लोबलाइजेशन इन साउथ ऐंड साउथईस्ट एशिया) शामिल हैं जिनमें शहरों के छोटे हुनरमंद कामगार भी हैं.

मध्य और पश्चिम भारत के तीन प्रमुख राज्यों और फिर सबसे बड़े चुनाव की तैयारियों के बीच क्या नरेंद्र मोदी मध्य वर्ग के अब भी उतने ही दुलारे हैं?

इंडिया टुडे ने देश के मिज़ाज के सर्वेक्षण में पाया कि जनवरी 2018 में करीब 57 फीसदी नगरीय लोग नरेंद्र मोदी के साथ थे यह प्रतिशत जुलाई में घटकर 47 फीसदी पर आ गयाजबकि ग्रामीण इलाकों में किसान आंदोलनों के बावजूद उनकी लोकप्रियता में केवल एक फीसदी की कमी आई है.

यह तस्वीर उन आकलनों के विपरीत है जिनमें बताया गया था कि भाजपा की मुसीबत गांव हैंशहर तो हमेशा उसके साथ हैं. 

क्या भाजपा की सियासत मध्य वर्ग की उम्मीदों से उतर रही है?

कमाई
यूरोमनी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक1990 से 2015 के बीच भारत में 50,000 रुपए से अधिक सालाना उपभोग आय वाले लोगों की संख्या 25 लाख से बढ़कर 50 लाख हो गई. 2015 के बाद यह आय बढऩे की रफ्तार कम हुई है.



कमाई बढऩे के असर को खपत या बचत में बढ़ोतरी से मापा जाता है. 2003 से 2008 के बीच भारत में खपत (महंगाई रहित) बढऩे की गति 7.2 फीसदी थी जो 2012 से 2017 के बीच घटकर 6 फीसदी पर आ गई.

कम खपत यानी कम मांग यानी कम रोजगार यानी कमाई में कमी या आय में बढ़त पर रोक! 

मध्य वर्ग के लिए यह एक दुष्चक्र था जिसे मोदी सरकार तोड़ नहीं पाई. उलटे नोटबंदी और जीएसटी ने इसे और गहरा कर दिया. 2016 के अंत में महंगाई नियंत्रण में थी तो बढ़े हुए टैक्स के बावजूद दर्द सह लिया गया. लेकिन अब महंगे तेलफसलों की बढ़ी कीमत और कमजोर रुपए के साथ महंगाई इस तरह लौटी है कि रोकना मुश्किल है.

रोजगार और कमाई में कमी के घावों पर महंगाई नमक मलेगी और वह भी चुनाव से ठीक पहले. मध्य वर्ग का मिज़ाज शायद यही बता रहा है. 

बचत
पिछले चार वर्ष में कमाई न बढऩे के कारण मध्य वर्ग की खपतउनकी बचत पर आधारित हो गई. या तो उन्होंने पहले से जमा बचत को उपभोग पर खर्च कियाया फिर बचत के लिए पैसा ही नहीं बचा. नतीजतनभारत में आम लोगों की बचत दर जीडीपी के अनुपात मे बीस साल के न्यूनतम स्तर पर है.

मध्य वर्ग के लिए यह दूसरा दुष्चक्र है. महंगाई बढऩे का मतलब हैएक-बचत के लिए पैसा न बचना और दूसरा—बचत पर रिटर्न कम होना.

लोगों की बचत कम होने का मतलब है सरकार के पास निवेश के संसाधनों की कमी यानी कि सरकार का कर्ज बढ़ेगा मतलब और ज्यादा महंगाई बढ़ेगी.

पिछले दो दशकों में यह पहला मौका है जब भारत में मध्य वर्ग की खपत और बचतदोनों एक साथ बुरी तरह गिरी हैं.

नोटबंदी के बाद न तो लोगों ने बैंकों से पैसा निकाल कर खर्च किया और न ही कर्ज की मांग बढ़ी. इस बीच कर्ज की महंगाई भी शुरू हो गई है. 

क्या यही वजहें हैं कि शहरी इलाकों में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में गिरावट दिख रही है?

अचरज नहीं कि प्रधानमंत्री ने स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से मध्य वर्ग को आवाज दीजो इससे पहले नहीं सुनी गई थी.

अरस्तू ने ही हमें बताया था कि दुनिया के सबसे अच्छे संविधान (सरकार) वही हैं जिन्हें मध्य वर्ग नियंत्रित करता है. इनके बिना सरकारें या तो लोकलुभावन हो जाएंगी या फिर मुट्ठी भर अमीरों की गुलाम. जिस देश में मध्य वर्ग जितना बड़ा होगावहां सरकारें उतनी ही संतुलित होंगी.

2019 में भारत की राजनीति आजाद भारत के इतिहास के सबसे बड़े मध्य वर्ग से मुकाबिल होगी. इस बार बीच में खड़े लोगों की बेचैनी भी अभूतपूर्व है.

Sunday, March 11, 2018

राजनीति का 'स्वर्णकाल'


वामपंथी शासन वाले त्रिपुरा या बंगाल के गरीब और बेरोजगारों की जिंदगी, भाजपा के शासन वाले झारखंड या छत्तीसगढ़ के गरीबों की जिंदगी से कितनी अलग थी ?

क्या हरियाणा के अस्पताल कर्नाटक के अस्पतालों से बेहतर हो गए हैं?

मध्य प्रदेश का भ्रष्टाचार, पंजाब से कितना अलग है?

गुजरात का नेता-कंपनी गठजोड़, पश्चिम बंगाल या तमिलनाडु से किस तरह अलग है?

वामपंथी शासन वाले राज्यों में आर्थिक समानता का कौन-सा महाप्रयोग हो गया? भाजपा के शासन वाले राज्यों में निवेश और नौकरियों का कौन-सा वसंत उतर आया है? सर्वसमावेशी कांग्रेस ने कौन-सा आदर्श प्रशासन दिया?
इन सवालों को उठाने का यह सबसे सही वक्त है.

क्योंकि भारत के लोगों ने लाल, भगवा, हरे, नीले, सफेद सभी रंगों की सरकारें देख ली हैं.

खुद से यह पूछना जरूरी है कि किसी सियासी विचार की चुनावी सफलता से या विफलता से हमारी जिंदगी पर क्या फर्क पड़ता है? व्यावहारिक रूप से लोगों के जीवन में अंतर सिर्फ इस बात से आता है कि चुनाव से कैसी सरकार निकली.

ढहाते रहिए लेनिन की मूर्ति, खड़े करते रहिए शिवा जी और सरदार पटेल के पुतले या सजाते रहिए आंबेडकर पार्क. एक संवैधानिक लोकतंत्र में कोई राजनैतिक विचार अगर एक अच्छी सरकार नहीं दे सकता तो उसकी हैसियत किसी कबायली संगठन से ज्यादा हरगिज नहीं, जो विरोधी की मूर्तियां ढहाने या अपनी बनाने पर केंद्रित है, लोगों की जिंदगी बनाने या बेहतर करने पर नहीं.

अलग-अलग विचारों की सरकारें लोगों को उनका हक देने के मामले में एक जैसी ही क्यों पाई जाती हैं?

इसकी दो वजहें हैं:

पहलीसरकार में आने और आदर्श सरकार होने में राई-पहाड़ जैसा फर्क है. आमतौर पर राजनैतिक विचारधाराओं के पास सरकार या गवर्नेंस का कोई नया विचार नहीं होता. उदाहरण के लिए पिछले चार वर्षों में हर साल किसी न किसी राज्य में बारहवीं के पर्चे से लेकर मेडिकल और जुडिशियरी की परीक्षाओं के पर्चे लीक हुए हैं. कर्मचारी चयन आयोग की परीक्षा का पर्चा लीक इसी क्रम में है. हर साल लाखों युवाओं की मेहनत मिट्टी हो जाती है लेकिन किसी भी विचारधारा की सरकार के पास परीक्षाओं को निरापद बनाने की कोई नई सूझ नहीं है.

दशकों के बाद देश के 22 राज्यों और करीब 60 फीसदी जीडीपी पर एक ही दल (गठबंधन) के शासन के बावजूद बैंकों से लेकर खेती तक और अस्पताल से अदालत तक सब जगह काठ की पुरानी हांडियां नए रंग-रोगन के साथ चढ़ाई जा रही हैं. कहीं कोई गुणात्मक बदलाव नहीं दिखता.

दूसरी—सरकारों को संविधान की राजनैतिक निरपेक्षता से खासी तकलीफ होती है. संविधान ने सरकारों को किस्म-किस्म के संस्थागत परीक्षणों से गुजारने की लंबी व्यवस्था बनाई. सरकारें इन संस्थाओं को कमजोर करती हैं या फिर इन अराजनैतिक संस्थाओं पर राजनैतिक विचार थोपने की कोशिश करती हैं ताकि दूसरे विचार का खौफ दिखाकर सत्ता में रहा जा सके.

अचरज नहीं कि एक दल की दबंगई वाली सरकारों की तुलना में मिले-जुले राजनैतिक विचारों की सरकारें, कमोबेश ज्यादा उत्पादक रहीं हैं. वे शायद कोई एक विचार दिखाकर भरमाने की स्थिति में नहीं थीं.

राजनीति अब जन पक्ष का स्थायी विपक्ष हो चली है. राजनेता अंदरखाने जनता से एक लड़ाई लड़ते हैं. उनका सबसे बड़ा डर यह है कि लोग कहीं वह न समझ जाएं जो उन्हें समझना चाहिए. नेताओं की यह जंग समझ, तर्क और प्रश्न के खिलाफ है.

प्रश्न स्वाभाविक रूप से उनकी सरकार से पूछे जाएंगे जो ठोस और मूर्त है. अमूर्त विचारधारा से यह कौन पूछने जा रहा है कि बैंक में घोटाले क्यों हो रहे हैं? लोगों को अच्छी सरकार चाहिए, विचार तो विचारकों और प्रचारकों के लिए हैं.

प्रश्न साहस की सृष्टि करते हैं और भ्रम से जन्म लेता है भय. भ्रम का चरम ही राजनीति का स्वर्ण युग है.

लोग रस्सी को सांप समझ लें और विचार को सरकार, सियासत को और क्या चाहिए?

ध्यान रहे कि लेनिन की जो मूर्ति ढहाई गई, वह जनता की जमीन पर जनता के पैसे से बनी थी और पटेल की जो मूर्ति बनाई जा रही है, उसमें भी करदाताओं का पैसा लगा है.

चुनाव में हम सरकार चुनते हैं, विचार नहीं. यदि हम चाहते हैं कि हमें विध्वंसक या नपुंसक विचारों के बदले ठोस और जवाबदेह सरकारें मिलें तो क्या हर पांच साल में प्रत्येक सरकार के साथ वही करना होगा जो त्रिपुरा के लोगों ने माणिक सरकार के साथ 25 साल बाद किया?

यानी कि चलो पलटाई!


Sunday, October 22, 2017

जीएसटी के उखडऩे की जड़


चुनावों में भव्‍य जीत जमीन से जुड़े होने की गारंटी नहीं है. यह बात किसी उलटबांसी जैसी लगती है लेकिन यही तो जीएसटी है.
जीएसटी की खोटनाकामी और किरकिरी इसकी राजनीति की देन हैंइसके अर्थशास्‍त्र या कंप्‍यूटर नेटवर्क की नहीं.

दरअसल,  अगर कोई राजनैतिक दल किसी बड़े सुधार के वक्‍त जमीन से कट जाए तो उसे तीन माह में दो बार दीवाली मनानी पड़ सकती है. पहले जीएसटी लाने की दीवाली (1 जुलाई) और इससे छुटकारे की (6 अक्तूबर). 

जीएसटी मुट्ठी भर बड़ी कंपनियों का नहींबल्कि भाजपा के बुनियादी वोट बैंक का सुधार था. यह देश के लाखों छोटे उद्योगों और व्‍यापार के लिए कारोबार के तौर-तरीके बदलने का सबसे बड़ा अभियान था. 1991 से अब तक भारत ने जितने भी आर्थिक सुधार किएवह संगठित क्षेत्र यानी बड़ी कंपनियों के लिए थे. जीडीपी में करीब 50 फीसदी और रोजगारों के सृजन में 90 फीसदी हिस्‍सा रखने वाले असंगठित क्षेत्र को सुधारों की सुगंध मिलने का संयोग नहीं बन सका.

टैक्‍स सुधार के तौर पर भी जीएसटी भाजपा के वोट बैंक के लिए ही था. बड़ी कंपनियां तो पहले से ही टैक्‍स दे रही हैं और आम तौर पर नियमों की पाबंद हैं. असंगठित क्षेत्र रियायतों की ओट में टैक्‍स न चुकाने के लिए बदनाम है. उसे नियमों का पाबंद बनाया जाना है.

अचरज नहीं कि छोटे कारोबारी जीएसटी को लेकर सबसे ज्‍यादा उत्‍साहित भी थे क्‍योंकि यह उनकी तीन मुरादें पूरी करने का वादा कर रहा थाः

1. टैक्‍स दरों में कमी यानी बेहतर मार्जिन और ज्‍यादा बिक्री
2. आसान नियम यानी टैक्‍स कानून के पालन की लागत में कमी अर्थात् साफ-सुथरे कारोबार का मौका
3. डिजिटल संचालन यानी अफसरों की उगाही और भ्रष्‍टाचार से निजात

छठे आर्थिक सेंसस (2016) ने बताया है कि भारत में खेती के अलावाकरीब 78.2 फीसदी उद्यम पूरी तरह संचालकों के अपने निवेश पर (सेल्‍फ फाइनेंस्‍ड) चलते हैं. उनकी कारोबारी जिंदगी में बैंक या सरकारी कर्ज की कोई भूमिका नहीं है. जीएसटी के उपरोक्‍त तीनों वादे, छोटे कारोबारियों के मुनाफों के लिए खासे कीमती थे. जमीन या किरायेईंधन और बिजली की बढ़ती लागत पर उनका वश नहीं हैजीएसटी के सहारे वह कारोबार में चमक की उम्मीद से लबालब थे. 

2015 की शुरुआत में जब सरकार ने जीएसटी पर राजनैतिक सहमति बनाने की कवायद शुरू की तब छोटे कारोबारियों का उत्‍साह उछलने लगा. 
यही वह वक्‍त था जब उनके साथ सरकार का संवाद शुरू होना चाहिए था ताकि उनकी अपेक्षाएं और मुश्किलें समझी जा सकें. गुरूर में झूमती सरकार ने तब इसकी जरूरत नहीं समझी. कारोबारियों को उस वक्‍त तकजीएसटी की चिडिय़ा का नाक-नक्‍श भी पता नहीं था लेकिन उन्‍हें यह उम्मीद थी कि उनकी अपनी भाजपाजो विशाल छोटे कारोबार की चुनौतियों को सबसे बेहतर समझती हैउनके सपनों का जीएसटी ले ही आएगी.

2016 के मध्य में सरकार ने मॉडल जीएसटी कानून चर्चा के लिए जारी किया. यह जीएसटी के प्रावधानों से, छोटे कारोबारियों का पहला परिचय था. यही वह मौका था जहां से कारोबारियों को जीएसटी ने डराना शुरू कर दिया. तीन स्‍तरीय जीएसटीहर राज्‍य में पंजीकरण और हर महीने तीन रिटर्न से लदा-फदा यह कानून भाजपा के वोट बैंक की उम्‍मीदों के ठीक विपरीत था. इस बीच जब तक कि कारोबार की दुनिया के छोटे मझोले , जीएसटी के पेच समझ पातेउनके धंधे पर नोटबंदी फट पड़ी.

त्तर प्रदेश की जीतभाजपा के दंभ या गफलत का चरम थी. जीएसटी को लेकर डर और चिंताओं की पूरी जानकारी भाजपा को थी. लेकिन तब तक पार्टी और सरकार ने यह मान लिया था कि छोटे कारोबारी आदतन टैक्‍स चोरी करते हैं. उन्‍हें सुधारने के लिए जीएसटी जरूरी है. इसलिए जीएसटी काउंसिल ने ताबड़तोड़ बैठकों में चार दरों वाले असंगत टैक्‍स ढांचे को तय कियाउनके तहत उत्‍पाद और सेवाएं फिट कीं और लुंजपुंज कंप्‍यूटर नेटवर्क के साथ 1 जुलाई को जीएसटी की पहली दीवाली मना ली गई.

जीएसटी आने के बाद सरकार ने अपने मंत्रियों की फौज इसके प्रचार के लिए उतारी थी लेकिन उन्‍हें जल्‍द ही खेमों में लौटना पड़ा. अंतत: अपने ही जनाधार के जबरदस्‍त विरोध से डरी भाजपा ने गुजरात चुनाव से पहले जीएसटी को सिर के बल खड़ा कर दिया. यह टैक्‍स सुधार वापस कारीगरों के हवाले है जो इसे ठोक-पीटकर भाजपा के वोट बैंक का गुस्‍सा ठंडा कर रहे हैं.



ग्रोथआसान कारोबार या बेहतर राजस्वजीएसटी फिलहाल अपनी किसी भी उम्मीद पर खरा नहीं उतरा क्योंकि इसे लाने वाले लोकप्रियता के शिखर पर चढ़ते हुए राजनैतिक जड़ों से गाफिल हो गए थे. चुनावों में हार-जीत तो चलती रहेगीलेकिन एक बेहद संवेदनशील  सुधारअब शायद ही उबर सके. 

Tuesday, July 25, 2017

विपक्ष ने क्या सीखा ?

  
विपक्षी दल उन अपेक्षाओं को क्‍यों नहीं  संभाल पाए जो ताकतवर सरकार के सामने मौजूद प्रतिपक्ष के साथ अपने आप जुड़ जाती हैं

भाजपा हर कदम का विरोध क्यों करती हैआमतौर पर सवाल का पहला जवाब हमेशा ठहाके के साथ देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी गंभीर हो गए...एक लंबा मौन...फिरः ''लोकतंत्र में प्रतिपक्ष केवल संवैधानिक मजबूरी नहीं हैवह तो लोकतंत्र के अस्तित्व की अनिवार्यता है.'' फिर ठहाका लगाते हुए बोले कि नकारात्मक होना आसान कहां हैएक तो चुनावी हार की नसीहतें और फिर सरकार को सवालों में घेरते हुए लोकतंत्र को जीवंत रखना! ...प्रतिपक्ष होने के लिए अभूतपूर्व साहस चाहिए.

लोकतंत्र में प्रतिपक्ष का तकाजा कठिन है. चुनावी हार और नकारात्मकता की तोहमत के बावजूद सरकार पर सवाल उठाते रहना उसका दायित्व है. जो सरकार जितनी ताकतवर है उससे जुड़ी उम्मीदें और उससे पूछे जाने वाले सवाल उतने ही बड़ेगहरे और ताकतवर होने चाहिए.

मोदी सरकार को तीन साल बीत चुके हैं. लगभग सभी संवैधानिक पदों और प्रमुख राज्यों में भाजपा सत्ता में है. अब विपक्ष से पूछा जाना चाहिए कि उसने क्या सीखाक्या वह उन अपेक्षाओं को संभाल पाया जो किसी ताकतवर सरकार के सामने मौजूद विपक्ष के साथ अपने आप जुड़ जाती हैं

नए विपक्ष का आविष्कार

2014 के जनादेश ने तय कर दिया कि देश में विपक्ष होने का मतलब अब बदल गया हैक्योंकि सत्ता पक्ष को चुनने के पैमाने बदल गए हैं. आजादी के बाद पहली बार ऐसा दिखा कि अध्यक्षीय लोकतंत्र की तर्ज पर पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक सभी जटिल क्षेत्रीय पहचानें और राजनैतिक अस्मिताएं किसी एक नेता में घनीभूत हो गईं.
नए सत्ता पक्ष के सामने नया विपक्ष भी तो जरूरी था! 2014 के बाद क्षेत्रीय दलों की ताकत घटती जा रही है. बहुदलीय ढपली और परिवारों की सियासत से ऊबे लोग ऐसा विपक्ष उभरता देखना चाहते हैं जो संसदीय लोकतंत्र के बदले हुए मॉडल में फिट होकर सत्ता के पक्ष के मुहावरों को चुनौती दे सके. तीन साल बीत गएविपक्ष ने नया विपक्ष बनने की कोशिश तक नहीं की.

सवाल उठाने की ताकत

जीवंत लोकतंत्र पिलपिले प्रतिपक्ष पर कैसे भरोसा करेनोटबंदी इतनी ही 
खराब थी तो विपक्ष को भाजपा बनकर खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की तरह इसे रोक देना चाहिए था. जीएसटी विपक्ष की रीढ़विहीनता का थिएटर है. विपक्षी दलों की राज्य सरकारों ने इसे बनाया भी और अब विरोध भी हो रहा है.
प्रतिपक्ष की भूमिका इसलिए कठिन हैक्योंकि उसे विरोध करते दिखना नहीं होता बल्कि संकल्प के साथ विरोध करना होता है. विपक्ष को मोदी युग के पहले की भाजपा से सीखना था कि सरकारी नीतियों की खामियों के खिलाफ जनमत कैसे बनाया जाता है.
संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष ओखली के भीतर और चोट के बाहर नहीं रह सकता. लेकिन नरेंद्र मोदी को जो विपक्ष मिला हैवह रीढ़विहीन और लिजलिजा है.

स्वीकार और त्याग
विपक्ष ने भले ही सुनकर अनसुना किया हो लेकिन अधिकांश समझदार लोगों ने यह जान लिया था कि 2014 का जनादेश अल्पसंख्यकवाद की राजनीति को रोकने की नसीहत के साथ आया है. बहुसंख्यकवाद की राजनीति अच्छी है या बुरीइस पर फैसले के लिए अगले चुनाव का इंतजार करना पड़ेगा लेकिन 2014 और उसके बाद के अधिकांश जनादेश अल्पसंख्यकों (धार्मिक और जातीय) को केंद्र में रखने की राजनीति के प्रति इनकार से भरे थे.

क्या विपक्ष अल्पसंख्यकवाद की राजनीति को स्थगित नहीं कर सकताभाजपा नसीहत बन सकती थी जिसने सत्ता में आने के बाद अपने पारंपरिक जनाधार यानी अगड़े व शहरी वर्गों को वरीयता पर पीछे खिसका दिया. अलबत्ता हार पर हार के बावजूद विपक्ष अल्पसंख्यक और गठजोड़ वाली सियासत के अप्रासंगिक फॉर्मूले से चिपका है.

सक्रिय प्रतिपक्ष ही कुछ देशों को कुछ दूसरे देशों से अलग करता है. यही भारत को चीनरूससिंगापुर से अलग करता है. ब्रिटेनजहां विपक्ष की श्रद्धांजलि लिखी जा रही थी वहां ताजा चुनावों में लेबर पार्टी की वापसी ब्रेग्जिट के भावनात्मक उभार को हकीकत की जमीन पर उतार लाई है. वहां लोकतंत्र एक बार फिर जीवंत हो उठा है.

चुनाव एक दिन का महोत्सव हैंलोकतंत्र की परीक्षा रोज होती है. अच्छी सरकारें नियामत हैं पर ताकतवर विपक्ष हजार नियामत है. भाजपा जैसा प्रभावी, प्रखर और निर्णायक प्रतिपक्ष देश को कभी नहीं मिला. आज जब भाजपा सत्ता में है तो क्या मौजूदा दल भाजपा को उसके जैसा प्रतिपक्ष दे सकते हैंध्यान रखिएभारतीय लोकतंत्र के अगले कुछ वर्ष सरकार की सफलता से नहीं बल्कि विपक्ष की सफलता से आंके जाएंगे.
                                                                                  



Monday, March 21, 2016

नौकरियों के बाजार में आरक्षण


जातीय आरक्षण की समीक्षा पर सरकार का इनकारदरअसलबीजेपी और संघ के बीच सैद्धांतिक असहमतियों का प्रस्थान बिंदु है


सके लिए राजनैतिक पंडित होने की जरूरत नहीं है कि बिहार के चुनाव में बड़े नुक्सान के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जातीय आरक्षण की समीक्षा की बहस क्यों शुरू की ताज्जुब संघ के डिजाइन पर नहीं बल्कि इस बात पर है कि सरकार ने रेत में सिर धंसा दिया और एक जरूरी बहस की गर्दन संसद के भीतर ही मरोड़ दी जबकि कोई हिम्मती सरकार इसे एक मौका बनाकर सकारात्मक बहस की शुरुआत कर सकती थी. संघ का सुझाव उसके व्यापक धार्मिक-सांस्कृतिक एजेंडे से जुड़ता है, जो विवादित है, लेकिन इसके बाद भी हरियाणा के जाट व गुजरात के पाटीदार आंदोलन की आक्रामकता और समृद्ध तबकों को आरक्षण के लाभ की रोशनी में, कोई भी संघ के तर्क से सहमत होगा कि जातीय आरक्षण की समीक्षा पर चर्चा तो शुरू होनी ही चाहिए. खास तौर पर उस वक्त जब देश के पास ताजा आर्थिक जातीय गणना के आंकड़े मौजूद हैं, जिन पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है.
 जातीय आरक्षण में यथास्थिति बनाए रखने के आग्रह हमेशा  ताकतवर रहे हैं, जिनकी वजह से बीजेपी और सरकार को संघ का सुझाव खारिज करना पड़ा. जातीय आरक्षण की समीक्षा पर सरकार का इनकार, दरअसल, बीजेपी और संघ के बीच सैद्धांतिक असहमतियों का प्रस्थान बिंदु है जो संघ के सांस्कृतिक एजेंडे को बीजेपी की राजनीति के रसायन से अलग करता है. आर्थिक व धार्मिक (राम मंदिर) एजेंडे पर ठीक इसी तरह की असहमतियां अटल बिहारी वाजपेयी व संघ के बीच देखी गई थीं.
सरकार भले ही इनकार करे लेकिन आरक्षण की समीक्षा की बहस शुरू हो चुकी है जो जातीय पहचान की नहीं बल्कि रोजगार के बाजार की है. इस तथ्य से कोई इनकार नहीं करेगा कि आरक्षण ने चुनी हुई संस्थाओं (पंचायत से विधायिका तक) और राजनैतिक पदों पर जातीय प्रतिनिधित्व को सफलतापूर्वक संतुलित किया है और इस आरक्षण को जारी रखने में आपत्ति भी नहीं है. आरक्षण की असली जमीनी जद्दोजहद तो सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी को लेकर है. अगर रोजगारों के बाजार को बढ़ाया जाए तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बेसिर-पैर की दीवानगी को संभाला जा सकता है.
आरक्षण की बहस के इस गैर-राजनैतिक संदर्भ को समझने के लिए रोजगारों के बाजार को समझना जरूरी है. भारत में रोजगार के भरोसेमंद आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं इसलिए आरक्षण जैसी सुविधाओं के ऐतिहासिक लाभ की पड़ताल मुश्किल है. फिर भी जो आंकड़े (वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और आर्थिक समीक्षा 2015-16) मिलते हैं उनके मुताबिक, नौकरीपेशा लोगों की कुल संख्या केवल 4.9 करोड़ है जो 1.28 अरब की आबादी में बेकारी की भयावहता का प्रमाण है. इनमें 94 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में नियोजित हैं, जबकि केवल चार फीसदी लोग संगठित क्षेत्र में हैं जिसमें सरकारी व निजी, दोनों तरह के रोजगार शामिल हैं. ताजा आर्थिक समीक्षा बताती है कि 2012 में संगठित क्षेत्र में कुल 2.95 करोड़ लोग काम कर रहे थे, जिनमें 1.76 करोड़ लोग सरकारी क्षेत्र में थे. 
सरकारी रोजगारों के इस छोटे से आंकड़े में केंद्र व राज्य की नौकरियां शामिल हैं. केंद्र सरकार में रेलवे, सेना और बैंक सबसे बड़े रोजगार हब हैं लेकिन इनमें किसी की नौकरियों की संख्या इतनी भी नहीं है कि वह 10 फीसदी आवेदनों को भी जगह दे सके. केंद्र सरकार की नौकरियों में करीब 60 फीसदी पद ग्रुप सी और करीब 29 फीसदी पद ग्रुप डी के हैं जो सरकारी नौकरियों में सबसे निचले वेतन वर्ग हैं. सरकारी क्षेत्र की शेष नौकरियां राज्यों में हैं और वहां भी नौकरियों का ढांचा लगभग केंद्र सरकार जैसा है.
इस आंकड़े से यह समझना जरूरी है कि आरक्षण का पूरा संघर्ष, दो करोड़ से भी कम नौकरियों के लिए है जिनमें अधिकांश नौकरियां ग्रुप सी व डी की हैं जिनके कारण वर्षों से इतनी राजनीति हो रही है. गौर तलब है कि सरकारों का आकार कम हो रहा है जिसके साथ ही नौकरियां घटती जानी हैं. आर्थिक समीक्षा बताती है कि सरकारी नौकरियों में बढ़ोतरी की गति एक फीसदी से भी कम है, जबकि संगठित निजी क्षेत्र में नौकरियों के बढऩे की रफ्तार 5.6 फीसदी रही है. लेकिन संगठित (सरकारी व निजी) क्षेत्र केवल छह फीसदी रोजगार देता है इसलिए रोजगार बाजार में इस हिस्से की घट-बढ़ कोई बड़ा फर्क पैदा नहीं करती.
सबसे ज्यादा रोजगार असंगठित क्षेत्र में हैं जिसका ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है अलबत्ता इतना जरूर पता है कि असंगठित क्षेत्र जैसे व्यापार व रिटेल, लघु उद्योग, परिवहन, भवन निर्माण, दसियों की तरह की सेवाएं भारत में किसी भी सरकारी तंत्र से ज्यादा रोजगार दे रहे हैं. यह सभी कारोबार भारत के विशाल जीविका तंत्र (लाइवलीहुड नेटवर्क) का हिस्सा हैं जो अपनी ग्रोथ के साथ रोजगार भी पैदा करते हैं.  

नौकरियां बढ़ाने के लिए भारत में विशाल जीविका तंत्र को विस्तृत करना होगा जिसके लिए भारतीय बाजार को और खोलना जरूरी है क्योंकि भारत में नौकरियां या जीविका अंततः निजी क्षेत्र से ही आनी हैं. यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरक्षण की बहस को कायदे से शुरू करना चाहता है तो उसे इस तथ्य पर सहमत होना होगा कि भारत में व्यापक निजीकरण, निवेश और विदेशी निवेश की जरूरत है ताकि रोजगार का बाजार बढ़ सके और मुट्ठीभर सरकारी नौकरियों के आरक्षण की सियासत बंद हो सके, जो अंततः उन तबकों को ही मिलती हैं जो कतार में आगे खड़े हैं. 

Wednesday, September 9, 2015

रुपया और राष्‍ट्रवाद



रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.
चीन की चरमराती अर्थव्यवस्था और ग्लोबल करेंसी व वित्तीय बाजारों में उठापटक का भारत तत्काल कोई बड़ा फायदा उठाए या न नहीं, लेकिन इस माहौल का एक बड़ा लाभ जरूर हो सकता है. इस वित्तीय बेचैनी के बीच हमारे नेता देश की करेंसी यानी रुपए को लेकर अपने दकियानूसी आग्रहों से निजात पा सकते हैं. भारत में, बीजेपी और वामदल हमेशा से इस ग्रंथि के शिकार रहे हैं कि राष्ट्रीय साख के लिए फड़कती मांसपेशियों वाली करेंसी जरूरी है. उन्होंने यह बात सफलता के साथ सड़क पर खड़े अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाई है कि रुपए का कमजोर होना आर्थिक पाप है.
लेकिन सियासत व बाजारों में पिछले एक साल के फेरबदल के बाद ऐसा संयोग बना है जब करेंसी जैसे एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण की कीमत में गिरावट को राष्ट्रीय शर्म बताकर चुनाव लडऩे वाली बीजेपी सत्ता में है और मजबूती देने वाले तमाम कारकों की मौजूदगी के बावजूद रुपया अवमूल्यन की नई तलहटी छू रहा है. यह अनोखी परिस्थिति मुद्रा यानी करेंसी को लेकर हमें अपनी रूढ़िवादी सोच से मुक्त होने और डॉ. मनमोहन सिंह के उस सूत्र को स्वीकार करने का निमंत्रण देती है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद दिया था कि ''विनिमय दर केवल एक मूल्य मात्र है जिसका प्रतिस्पर्धात्मक होना जरूरी है.''करेंसी अवमूल्यन को लेकर भारत की राजनीति गजब की रूढ़िवादी रही है. 1991 के उथल-पुथल भरे आर्थिक दौर पर कांग्रेस के नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश की ताजा किताब भारतीय राजनीति की रुपया ग्रंथि के बारे में दिलचस्प तथ्य सामने लाती है. जयराम रमेश संकट और सुधार के उस दौर में प्रधानमंत्री के सलाहकारों में शामिल थे. रमेश के संस्मरण बताते हैं कि रुपए को लेकर प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के आग्रह भले ही वामदलों या बीजेपी जैसे रूढ़िवादी न रहे हों लेकिन अवमूल्यन को लेकर वे बुरी तरह अहसज थे.
1991
के वित्तीय संकट के दौरान तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रिजर्व बैंक के जरिए, 1 जुलाई और 3 जुलाई, 1991 को रुपए की कीमत क्रमशः 7 9 फीसदी घटाई. उस वक्त तक यह रुपए का सबसे बड़ा अवमूल्यन था और वह भी सिर्फ  72 घंटों में. उस दौर में रुपए की कीमत पूरी तरह सरकार तय करती थी, आज की तरह बाजार नहीं. रमेश लिखते हैं कि प्रधानमंत्री राव इस फैसले से इतने असहज थे कि 3 जुलाई को सुबह वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बुलाकर दूसरा अवमूल्यन रोकने का आदेश दे दिया. डॉ. सिंह ने समझाने की भरसक कोशिश की लेकिन प्रधानमंत्री सहज नहीं हुए. अंततः सुबह 9.30 बजे डॉ. सिंह ने रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर डॉ. सी. रंगराजन से इसे रोकने को कहा लेकिन तब तक देर हो गई थी, रिजर्व बैंक सुबह नौ बजे रुपए के दूसरे और बड़े अवमूल्यन को अंजाम दे चुका था. डॉ. सिंह ने राहत की सांस ली और प्रधानमंत्री को उत्साह के साथ फैसला सूचित कर दिया. अलबत्ता, फैसला इतना सहज नहीं था. अवमूल्यन के बाद संसद में लंबे समय तक प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को अपनी पार्टी व विपक्ष की लानतें झेलनी पड़ीं.

1991
से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक देश में काफी कुछ बदल गया लेकिन रुपए को लेकर नेताओं की हीन ग्रंथि में कोई तब्दीली नहीं आई. सत्ता में बैठने के बाद नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली को इस बात का एहसास हो रहा होगा कि कि उन्होंने रुपए की गिरावट को जिस तरह देश की साख से जोड़ा था, वह हास्यास्पद था. बाजार के जानकार रुपए की उठापटक को टेक्निकल चार्ट पर पढ़ते हैं. इस चार्ट के मुताबिक, रुपए में ताजी गिरावट (3 सितंबर 66.24 रुपए प्रति डॉलर) 2013 का दौर जैसी दिख रही है, जब रुपया 68.80 तक टूट गया था.

2013
का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि कमजोर रुपए को देश की कमजोरी बताने के राजनैतिक अभियान उसी दौरान जन्मे थे. 2013 में कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर थीं. भारत में विदेशी मुद्रा की आवक-निकासी के सभी संतुलन ध्वस्त थे. हालत इस कदर बुरी थी कि रिजर्व बैंक को रुपए पर संकट टालने के लिए उपायों का पूरा दस्ता मैदान में उतारना पड़ा तब जाकर कहीं हालत सुधरी. लेकिन आज जब कच्चे तेल की कीमतें 44 डॉलर पर हैंफॉरेक्स रिजर्व 355 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर है, महंगाई घट रही है, व्यापार घाटा गिर रहा है, विदेशी आवक-निकासी में अंतर कम हो रहा है तब भी रुपया ताकत की हुंकार लगाने की बजाए 2013 की तर्ज पर गोते खा रहा है. यह परिस्थित सिद्ध करती है कि करेंसी एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण है, जिसे भावुक राष्ट्रीयता के संदर्भ में नहीं, बल्कि आर्थिक हालात की रोशनी में देखना ही समझदारी है.
 
वित्त मंत्री जेटली को रुपए की ताजा गिरावट का बचाव करना पड़े तो वे यही कहेंगे कि पिछले कुछ माह में फिलिपीन पेसो, थाई बाट और भारतीय रुपए के अलावा, उभरते बाजारों की सभी मुद्राएं गिरी थीं. इसलिए रुपए का 66-67 पहुंचना कोई बड़ी बात नहीं है. भारतीय मुद्रा निर्यात बाजार की अन्य प्रतिस्पर्धी मुद्राओं के मुकाबले कुछ ज्यादा ही मजबूत हो गई थी, इस अवमूल्यन से हमें निर्यात में बढ़त मिलेगी. यकीनन, उनके इस तर्क में आपको 1991 के डॉ. सिंह के ही शब्द सुनाई देंगे. जयराम रमेश की किताब में डॉ. सिंह का वह जवाब दर्ज है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद राज्यसभा में हुई बहस पर दिया था. उन्होंने कहा था कि अंग्रेज भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थे, औद्योगिक उत्पादों का निर्यातक नहीं. इसलिए घरेलू मुद्रा को हमेशा ताकतवर रखने के संस्कार भर दिए गए. रुपए का संतुलित अवमूल्यन हमें आधुनिक व प्रतिस्पर्धात्मक बनाता है तो वह राष्ट्र विरोधी कैसे हो जाएगा? आज डॉलर की कीमत 67 रुपए पर पहुंचते देख क्या मोदी-जेटली समेत पूरी बीजेपी यह स्वीकार करेगी कि हमेशा ताकतवर रुपए की वकालत ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति की हिमायत नहीं थी? क्या बीजेपी अब यह स्वीकार करेगी कि रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.