Showing posts with label India GDP growth. Show all posts
Showing posts with label India GDP growth. Show all posts

Monday, November 26, 2018

आगे ढलान है !




पिछले चार साल में मेक इन इंडिया के जरिए उद्योग के सरदारों को रिझा रही सरकार को अचानक बेचारे बेबस और नोटबंदी-जीएसटी के मारे छोटे उद्योग क्यों याद आ गए, जिन्हें सामने रखकर वित्त मंत्रालय ने रिजर्व बैंक पर तोप तान दी है. 




हम इस पर आश्चर्य कर सकते हैं, यह जानते हुए भी कि बैंक और वित्तीय प्रणाली कर्ज के फंदे में फंसकर बुरी तरह हांफ रहे हैं और छह माह बाद यह मुसीबत फट पड़ेगी, फिर भी सरकार आखिर बैंकों को कर्ज की रेवडिय़ों का बाजार खोलने के लिए क्यों कह रही है?

दरअसल, चुनाव सामने है और भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर बन आई है. मौसम बिगड़ रहा है. पिछले दो माह का घटनाक्रम बता रहा है कि बड़े चुनाव से पहले ग्रोथ के आंकड़े सरकार के चुनाव प्रचार को बदमजा कर सकते हैं. कर्ज को लेकर सरकार की ताजा बेचैनी इसी डर से उपजी है.

आर्थिक विकास दर में अब तेज गिरावट के आसार हैं. चार कमजोरियां पहले से ही मौजूद हैं. एक—नोटबंदी और जीएसटी के बाद से बाजार में मांग नदारद है क्योंकि न तो निजी निवेश में बढ़त हो रही है और न उपभोक्ता खपत में. दो—ब्याज दरों में बढ़ोतरी का दौर प्रारंभ हो चुका है. तीन—जीएसटी की चपत से सरकार के राजस्व में गिरावट है, घाटा और नतीजतन कर्ज बढ़ रहा है. और चार—बकाया कर्ज से परेशान बैंक नए कर्ज बांटने की स्थिति में नहीं हैं और न ही सरकार अपनी जेब से इन बैंकों के उद्धार का बोझ उठा सकती है.

इन तीन बुनियादी चुनौतियों के बावजूद अर्थव्यवस्था किसी तरह ढुलक रही थी लेकिन सितंबर के बाद माहौल बुरी तरह बदल गया. रुपए की कमजोरी और कच्चे तेल की कीमतों में उफान के बीच वित्तीय बाजार में संकट का चक्र शुरू हो रहा है.

सितंबर के पहले सप्ताह में अचानक कई गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) बैंकों की तरह ही बकाया कर्ज की बीमारी की चपेट में आ गईं. ठीक यही मौका था जब बाजार में ब्याज दर भी बढऩे लगी थी इसलिए उनके लिए नया कर्ज जुटाना मुश्किल हो
गया और बाजार में पूंजी की कमी हो गई. 

अब खतरा विकास दर गिरने का है क्योंकि...

1. बैंकों के बकाया कर्ज के जाल में फंसने के बाद गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां कर्ज और पूंजी का प्रमुख स्रोत थीं. 2014-18 के बीच एनबीएफसी कर्ज पर अर्थव्यवस्था की निर्भरता पांच फीसदी से अधिक बढ़ी है. एनबीएफसी के डूबने के साथ सबसे बड़ा खतरा अचल संपत्ति के बाजार पर है जहां हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों की कर्ज की आपूर्ति 2013-18 के बीच 27 फीसदी की गति से बढ़ी है. एनबीएफसी और हाउसिंग फाइनेंस से कर्ज की आपूर्ति में कमी या महंगे कर्ज की वजह से अचल संपत्ति बाजार में गहरे संकट का अंदेशा है. खतरा है कि कई अचल संपत्ति कंपनियां और डेवलपर मुश्किल में होंगे जैसा कि आइएलएफएस के साथ हुआ है. सरकार बेतरह उलझे कर्ज बाजार में बैंकों को और ज्यादा जोखिम की तरफ धकेल रही है.

2. बाजार में मंदी के ताजा दौर ट्रैक्टर, मोबाइल फोन और दूसरे उपभोक्ता उत्पादों की खरीद एनबीएफसी के कर्ज पर निर्भर थी. यहां मांग और बिक्री बुरी तरह प्रभावित हुई है, जिसका असर इस बार त्योहारी मौसम की खरीद पर भी दिखा. छोटे कारोबारियों के रोजमर्रा की पूंजी और माइक्रोफाइनेंस की जरूरतें भी इस समानांतर बैंकिंग से पूरी हो रही थीं.

3. सरकार ने भले ही रिजर्व बैंक के जरिए बैंकों से कर्ज पाइप खुलवाने की कोशिश की है, बैंकों के एनपीए का इलाज रोक दिया है लेकिन कर्ज की महंगाई रोकना उसके बस का नहीं है. पिछले दो महीने में बैकों ने नए कर्ज पर ब्याज दरें बढ़ाई हैं. जमा दरें कम होने की गुंजाइश नहीं है इसलिए एनबीएफसी के साथ ही उपभोक्ताओं व कारोबारियो को मिलने वाला कर्ज भी महंगा होगा और इसके अलावा अमेरिका व यूरोप में भी ब्याज दरें बढऩे लगी हैं.

ब्याज दरों और ग्रोथ का रिश्ता संवेदनशील है. भारतीय अर्थव्यवस्था का ताजा इतिहास बताता है कि अगर छोटी अवधि के कर्ज (जैसा कि अभी है) पर ब्याज दरों में बढ़त लंबे समय तक जारी रहती है तो विकास दर में गिरावट तय है. चुनाव सामने है और सरकार का बजट बेपटरी है इसलिए नए सरकारी निवेश की गुंजाइश कम है.

अगली तिमाही से जीडीपी यानी आर्थिक विकास दर में ढलान शुरू हो सकती है. अगले साल फरवरी से मई तक जब देश में चुनाव का अश्वमेध यज्ञ चल रहा होगा तब बड़ी बात नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर ढलान की नई मंजिलें नाप रही हो. 2020 में विकास दर 6 फीसदी तक लुढ़कने के खतरे जायज हैं क्योंकि तब तक वित्तीय तंत्र में बीमारियां अपने उफान पर होंगी. यानी कि आर्थिक ग्रोथ के मामले में 2019 में हम शायद वहीं खड़े होंगे 2014 में जहां से चले थे.

Monday, August 27, 2018

कुछ बात है कि...



भारत के व्यंजन, चीन के हॉटपॅाट से ज्यादा मसालेदार हो सकते हैं और भारत की अर्थव्यवस्था का तापमान भी चीन से अधिक हो सकता है. इस समय जब चीन में जरूरत से ज्यादा तेज आर्थिक विकास (ओवरहीटिंग) की चर्चा है तो भारत में भी अर्थव्यवस्था की विकास दर खौल रही है. (द इकोनॉमिस्ट, नवंबर 2006)

कांग्रेस जो एनडीए के जीडीपी आंकड़ा बदल फॉर्मूले के बाद यूपीए के दौर में विकास दर की चमकार पर नृत्यरत है, उसके नेता क्या याद करना चाहेंगे कि जब 2006-07 की दूसरी तिमाही में भारत की विकास दर 8.9 फीसदी पहुंच गई थी, तब वे क्या कह रहे थे? यूपीए सरकार आशंकित थी भारत की विकास दर कुछ ज्यादा ही तेज हो गई है. इसलिए कर्ज की मांग कम करके ब्याज दर बढ़ाना गलत नहीं है. जीडीपी के नए ऐतिहासिक आंकड़ों के मुताबिक, इसी दौरान भारत की विकास दर ने पहली बार दस फीसदी की मंजिल पर हाजिरी लगाई थी.

और भाजपा का तो कहना ही क्या! फरवरी 2015 में जब उसने जीडीपी (आर्थिक उत्पादन की विकास दर) की गणना का आधार और फॉर्मूला बदला था तभी हमने इस स्तंभ में लिखा था इन आंकड़ों को जब भी इनका अतीत मिलेगा तो यूपीए का दौर चमक उठेगा यानी कि मंदी और बेकारी के जिस माहौल ने 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा की अभूतपूर्व जीत का रास्ता खोला था वह इन नए आंकड़ों में कभी नजर नहीं आएगा.

जीडीपी के नए फॉर्मूले और बेस इयर में बदलाव से जो आंकड़े हमें मिले हैं उनके मुताबिक यूपीए के दस साल के दो कार्यकालों में आर्थिक विकास दर 8.1 फीसदी गति से बढ़ी जिसमें दो साल (2007-08, 2010-11) दस फीसदी विकास दर के थे और दो साल पांच फीसदी और उससे नीचे की विकास दर के. मोदी सरकार के नेतृत्व में औसत विकास दर 7.3 फीसदी रही.

जीडीपी गणना का नया तरीका वैज्ञानिक है. कांग्रेस इस आंकड़े पर इतराएगी और भाजपा इस बहस को हमेशा के लिए खत्म करना चाहेगी कि उसकी विकास दर का फर्राटा यूपीए से तेज था क्योंकि नए आंकड़े आने से एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने लाल किले के शिखर से, अपने नेतृत्व में भारत की रिकार्ड आर्थिक विकास दर पर जयकारा लगाया था.

लेकिन सियासत से परे क्या हमारे नेता यह सीखना चाहेंगे कि आर्थिक आंकड़े अनाथ नहीं होते, उनका अतीत भी होता है और भविष्य भी और ये आंकड़े उनकी सियासत के नहीं इस देश की आर्थिक चेतना के हैं. नई संख्याएं हमें ऐसा कुछ बताती हैं जो शायद पहले नहीं देखा गया था.

- पिछले दो दशकों में भारत आर्थिक जिजीविषा और वैश्विक संपर्क की अनोखी कहानी बन चुका है. दुनिया की अर्थव्यवस्था में जब विकास दर तेज होती है तो भारत दुनिया के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ता है जैसा यूपीए-एक के दौर में हुआ. लेकिन जब दुनिया की विकास दर गिरती है तो भारत झटके से उबर कर सबसे तेजी से सामने आ जाता है. 2008 में लीमैन संकट के एक साल बाद ही भारत की विकास दर दोबारा दस फीसदी पर पहुंची.
- पिछले दो वर्षों में दुनिया की विकास दर में तेजी नजर आई. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) का आकलन है कि 2018 में यह 3.9 फीसदी रहेगी. एक दशक बाद विश्व व्यापार भी तीन फीसदी की औसत विकास दर को पार कर (2016 में 2.4 प्रतिशत) 2017 में 4.7 प्रतिशत की गति से बढ़ा. यदि पिछले चार साल में भारत का उदारीकरण तेज हुआ होता तो क्या हम दस फीसदी का आंकड़ा पार कर चुके होते?

- भारतीय अर्थव्यवस्था की समग्र विकास दर अब उतनी बड़ी चुनौती नहीं है. अब फिक्र उन दर्जनों छोटी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं (क्षेत्र, राज्य, नगर) की करनी है जो भारत के भीतर हैं. क्या यह आर्थिक योजना को बदलने का सबसे सही वक्त है?

- जीडीपी आंकड़ों का नवसृजित इतिहास बताता है कि दस फीसदी विकास दर की छोटी-छोटी मंजिलें पर्याप्त नहीं. देश को लंबे वक्त तक दस फीसदी की गति से भागना होगा. इसमें 12-14 फीसदी की मंजिलें भी हों. निरंतर ढांचागत सुधार, सरकार का छोटे से छोटे होता जाना और विकास का साफ-सुथरा होना जरूरी है.

हमारे नेता तेज विकास पर सार्थक बहस करें या नहीं, उनकी मर्जी लेकिन उन्हें उदारीकरण जारी रखना होगा. यह आंकड़े जो बेहद उथल-पुथल भरे दौर (2004-2018) के हैं, बताते हैं कि सियासत के असंख्य धतकरमों, हालात की उठापटक और हजार चुनौतियों के बावजूद यह देश अवसरों को हासिल करने और आगे बढऩे के तरीके जानता है.

Tuesday, June 14, 2016

आंकड़ों की चमकार

सरकार के आंकड़ों को लेकर संदेह के संवादों  का  खतरा अब बढऩे लगा है.  

थ्यसंगत विमर्श में रुचि लेने वाले एक मित्र से जब मैंने पिछले सप्ताह कहा कि देश में बिजली का उत्पादन मांग से ज्यादा यानी सरप्लस हो गया है तो उनके माथे पर बल पड़ गए. वे बिजली की व्यवस्था में पीक डिमांड, एवरेज और रीजनल सरप्लस जैसे तकनीकी मानकों से अपरिचित नहीं थे लेकिन बार-बार बिजली जाने से परेशान, पसीना पोंछते मेरे मित्र के गले यह बात उतर नहीं रही थी कि सचमुच मांग से ज्यादा बिजली बनने लगी है.

उनकी यह हैरत उस मध्यवर्गीय उपभोक्ता जैसी ही थी जो सब्जी, तेल, दाल खरीदते समय यह नहीं समझ पाता कि महंगाई यानी मुद्रास्फीति में रिकॉर्ड कमी के आंकड़े ब्रह्मांड के किस ग्रह से आते हैं. ठीक इसी तरह रोजगार में कमी, सूखे के हालात, मांग में गिरावट और कंपनियों की बिक्री के नतीजे पढ़ते हुए, आर्थिक विकास दर के आठ फीसदी (7.9 फीसदी) के करीब पहुंचने के ताजा आंकड़े एक तिलिस्मी दुनिया में पहुंचा देते हैं.

हमने ऊपर जिन तीन आंकड़ों का जिक्र किया है, वे तकनीकी तौर पर सही हो सकते हैं, लेकिन शायद एक विशाल देश में आंकड़ों का व्यावहारिक तौर पर सही होना और ज्यादा जरूरी है, क्योंकि सांख्यिकीय पैमानों की बौद्धिक बहस में टिकाऊ होने के बावजूद अगर बड़े और प्रमुख आंकड़े व्यावहारिक हकीकत से कटे हों तो उनकी राजनैतिक विश्वसनीयता पर शक-शुबहे लाजिमी हैं.

सबसे पहले बिजली को लें, जो गर्मी में सबसे ज्यादा छकाती है. केंद्रीय बिजली अधिकरण (सीईए) ने जैसे ही कहा कि इस साल बिजली का उत्पादन सरप्लस यानी मांग से ज्यादा हो जाएगा तो कई मंत्रियों के ट्विटर हैंडल चिचिया उठे. सीईए ने बताया था कि देश में पीक डिमांड (सर्वाधिक मांग के समय) और नॉन पीक डिमांड (औसत मांग) के समय, बिजली का उत्पादन मांग से क्रमश 3.1 फीसदी और 1.1 फीसदी ज्यादा रहेगा. यह आंकड़ा बिजली की मांग और आपूर्ति पर आधारित है, घंटों और स्थान के आधार पर परिवर्तनशील है. सरकार ने कोयले की बेहतर आपूर्ति के आधार पर बिजली उत्पादन में क्रांति का दावा किया तो कांग्रेसी कह उठे कि काम तो पिछले एक दशक में हुआ है, बीजेपी सरकार तो उसकी मलाई खा रही है.

बहरहाल, अगर आपके इलाके में खूब बिजली कटती है (जो अखिल भारतीय सच है) तो मांग से ज्यादा बिजली उत्पादन के दावे पर भरोसा असंभव है. अलबत्ता अगर तकनीकी चीर-फाड़ करें तो लगेगा कि सीईए बजा फरमाता है. सीईए ने एक निर्धारित समय (घंटा भी हो सकता है) पर पूरे देश में बिजली की मांग व आपूर्ति का औसत निकाला जो उत्पादन में सरप्लस बताता जान पड़ता है. यह स्थिति पिछले साल की तुलना में बेहतर है.

इस तथ्य के बावजूद यह समझना जरूरी है कि भारत में सबसे बुरे वर्षों में भी अलग-अलग समय पर राज्यों में बिजली का उत्पादन सरप्लस रहा है लेकिन इसके साथ ही देश के कई दूसरे हिस्से हमेशा बिजली की कटौती झेलते हैं. कई जगह बिजली कंपनियां घाटा कम करने के लिए कटौती करती रहती हैं. इसलिए बिजली के तात्कालिक सरप्लस उत्पादन का आंकड़ा तकनीकी तौर पर भले ही सही हो, लेकिन इस गर्मी में अक्सर बिजली गायब रहने के दैनिक तजुर्बे से बिल्कुल उलट है जो सरकार के जोरदार दावे पर उत्साह के बजाए खीझ पैदा करता है.

अप्रैल में बढ़त दर्ज करने से पहले तक थोक कीमतों वाली महंगाई पिछले 18 महीने से शून्य से नीचे थी. फुटकर महंगाई की दर भी ताजा बढ़ोतरी से पहले तक पांच फीसदी से नीचे आ गई थी. आंकड़े सिद्धांततः सही हो सकते हैं, लेकिन यहां भी तकनीकी पेच है. खुदरा महंगाई दर जिस सर्वेक्षण पर आधारित होती है, उसके आंकड़े 310 कस्बों और 1,180 गांवों से जुटाए जाते हैं. इस व्यवस्था में गलतियों की भरपूर गुंजाइश है. इन कमजोर आंकड़ों से जो सूचकांक बनता है, उसमें मौसमी चीजों (सब्जी, फल), दूध और दालों की कीमतों का हिस्सा कम है. कपड़ों, शिक्षा परिवहन के खर्चों की गणना का फॉर्मूला भी पुराना है. इसलिए अक्सर सब्जी की दुकान पर खड़े होकर जो महंगाई महसूस होती है, मुद्रास्फीति के घटने के आंकड़े उस पर नमक मलते जान पड़ते हैं.

भारत में जीडीपी के ताजा आंकड़े तो कल्पनाओं की बाजीगरी लगते हैं. मार्च, 2016 की तिमाही में जीडीपी की करीब 51 फीसदी ग्रोथ डिस्क्रीपेंसीज या असंगतियों के चलते आई है. चौंकिए नहीं, जीडीपी की गणना के फॉर्मूले में एक कारक का नाम ही असंगति है. ठोस आंकड़ों के अभाव में सरकार उत्पादन व खर्च का एक मोटा-मोटा अंदाज लगा लेती है और जीडीपी की ग्रोथ तय कर दी जाती है. यह अंदाजा ही डिस्‍क्रिपेंसी या असंगति है.

सरकार के प्रधान आंकड़ाकार टीसीए अनंत को कहना पड़ा कि आंकड़े मिलने में देरी के कारण डिसक्रिपेंसीज कुछ ज्यादा ही हो गई हैं. लेकिन कितनी ज्यादा? इस असंगति के खाते ने मार्च, 2016 की तिमाही में जीडीपी में 143 लाख करोड़ रु. का उत्पादन जोड़ दिया, जो 2015 की इसी तिमाही में केवल 29,933 करोड़ रु. था. आंकड़ों के विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर असंगतियों की इस भेंट को जीडीपी से निकाल दें तो मार्च की तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 7.9 नहीं बल्कि 3.9 फीसदी रह जाएगी, क्योंकि इनके अलावा सरकार के खर्च में बढ़ोतरी मामूली है, निजी निवेश व निर्यात गिरा है, जिनके दम पर जीडीपी बढ़ता है.

ध्यान रखना जरूरी है कि विकास और बदलाव संख्याओं में नहीं, जमीन पर महसूस होता है जैसा कि रेलवे की सेवाओं में या काले धन को लेकर नजर आ रहा है. लेकिन ऐसा हर क्षेत्र में नहीं हो पाया है. सरकारें हमेशा अपनी उपलब्धियों का प्रचार करती हैं लेकिन आंकड़ों में गफलत साख के लिए खतरनाक हो सकती है.

पिछले दो साल में सरकारी आर्थिक आंकड़ों पर निवेशकों का भरोसा कम हुआ है. वे आंकड़ों की स्वतंत्र पड़ताल को मजबूर हो रहे हैं. सरकारी दावे तकनीकी तौर पर सही हो सकते हैं लेकिन अगर आंकड़े असंगति से भरे और व्यावहारिकता से कटे हों तो इनके अति सुहानेपन के विपरीत एक प्रतिस्पर्धी संवाद पैदा होता है जो बेहतरी की तथ्यात्मक कोशिशों को भी नकारात्मकता और शक-शुबहे से भर देता है. सरकार के आंकड़ों को लेकर संदेह के संवादों का खतरा अब बढऩे लगा है.  


Monday, February 23, 2015

टैक्स इन इंडिया

टैक्स बढ़ाकर उसे सुधार और संरक्षण की पैकेजिंग में पेश करने का अवसर कभी-कभी ही आता है, वित्त मंत्री अरुण जेटली इस बजट में शायद यह मौका चूकना नहीं चाहेंगे

टैक्स से चिढ़ने वालों के बीच यह कहावत मशहूर है कि आप टैक्स चुकाते नहीं, वे टैक्स वसूलते हैं. टैक्स को पसंद भी कौन करता है? लेकिन टैक्स ही वह पहलू है जिसके चलते बजट नाम की कवायद एक बड़ी आबादी के लिए दिलचस्प हो जाती है. इसके अलावा बजट में जो भी होता है, उससे भारत के आधा फीसदी लोगों की जिंदगी प्रभावित नहीं होती. मोदी सरकार के पहले वास्तविक बजट (जुलाई का बजट सिर्फ आठ माह का था) का इंतजार भले ही बड़ी स्कीमों सुधारों के लिए किया जा रहा हो लेकिन बजट की बुनियाद, आर्थिक हालात और भविष्य की तैयारियां बताती हैं कि बजट की असली इबारत इसके टैक्स प्रस्तावों में छिपी हो सकती है. टैक्स से हमारा मतलब इनकम टैक्स से हरगिज नहीं है जो केवल मुट्ठी भर लोगों की चिंता है. हम तो सबसे बड़े टैक्स परिवार की बात कर रहे हैं जो खपत उत्पादन पर (एक्साइज, कस्टम्स और सर्विस टैक्स) लगता है और सबको प्रभावित करता है. टैक्स बुरे हैं लेकिन टैक्स बढ़ाकर उसे सुधार और संरक्षण की पैकेजिंग में पेश करने का अवसर कभी-कभी ही आता है, वित्त मंत्री अरुण जेटली शायद यह मौका चूकना नहीं चाहेंगे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब मेक इन इंडिया का बिगुल बजाया था तब उन्हें यह पता नहीं था कि सस्ते आयात के चलते भारत में उत्पादन किस कदर गैर-प्रतिस्पर्धात्मक है. मेक इन इंडिया पर दो तीन बैठकों के बाद ही सरकार को इलहाम हो गया कि आयात महंगा किए बिना मैन्युफैक्चरिंग को प्रतिस्पर्धात्मक बनाना असंभव है, क्योंकि ब्याज दरें, जमीन और बिजली सस्ती करना या श्रम कानूनों में बदलाव दूर की कौड़ी हैं. अगर यह बजट मेक इन इंडिया को हकीकत की जमीन देना चाहेगा तो तमाम उत्पादों पर कस्टम ड्यूटी में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हो सकती है. कई आयात ऐसे हैं जिन पर कस्टम ड्यूटी की दर डब्ल्यूटीओ में निर्धारित दरों से कम है, इसलिए वित्त मंत्री के पास विकल्प मौजूद हैं. वे कस्टम ड्यूटी बढ़ाकर स्वदेशी पैराकारों को भी खुश करेंगे अलबत्ता आयातकों की मजबूत लॉबी उन्हें रोकने की कोशिश करेगी.
भारत का सबसे बड़ा कर सुधार भी अब टैक्स की दर बढ़ाए बिना परवान नहीं चढ़ेगा. जीएसटी की तैयारियां शुरू हो गई हैं. केंद्र राज्य कर ढांचों को मिलाकर भारत में जीएसटी की दर  25 से 30 फीसद तक हो सकती है. जीएसटी को यदि, अगले साल अमल में लाना है तो केंद्रीय एक्साइज ड्यूटी और सर्विस टैक्स की दरों में एक या दो फीसद (12 से 13 या 14) की बढ़ोतरी करनी होगी ताकि एकीकृत टैक्स प्रणाली (जीएसटी) की तरफ बढ़ने का रास्ता बन सके. वित्त मंत्री लगे हाथ, लग्जरी उत्पादों पर टैक्स बढ़ाने के मौके का इस्तेमाल भी करना चाहेंगे. महंगाई काबू में है, मांग वैसे भी कम है इसलिए अगर ड्यूटी बढ़ने से कुछ चीजें महंगी होती हैं तो देसी उद्योगों में निवेश रोजगार बढ़ने और जीएसटी लाने का तर्क वित्त मंत्री की मदद करेगा.
बजट की दूरगामी आर्थिक सूझ भी टैक्स से निकलने की संभावना है. भारत में जीडीपी के अनुपात में टैक्स संग्रह का कम होना एक महत्वपूर्ण पहलू है. कमजोर टैक्स जीडीपी रेशियो बताता है कि अर्थव्यवस्था बढ़ रही है लेकिन टैक्स संग्रह नहीं. भारत में यह अनुपात दो दशकों से 8 से 12 फीसदी के बीच झूल रहा है जो ब्राजील, रूस, दक्षिण अफ्रीका जैसे ब्रिक्स देशों के मुकाबले भी कम है. वित्त मंत्री कर ढांचे में बदलाव के जरिए इस अनुपात में इजाफे की कोशिश करते नजर आएंगे जो ग्लोबल एजेंसियों की अपेक्षाओं के माफिक है. भारत में सकल घरेलू उत्पादन (खेती, उद्योग, सेवा) की गणना का फॉर्मूला भी बदल गया है. पुरानी गणना बुनियादी लागत (बेसिक कॉस्ट) पर होती थी यानी जो कीमत निर्माता या उत्पादक को मिलती है. लेकिन अब उत्पादन लागत का हिसाब लगाने में बेसिक कॉस्ट के साथ अप्रत्यक्ष कर भी शामिल होगा इसलिए कर बढ़ाकर जीडीपी की सूरत भी चमकाई जा सकती है.
भारत के बजट हमेशा खर्च से भरपूर होते रहे हैं. सरकार भी यही चाहती है कि बजट को इनकम टैक्स रियायतों के झरोखे से देखा जाए, जो एक छोटी वेतनजीवी या उद्यमी आबादी के लिए होती हैं या फिर बजट में खर्च के आंकड़ों पर लोगों को रिझाया जाए. सस्ते कच्चे तेल और सब्सिडी में कमी के कारण सरकार के पास अच्छी बचत है जो खर्च के लिए जगह बना रही है. यह खर्च बुनियादी ढांचे में हुआ तो कुछ असर करेगा लेकिन अगर राजनैतिक चिंताएं सिर चढ़कर बोलीं तो केंद्रीय स्कीम राज और सब्सिडी बढ़ेगी. वैसे खर्च को बजट के साथ नहीं बल्कि साल के अंत मेें देखना बेहतर होता है क्योंकि बजट भाषण के दौरान बड़ी-बड़ी संख्याओं पर तालियां बजती हैं और छह माह बीतने के बाद खर्च काटकर वित्त मंत्री बचतबहादुर हो जाते हैं.
भारत की टैक्स नीति निर्णायक मोड़ पर है. कस्टम ड्यूटी में कटौती, सर्विस टैक्स और राज्यों में वैट, टैक्स सुधारों के पहलेचरण का हिस्सा थे जिनका मकसद भारतीय बाजार को दुनिया के लिए उदार करना और करदाताओं की संख्या बढ़ाना था. कर सुधारों का अगला चरण टैक्सों की संख्या सीमित करना, लागत घटाने चोरी रोकने पर केंद्रित है ताकि उद्योगों व्यापार को प्रतिस्पर्धात्मक बनाया जा सके. जीएसटी का यही मकसद है. बजट में खर्च के आंकड़े राजनैतिक होते हैं जो बजट पेश होते ही हवा हो जाते हैं. जेटली के खर्च आंकड़े भी टिकाऊ नहीं होंगे. निगाह तो उनके टैक्स प्रस्तावों पर होगी. टैक्स शाश्वत सत्य हैं जो पूरे साल मौजूदगी का एहसास कराते हैं. मोदी-जेटली की टैक्स नीति ही भारत में निवेश का भविष्य तय करेगी