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Sunday, July 15, 2018

रुपये के संस्कार


रुपए की गिरावट पर भाजपा नेताओं के कंटीले चुनावी भाषण राजनेताओं के लिए नसीहत हैं कि अर्थव्‍यवस्‍था की कथा में राजनीति के ढोर-डंगर नहीं हांकने चाहिए. रुपये की लुढ़कन पर सरकारी बयान वीर बगलें झांक रहे हैं क्‍योंकि उनकी वैचारिक जन्‍मघुट्टी में रुपये की कमजोरी का अपराध बोध घुला हुआ है.

बाजार से पूछ कर देखिएवहां एक नौसिखुआ भी कह देगा कि रुपये की कमजोरी पर स्‍यापा फिजूल है. इसके वजन में कमी से नुक्सान नहीं है.

जानना चाहिए कि पिछले ढाई दशक में रुपया आखिर कितना कमजोर हुआ है और इस कमजोरी से क्‍या कोई "तबाही'' बरपा हुई है? 

पिछले 18 साल (2000-2018) में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया करीब 2.2 फीसदी सालाना की दर हल्‍का हुआ है. यह गिरावट 1990 से लेकर 2000 की ढलान के मुकाबले कम है जब रुपया औसत सात फीसदी की दर से गिरा था. 2008 से 2018 के बीच रुपया 4.9 फीसदी सालाना की दर से कमजोर हुआ. पिछले चार साल में अन्‍य मुद्राओं के मुकाबले रुपया स्थिर और ठोस रहा है.

पिछले ढाई दशक में प्रत्‍येक दो या तीन साल बाद रुपये और डॉलर के रिश्‍तों में उतार-चढ़ाव का चक्र आता हैजिसमें  रुपया कमजोर होता है. यह गिरावट किसी भी तरह से न तो आकस्मिक है और न चिंताजनक. भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था जैसे-जैसे विश्‍व के साथ एकीकृत होती गईरुपया खुद को अन्‍य मुद्राओं के मुकाबले संतुलित करता गया है.

रुपये की मांसपेशियां फुलाये रखने के स्‍वदेशी हिमायती किस तरह की विदेशी मुद्रा नीति चाहते हैंयह उन्‍होंने कभी नहीं बताया अलबत्‍ता रुपये के गिरने से कोई तबाही बरपा होने के समाचार अभी तक नहीं मिले हैं. 1990 के विदेशी मुद्रा संकट और 1991 में पहले सोचे-विचारे अवमूल्‍यन के बाद अब तक भारत का निर्यात 21 गुना बढ़ा है. विदेशी मुद्रा भंडार जरूरत के हिसाब से बढ़ता रहा. विदेशी निवेश ने आना शुरू किया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और भारतीय कंपनियों ने विदेश में खूब झंडे गाड़े.

रुपये की ताजा गिरावट चक्रीय भी हैमौसमी भी. अगर कमजोरी को कोसना ही है तो तेल की कीमतों पर नजला गिराया जा सकता है. आने वाले महीनों में डॉलर मजबूत रहेगा इसलिए रुपये की सेहत भी चुस्‍त रहेगी. रुपया एकमुश्‍त नहीं क्रमशः अपना वजन गंवाएगा.

तो सरकार करे क्‍यादरअसलरुपया गिरते ही सरकार को मौका लपक लेना चाहिए था.

भारत का निर्यातप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताबड़ तोड़ विदेश यात्राओं से कतई नहीं रीझा. यह पिछले चार साल से एड़ि‍यां रगड़ रहा हैजबकि माहौल व्‍यापार के माफिक रहा है. रुपये की मजबूती निर्यात के लिए मुसीबत रही है. अब गिरावट है तो निर्यात को बढ़ाया जा सकता है. यह अमेरिका और चीन के व्‍यापार की जंग में भारत के लिए नए बाजार हासिल करने का अवसर है.

अभी-अभी सरकार छोड़कर रुखसत हुए अर्थशास्‍त्री अरविंद सुब्रह्मण्यम ने बजा फरमाया है कि अगर भारत निर्यात में 15 फीसदी की सालाना विकास दर हासिल नहीं करता तो भूल जाइए कि 8-9 फीसदी ग्रोथ कभी मिल पाएगी.

यकीनन यह सबको मालूम है कि ग्रोथ की मंजिल थुलथुल नहीं बल्कि चुस्‍त रुपये से मिल सकती है. गुजरात जो कि भारत के विदेश व्‍यापार का अगुआ हैवहां से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहतर यह कौन जानता होगा कि संतुलित विनिमय दर निर्यात के लिए कितनी जरुरी है लेकिन पिछले चार साल में रुपया मोटाता गया और निर्यात दुबला होता गया.

रुपये की कमजोरी पर रुदाली की परंपरा आई कहां से?

इस मामले में दक्षिणवाम और मध्यसब एक जैसी हीन ग्रंथि के शिकार हैं. 1991 में रुपये का अवमूल्‍यन करते हुए तत्‍कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव की "व्यथा'' का किस्‍सा इतिहास में दर्ज है.
रुपये की मजबूती का खोखला दंभ अंग्रेज सिखाकर गए थे. भारत उनके माल का (आयात) बाजार था. वह भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थेऔद्योगिक उत्पादों का नहीं. इसलिए आश्‍चर्य रुपये के गिरने पर नहीं बल्कि "स्वदेशियों'' पर होना चाहिए जो दशकों से ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति का मुर्दा ढो रहे हैं.

दिलचस्‍प है कि 2013-14 में जिनकी उम्र से रुपये की गिरावट को नापा गया था उन्‍हीं डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 में पहली बार संसद को यह समझाया था कि थुलथले रुपये में कोई राष्‍ट्रवाद नहीं छिपा है. रुपये के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही होगा.

जब जागेतब सवेरा!

Monday, June 18, 2018

दुनिया न माने



संकेतोंअन्यर्थों और वाक्पटुताओं से सजी-संवरी विदेश नीति की कामयाबी को बताने किन आंकड़ों या तथ्यों का इस्‍तेमाल होना चाहिए 

यह चिरंतन सवाल ट्रंप और कोरियाई तानाशाह किम की गलबहियों के बाद वापस लौट आया है और भारत के हालिया भव्य कूटनीतिक अभियानों की दहलीज घेर कर बैठ गया है.

विदेश नीति की सफलता की शास्त्रीय मान्यताओं की तलाश हमें अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन (1743-1826) तक ले जाएगीजिन्होंने अमेरिका की (ब्रिटेन से) स्वतंत्रता का घोषणापत्र तैयार किया. वे शांतिमित्रता और व्यापार को विदेश नीति का आधार मानते थे. 

तब से दुनिया बदली है लेकिन विदेश नीति का आधार नहीं बदला है. चूंकि किसी देश के लिए किम-ट्रंप शिखर बैठक जैसे मौके या अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नेतृत्व के मौके बेहद दुर्लभ हैंइसलिए कूटनीतिक कामयाबी की ठोस पैमाइश अंतरराष्ट्रीय कारोबार से ही होती है.

विदेश नीति की अधिकांश कवायद बाजारों के लेन-देन यानी निर्यात की है जिससे आयात के वास्ते विदेशी मुद्रा आती है. भारत के जीडीपी में निर्यात का हिस्सा 19 फीसदी तक रहा है. निर्यात में भी 40 फीसदी हिस्सा‍ छोटे उद्योगों का है यानी कि निर्यात बढ़े तो रोजगार बढ़े. 

यकीनन मोदी सरकार के कूटनीतिक अभियान लीक से हटकर "आक्रामक'' थे लेकिन पहली यह है कि विदेश व्यापार को कौन-सा ड्रैगन सूंघ गया?

- पिछले चार वर्षों में भारत का (मर्चेंडाइज) निर्यात बुरी तरह पिटा. 2013 से पहले दो वर्षों में 40 और 22 फीसदी की रफ्तार से बढऩे वाला निर्यात बाद के पांच वर्षों में नकारात्मक से लेकर पांच फीसदी ग्रोथ के बीच झूलता रहा. पिछले वित्त वर्ष में बमुश्किल दस फीसदी की विकास दर पिछले तीन साल में एशियाई प्रतिस्पर्धी देशों (थाइलैंडमलेशियाइंडोनेशियाकोरियाकी निर्यात वृद्धि से काफी कम है.

- पिछले दो वर्षों (2016-3.2%: 2017-3.7%) में दुनिया की विकास दर में तेजी नजर आई. मुद्रा कोष (आइएमएफ) का आकलन है कि 2018 में यह 3.9 फीसदी रहेगी.

- विश्व व्यापार भी बढ़ा. डब्ल्यूटीओ ने बताया कि लगभग एक दशक बाद विश्व व्यापार तीन फीसदी की औसत विकास दर को पार कर  (2016 में 2.4%2017 में 4.7% की गति से बढ़ा. 

लेकिन भारत विश्व व्यापार में तेजी का कोई लाभ नहीं ले सका.

- पिछले पांच वर्षों में चीन ने सस्ता सामान मसलन कपड़ेजूतेखिलौने आदि का उत्पादन सीमित करते हुए मझोली व उच्च‍ तकनीक के उत्पादों पर ध्यान केंद्रित किया. यह बाजार विएतनामबांग्लादेश जैसे छोटे देशों के पास जा रहा है. 

- भारत निर्यात के उन क्षेत्रों में पिछड़ रहा है जहां पारंपरिक तौर पर बढ़त उसके पास थी. क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट बताती हैकच्चे माल में बढ़त होने के बावजूद परिधान और फुटवियर निर्यात में विएतनाम और बांग्लादेश ज्यादा प्रतिस्पर्धी हैं और बड़ा बाजार ले रहे हैं. टो पुर्जे और इंजीनियरिंग निर्यात में भी बढ़ोतरी पिछले वर्षों से काफी कम रही है.





- भारत में जिस समय निर्यात को नई ताकत की जरूरत थी ठीक उस समय नोटबंदी और जीएसटी थोप दिए गएनतीजतन जीडीपी में निर्यात का हिस्सा 2017-18 में 15 साल के सबसे निचले स्तर पर आ गया. सबसे ज्यादा गिरावट आई कपड़ाचमड़ाआभूषण जैसे क्षेत्रों मेंजहां सबसे ज्यादा रोजगार हैं.

- ध्यान रखना जरूरी है कि यह सब उस वक्त हुआ जब भारत में मेक इन इंडिया की मुहिम चल रही थी. शुक्र है कि भारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेश आ रहा था और तेल की कीमतें कम थींनहीं तो निर्यात के भरोसे तो विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर पसीना बहने लगता.

- अंकटाड की ताजा रिपोर्ट ने भारत में विदेशी निवेश घटने की चेतावनी दी है जबकि विदेशी निवेश के उदारीकरण में मोदी सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी.

विदेश व्यापार की उलटी गति को देखकर पिछले चार साल की विदेश नीति एक पहेली बन जाती है. दुनिया से जुडऩे की प्रधानमंत्री मोदी की ताबड़तोड़ कोशिशों के बावजूद भारत को नए बाजार क्यों नहीं मिले जबकि विश्व बाजार हमारी मदद को तैयार था?

हालात तेजी से बदलते रहते हैं. जब तक हम समझ पाते तब तक अमेरिका ने भारत से आयात पर बाधाएं लगानी शुरू कर दीं. आइएमएफ बता रहा है कि आने वाले वर्षों में अमेरिका और यूरोपीय समुदाय में आयात घटेगा. 

लगता है कि जिस तरह हमने सस्ते तेल के फायदे गंवा दिए ठीक उसी तरह निर्यात बढ़ाने व नए बाजार हासिल करने का अवसर भी खो दिया है.



क्या यही वजह है कि चार साल के स्वमूल्यांकन में सरकार ने विदेश नीति की सफलताओं पर बहुत रोशनी नहीं डाली है?

Monday, May 2, 2016

निर्यात की ढलान


भारतीय निर्यात की गिरावट जटिल, गहरी और बहुआयामी हो चुकी है और सरकार पूरी तरह नीति शून्य और सूझ शून्य नजर आ रही है.


दुनिया भर में फैली मंदी के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्रोथ को अंधों में एक आंख वाला राजा कहने पर दो राय हो सकती हैं. रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को अतिआशावादी होना चाहिए या यथार्थवादी, इस पर भी मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इस बात पर कोई दो मत नहीं होंगे कि विदेश व्यापार के संवेदनशील हिस्से में गहरा अंधेरा है जो हर महीने गहराता जा रहा है. भारत का निर्यात 16 माह की लगातार गिरावट के बाद अब पांच साल के सबसे खराब स्तर पर है. निर्यात की बदहाली के लिए दुनिया की ग्रोथ में गिरावट को जिम्मेदार ठहराने का सरकारी तर्क टिकाऊ नहीं है, क्योंकि भारतीय निर्यात की गिरावट जटिल, गहरी और बहुआयामी हो चुकी है और सरकार पूरी तरह नीति शून्य और सूझ शून्य नजर आ रही है.

ग्लोबल ग्रोथ के उतार-चढ़ाव किसी भी देश के निर्यात को प्रभावित करते हैं लेकिन भारत के निर्यात की गिरावट अब ढांचागत हो गई है. पिछले 16 माह की निरंतर गिरावट के कारण निर्यात की प्रतिस्पर्धात्मकता (कांपिटीटिवनेस) टूट गई है. निर्यात में प्रतिस्पर्धात्मकता का आकलन विभिन्न देशों के बीच निर्यात में कमी या गिरावट की तुलना के आधार पर होता है. पिछले एक साल में दुनिया के निर्यात आंकड़ों की तुलना करने वाली एम्विबट कैपिटल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत का निर्यात अन्य देशों से ज्यादा तेज रफ्तार से गिरा है.

2015 की तीसरी तिमाही से 2016 की तीसरी तिमाही के बीच चीन के निर्यात की ग्रोथ रेट घटकर एक फीसदी रह गई जो इस दौर से पहले पांच फीसदी पर थी. बांग्लादेश 10 से तीन फीसदी, विएतनाम 16 से आठ फीसदी, कोरिया तीन से पांच फीसदी, दक्षिण अफ्रीका चार से शून्य फीसदी पर आ गया. इनकी तुलना में भारत का निर्यात जो ताजा मंदी से पहले छह फीसदी की दर से बढ़ रहा था, वह पिछले एक साल में 19 फीसदी गिरा है, जो दुनिया के विभिन्न महाद्वीपों में फैले दो दर्जन से अधिक प्रमुख निर्यातक देशों में सबसे जबरदस्त गिरावट है. ग्लोबल कमोडिटी बाजार में कीमतें घटने से ब्राजील और इंडोनेशिया का निर्यात तेजी से गिरा है लेकिन भारत की गिरावट उनसे ज्यादा गहरी है.

निर्यात की बदहाली की तुलनात्मक तस्वीर पर चीन काफी बेहतर है. यहां तक कि पाकिस्तान व बांग्लादेश की तुलना में भारत का निर्यात पांच और चार गुना ज्यादा तेजी से गिरा है. आंकड़ों के भीतर उतरने पर यह भी पता चलता है कि भारत से मैन्युफैक्चर्ड उत्पादों के निर्यात की गिरावट, उभरते बाजारों की तुलना में ज्यादा तेज है. इनमें ऊंची कीमत वाले ट्रांसपोर्ट, मशीनरी और इलेक्ट्रॉनिक्स को तगड़ी चोट लगी है.

पिछले तीन साल में डॉलर के मुकाबले रुपया करीब 24 फीसदी टूटा है. आम तौर पर कमजोर घरेलू मुद्रा निर्यात की बढ़त के लिए आदर्श मानी जाती है, अलबत्ता कमजोर होने के बावजूद भारतीय रुपया निर्यात में प्रतिस्पर्धी देशों की मुद्राओं के मुकाबले मजबूत है इसलिए निर्यात गिरा है. ऐसे हालात में निर्यातकों को सरकारी नीतिगत मदद की जरूरत थी जो नजर नहीं आई. प्रतिस्पर्धात्मकता में गिरावट निर्यातकों को लंबे समय के लिए बाजार से बाहर कर देती है, जिसके चलते मांग बढऩे के बाद बाजार में पैर जमाना मुश्किल हो जाता है.

भारतीय उत्पादों की प्रतिस्पर्धात्मकता घटने का असर आयात पर भी नजर आता है. वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि जब से ग्लोबल ट्रेड में सुस्ती शुरू हुई है, भारत का चीन से आयात बढ़ गया है. इसमें मैन्युफैक्चर्ड सामान का हिस्सा ज्यादा है. मतलब साफ है कि भारतीय उत्पाद निर्यात व घरेलू, दोनों ही बाजारों की प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पा रहे हैं.

भारत का सेवा निर्यात भी ढलान पर है. रिजर्व बैंक का ताजा आंकड़ा बताता है कि फरवरी 2015 में सेवाओं के निर्यात से प्राप्तियों में 12.55 फीसदी गिरावट आई है. सूचना तकनीक सेवाओं के निर्यात में ग्रोथ बनी हुई है लेकिन रफ्तार गिर रही है.

दो सप्ताह पहले इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि सरकार के आंकड़े साबित करते हैं कि मुक्त व्यापार समझौते विदेश व्यापार बढ़ाने का सबसे बड़ा साधन हैं अलबत्ता इस उदारीकरण को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार कुछ ज्यादा ही रूढ़िवादी है. मुक्त व्यापार की दिशा में रुके कदम निर्यात में गिरावट की बड़ी वजह हैं. भारत का कपड़ा व परिधान निर्यात इस उलझन का सबसे ताजा नमूना है. कपड़ा निर्यात में भारत अब पाकिस्तान से भी पीछे हो गया है. 2014 में पाकिस्तान यूरोपीय समुदाय की वरीयक व्यापार व्यवस्था (जनरल सिस्टम ऑफ प्रीफरेंसेज) का हिस्सा बन गया है और इसके साथ ही वहां के कपड़ा निर्यातकों को करीब 37 बड़े बाजार मिल गए, जहां वे आयात शुल्क दिए बगैर निर्यात कर रहे हैं. कॉटन टेक्सटाइल एक्सपोर्ट्स एसोसिएशन के आंकड़े बताते हैं कि भारत करीब 19 कपड़ा और 18 परिधान उत्पादों का बाजार पाकिस्तान के हाथों खो चुका है. इस बाजार में वापसी के लिए भारत को यूरोपीय समुदाय से व्यापार समझौते की जरूरत है.

कपड़ा निर्यात उन कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में एक है जहां निर्यात रोजगारों का सबसे बड़ा माध्यम है. भारत के निर्यात का एक बड़ा हिस्सा श्रम आधारित उद्योगों से आता है जिसमें टेक्सटाइल के अलावा हस्तशिल्प, रत्न आभूषण आदि प्रमुख हैं. हकीकत यह है कि भारत का 45 फीसदी निर्यात छोटी और मझोली इकाइयां करती हैं, निर्यात घटने के कारण बेकारी बढ़ रही है और नौकरियों के संकट को गहरा कर रही है. 

विदेश व्यापार मोदी सरकार की नीतिगत कमजोरी बनकर उभरा है. प्रधानमंत्री मोदी के ग्लोबल अभियानों की रोशनी में देखने पर यह बदहाली और मुखर होकर सामने आती है. पिछले दो साल में निर्यात बढ़ाने को लेकर कहीं कोई ठोस रणनीति नजर नहीं आई है. दूसरी तरफ, यह असमंजस और गाढ़ा होता गया है कि भारत दरअसल विदेश व्यापार के उदारीकरण के हक में है या बाजार को बंद ही रखना चाहता है. आर्थिक विकास दर के आंकड़ों को लेकर रिजर्व बैंक गवर्नर की खरी-खरी पर सरकार के नुमाइंदों में काफी गुस्सा नजर आया है. अलबत्ता इस क्षोभ का थोड़ा-सा हिस्सा भी अगर निर्यात की फिक्र में लग जाए तो शायद इस मोर्चे पर पांच साल की सबसे खराब सूरत बदलने की उम्मीद बन सकती है.

Monday, April 4, 2016

व्यापार कूटनीति का शून्य


भारत का निर्यात आज अगर 15 माह के न्यूनतम स्तर पर है तो शायद इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि संरक्षणवादी आग्रहों के चलते मोदी सरकार ने मुक्त बाजार समझौतों की रफ्तार तेज नहीं की.

विदेश नीति की सफलता को मापने का क्या कोई ठोस तरीका हो सकता है, ठीक उसी तरह जैसे कि आर्थिक विकास दर को देखकर आर्थिक नीतियों की कामयाबी या नाकामी मापी जाती है? कूटनीतिक संवादों में अमूर्त रणनीतियों का एक बड़ा हिस्सा होता है लेकिन इतनी अमूर्तता तो आर्थिक नीतियों में भी होती है. फिर भी आर्थिक विकास दर से आर्थिक नीतियों के असर का संकेत तो मिल ही जाता है. यदि विदेश नीति के सैद्धांतिक पहलू को निकाल दिया जाए तो विदेश व्यापार यानी निर्यात-आयात प्रदर्शन से किसी सरकार की विदेश नीति की सफलता को नापा जा सकता है, क्योंकि द्विपक्षीय व्यापार और पूंजी की आवाजाही किसी देश के ग्लोबल कूटनीतिक रिश्तों की बुनियाद है. विदेश नीति की सफलता को ठोस ढंग से नापने का फॉर्मूला शायद यह हो सकता है कि किसी सरकार के मातहत विभिन्न देशों के साथ हुए वरीयक (प्रिफ्रेंशियल) व्यापार समझौतों को देखा जाए, क्योंकि जितने अधिक समझौते, उतना अधिक विदेश व्यापार.
 यह फॉर्मूला हमने नहीं, 2015-16 की आर्थिक समीक्षा ने दिया है जो विदेश नीति की सफलता को परखने का एक नया पैमाना सुझाती है. अब जबकि मोदी सरकार के भव्य कूटनीतिक अभियानों की गर्द बैठ चुकी है और भारत का निर्यात अपनी सबसे लंबी मंदी से जूझ रहा है, तब आर्थिक समीक्षा के इस फॉर्मूले की कसौटी पर मोदी सरकार की विदेश नीति सवालों में घिरती नजर आती है.
दरअसल, बीते बरस जब प्रधानमंत्री न्यूयॉर्क, सिडनी या वेम्बले के स्टेडियमों में अनिवासियों से संवाद कर रहे थे, ठीक उसी समय उनकी सरकार के रूढ़िवादी आग्रह भारत के विदेश व्यापार में उदारीकरण की कोशिशों को श्रद्धांजलि दे रहे थे और मुक्त वरीयक व्यापार संधियों को रोक रहे थे जो ताजा अध्ययनों में भारत की व्यापारिक सफलता का आधार बनकर उभरे हैं. एफटीए को लेकर स्वदेशी दबावों और दकियानूसी आग्रहों के चलते सरकार ने पिछले साल अगस्त में यूरोपीय संघ मुक्त व्यापार संधि (इंडिया-ईयू एफटीए) पर बातचीत रोक दी जिसे आसियान के बाद भारत का सबसे महत्वाकांक्षी एफटीए माना जा रहा है.
 आर्थिक समीक्षा की रोशनी में एफटीए की व्यवस्था के भारत के विदेश व्यापार पर असर की ठोस तथ्यपरक पड़ताल की जा सकती है. इस पड़ताल का एक सूत्रीय निष्कर्ष यह है कि जिन देशों के साथ भारत ने दोतरफा या बहुपक्षीय मुक्त या वरीयक व्यापार समझौते (एफटीए/पीटीए) किए हैं, उनके साथ 2010 से 2014 के बीच कुल व्यापार में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. वजहः एफटीए/पीटीए में शामिल देश दूसरे देश से होने वाले आयात के लिए कस्टम ड्यूटी में कमी करते हैं और व्यापार प्रतिबंधों को सीमित करते हैं जिसका सीधा असर व्यापार में बढ़त के तौर पर सामने आता है.
दुनिया में व्यापार समझौतों को लेकर तीन तरह के मॉडल सक्रिय हैं. पहला वर्ग डब्ल्यूटीओ, ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) जैसी बहुपक्षीय व्यापार संधियों का है. डब्ल्यूटीओ बहुत सफल नहीं रहा जबकि टीपीपी की जमीन अभी तैयार हो रही है. दूसरा वर्ग क्षेत्रीय ट्रेड ब्लॉक आसियान (दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का संगठन), नाफ्टा (उत्तर अमेरिका), ईयू (यूरोपीय समुदाय) का है जो क्षेत्रीय व्यापार बढ़ाने में काफी सफल रहे हैं. तीसरा वर्ग एफटीए का है जो दुनिया में व्यापार और निवेश बढ़ाने का सबसे प्रमुख जरिया बनकर उभरे हैं. इनमें देशों के बीच द्विपक्षीय समझौते और ट्रेड ब्लॉक के साथ समझौते शामिल हैं. इस होड़ में भारत काफी पीछे है.
भारत ने एफटीए की शुरुआत 1970 में इंडिया अफ्रीका ट्रेड एग्रीमेंट के साथ की थी लेकिन 2010 तक केवल 19 एफटीए हो पाए हैं जबकि विश्व में 2004 से लेकर 2014 तक हर साल औसतन 15 एफटीए हुए हैं, बीच के कुछ वर्षों में तो इनकी संख्या 20 और 25 से ऊपर रही है. भारत के ज्यादातर एफटीए एशिया में हैं. एशिया से बाहर दो एफटीए मर्कोसूर (ब्राजील, अर्जेंटीना, उरुग्वे, पैराग्वे, वेनेजुएला) और चिली के साथ हैं.
व्यापार की मात्रा के आधार पर एशिया में भारत के सबसे महत्वपूर्ण एफटीए आसियान, कोरिया और जापान के साथ हैं. आर्थिक समीक्षा के मुताबिक, इन देशों के साथ एफटीए होने के बाद भारत के व्यापार में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इन देशों के अलावा जिन अन्य देशों से भारत के एफटीए हैं, उन देशों के साथ एफटीए से पहले, 2007 से 2014 के दौरान भारत के निर्यात की वृद्धि दर 13 फीसदी थी जो एफटीए के बाद 22 फीसदी हो गई जो मुक्त व्यापार समझौतों की सफलता का प्रमाण है.
आसियान के साथ भारत का एफटीए (2010) सबसे सफल माना जाता है. ताजा आंकड़े ताकीद करते हैं कि 2014 तक चार वर्षों में आसियान देशों को भारत का निर्यात 25 फीसदी बढ़ा जो एफटीए से पहले 14 फीसदी था. आयात में बढ़ोतरी 19 फीसदी रही जो एफटीए से पहले 13 फीसदी थी. आसियान की सफलता के बाद भारत यूरोपीय संघ के बीच एफटीए को लेकर उम्मीदें काफी ऊंची थीं क्योंकि यूरोप दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है और भारतीय निर्यात में नई ऊर्जा के लिए इस बाजार में प्रवेश जरूरी है. लेकिन अफसोस कि मोदी सरकार के असमंजस और रूढ़िवादिता के चलते यह महत्वपूर्ण पहल जहां की तहां ठहर गई. नतीजतन इस सप्ताह ब्रसेल्स में ईयू के साथ भारत का शिखर सम्मेलन तो हुआ लेकिन सबसे महत्वपूर्ण एजेंडे यानी एफटीए पर कोई बात नहीं बनी और पूरा आयोजन केवल इवेंट डिप्लोमेसी बनकर रह गया.
यदि आर्थिक समीक्षा सही है तो स्वदेशी पोंगापंथी के दबाव में ईयू एफटीए को रोकना सरकार की गलती है. दरअसल, किसी भी तरह वरीयक व्यापार समझौतों को रोकना या उन पर अपनी तरफ से पहल नहीं करना एक बड़ी कूटनीतिक चूक है जो पिछले दो साल में सरकार ने बार-बार की है. भारत का निर्यात आज अगर 15 माह के न्यूनतम स्तर पर है तो शायद इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि संरक्षणवादी आग्रहों के चलते मोदी सरकार ने मुक्त बाजार समझौतों की रफ्तार तेज नहीं की. प्रधानमंत्री को यह समझना होगा कि किसी भी देश के विदेश व्यापार की सफलता अब प्रिफ्रेंशियल ट्रेड एग्रीमेंट्स पर निर्भर है और यह एग्रीमेंट कूटनीतिक अभियानों से निकलते हैं. उनके कूटनीतिक अभियानों का जादू इसलिए उतरने लगा है क्योंकि उनकी डिप्लोमेसी में मुक्त और उदार बाजार की चेतना नदारद है.