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Monday, May 2, 2016

निर्यात की ढलान


भारतीय निर्यात की गिरावट जटिल, गहरी और बहुआयामी हो चुकी है और सरकार पूरी तरह नीति शून्य और सूझ शून्य नजर आ रही है.


दुनिया भर में फैली मंदी के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्रोथ को अंधों में एक आंख वाला राजा कहने पर दो राय हो सकती हैं. रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को अतिआशावादी होना चाहिए या यथार्थवादी, इस पर भी मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इस बात पर कोई दो मत नहीं होंगे कि विदेश व्यापार के संवेदनशील हिस्से में गहरा अंधेरा है जो हर महीने गहराता जा रहा है. भारत का निर्यात 16 माह की लगातार गिरावट के बाद अब पांच साल के सबसे खराब स्तर पर है. निर्यात की बदहाली के लिए दुनिया की ग्रोथ में गिरावट को जिम्मेदार ठहराने का सरकारी तर्क टिकाऊ नहीं है, क्योंकि भारतीय निर्यात की गिरावट जटिल, गहरी और बहुआयामी हो चुकी है और सरकार पूरी तरह नीति शून्य और सूझ शून्य नजर आ रही है.

ग्लोबल ग्रोथ के उतार-चढ़ाव किसी भी देश के निर्यात को प्रभावित करते हैं लेकिन भारत के निर्यात की गिरावट अब ढांचागत हो गई है. पिछले 16 माह की निरंतर गिरावट के कारण निर्यात की प्रतिस्पर्धात्मकता (कांपिटीटिवनेस) टूट गई है. निर्यात में प्रतिस्पर्धात्मकता का आकलन विभिन्न देशों के बीच निर्यात में कमी या गिरावट की तुलना के आधार पर होता है. पिछले एक साल में दुनिया के निर्यात आंकड़ों की तुलना करने वाली एम्विबट कैपिटल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत का निर्यात अन्य देशों से ज्यादा तेज रफ्तार से गिरा है.

2015 की तीसरी तिमाही से 2016 की तीसरी तिमाही के बीच चीन के निर्यात की ग्रोथ रेट घटकर एक फीसदी रह गई जो इस दौर से पहले पांच फीसदी पर थी. बांग्लादेश 10 से तीन फीसदी, विएतनाम 16 से आठ फीसदी, कोरिया तीन से पांच फीसदी, दक्षिण अफ्रीका चार से शून्य फीसदी पर आ गया. इनकी तुलना में भारत का निर्यात जो ताजा मंदी से पहले छह फीसदी की दर से बढ़ रहा था, वह पिछले एक साल में 19 फीसदी गिरा है, जो दुनिया के विभिन्न महाद्वीपों में फैले दो दर्जन से अधिक प्रमुख निर्यातक देशों में सबसे जबरदस्त गिरावट है. ग्लोबल कमोडिटी बाजार में कीमतें घटने से ब्राजील और इंडोनेशिया का निर्यात तेजी से गिरा है लेकिन भारत की गिरावट उनसे ज्यादा गहरी है.

निर्यात की बदहाली की तुलनात्मक तस्वीर पर चीन काफी बेहतर है. यहां तक कि पाकिस्तान व बांग्लादेश की तुलना में भारत का निर्यात पांच और चार गुना ज्यादा तेजी से गिरा है. आंकड़ों के भीतर उतरने पर यह भी पता चलता है कि भारत से मैन्युफैक्चर्ड उत्पादों के निर्यात की गिरावट, उभरते बाजारों की तुलना में ज्यादा तेज है. इनमें ऊंची कीमत वाले ट्रांसपोर्ट, मशीनरी और इलेक्ट्रॉनिक्स को तगड़ी चोट लगी है.

पिछले तीन साल में डॉलर के मुकाबले रुपया करीब 24 फीसदी टूटा है. आम तौर पर कमजोर घरेलू मुद्रा निर्यात की बढ़त के लिए आदर्श मानी जाती है, अलबत्ता कमजोर होने के बावजूद भारतीय रुपया निर्यात में प्रतिस्पर्धी देशों की मुद्राओं के मुकाबले मजबूत है इसलिए निर्यात गिरा है. ऐसे हालात में निर्यातकों को सरकारी नीतिगत मदद की जरूरत थी जो नजर नहीं आई. प्रतिस्पर्धात्मकता में गिरावट निर्यातकों को लंबे समय के लिए बाजार से बाहर कर देती है, जिसके चलते मांग बढऩे के बाद बाजार में पैर जमाना मुश्किल हो जाता है.

भारतीय उत्पादों की प्रतिस्पर्धात्मकता घटने का असर आयात पर भी नजर आता है. वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि जब से ग्लोबल ट्रेड में सुस्ती शुरू हुई है, भारत का चीन से आयात बढ़ गया है. इसमें मैन्युफैक्चर्ड सामान का हिस्सा ज्यादा है. मतलब साफ है कि भारतीय उत्पाद निर्यात व घरेलू, दोनों ही बाजारों की प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पा रहे हैं.

भारत का सेवा निर्यात भी ढलान पर है. रिजर्व बैंक का ताजा आंकड़ा बताता है कि फरवरी 2015 में सेवाओं के निर्यात से प्राप्तियों में 12.55 फीसदी गिरावट आई है. सूचना तकनीक सेवाओं के निर्यात में ग्रोथ बनी हुई है लेकिन रफ्तार गिर रही है.

दो सप्ताह पहले इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि सरकार के आंकड़े साबित करते हैं कि मुक्त व्यापार समझौते विदेश व्यापार बढ़ाने का सबसे बड़ा साधन हैं अलबत्ता इस उदारीकरण को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार कुछ ज्यादा ही रूढ़िवादी है. मुक्त व्यापार की दिशा में रुके कदम निर्यात में गिरावट की बड़ी वजह हैं. भारत का कपड़ा व परिधान निर्यात इस उलझन का सबसे ताजा नमूना है. कपड़ा निर्यात में भारत अब पाकिस्तान से भी पीछे हो गया है. 2014 में पाकिस्तान यूरोपीय समुदाय की वरीयक व्यापार व्यवस्था (जनरल सिस्टम ऑफ प्रीफरेंसेज) का हिस्सा बन गया है और इसके साथ ही वहां के कपड़ा निर्यातकों को करीब 37 बड़े बाजार मिल गए, जहां वे आयात शुल्क दिए बगैर निर्यात कर रहे हैं. कॉटन टेक्सटाइल एक्सपोर्ट्स एसोसिएशन के आंकड़े बताते हैं कि भारत करीब 19 कपड़ा और 18 परिधान उत्पादों का बाजार पाकिस्तान के हाथों खो चुका है. इस बाजार में वापसी के लिए भारत को यूरोपीय समुदाय से व्यापार समझौते की जरूरत है.

कपड़ा निर्यात उन कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में एक है जहां निर्यात रोजगारों का सबसे बड़ा माध्यम है. भारत के निर्यात का एक बड़ा हिस्सा श्रम आधारित उद्योगों से आता है जिसमें टेक्सटाइल के अलावा हस्तशिल्प, रत्न आभूषण आदि प्रमुख हैं. हकीकत यह है कि भारत का 45 फीसदी निर्यात छोटी और मझोली इकाइयां करती हैं, निर्यात घटने के कारण बेकारी बढ़ रही है और नौकरियों के संकट को गहरा कर रही है. 

विदेश व्यापार मोदी सरकार की नीतिगत कमजोरी बनकर उभरा है. प्रधानमंत्री मोदी के ग्लोबल अभियानों की रोशनी में देखने पर यह बदहाली और मुखर होकर सामने आती है. पिछले दो साल में निर्यात बढ़ाने को लेकर कहीं कोई ठोस रणनीति नजर नहीं आई है. दूसरी तरफ, यह असमंजस और गाढ़ा होता गया है कि भारत दरअसल विदेश व्यापार के उदारीकरण के हक में है या बाजार को बंद ही रखना चाहता है. आर्थिक विकास दर के आंकड़ों को लेकर रिजर्व बैंक गवर्नर की खरी-खरी पर सरकार के नुमाइंदों में काफी गुस्सा नजर आया है. अलबत्ता इस क्षोभ का थोड़ा-सा हिस्सा भी अगर निर्यात की फिक्र में लग जाए तो शायद इस मोर्चे पर पांच साल की सबसे खराब सूरत बदलने की उम्मीद बन सकती है.

Monday, April 4, 2016

व्यापार कूटनीति का शून्य


भारत का निर्यात आज अगर 15 माह के न्यूनतम स्तर पर है तो शायद इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि संरक्षणवादी आग्रहों के चलते मोदी सरकार ने मुक्त बाजार समझौतों की रफ्तार तेज नहीं की.

विदेश नीति की सफलता को मापने का क्या कोई ठोस तरीका हो सकता है, ठीक उसी तरह जैसे कि आर्थिक विकास दर को देखकर आर्थिक नीतियों की कामयाबी या नाकामी मापी जाती है? कूटनीतिक संवादों में अमूर्त रणनीतियों का एक बड़ा हिस्सा होता है लेकिन इतनी अमूर्तता तो आर्थिक नीतियों में भी होती है. फिर भी आर्थिक विकास दर से आर्थिक नीतियों के असर का संकेत तो मिल ही जाता है. यदि विदेश नीति के सैद्धांतिक पहलू को निकाल दिया जाए तो विदेश व्यापार यानी निर्यात-आयात प्रदर्शन से किसी सरकार की विदेश नीति की सफलता को नापा जा सकता है, क्योंकि द्विपक्षीय व्यापार और पूंजी की आवाजाही किसी देश के ग्लोबल कूटनीतिक रिश्तों की बुनियाद है. विदेश नीति की सफलता को ठोस ढंग से नापने का फॉर्मूला शायद यह हो सकता है कि किसी सरकार के मातहत विभिन्न देशों के साथ हुए वरीयक (प्रिफ्रेंशियल) व्यापार समझौतों को देखा जाए, क्योंकि जितने अधिक समझौते, उतना अधिक विदेश व्यापार.
 यह फॉर्मूला हमने नहीं, 2015-16 की आर्थिक समीक्षा ने दिया है जो विदेश नीति की सफलता को परखने का एक नया पैमाना सुझाती है. अब जबकि मोदी सरकार के भव्य कूटनीतिक अभियानों की गर्द बैठ चुकी है और भारत का निर्यात अपनी सबसे लंबी मंदी से जूझ रहा है, तब आर्थिक समीक्षा के इस फॉर्मूले की कसौटी पर मोदी सरकार की विदेश नीति सवालों में घिरती नजर आती है.
दरअसल, बीते बरस जब प्रधानमंत्री न्यूयॉर्क, सिडनी या वेम्बले के स्टेडियमों में अनिवासियों से संवाद कर रहे थे, ठीक उसी समय उनकी सरकार के रूढ़िवादी आग्रह भारत के विदेश व्यापार में उदारीकरण की कोशिशों को श्रद्धांजलि दे रहे थे और मुक्त वरीयक व्यापार संधियों को रोक रहे थे जो ताजा अध्ययनों में भारत की व्यापारिक सफलता का आधार बनकर उभरे हैं. एफटीए को लेकर स्वदेशी दबावों और दकियानूसी आग्रहों के चलते सरकार ने पिछले साल अगस्त में यूरोपीय संघ मुक्त व्यापार संधि (इंडिया-ईयू एफटीए) पर बातचीत रोक दी जिसे आसियान के बाद भारत का सबसे महत्वाकांक्षी एफटीए माना जा रहा है.
 आर्थिक समीक्षा की रोशनी में एफटीए की व्यवस्था के भारत के विदेश व्यापार पर असर की ठोस तथ्यपरक पड़ताल की जा सकती है. इस पड़ताल का एक सूत्रीय निष्कर्ष यह है कि जिन देशों के साथ भारत ने दोतरफा या बहुपक्षीय मुक्त या वरीयक व्यापार समझौते (एफटीए/पीटीए) किए हैं, उनके साथ 2010 से 2014 के बीच कुल व्यापार में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. वजहः एफटीए/पीटीए में शामिल देश दूसरे देश से होने वाले आयात के लिए कस्टम ड्यूटी में कमी करते हैं और व्यापार प्रतिबंधों को सीमित करते हैं जिसका सीधा असर व्यापार में बढ़त के तौर पर सामने आता है.
दुनिया में व्यापार समझौतों को लेकर तीन तरह के मॉडल सक्रिय हैं. पहला वर्ग डब्ल्यूटीओ, ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) जैसी बहुपक्षीय व्यापार संधियों का है. डब्ल्यूटीओ बहुत सफल नहीं रहा जबकि टीपीपी की जमीन अभी तैयार हो रही है. दूसरा वर्ग क्षेत्रीय ट्रेड ब्लॉक आसियान (दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का संगठन), नाफ्टा (उत्तर अमेरिका), ईयू (यूरोपीय समुदाय) का है जो क्षेत्रीय व्यापार बढ़ाने में काफी सफल रहे हैं. तीसरा वर्ग एफटीए का है जो दुनिया में व्यापार और निवेश बढ़ाने का सबसे प्रमुख जरिया बनकर उभरे हैं. इनमें देशों के बीच द्विपक्षीय समझौते और ट्रेड ब्लॉक के साथ समझौते शामिल हैं. इस होड़ में भारत काफी पीछे है.
भारत ने एफटीए की शुरुआत 1970 में इंडिया अफ्रीका ट्रेड एग्रीमेंट के साथ की थी लेकिन 2010 तक केवल 19 एफटीए हो पाए हैं जबकि विश्व में 2004 से लेकर 2014 तक हर साल औसतन 15 एफटीए हुए हैं, बीच के कुछ वर्षों में तो इनकी संख्या 20 और 25 से ऊपर रही है. भारत के ज्यादातर एफटीए एशिया में हैं. एशिया से बाहर दो एफटीए मर्कोसूर (ब्राजील, अर्जेंटीना, उरुग्वे, पैराग्वे, वेनेजुएला) और चिली के साथ हैं.
व्यापार की मात्रा के आधार पर एशिया में भारत के सबसे महत्वपूर्ण एफटीए आसियान, कोरिया और जापान के साथ हैं. आर्थिक समीक्षा के मुताबिक, इन देशों के साथ एफटीए होने के बाद भारत के व्यापार में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इन देशों के अलावा जिन अन्य देशों से भारत के एफटीए हैं, उन देशों के साथ एफटीए से पहले, 2007 से 2014 के दौरान भारत के निर्यात की वृद्धि दर 13 फीसदी थी जो एफटीए के बाद 22 फीसदी हो गई जो मुक्त व्यापार समझौतों की सफलता का प्रमाण है.
आसियान के साथ भारत का एफटीए (2010) सबसे सफल माना जाता है. ताजा आंकड़े ताकीद करते हैं कि 2014 तक चार वर्षों में आसियान देशों को भारत का निर्यात 25 फीसदी बढ़ा जो एफटीए से पहले 14 फीसदी था. आयात में बढ़ोतरी 19 फीसदी रही जो एफटीए से पहले 13 फीसदी थी. आसियान की सफलता के बाद भारत यूरोपीय संघ के बीच एफटीए को लेकर उम्मीदें काफी ऊंची थीं क्योंकि यूरोप दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है और भारतीय निर्यात में नई ऊर्जा के लिए इस बाजार में प्रवेश जरूरी है. लेकिन अफसोस कि मोदी सरकार के असमंजस और रूढ़िवादिता के चलते यह महत्वपूर्ण पहल जहां की तहां ठहर गई. नतीजतन इस सप्ताह ब्रसेल्स में ईयू के साथ भारत का शिखर सम्मेलन तो हुआ लेकिन सबसे महत्वपूर्ण एजेंडे यानी एफटीए पर कोई बात नहीं बनी और पूरा आयोजन केवल इवेंट डिप्लोमेसी बनकर रह गया.
यदि आर्थिक समीक्षा सही है तो स्वदेशी पोंगापंथी के दबाव में ईयू एफटीए को रोकना सरकार की गलती है. दरअसल, किसी भी तरह वरीयक व्यापार समझौतों को रोकना या उन पर अपनी तरफ से पहल नहीं करना एक बड़ी कूटनीतिक चूक है जो पिछले दो साल में सरकार ने बार-बार की है. भारत का निर्यात आज अगर 15 माह के न्यूनतम स्तर पर है तो शायद इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि संरक्षणवादी आग्रहों के चलते मोदी सरकार ने मुक्त बाजार समझौतों की रफ्तार तेज नहीं की. प्रधानमंत्री को यह समझना होगा कि किसी भी देश के विदेश व्यापार की सफलता अब प्रिफ्रेंशियल ट्रेड एग्रीमेंट्स पर निर्भर है और यह एग्रीमेंट कूटनीतिक अभियानों से निकलते हैं. उनके कूटनीतिक अभियानों का जादू इसलिए उतरने लगा है क्योंकि उनकी डिप्लोमेसी में मुक्त और उदार बाजार की चेतना नदारद है.