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Saturday, July 6, 2019

परजीवियों की पालकी


यह वाकया बीते बरस सितंबर का है जब सरकारी कंपनी भारत इलेक्ट्रॉनिक्स (बीईएलका शेयर बाजार में टूटने लगामिसाइल मेकर के नाम से मशहूरबीईएल को हाल में ही 9,200 करोड़ रुपए का मिसाइल ऑर्डर मिला थारक्षा इलेक्ट्रॉनिक्सईवीएम मशीन सहित कई उपकरण बनाने वाली इस कंपनी की ऑर्डर बुक 50,000 करोड़ रुपए के ऑर्डर से जगमगा रही थी लेकिन इसका शेयर दस दिन में 22 फीसदी टूट गया.

कोई निजी कंपनी होती तो इस कदर कारोबार मिलने पर उसके शेयर मिसाइल बन गए होते लेकिन बदकिस्मत बीईएल में निवेशकों की पूंजी उड़ गई क्योंकि सरकार ने इस कंपनी को बिक्री पर मिलने वाले मार्जिन को मनमाने ढंग से घटा दियाइस आदेश के दायरे में कंपनी का लगभग आधा कारोबार आता हैइसलिए भारत की मिसाइल मेकर के शेयर फुस्स हो गए

यह पहली नजीर नहीं थी कि सरकार अपनी कंपनियां कैसे चलाती है

सरकार की सबसे बड़ी टेलकॉम कंपनियां यानी भारत संचार निगम (बीएसएनएलऔर महानगर टेलीफोन निगम (एमटीएनएलठीक उस दौरान बीमार हो गईं जब (2001 से  2016) भारत के दूरसंचार बाजार का स्वर्ण युग चल रहा थाइन्हें विशाल नेटवर्कबाजार और साख विरासत में मिली थीनई कंपनियों ने अपने पहले टावर इनके सामने लगाए थेएयर इंडिया भी विमानन बाजार में चौतरफा तरक्की के साथ डूब गई.

सरकारी कंपनियां आर्थिक सेहत का सबसे पुराना नासूर हैंबीएसएनएल और एयर इंडिया की बीमारी के साथ इस घाव पर फिर नजरें गई हैंउम्मीद रखने वाले मानते हैं कि अब शायद नश्तर चलेगा क्योंकि बजट का हाल बुरा है लेकिन कुछ लोग भारतीय अर्थव्यवस्था की पीठ पर इन परजीवियों को बिठाए रखना चाहते हैं.

पिछले वित्त वर्ष के अंत तक सरकार की 188 कंपनियों का कुल घाटा 1,23,194 करोड़ रुपए थाइनमें 71 कंपनियों का साझा घाटा 31,000 करोड़ रुपए दर्ज किया गया. 52 कंपनियां तो पिछले पांच या अधिक साल से घाटे में हैंसनद रहे कि इस सूची में सरकारी बैंक शामिल नहीं हैंकई कंपनियों के घाटे तो उनकी पूंजी भी खत्म कर चुके हैं.

जिन्हें सरकारी कंपनियों को बंद करने या निजीकरण की सलाह नागवार लगती है उन्हें इन तथ्यों पर गौर करना चाहिए कि...

सरकारी कंपनियों का आधे से अधिक (52 फीसदघाटा बीएससएनएलएमटीएनएल और एयर इंडिया के नाम . अगर 15,000 करोड़ रुपए के घाटे वाले डाक विभाग को इसमें जोड़ लें तो सिर्फ इनसे निजात पाकर सरकार कई जल और स्वच्छता मिशन या डायरेक्ट इनकम ट्रांसफर चला सकती हैयह घाटा उत्पादन कंपनियां जिन उद्योगों में काम कर रही हैंवहां निजी क्षेत्र फल-फूल रहा है.

मुनाफे वाली सरकारी कंपनियां भी शानदार कामकाज की मिसाल नहीं हैंफायदा कमाने वाली दस शीर्ष कंपनियां तेलकोयलाबिजली और गैस क्षेत्र की हैं जहां सरकार का एकाधिकार हैप्रतिस्पर्धा शुरू होते ही वे एयर इंडिया बन जाएंगी.
बीएसएनएल-एमटीएनएल की बदहाली की खबर आने के बाद सरकार को यह मानना पड़ा कि इन कंपनियों की 75 से 85 फीसद कमाई केवल कर्मचारियों पर खर्च होती हैजबकि निजी कंपनियों के लिए यह लागत उनकी कमाई का केवल 2.9 से 5 फीसद हैहैरत नहीं कि केवल सरकारी कंपनियां ही हैं जिनमें 2012-17 के दौरान तनख्वाहें 11 फीसद बढ़ी और पूंजी पर रिटर्न केवल 5.4 फीसद.

- लोहास्टीलतेलएल्यूमिनियमकिसी भी क्षेत्र में सरकारी कंपनियों की उत्पादन वृद्धि दर निजी कंपनियों से ज्यादा नहीं है.

-पिछले दो दशक में सबसे ज्यादा नए रोजगार टेलीकॉमसूचना तकनीकबैंकिंग में आए हैं जहां सरकार ने निजीकरण किया है.

करदाताओं के पैसे या कर्ज से घाटा पैदा करने का यह खेल तब एक संगठित लूट की शक्ल लेता दिखता है जब हमें पता चलता है कि सरकार बुरी तरह बीमार कंपनियां (कुल 19) बंद करने को भी राजी नहीं हैनीति आयोग की राय के बावजूद मोदी सरकार पिछले पांच साल में बमुश्किल दो छोटी कंपनियां बंद कर सकी.

कुछ रणनीतिक परियोजनाओं को छोड़कर रेलवे के लिए निजीकरण के अलावा कोई रास्ता नहीं हैबीएसएनएल केवल सीमावर्ती इलाकों में बजट सब्सिडी पर नेटवर्क चला सकता हैईमेलमोबाइल मैसेजिंग के दौर में पूरी दुनिया में डाक विभाग का कोई भविष्य नहीं हैयहां तक कि पोस्टल बैंकिंग को प्रतिस्पर्धात्मक बनाए रखना भी मुश्किल है.

सरकारी कंपनियों को चलाए रखने के पैरोकार केवल वामपंथी नहीं हैंयह वकालत अब सर्वदलीय हो चुकी हैआर्थिक उदारीकरण के प्रेरक नरसिंह राव भी निजीकरण से उतना ही चिढ़ते थे जितने के कम्युनिस्टस्वदेशी के पैरोकार भी कम्युनिस्टों की तरह (एयर इंडिया को बेचने का विरोधइन घाटा फैक्ट्रियों को चलाए रखना चाहते हैं.

ढाई दशक के उदारीकरण में केवल अटल बिहारी वाजपेयी ने 28 सरकारी कंपनियां बेचकर पहले व्यापक निजीकरण का साहस दिखाया थानया बजट बताएगा कि भारी बहुमत पर बैठे नरेंद्र मोदी भारत के करदाताओं को कब तक इन सफेद हाथियों की सेवा में लगाए रखना चाहेंगे?



Wednesday, June 22, 2016

सफेद हाथियों का शौक


सरकारी कंपनियों को बनाए रखने के आग्रह दलीय बाधाएं तोड़कर भारतीय राजनीति का संस्कार बन चुके हैं
रकारी कंपनियों की बिक्री (निजीकरण) का फैसला गंभीर है. यह मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति से पीछे हटना है. सरकारी उपक्रमों को बेचने से बजट में कुछ संसाधन आएंगे लेकिन यह तो सब्जी का बिल चुकाने के लिए घर को बेचने जैसा है. बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस को बेचने की सोच रही है. मैं कभी सोच भी नहीं सकता जो विमानन कंपनियां हमारा झंडा दुनिया में ले जाती हैं, उन्हें बेचा जाएगा."


यदि आपको लगता है कि यह किसी कॉमरेड का भाषण है तो चौंकने के लिए तैयार हो जाइए. यह पी.वी. नरसिंह राव हैं जो भारतीय आर्थिक सुधारों के ही नहीं, पब्लिक सेक्टर कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने की नीति के भी पहले सूत्रधार थे. यह भाषण वाजपेयी सरकार की निजीकरण नीति के खिलाफ था जो उन्होंने बेंगलूरू में कांग्रेस अधिवेशन (मार्च 2001) के लिए तैयार किया था. भाषण तो नहीं हो सका लेकिन अधिवेशन के दौरान उन्होंने जयराम रमेश से चर्चा में निजीकरण पर वाजपेयी सरकार की नीति के विरोध में गहरा क्षोभ प्रकट किया था. रमेश की किताब टु द ब्हिंक ऐंड बैकइंडियाज 1991 स्टोरी में यह संस्मरण और भाषणनुमा आलेख संकलित है. 

सरकारी उपक्रमों को लेकर नरसिंह राव के आग्रह दस साल चली मनमोहन सरकार को भी बांधे रहे. अब जबकि मोदी सरकार में भी घाटे में आकंठ डूबे डाक विभाग को पेमेंट बैंक में बदला जा रहा है या स्टील सहित कुछ क्षेत्रों में नए सार्वजनिक उपक्रम बन रहे हैं तो मानना पड़ेगा कि सरकारी कंपनियों को लेकर भारतीय नेताओं का प्रेम आर्थिक तर्कों ही नहीं, दलीय सीमाओं से भी परे है.

सरकार बैंक, होटल, बिजली घर ही नहीं चलाती, बल्कि स्टील, केमिकल्स, उर्वरक, तिपहिया स्कूटर भी बनाती है, और वह भी घाटे पर. सरकार के पास 290 कंपनियां हैं, जो 41 केंद्रीय मंत्रालयों के मातहत हैं. बैंक इनके अलावा हैं. 234 कंपनियां काम कर रही हैं जबकि 56 निर्माणाधीन हैं. सक्रिय 234 सरकारी कंपनियों में 17.4 लाख करोड़ रु. का सार्वजनिक धन लगा है. इनका कुल उत्पादन 20.6 लाख करोड़ रु. है. सक्रिय कंपनियों में 71 उपक्रम घाटे में हैं. सार्वजनिक उपक्रमों से मिलने वाला कुल लाभ करीब 1,46,164 करोड़ रु. है यानी इनमें लगी पूंजी पर लगभग उतना रिटर्न आता है जितना ब्याज सरकार कर्जों पर चुकाती है. 

सार्वजनिक उपक्रमों का दो-तिहाई मुनाफा कोयला, तेल, बिजली उत्पादन व वितरण से आता है जहां सरकार का एकाधिकार यानी मोनोपली है या फिर उन क्षेत्रों से, जहां निजी प्रतिस्पर्धा आने से पहले ही सरकारी कंपनियों को प्रमुख प्राकृतिक संसाधन या बाजार का बड़ा हिस्सा सस्ते में या मुफ्त मिल चुका था.

सार्वजनिक उपक्रमों का कुल घाटा 1,19,230 करोड़ रु. है. यदि बैंकों के ताजा घाटे और फंसे हुए कर्ज मिला लें तो संख्या डराने लगती है. 863 सरकारी कंपनियां राज्यों में हैं जिनमें 215 घाटे में हैं. जब हमें यह पता हो कि निजी क्षेत्र के एचडीएफसी बैंक का कुल बाजार मूल्य एक दर्जन सरकारी बैंकों से ज्यादा है या रिलायंस इंडस्ट्रीज की बाजार की कीमत इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, गेल और हिंदुस्तान पेट्रोलियम से अधिक है तो आर्थिक पैमानों पर सरकारी कंपनियों को बनाए रखने का ठोस तर्क नहीं बनता.  

सरकारी कंपनियों में महीनों खाली रहने वाले उच्च पद यह बताते हैं कि इनकी प्रशासनिक साज-संभाल भी मुश्किल है. रोजगार के तर्क भी टिकाऊ नहीं हैं. रोजगार बाजार में संगठित क्षेत्र (सरकारी और निजी) का हिस्सा केवल छह फीसदी है. केवल 1.76 करोड़ लोग सरकारी क्षेत्र में थे, जिनमें 13.5 लाख लोग सरकारी कंपनियों में हैं. विनिवेश व निजीकरण से रोजगार नहीं घटा, यह पिछले प्रयोगों ने साबित किया है. 

इन तथ्यों के बावजूद और अपने चुनावी भाषणों में मिनिमम गवर्नमेंट की अलख जगाने वाली मोदी सरकार नए सार्वजनिक उपक्रम बनाने लगती है तो हैरत बढ़ जाती है. जैसे डाक विभाग के पेमेंट बैंक को ही लें. 2015 में डाक विभाग का घाटा 14 फीसदी बढ़कर 6,259 करोड़ रु. पहुंच गया. खाता खोलकर जमा निकासी की सुविधा देने वाले डाक घर अर्से से पेमेंट बैंक जैसा ही काम करते हैं. केवल कर्ज नहीं मिलता जो कि नए पेमेंट बैंक भी नहीं दे सकते.

सरकारी बैंक बदहाल हैं और निजी कंपनियां पेमेंट बैंक लाइसेंस लौटा रही हैं. जब भविष्य के वित्तीय लेनदेन बैंक शाखाओं से नहीं बल्कि एटीएम मोबाइल और ऑनलाइन से होने वाले हों, ऐसे में डाक विभाग में 800 करोड़ रु. की पूंजी लगाकर एक नया बैंक बनाने की बात गले नहीं उतरती. असंगति तब और बढ़ जाती है जब नीति आयोग एयर इंडिया सहित सरकारी कंपनियों के विनिवेश के सुझावों पर काम कर रहा है.

सरकार को कारोबार में बनाए रखने के आग्रह आर्थिक या रोजगारपरक नहीं बल्कि राजनैतिक हैं. सत्ता के विकेंद्रीकरण और स्वतंत्र नियामकों के उभरने के साथ राजनेताओं के लिए विवेकाधीन फैसलों की जगह सीमित हो चली है. अधिकारों के सिकुडऩे के इस दौर में केवल सरकारी कंपनियां ही बची हैं जो राजनीति की प्रभुत्ववादी आकांक्षाओं को आधार देती हैं जिनमें भ्रष्टाचार की पर्याप्त गुंजाइश भी है. यही वजह है कि भारत को आर्थिक सुधार देने वाले नरसिंह राव निजीकरण को पाप बताते हुए मिलते हैं. मनमोहन सिंह दस साल के शासन में सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश नहीं कर पाते हैं, जबकि निजी क्षेत्र की उम्मीदों के नायक नरेंद्र मोदी सरकारी कंपनियों के नए प्रणेता बन जाते हैं.

प्रधानमंत्रियों की इस सूची में केवल गठजोड़ की सरकार चलाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ही साहसी दिखते थे. उन्होंने निजीकरण की नीति बनाई और लगभग 28 कंपनियों के निजीकरण के साथ यह साबित किया कि होटल चलाना या ब्रेड बनाना सरकार का काम नहीं है.

सार्वजनिक कंपनियों में नागरिकों का पैसा लगा है. जब ये कंपनियां घाटे में होती हैं तो सिद्धांततः यह राष्ट्रीय संपत्ति की हानि है. जैसा कि सरकारी बैंकों में दिख रहा है जहां बजट से गया पैसा भी डूब रहा है और जमाकर्ताओं का धन भी लेकिन अगर यह नुक्सान राजनैतिक प्रभुत्व के काम आता हो तो किसे फिक्र होगी? हमें यह मान लेना चाहिए कि सरकारी कंपनियों को बनाए रखने के आग्रह दलीय बाधाएं तोड़कर भारतीय राजनीति का संस्कार बन चुके हैं, जिससे जल्दी मुक्ति अब नामुमकिन है.