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Saturday, April 20, 2019

चुनिए, सिर धुनिए


‘‘मतदाता को क्या मतलब कि राजनैतिक दल चंदा से कहां जुटाते हैंउनका मतलब केवल प्रत्याशी से है’’ —सुप्रीम कोर्ट को सरकार का जवाब (अप्रैल 2019)


अपराधियों को चुनाव से दूर रखने के लिए संसद को कानून बनाना चाहिए —सुप्रीम कोर्ट की सलाह (सितंबर 2018) पर सरकार ने कानों में रुई ठूंस ली

''आपराधिक रिकार्ड वाले प्रत्याशियों का ब्योरा प्रमुख अखबारों में छपना चाहिए.'' चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट के आदेश (सितंबर 2018) पर कोई कार्रवाई नहीं

उंगली पर स्याही लगाकर दीवाने हुए जाते आम लोग ही लोकशाही की जिम्मेदारी उठाने के लिए बने हैंचंदों की गंदगीअपराधी नेताओं और अनंत चुनावी झूठ से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता जिनको चुनने के लिए हमें ‘पहले मतदान फिर जलपान’ का ज्ञान दिया जाता हैऔर उनका क्या जो राजनीति को अपराध मुक्त करने की कसम उठाकर सत्ता में आए थे!

यह 2014 का अप्रैल थावाराणसी से कांग्रेस के प्रत्याशी का नाम हथियारों के सौदे में आया थाहरदोई की रैली में नरेंद्र मोदी ने वादा किया कि ‘‘सत्ता में आने के बाद सरकार एक कमेटी बनाएगी जो चुनाव आयोग को मिले हलफनामों के आधार पर सांसदों के आपराधिक रिकार्ड की जांच कर सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा चलाने के लिए कहेगीइन्हें जेल भेजा जाएगाचाहे इनमें भाजपा या एनडीए के सांसद ही क्यों न हों."

नरेंद्र मोदी जीत गए और राजनीति को अपराध मुक्त करने का वादा हरदोई के मैदान में ही पड़ा रह गयाअलबत्ता थे कुछ जिद्दी लोग जो सियासत और जरायम के गठजोड़ को खत्म करने की मुहिम लेकर सबसे बड़ी अदालत पहुंच गएसुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने पिछले साल सरकार से कहा कि अपराधी प्रत्याशी कैंसर हैंचुनाव जिताऊ प्रत्याशी के तर्क से लोकतंत्र का गला घोंटना बंद किया जाएयह संसद की जिम्मेदारी है कि वह कानून बनाकर अपराधियों को हमेशा के लिए चुनावों से दूर करेइस आदेश के बाद भी प्रधानमंत्री को हरदोई वाला वादा याद नहीं आया!

चुनाव आयोग और सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का इतना अमल भी सुनिश्चित नहीं करा सके कि कम से कम अपराधी प्रत्याशियों के बारे में कायदे से प्रचार किया जाए ताकि लोग यह जान सकें कि वे किसे अपना चौकीदार बनाने जा रहे हैंअब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को अवमानना का नोटिस भेजा है.

सनद रहे कि इस लोकसभा चुनाव के पहले दो चरणों में 464 प्रत्याशी ‘अपराधी’ हैंइनमें 46 चौकीदारों (भाजपाऔर 58 न्यायकारों (कांग्रेसके हलफनामों में जरायम दर्ज हैअन्य प्रमुख दलों के करीब 61 अपराधी प्रत्याशी (एडीआर रिपोर्टहमें हमारी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी सिखा रहे हैं.

गलत सोचते थे हम कि जब बहुमत की सरकार होगीताकतवर नेता होगादेश के अधिकांश हिस्से में एक दल का राज होगा तो हमें ऐसे सुधार मिलेंगे जिनकी छाया में हम अपने लोकतंत्र पर गर्व कर सकेंगेलेकिन अब तो

·       जरा-सी बात पर तुनक कर कार्रवाई करने वाला सुप्रीम कोर्टइलेक्टोरल बांड से चंदे का ब्योरा सार्वजनिक करने का आदेश दे सकता था लेकिन उसने सूचनाओं को फाइलों में दबाकर अगली तारीख लगा दी.

·       जजों की नियुक्ति पर सरकार से जूझने वाली सबसे बड़ी अदालत अपराधी नेताओं के लिए कानून बनाने पर सरकार को बाध्य कर सकती थी लेकिन उसने उपदेश देकर बात खत्म कर दी.

·       अपराधी प्रत्याशी के ब्योरे का पर्याप्त प्रचार न होने पर पर्चे खारिज करने का आदेश देने में क्या हर्ज था?

इस बार चुनाव में वोटरों की लाइनें नोटबंदी की कतारों जैसी लग रहीं हैंमतदाता धूप में तप कर अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी पर बिछे जा रहे हैंलेकिन जैसे नोटबंदी के दौरान सियासी दलकंपनियां और बैंक पिछले दरवाजे से लोगों के विश्वास का सौदा कर रहे थे ठीक उसी तरह संवैधानिक संस्थाएं वह सब धतकरम होने देना चाहती हैं जिनके बाद लोकतंत्र के इस संस्करण पर भरोसा मुश्किल से बचेगा.

दुनिया में कई जगह लोकतंत्र हैलोग वोट भी देते हैं लेकिन वहां पालतू संसद चुनी जाती हैसंविधानों को उमेठ दिया जाता हैआजादियों को न्यूनतम रखा जाता हैसत्ता के फायदों को अपने तरीके से बांटा जाता हैहम ऐसा लोकतंत्र हरगिज नहीं चाहते जिसमें वोटर अपनी जिम्मेदारी निभाएं लेकिन वोट लेने वाले पूरी बेशर्मी के साथ कुछ भी करते चले जाएं !

मतदाता और रैली में जुटी किराये की भीड़ में फर्क बनाए रखना होगामतदान हमेशा स्वीकार ही नहीं होताइसे सवाल या इनकार भी बनाया जा सकता हैवोट देना हमारी मजबूती हैमजबूरी नहीं.


Monday, November 19, 2018

तरीकों का तकाजा



बीते हफ्ते सिंगापुर में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया की वित्तीय तकनीकी (फिनटेक) कंपनियों को भारत में आने का न्योता दे रहे थे तब भारत में मोबाइलबैंकिंगबीमाम्युचुअल फंड का बाजार 'आधार' खिसकने के झटके से उबरने की कोशिश कर रहा था. आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कई सेवाओं को ग्राहकों की पहचान की उलझन ने घेर लिया है.

वित्तीय सेवा उद्योग अपने दर्द को जीएसटी के साथ साझा कर सकता है लेकिन सरकार और बाजारदोनों के फायदों की सूरत नहीं दिख रही है.

जीएसटी वाले अपनी निराशा को राफेल या फिर वायु सेना की चिंताओं से बांट सकते हैं जहां प्रतिरक्षा की एक बेहद संवेदनशील जरूरत सरकार और देश की साख पर भारी पडऩे वाले विवाद में उलझ गई है.

आधारजीएसटी और राफेल में गहरा रिश्ता है. इनकी भूमिकाएं अलग-अलग हैं लेकिन इनकी समानताएं और मुसीबत अनोखे ढंग से एक जैसी है.
इससे कौन असहमत होगा कि तीनों ही फैसले या प्रस्ताव देश के लिए जरूरी थे. अर्थव्यवस्था को वैज्ञानिक यानी बायोमीट्रिक आधार जन-पहचान प्रणाली चाहिए. जीएसटी को लागू किया ही जाना था और वायु सेना का आधुनिकीकरण अर्से से लंबित था.

दिलचस्प है कि पिछली सरकार इनका निर्णय कर चुकी थी या फिर उन्हें लागू करने की जमीन तैयार हो गई थी. इन तीनों फैसलों को नई यानी मोदी सरकार ने हाथोहाथ लिया था यानी कि तीनों फैसलों परसिद्धांततःएक किस्म की राजनैतिक सहमति थी.

लेकिन ऐसा क्या हुआ कि तीनों जरूरी सुधारसमाधान के बजाए उलझनविवाद और राजनीति की वजह बन गए.

दरअसलभारतीय लोकतंत्र इस समय कुछ अप्रत्याशित मुसीबतों से रूबरू है. यहां अब सुधार इसलिए असफल नहीं हो रहे हैं कि उन पर राजनैतिक मतभेद हैं या आम लोग इन फैसलों के साथ नहीं हैं अथवा देश खुद को बदलने की क्षमता नहीं रखता... असफलता की वजह अब यह है कि अच्छे सुधार इसलिए मुसीबत बन रहे हैं क्योंकि सरकार उचित लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अनदेखी कर रही है.

दंभ से निकला कल्याण भी घातक होता है और वही आधारजीएसटी व राफेल के साथ हुआ है.

मसलन आधार को लें...यह सहमति तो लगभग एक दशक पहले बन गई थी कि भारत को बायोमीट्रिक पहचान प्रणाली अपनानी होगी ताकि सरकारी कल्याण संसाधनों के बंटवारे में लूट बंद हो सके. यूपीए से एनडीए तक आते-आते आधार की संकल्पना पर बहस खत्म हो चुकी थीनीतिगत सवाल यह था कि भारत में नागरिकता की पहचान को आधार से जोड़ा जाए या इसे सिर्फ सरकारी स्कीमों के लाभार्थियों की पहचान तक सीमित रखा जाएइस सवाल के उत्तर में उन सभी उलझनों के जवाब छिपे थे जिनके कारण आधार विवादित हुआ.

लोकतंत्र का तकाजा था कि सरकार इस पर संवाद के बाद नीति बनाती और सहजता से इसे लागू किया जातालेकिन खुद को सही मानने की सरकारी जिद इस कदर बढ़ी कि पहले तो इसे तदर्थ तौर पर लागू किया गया और फिर सुप्रीम कोर्ट के दबाव पर आधार के कानून को मनी बिल बनाकर संसद से मंजूर करा लिया गया.

आधार का फैसला (संकल्पना नहीं) लोकतंत्र के पैमानों पर खरा नहीं था इसलिए भारी खर्च पर खड़ा हुआ आधारसुप्रीम कोर्ट में खेत रहा. अब पहचान प्रमाणों को लेकर पुरानी अराजकता लौट आई. आधार से जुडऩे के बाद अब इससे अलग होने की मुहिम चल रही है. मोबाइलबैंक और वित्तीय सेवा कंपनियों के लिए ग्राहकों की पहचान की लागत में इजाफा हुआ है. धोखाधड़ी के खतरे गई गुना बढ़ गए हैं.

ठीक इसी तरह जीएसटी भी जिद और पूर्वाग्रह में फंस कर बिखर गया. एक ऐसा सुधार जिससे जीडीपी बढऩेलागत घटने और टैक्स चोरी रुकने की उम्मीद थी उसकी तैयारी खराब थी और बदलाव पर बदलाव इसलिए हुए क्योंकि उनके साथ कोई सहमति नहीं बनाई गई जिन पर इसे लागू किया जाना था. जीएसटी को भारत जितने खराब ढंग से और कहीं नहीं लागू किया गया.

जीएसटी और आधार तो नए फैसले थे लेकिन रक्षा खरीद में विवादों के तजुर्बे के बावजूदराफेल में पारदर्शिता के लिए उन प्रक्रियाओं का पालन नहीं हुआ जिनके जरिए इसे विवादों से बचाया जा सकता था. सुप्रीम कोर्ट में सरकारी हलफनामे बता रहे हैं कि राफेल के फैसले में कैबिनेट की समितियों या संप्रभु गारंटी जैसे नियमों की अनदेखी हुई है.


गांधी की एक बुनियादी बात अब सरकारें अक्सर भूलने लगी हैं: अच्छे लक्ष्य के लिए साधनों की पवित्रता भी जरूरी है. सरकारों को समझना पड़ेगा कि कोई भी सुधार अगर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से नहीं निकलता तो सक्रिय लोकतंत्रों में उसके समस्या बनने के खतरे बढ़ जाते हैं.  



Sunday, October 28, 2018

ताकत देने के खतरे



''भी युद्ध अंततः खत्म हो जाते हैं, लेकिन सत्ता और सियासत जो ताकत हासिल कर लेती है वह हमेशा बनी रहती है.''    —फ्रैंक चोडोरोव

भारत की शीर्ष जांच एजेंसी (सीबीआइ) की छीछालेदर को देख रहा 71 साल का भारतीय लोकतंत्र अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी दुविधा से मुकाबिल है. यह दुविधा पिछली सदी से हमारा पीछा कर रही है कि हमें ताकतवर लोकतांत्रिक संस्थाएं चाहिए या फिर ताकतवर सरकारें

दोनों एक साथ चल नहीं पा रही हैं. 

यदि हम ताकतवर यानी बहुमत से लैस सरकारें चुनते हैं तो वे लोकतंत्र की संस्थाओं की ताकत छीन लेती हैं.

भारतीय लोकतंत्र के 1991 से पहले के इतिहास में हमारे पास बहुमत से लैस ताकतवर सरकारों (इंदिरा-राजीव गांधी) की जो भी स्मृतियां हैं, उनमें लोकतांत्रिक संस्थाओं यानी अदालत, अभिव्यक्ति, जांच एजेंसियों, नियामकों के बुरे दिन शामिल हैं. 1991 के बाद बहुमत की पहली सरकार हमें मिली तो उसमें भी लोकतंत्र की संस्थाओं की स्‍वायत्तता और निरपेक्षता सूली पर टंगी है.

इस सरकार में भी लोकतंत्र का दम घोंटने का वही पुराना डिजाइन है. ताकतवर सरकार यह नहीं समझ पाती कि वह स्वयं भी लोकतंत्र की संस्था है और वह अन्य संस्थाओं की ताकत छीनकर कभी स्वीकार्य और सफल नहीं हो सकती.

क्या सीबीआइ ताकत दिखाने की इस आदत की अकेली शिकार है? 

- सरकार का कार्यकाल खत्म होने के करीब है लेकिन सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बावजूद लोकपाल नहीं बन पाया. पारदर्शिता तो बढ़ाने वाले व्हिसिलब्लोअर कानून ने संसद का मुंह नहीं देखा लेकिन सूचना के अधिकार को सीमित करने का प्रस्ताव संसद तक आ गया. 

- जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट को सरकार ने अपनी ताकत दिखाई और लोकतंत्र सहम गया. रिजर्व बैंक की स्वायत्तता में दखल हुआ तो पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों में थू-थू हुई.

- सूचना प्रसारण मंत्रालय ने गलत खबरों को रोकने के बहाने खबरों की आजादी पर पंजे गड़ा दिए. विरोध हुआ और प्रधानमंत्री ने भूल सुधार किया.

- याद रखना जरूरी है कि मिनिमम गवर्नमेंट का मंत्र जपने वाली एक सरकार ने पिछले चार साल में भारत में एक भी स्वतंत्र नियामक नहीं बनायाल उलटे यूजीसी, सीएजी (जीएसटीएन के ऑडिट पर रोक) जैसी संस्थाओं की आजादी सिकुड़ गई. चुनाव आयोग का राजनैतिक इस्तेमाल ताकतवर सरकार के खतरे की नई नुमाइश है.

- सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि आखिर आधार का कानून पारित कराने के लिए लोकसभा में मनी बिल के इस्तेमाल की क्या जरूरत थी?

- ताकत के दंभ की बीमारी राज्यों तक फैली. राजस्थान सरकार चाहती थी कि अफसरों और न्यायाधीशों पर खबर लिखने से पहले उससे पूछा जाए. लोकतंत्र की बुनियाद बदलने की यह कोशिश अंततः खेत रही. मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा में सवाल पूछने के अधिकार सीमित करने का प्रस्ताव रख दिया. माननीय बेफिक्र थे, पत्रकारों ने सवाल उठाए और पालकी को लौटना पड़ा.

यह कतई जरूरी नहीं है कि लोकतंत्र में सरकार का हर फैसला सही साबित हो. इतिहास सरकारी नीतियों की विफलता से भरा पड़ा है. लेकिन लोकतंत्र में फैसले लेने का तरीका सही होना चाहिए. ताकतवर सरकारों की ज्यादातर मुसीबतें उनके अलोकतांत्रिक तरीकों से उपजती हैं. नोटबंदी, राफेल, जीएसटी, आधार जैसे फैसले सरकार के गले में इसलिए फंसे हैं क्योंकि जिम्मेदार संस्थाओं की अनदेखी की गई. 

जब अदालतें सामूहिक आजादियों से आगे बढ़कर व्यक्तिगत स्वाधानताओं (निजता, संबंध, लिंग भेद) को संरक्षण दे रही हैं तब लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वयत्तता के दुर्दिन देखने लायक हैं.

क्या 1991 के बाद का समय भारत के लिए ज्यादा बेहतर था जब सरकारों ने खुद को सीमित किया और देश को नई नियामक संस्थाएं मिलीं?

क्या भारतीय लोकतंत्र अल्पमत सरकारों के हाथ में ज्यादा सुरक्षित है?

क्या कमजोर सरकारें बेहतर हैं जिनके तईं लोकतंत्र की संस्थाएं ताकतवर रह सकती हैं?

हम सिर्फ वोट दे सकते हैं. यह तय नहीं कर सकते कि सरकारें हमें कैसा लोकतंत्र देंगी इसलिए वोट देते हुए हमें लेखक एलन मूर की बात याद रखनी चाहिए कि सरकारों को जनता से डरना चाहिए, जनता को सरकारों से नहीं.


Monday, August 22, 2016

बुरे दिन इंसाफ के


सरकार और न्यायपालिका के बीच अधिकारों की राजनीतिक लड़ाई ने न्याय व्यवस्था को  निचले स्तर तक बंधक बना लिया है.

राजनैतिक बहसें चलती रहनी चाहिए. लोकतंत्र के विभिन्न अंगों के बीच संतुलन को नए सिरे से नापते रहने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन ये बहसें इतनी बड़ी और लंबी नहीं होनी चाहिए कि व्यवस्था रुक जाए और आम लोग सैद्धांतिक टकरावों के बोझ तले दबकर मरने लगें. भारत में न्यायपालिका और विधायिका के टकराव में अब लगभग यही स्थिति है. बौद्धिक मनोरंजन के लिए हम इसे न्यायिक सक्रियता या लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच संतुलन की बहस कह सकते हैं. अलबत्ता तल्ख हकीकत यह है कि भारत में न्याय का बुनियादी अधिकार राजनेताओं और न्यायमूर्तियों के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई में फंस गया है और अफसोस कि लड़ाई हद से ज्यादा लंबी खिंच रही है.
आजादी के समारोह के मौके पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने सीधे प्रधानमंत्री से ही जजों की नियुक्ति में देरी की कैफियत पूछ ली. फिर भारत में क्रिकेट के तमामों विवादों के गढ़ बीसीसीआइ के अध्यक्ष और बीजेपी नेता अनुराग ठाकुर ने क्रिकेट बोर्ड में पारदर्शिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को न केवल चुनौती दी बल्कि सीधे मुख्य न्यायाधीश की नीयत पर सवाल उठा दिया. यह दोनों घटनाएं बताती हैं कि पिछले साल न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) पर सुप्रीम कोर्ट के इनकार के बाद विधायिका और न्यायपालिका के बीच अविश्वास कितना गहरा चुका है.  
ताजा टकराव की शुरुआत कांग्रेस ने की थी, जो भ्रष्टाचार पर अदालतों की सख्ती से परेशान थी. यूपीए सरकार के नेतृत्व में राज्यसभा ने 2013 में न्यायिक नियुक्ति आयोग (जेएसी) विधेयक मंजूर किया था जो जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम (सुप्रीम कोर्ट नियंत्रित) की स्थापना करता था. इस विधेयक का बीजेपी ने विरोध किया था. 15वीं लोकसभा भंग होने के कारण विधेयक निष्प्रभावी हो गया. सत्ता में आने के बाद एनडीए ने अदालतों में नियुक्ति पर नियंत्रण की कांग्रेसी मुहिम को अपनाने में खासी तेजी दिखाई.
कांग्रेस पहले से साथ थी, इसलिए नए एनजेएसी विधेयक पर राजनैतिक सहमति बन गई. आयोग के गठन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और अदालत व सरकार के अधिकारों को लेकर कड़वाहट भरी जिरह के बाद सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल अक्तूबर में न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी को खारिज कर सरकार को नई न्यायिक नियुक्तियों के लिए एक प्रकिया बनाने का निर्देश दिया.
इस फैसले के बाद नई नियुक्तियां शुरू होनी चाहिए थीं लेकिन टकराव का दूसरा चरण एनजेएसी पर अदालत के निर्णय के बाद शुरू हुआ. सरकार जजों की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम की सिफारिशों को खारिज करने का विशेषाधिकार अपने पास रखना चाहती है और इसे नियुक्ति की प्रक्रिया में शामिल कराना चाहती है. जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट इससे सहमत नहीं होगा. इसी के चलते हाइकोर्ट में 75 जजों की लंबित नियुक्ति का प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास लंबित है जबकि हाइकोर्ट में अलग-अलग स्तरों पर करीब 400 न्यायिक पद खाली पड़े हैं.
इंडिया टुडे के 11 मई के अंक में प्रकाशित शोध एजेंसी ''क्ष'" के निष्कर्षों के मुताबिक, अदालतों में तीन करोड़ मामले लंबित हैं. निचली अदालतों में मुकदमे औसतन छह साल और हाइकोर्ट में तीन साल लेते हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट जाने पर 13 वर्ष लग जाते हैं. न्याय मांगने वाले, धीमी सुनवाई के कारण अदालतों में सालाना 30,000 करोड़ रु. खर्च करते हैं.
न्यायाधीशों की कमी ऐतिहासिक है. मुख्य न्यायाधीश ठाकुर ने मई में ओडिशा हाइकोर्ट के एक कार्यक्रम में कहा था कि लंबित मामलों को निबटाने के लिए 70,000 जजों की जरूरत है, जबकि उपलब्ध जजों की संख्या केवल 18,000 है. पटना, कोलकाता, हैदराबाद के हाइकोर्ट में जज प्रति दिन 109 से 149 मामलों की सुनवाई करते हैं यानी औसत दो मिनट में एक सुनवाई पूरी.
दक्ष के इस सर्वे को पढ़ते हुए न्यायिक सक्रियता की बहस बेमानी लगती है. पांच-छह साल में शायद एक या दो मुकदमे ही ऐसे होते होंगे जिनमें विधायिका और न्यायपालिका के अधिकारों के संतुलन पर असर पड़ता हो. देश में 66 फीसदी मामले जमीन विवादों से जुड़े हैं और शेष मामले बुनियादी अधिकारों को हासिल करने या अपराध पीड़ितों के हैं जिन्हें लेकर संविधान और कानून में कोई अस्पष्टता नहीं है.
अदालतों और सरकार के एक दूसरे पर शक और अधिकारों में दखल की लड़ाई भारतीय लोकतंत्र जितनी ऐतिहासिक हो चली है और इसमें सरकारों के बदलने से कोई फर्क नहीं आया है. पिछले 70 साल में न्यायपालिका का अधिकांश समय सरकारों के साथ राजनैतिक टकरावों में ही बीता है. नेहरू के दौर में संपत्ति के अधिकार को लेकर अदालती फैसले से लेकर इंदिरा गांधी के दौर में संसद की सीमाएं तय करने वाले निर्णय और इमरजेंसी तक शायद ही कभी ऐसा हुआ, जब लंबे समय तक सरकार और अदालतों ने एकजुट होकर काम किया है.
इस लंबे इतिहास के बावजूद टकराव का ताजा अंक इसलिए ज्यादा परेशान करता है कि क्योंकि लोग पहले से ज्यादा जागरूक हैं. भ्रष्टाचार मानवाधिकार छीन रहा है और सरकार के प्रति अविश्वास व राजनीति से मोहभंग के कारण लोकतांत्रिक अधिकार और सेवा के तौर पर न्याय की मांग सबसे ज्यादा है.
अदालतों में लंबित मामलों की रोशनी में भारत में न्याय की चुनौती संवैधानिक और कानूनी नहीं है बल्कि यह बुनियादी ढांचे, श्रम शक्ति और व्यवस्था की चुनौती है जिसे दूर करने के लिए राजनैतिक बहस नहीं, संसाधन, जज और तकनीक चाहिए. लेकिन सरकार और न्यायपालिका के बीच लंबे समय से चल रही सैद्धांतिक खींचतान ने न्याय व्यवस्था को  निचले स्तर तक बंधक बना लिया है.
राजनेताओं और अदालतों को खुद से यह जरूर पूछना चाहिए कि उनके अधिकारों की बहस क्या इतनी महत्वपूर्ण है कि इसके चलते लोगों को बुनियादी न्याय मिलना ही बंद हो जाए? क्या हम इन बहसों को करते हुए भी उन लाखों लोगों के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं कर सकते, जिन्हें सरकारें और जज बदलने से फर्क नहीं पड़ता. अलबत्ता अदालतों में एडिय़ां घिसते-घिसते उनकी जिंदगी खत्म होती जा रही है.