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Friday, July 26, 2019

डर के आगे जीत है


ऐसा अक्सर नहीं होता जब प्रत्येक उदारीकरण और विदेशी मेलजोल पर बिदकने वाले स्वदेशी और अर्थव्यवस्था को खोलने के परम पैरोकार उदारवादी एक ही घाट पर डुबकी लगाते नजर आएं.

मोदी सरकार का फैसला है कि भारत अब बॉन्ड के जरिए विदेशी बाजारों से कर्ज लेगा. ये बॉन्ड भारत की संप्रभु साख (सॉवरिन रेटिंग) पर आधारित होंगे. इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. सरकार के विचार परिवार वाले रूढ़िवादी स्वदेशियों को लगता है कि इससे आसमान फट पड़ेगा और उदारवादियों को लगता है कि सुर्खियां बटोरने के शौक में मोदी सरकार एक गैर-जरूरी कोशिश कर रही है जो मुश्किल में डालेगी.

दोनों ही बेमतलब डरा रहे हैं. जबकि इस डर के आगे जीत है. यहां से एक बड़े सुधार की शुरुआत हो सकती है.

विदेशी कर्ज भारत के लिए नया नहीं है. सरकार को बहुपक्षीय संस्थाओं (विश्व बैंक, एडीबी) और देशों (जैसे बुलेट ट्रेन के लिए जापान) से कर्ज मिलता रहा है. यह कर्ज देशों या संस्था और देश के बीच होता है. कर्ज बाजार का इस पर कोई असर नहीं होता. भारतीय  कंपनियां अपनी साख के बदले दुनिया भर से कर्ज लेती हैं, जो सरकार के खाते में दर्ज नहीं होता.
सरकार के अधिकांश कर्ज देश के भीतर से आते हैं और रुपए में होते हैं. यह कर्ज डॉलर में होगा और डॉलर में ही चुकाना होगा. डॉलर महंगा होने से यह कर्ज बढ़ेगा.

दुनिया के अन्य देशों की तरह, जो विश्व के बाजारों से कर्ज लेते हैं, भारत की साख की रेटिंग होगी. भारत के बॉन्ड दुनिया के बाजारों में सूचीबद्ध होंगे.

भारत शुरुआत में केवल कुल दस अरब डॉलर जुटाना चाहता है. फायदा यह कि यह कर्ज घरेलू बाजार की तुलना में लगभग आधी लागत पर मिलेगा. इस बॉन्ड के बाद देशी बाजार से सरकार कुछ कम कर्ज लेगी.

इस पहल से भारत को तत्काल कोई खतरा नहीं है. इस तरह के विदेशी कर्ज, जोखिम के जिन पैमानों पर मापे जाते हैं, उनमें भारत की स्थिति बेहतर है. जीडीपी के अनुपात में भारत का कुल संप्रभु विदेशी कर्ज केवल 3.8 फीसद है. विदेशी मुद्रा (428 अरब डॉलर) कर्ज अनुपात भी 75 फीसद के बेहतर स्तर पर है.

इस तरह के बॉन्ड के मामले में भारत की तुलना ब्राजील, चीन, इंडोनेशिया, मेक्सिको, फिलीपींस और थाईलैंड से होनी चाहिए. भारत की कुल आय के अनुपात में विदेशी कर्ज 19.8 फीसद (इंडोनेशिया, मेक्सिको 35 फीसद से ज्यादा) है. इसमें संप्रभु गांरटी पर लिया गया विदेशी कर्ज तो चीन व थाईलैंड की तुलना में बहुत कम है.

स्वदेशी और वामपंथी तो 1991 और 95 में भी डरा रहे थे लेकिन भारत अगर उदारीकरण न करता तो ज्यादा बड़ा नुक्सान होता. डराने वालों को खबर हो कि भारत में भरपूर विदेशी पूंजी पहले से है. शेयर बाजारों में विदेशी निवेश (433 अरब डॉलर) और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ (325 अरब डॉलर), दरअसल सरकार (309 अरब डॉलर) और कंपनियों पर कुल विदेशी कर्ज (104 अरब डॉलर)  से भी ज्यादा है.

इसलिए दस अरब डॉलर के सॉवरिन कर्ज से प्रलय नहीं आ जाएगी, बल्कि अगर मोदी सरकार इस फैसले पर आगे बढ़ती है तो एक बड़ी आर्थिक पारदर्शिता उभरेगी. भारत को पहली बार ग्लोबल डॉलर सूचकांक का हिस्सा बनना होगा. इस दर्जे की बड़ी कीमत है और जोखिम भी.

भारत सरकार को अपने सभी वित्तीय आंकड़े पारदर्शी करने होंगे और घाटा या कर्ज छिपाने की आदत छोड़नी होगी. सरकार हमें केंद्र और राज्यों के कर्ज व घाटे की आधी अधूरी तस्वीर दिखाती है. बैंकों के एनपीए, एनबीएफसी का कर्ज, बजट से बाहर रखे जाने वाले कर्ज जैसे छोटी बचत स्कीमें या सरकारी कंपनियों पर लदा कर्ज, क्रेडिट कार्ड आदि के कर्ज, सरकारी कंपनियों का घाटा...दुनिया के निवेशकों अब आर्थिक सेहत की कोई भी जानकारी छिपाना महंगा पड़ेगा.

इस बॉन्ड से मिलने वाली राशि नहीं बल्कि यह महत्वपूर्ण होगा कि भारत अपने जोखिम का प्रबंधन कैसे करता है अब पूरी दुनिया को वित्तीय पारदर्शिता का विश्वास दिलाना होगा जिसके आधार पर भारत की संप्रभु साख तय होगी जो बताएगी कि दुनिया के बाजार में हम कहां खड़े हैं. जो रेटिंग हमें विदेश में मिलेगी, देश का बाजार भी उसी हिसाब से कर्ज देगा.
ग्रीस, तुर्की, अर्जेंटीना, थाईलैंड, ब्राजील के जले निवेशक अब किसी को बख्शते नहीं हैं. बदहाल आर्थिक प्रबंधन के कारण इन मुल्कों को बॉन्ड बाजार में बड़ी सजा झेलनी पड़ी. सनद रहे कि ग्रीस इसलिए डूबा क्योंकि उसने अपना घाटा छिपाया था. बॉन्ड बाजार झूठ से सबसे ज्यादा बिदकता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सलाहकार जेम्स कारविल कहते थे कि अगर मुझे दोबारा अवतार मिले तो मैं राष्ट्रपति या पोप नहीं बल्कि बॉन्ड मार्केट बनूंगा, जो हर किसी को डरा सकता है.

बॉन्ड आने दीजिए, दुनिया का डर ही भारत सरकार को अपने तौर-तरीके बदलने में मदद करेगा.

Monday, January 22, 2018

भारत, एक नई होड़



तकरीबन डेढ़ दशक बाद भारत को लेकर दुनिया में एक नई होड़ फिर शुरू हो रही है. पूरी दुनिया में मंदी से उबरने के संकेत और यूरोप में राजनैतिक स्थिरता के साथ अटलांटिक के दोनों किनारों पर छाई कूटनीतिक धुंध छंटने लगी है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कूटनीतिक चश्मा कमोबेश साफ हो गया है. ब्रिटेन की विदाई (ब्रेग्जिट) के बाद इमैनुअल मैकरॉन और एंजेला मर्केल के नेतृत्व में यूरोपीय समुदाय आर्थिक एजेंडे पर लौटना चाहते हैं. एशिया के भीतर भी दोस्तों-दुश्मनों के खेमों को लेकर असमंजस खत्‍म हो रहा है.  


मुक्त व्यापार कूटनीति के केंद्र में वापस लौट रहा है, जिसकी शुरुआत अमेरिका ने की है. पाकिस्तान को अमेरिकी सहायता पर ट्रंप के गुस्से के करीब एक सप्ताह बाद अमेरिका ने भारत के सामने आर्थिक- रणनीतिक रिश्तों का खाका पेश कर दिया. ट्रंप के पाकिस्तान वाले ट्वीट पर भारत में पूरे दिन तालियां गडग़ड़ाती रहीं थी लेकिन जब भारत में अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने दिल्ली में एक पॉलिसी स्पीच दी तो दिल्ली के कूटनीतिक खेमों में सन्नाटा तैर गया, जबकि यह हाल के वर्षों में भारत से रिश्तों के लिए अमेरिका की सबसे दो टूक पेशकश थी.

दिल्ली में तैनाती से पहले राष्ट्रपति ट्रंप के उप आर्थिक सलाहकार रहे राजदूत जस्टर ने कहा कि भारत को अमेरिकी कारोबारी गतिविधियों का केंद्र बनने की तैयारी करनी चाहिए, ता‍कि भारत को चीन पर बढ़त मिल सके. अमेरिकी कंपनियों को चीन में संचालन में दिक्कत हो रही है. वे अपने क्षेत्रीय कारोबार के लिए दूसरा केंद्र तलाश रही हैं. भारत, एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी कारोबारी हितों का केंद्र बन सकता है.

व्हाइट हाउस, भारत व अमेरिका के बीच मुक्त व्यापार संधि (एफटीए) चाहता है, यह संधि व्यापार के मंचों पर चर्चा में रही है लेकिन यह पहला मौका है जब अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर दुनिया की पहली और तीसरी शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं के बीच एफटीए की पेश की है. ये वही ट्रंप हैं जो दुनिया की सबसे महत्वाकांक्षी व्यापार संधि, ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) को रद्दी का टोकरा दिखा चुके हैं.

अमेरिका और भारत के बीच व्यापार ब्ल्यूटीओ नियमों के तहत होता है. दुनिया में केवल 20 देशों (प्रमुख देश—कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इज्राएल, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, मेक्सिको) के साथ अमेरिका के एफटीए हैं. इस संधि का मतलब है कि दो देशों के बीच निवेश और आयात-निर्यात को हर तरह की वरीयता और निर्बाध आवाजाही. 

ट्रंप अकेले नहीं हैं. मोदी के नए दोस्त बेंजामिन नेतन्याहू भी भारत के साथ मुक्त व्यापार संधि चाहते हैं. गणतंत्र दिवस पर आसियान (दक्षिण पूर्व एशिया) के राष्ट्राध्यक्ष भी कुछ इसी तरह का एजेंडा लेकर आने वाले हैं. भारत-आसियान मुक्त व्यापार संधि पिछले दो दशक का सबसे सफल प्रयोग रही है.

मार्च में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैकरॉन भी भारत आएंगे. भारत और यूरोपीय समुदाय के बीच एफटीए पर चर्चा कुछ कदम आगे बढ़कर ठहर गई है. यूरोपीय समुदाय से अलग होने के बाद ब्रिटेन को भारत से ऐसी ही संधि चाहिए. प्रधानमंत्री थेरेसा मे इस साल दिल्ली आएंगी तो व्यापारिक रिश्ते ही उनकी वरीयता पर होंगे.

पिछली कई सदियों का इतिहास गवाह है कि दुनिया जब भी आर्थिक तरक्की के सफर पर निकली है, उसे भारत की तरफ देखना पड़ा है. पिछले दस-बारह साल की मंदी के कारण बाजारों का उदारीकरण जहां का तहां ठहर गया और भारत का ग्रोथ इंजन भी ठंडा पड़ गया. कूटनीतिक स्थिरता और ग्लोबल मंदी के ढलने के साथ व्यापार समझौते वापसी करने को तैयार हैं और भारत इस व्यापार कूटनीति का नया आकर्षण है.

अलबत्ता इस बदलते मौसम पर सरकार के कूटनीतिक हलकों में रहस्यमय सन्नाटा पसरा है. शायद इसलिए कि उदार व्यापार को लेकर मोदी सरकार का नजरिया बेतरह रूढ़िवादी रहा है. विदेश व्यापार नीति दकियानूसी स्वदेशी आग्रहों की बंधक है. पिछले तीन साल में एक भी मुक्त व्यापार संधि नहीं हुई है. यहां तक कि निवेश संधियों का नवीनीकरण तक लंबित है. स्वदेशी और संरक्षणवाद के दबावों में सिमटा वणिज्य मंत्रालय मुक्त व्यापार संधियों की आहट पर सिहर उठता है.


ध्यान रखना जरूरी है कि भारत की अर्थव्यवस्था के सबसे अच्छे दिन भारतीय अर्थव्यवस्था के ग्लोबलाइजेशन के समकालीन हैं. दुनिया से जुड़कर ही भारत को विकास की उड़ान मिली है. थकी और घिसटती अर्थव्यवस्था को निवेश व तकनीक की नई हवा की जरूरत है. भारतीय बाजार के आक्रामक उदारीकरण के अलावा इसका कोई और रास्ता नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय कूटनीति में क्रांतिकारी बदलाव के एक बड़े मौके के बिल्कुल करीब खड़े हैं.