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Tuesday, January 2, 2018

'इंसाफ' के सबक

नए साल की दस्तक बड़ी सनसनीखेज है. 2017 के ठीक अंत में एक अनोखे न्याय ने हमें उधेड़कर रख दिया है.

2जी घोटाले को लेकर अदालत को बिसूरने से क्या फायदाउसने तो हमें हमारी व्यवस्था की सड़न दिखा दी है. 2जी घोटाले में सभी को बरी करने का फैसला उसी कच्चे माल का उत्पाद है जो हमारी जांच एजेंसियों ने अदालत के सामने रखा था.

भारत घोटालों में कभी दरिद्र नहीं रहा लेकिन 2जी जैसे घोटाले दशकों में एक बार होते हैं. इस पर हजार बोफोर्स और सौ राष्ट्रमंडल घोटाले कुर्बान. इस घोटाले से राजनीति तो जो बदली सो बदलीइसने भारत में प्राकृतिक संसाधन आवंटन की नीतियां बदल दीं और 2जी का मारा दूरसंचार उद्योग अब तक उठ कर खड़ा नहीं हो पाया.

2जी पर अदालती फैसले के दो निष्कर्ष बड़े दो टूक हैं:

- जांच एजेंसियांआरोपों के पक्ष में सबूत और दस्तावेज पेश नहीं कर पाईं.
जांच एजेंसियां भ्रष्टाचार या वित्तीय लेनदेन साबित नहीं कर सकीं. 

'लेनदेन' के नए तरीकों मसलनफैसला लेने वालों व लाइसेंस लेने वालों के बीच कारोबारी रिश्तों पर अदालत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची.

इन निष्कर्षों ने भ्रष्टाचार से लड़ाई के मौजूदा तरीकों की चूलें हिला दी हैं.

सबूतों और दस्तावेजों की सुरक्षाः सरकारों के बदलते ही फाइलों के जलने की खबरें बेसबब नहीं होतीं. वित्तीय घोटालों में सबूत खत्म करना एक बड़ा घोटाला बन चुका है. 2जी पर फैसला बताता है कि जिन फाइलों पर फैसले हुए थेउनको या तो सबूत के तौर पर पेश नहीं किया जा सका या फिर आदेशों को बुरी तरह बिखरा या उलझा दिया गया. इसलिए जांच एजेंसियां चार्जशीट दाखिल करने के बाद आरोपों की कडिय़ां जोड़ने के लिए सबूत नहीं ला पाईं. अधिकारियों की उलझी गवाही और अलग-अलग  व्‍याख्‍याओं ने भारत के सबसे बड़े और पेचीदा घोटाले में सबके बरी होने का रास्ता खोल दिया.

आर्थिक घोटाले वैसे भी पेचीदा होते हैं और जांच एजेंसियों के पहुंचने तक सबूत अक्सर आरोपियों के नियंत्रण में रहते हैं. सबूतों का खात्मा न्याय की उम्मीद को तोड़ देता है. बची-खुची कसर गवाहों को खरीद कर पूरी हो जाती है. यदि कानूनी बदलावों के जरिए या अदालतों की पहल पर सरकारें बदलने के बाद जरूरी दस्तावेजों की सुरक्षा नहीं की गई तो आगे किसी भी घोटाले में सजा देना असंभव हो जाएगा.

भ्रष्टाचार के नए तरीकेः 2जी घोटाले में अदालत ने कलैगनार टीवी को डीबी रियल्टी से मिले पैसे को भ्रष्टाचार नहीं माना. वे दिन अब लद गए जब रिश्वतें नकद में दी जाती थीं और नेताओं के बिस्तर के नीचे नोट बरामद होते थे. आर्थिक घोटालों में लेनदेन के असंख्य तरीके हैंजिनमें अंतर कंपनी निवेशकर्जशेयरों के आवंटन से लेकर राजनैतिक पार्टी को चंदा तक शामिल हो सकता है. प्रत्यक्ष‍ रूप से ये भी लेनदेन वैध हैं लेकिन भ्रष्टाचार के कानून के तहत इनकी स्पष्ट व्‍याख्‍या चाहिए. 

2जी पर फैसले ने दिखाया है कि हमारा मौजूदा कानूनी तंत्र और जांच एजेंसियां लगातार बढ़ रहे इन जटिल घोटालों के आगे कितने बौने हैं.

ध्यान रखना जरूरी है कि इस फैसले को उन बदलावों (सार्थक या नुक्सानदेह) की रोशनी में देखा जाएगा जो इस घोटाले के बाद पिछले पांच साल में हुए. 

2जी घोटाले के बाद...

- आरोपियों पर फैसला आने से पांच साल पहले पीड़ितों को (122 कंपनियों के लाइसेंस रद्द) सजा दे दी गई. अरबों का निवेश डूबाहजारों की नौकरियां गईं. भारत की छवि बुरी तरह आहत हुई. इसके बाद कोई बड़ी विदेशी कंपनी भारत में दूरसंचार में निवेश के लिए आगे नहीं आई.

- भारत की दूरसंचार क्रांति का चेहरा बदल गया. इसके बाद स्पेक्ट्रम की नीलामी शुरू हुई. पारदर्शिता तो आई लेकिन महंगी बोलियां लगीं. दूरसंचार सेवाओं की दरें बढ़ींकंपनियों ने कर्ज लिया. उद्योग में मंदी आई और अब महंगे स्पेक्ट्रम की मारी और 4.85 लाख करोड़ रु. के कर्ज में दबी कंपनियां मदद के लिए सरकार के दरवाजे पर खड़ी हैं. 

- इससे दूरसंचार उद्योग में प्रतिस्पर्धा खत्म हो गई. आज 135 करोड़ लोगों का बाजार केवल तीन या चार ऑपरेटरों के हाथ में है. 

यह बदलाव अच्छे थे या बुरेइसका दारोमदार सिर्फ इस पर होगा कि 2जी वास्तव में घोटाला था या नहीं. शुक्र है कि यह फैसला अभी निचली अदालत से आया है. ऊपर की मंजिलों से उम्मीद बाकी है. लेकिन बीता बरस जाते-जाते हमें झिझोड़ कर यह बता गया है कि राजनैतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई कितनी कठिन होती जा रही है.

Sunday, October 15, 2017

ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग


नेता सिर्फ पांच साल में खरबपति कैसे हो जाते हैं?
पिछले माहजब इस सवाल के साथ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से करीब 289 सांसदों-विधायकों की 'उद्यमिताका रहस्य पूछा था तो बहुत सी उम्‍मीदों ने अचानक आंखें खोली कि अब तो 2014 के चुनावी वादे याद आ ही जाएंगे जिन में मुट्ठियां लहराते हुए राजनीति को साफ करने का संकल्प किया गया था. 
प्रधानमंत्री नेपिछले साल नोटबंदी के दौरान सभी सांसदों-विधायकों से अपने बैंक खातों की जानकारी पार्टी को देने को कहा था. जानकारी जरूर आई होगी लेकिन घंटों लाइन में लगने वाली जनता को यह पता नहीं चला कि नोटबंदी के दौरान उनके माननीय नुमाइंदों के बैंक खातों में क्या हो रहा था
बताते चलें कि साल बीतने को है लेकिन बीते सप्ताह तक प्रधानमंत्री की वेबसाइट पर 92 में केवल 29 मंत्रियों की संपत्ति के ब्यौरे उपलब्ध थे.
भ्रष्टाचार और इलेक्ट्रॉनिक्स में एक अनोखी समानता है. दोनों जितने नैनो यानी सूक्ष्म होते जाते हैंउनकी ताकत उतनी ज्यादा बढ़ती जाती है और  राजनीति इसमें डूबकर और उजली (ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंगत्यों त्यों उज्वल होय) होती जाती है. भ्रष्टाचार की ताकत बढऩे और उसके उज्ज्वल होने का मतलब उसका संस्थागत होते जाना है.
भ्रष्टाचार की बढ़ती सूक्ष्मता पूरी दुनिया में सबसे बड़ी चुनौती हैलड़ाई इसलिए कठिन होती जा रही है कि जब तक लोग भ्रष्टाचार को समझकर और जागरूक होकरइसके विरुद्ध लामबंद हो पाते हैंतब तक यह संस्थागत हो जाता है.
संस्थागत होते ही भ्रष्टाचार अपराध की जगह सुविधाआदतमजबूरीपरंपरा और नियम तक बन जाता है. आर्थिक फैसलों में तो विभाजक रेखाएं इतनी धुंधली हैं कि प्रत्यक्ष तौर पर साफ-सुथरे दिखने वाले नीतिगत फैसलों में महीन व्यापक भ्रष्टाचार छिपा होता है.
भ्रष्टाचार के जटिल व संस्थागत होने को कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है:

1. राजनैतिक दलों को मिलने वाला चंदा लोकतंत्र में भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी संस्था है. सभी दल इसे मजबूरी मानने लगेइसे बदलना तो दूर इसे पारदर्शी बनाने की कोशिशें भी हाशिए पर हैं. चंदे संस्थागत हो गए. चुनाव आयोग और अदालतें भी इसे ठीक करने में कुछ खास नहीं कर सकीं. हमें यह मालूम है कि चंदों के बदले सत्ता के फायदों में हिस्सेदारी होती है लेकिन यह भ्रष्टाचार सूक्ष्म और 'नीतिसंगतहै. हमें यह मान लेना पड़ता है कि सत्ता में आने वाली हर नई सरकार अपने पसंदीदा कारोबारियों को अवसरों से नवाजेगी. विकास की यह कीमत हमें भुगतनी पड़ेगी.

2. राजनेता या अधिकारी सरकार में पदों और रसूख का फायदा उठा सकते हैं. सांसद-विधायक संपत्ति की घोषणा तो करते हैं लेकिन अपने कारोबारी या वित्तीय संपर्कों की नहीं. 2015 में तंबाकू उत्पादों पर चेतावनी का फैसला करने वाली समिति में बीड़ी उद्योग से जुड़े दो सांसद थे. सांसदोंविधायकों और मंत्रियों को लेकर इस मामले में नियम इस कदर अधूरे हैं कि यह भ्रष्टाचार एक तरह से संस्थागत हो गया.
जब हमें अपने नुमाइंदों के बारे में ही जानकारी नहीं मिलती तो उनके परिवारों के बारे में कौन पूछेगाएसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स की याचिका पर देश की सर्वोच्च अदालत का अचरज सही था कि केवल पांच साल में कुछ सांसदों की संपत्ति 500 फीसदी कैसे बढ़ सकती है. 

3. बैंकों से कंपनियों को कर्जसरकारों से उद्योगों को जमीनखदानस्पेक्ट्रम आवंटन जाहिरा तौर पर साफ-सुथरे आर्थिक व्यवहार हैं लेकिन जरा यह उदाहरण देखिए कि कंपनियों ने सरकार से स्पेक्ट्रम खरीदाइसके लिए बैंको से कर्ज ले लिया गया लेकिन घाटा होने पर फीस की माफी और बैंक कर्ज को टालने का पैकेजलेकिन क्या यह सब कुछ साफ-सुथरा हैबैंकों के बकाया कर्ज की वजहें आर्थिक विफलताएं ही नहीं हैं. इस सूक्षम संस्थागत भ्रष्टाचार की पैमाइश व सफाई आसान नहीं है.

भ्रष्टाचार के मामले में हम अक्सर यह मान लेते हैं कि शीर्ष पर बैठे एक-दो साफ सुथरे लोग पूरी व्यवस्था में स्वच्छता का चमत्कार कर देंगे. लेकिन यह भ्रष्टाचार व्यक्तिगत है ही नहीं. उच्च राजनैतिक पदों पर भ्रष्टाचार अब अवसरों की पेचीदा बंदरबांट का हैअन्य फायदे तो अदृश्य हैं.

भ्रष्टाचार को लेकर व्यक्तिगत संघर्ष दूर तक नहीं जा पाते. कई बार साफ-सुथरे नेतृत्व भी अपने पीछे भयानक कालिख छोड़ जाते हैं. उच्च पदों पर संस्थागत भ्रष्टाचार के खिलाफ सफलताएं हमेशा संस्थाओं (कानूनअदालतऑडिटर) की मदद से ही मिली हैं. 

क्या पिछले तीन साल में भारत में भ्रष्टाचार से लडऩे वाली संस्थाएं मजबूत और विकसित हुई हैंनहीं तो फिर जब तक बंद है तब तक आनंद हैजब खुलेगा तब खिलेगा.



Tuesday, May 10, 2016

कुछ करते क्यों नहीं !


भ्रष्टाचार से निर्णायक मुक्ति की उम्मीद लगाए, एक मुल्क को राजनैतिक कुश्तियों का तमाशबीन बनाकर रख दिया गया है.

भ्रष्टाचार को लेकर एक और आतिशबाजी शुरू हो चुकी है. पिछले पांच-छह साल में घोटालों पर यह छठी-सातवीं राजनैतिक कुश्ती है, जो हर बार पूरे तेवर-तुर्शी और गोला-बारूद के साथ लड़ी जाती है और राजनीतिजीवी जमात को अपनी आस्थाएं तर करने का मौका देती है. लेकिन हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर हम एक छलावे के दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जिसमें भ्रष्टाचार से निर्णायक मुक्ति की उम्मीद लगाए, एक मुल्क को राजनैतिक कुश्तियों का तमाशबीन बनाकर रख दिया गया है.

भारत भ्रष्टाचार के सभी पैमानों पर सबसे ऊपर है, लेकिन इससे निबटने की व्यवस्था करने, संस्थाएं और पारदर्शी ढांचा बनाने में हम उन 175 देशों में सबसे पीछे हैं, जिन्होंने 2003 में संयुक्त राष्ट्र की भ्रष्टाचार रोधी संधि पर दस्तखत किए थे. हमसे तो आगे पाकिस्तान, मलेशिया, इंडोनेशिया, भूटान और वियतनाम जैसे देश हैं जिनके प्रयास, सफलताएं-विफलताएं भ्रष्टाचार पर ग्लोबल चर्चाओं में जगह पाते हैं.

चॉपरगेट के बहाने हम उन आंदोलनों और बेचैनियों को श्रद्धांजलि दे सकते हैं, जिन्होंने 2011 से 2013 के बीच देश को मथ दिया था. लगता था कि जैसे भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ इंकलाब आ गया है. कोई बता सकता है कि इस बेहद उथल-पुथल भरे दौर से निकला लोकपाल आज कहां है, जिसका कानून तकनीकी तौर पर जनवरी, 2014 से लागू है, लेकिन लोकपाल महोदय प्रकट नहीं हुए.

यह खबर किसी अखबार या टीवी के मतलब की नहीं थी कि दिसंबर, 2014 में मोदी सरकार ने लोकपाल कानून को पुनःविचार और संशोधनों के लिए कानून मंत्रालय की संसदीय समिति को सौंप दिया. एक साल बाद दिसंबर, 2015 में इस समिति ने केंद्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआइ के भ्रष्टाचार रोधी विंग को लोकपाल के दायरे में लाने की सिफारिश के साथ अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी.

भ्रष्टाचार को लेकर यह कैसी वचनबद्धता है कि तकनीकी तौर पर लोकपाल कानून बने ढाई साल हो चुके हैं, लेकिन मोदी सरकार लोकपाल पर कुछ नहीं बोली. संयुक्त राष्ट्र की संधि के मुताबिक, भारत को पांच दूसरे कानून भी बनाने हैं. इनमें एक व्हिसलब्लोअर बिल भी है. इस कानून के तहत भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले की सुरक्षा के प्रावधान ढीले करते हुए सरकार अपनी मंशा को दागी करा चुकी है.

यह विधेयक राज्यसभा में अटका है. अदालतों में पारदर्शिता के लिए जुडीशियल अकाउंटेबिलटी बिल, नागरिक सेवाओं से जुड़े अधिकारों के लिए सिटीजन चार्टर ऐंड ग्रीवांस रिड्रेसल बिल, सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार रोकने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन का विधेयक और विदेशी अधिकारियों व अंतरराष्ट्रीय संगठनों में रिश्वतखोरी रोकने के विधेयकों को लेकर पिछले दो साल में सरकार में कहीं कोई सक्रियता नहीं दिखी.

किसी को यह मुगालता नहीं है कि लोकपाल या इन पांच कानूनों के जरिए हम भारत की सियासत और कार्यसंस्कृति में भिदे भ्रष्टाचार को रोक सकेंगे. यह तो सिर्फ भ्रष्टाचार पर रोक, जांच और पारदर्शिता का शुरुआती ढांचा बनाने की कोशिश है, वह भी अभी शुरू नहीं हो सकी है. 2003 में भ्रष्टाचार पर अंतरराष्ट्रीय संधि (2005 से लागू) के बाद लगभग प्रत्येक देश ने अपनी परिस्थिति के आधार पर भ्रष्टाचार से निबटने के लिए रणनीतियां, संस्थाएं, नियम, कानून और एजेंसियां बनाई हैं, जिन्हें लगातार संशोधित कर प्रभावी बनाया जा रहा है.

पिछले कुछ वर्षों में यूएनडीपी और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने भ्रष्टाचार निरोधक रणनीतियों का अध्ययन किया है, जो इस जटिल जंग में हार-जीत, दोनों की कहानियां सामने लाते हैं. मसलन, रोमानिया ने अपनी पुरानी भूलों से सीखकर एक कामयाब व्यवस्था बनाने की कोशिश की. इंडोनेशिया ने अपनी ऐंटी करप्शन रणनीतियों को गवर्नेंस सुधारों से जोड़कर ग्लोबल स्तर पर सराहना हासिल की है. ऑस्ट्रेलिया ने नेशनल ऐंटी करप्शन रणनीति बनाने की बजाए पारदर्शिता को व्यापक गवर्नेंस और न्यायिक सुधारों से जोड़कर पूरे सिस्टम को पारदर्शी बनाने की राह चुनी, जबकि मलेशिया ने भ्रष्टाचार खत्म करने की रणनीति को गवर्नेंस ट्रांसफॉर्मेशन प्रोग्राम से जोड़ा, जो इस विकासशील देश को 2020 तक विकसित मुल्क में बदलने का लक्ष्य रखता है. चीन तो दुनिया का सबसे कठोर भ्रष्टाचार निरोधक अभियान चला रहा है, जिसमें 2013 से अब तक दो लाख से अधिक अधिकारियों और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की जांच हो चुकी है और अभियोजन की दर 99 फीसदी है.

भ्रष्टाचार रोकने की रणनीतियां चार बुनियादी आधारों पर टिकी हैं. सबसे पहला है, मजबूत और स्वतंत्र मॉनिटरिंग एजेंसी, दूसरा, भ्रष्टाचार की नियमित और पारदर्शी नापजोख जबकि तीसरा पहलू है, जांच के लिए पर्याप्त संसाधन और विस्तृत तकनीकी क्षमताएं और चौथा है, स्पष्ट कानून व भ्रष्टाचार पर तेज फैसले देने वाली सक्रिय अदालतें.

भारत की तरफ देखिए. हमारे पास इन चारों में से कुछ भी नहीं है. भारत की एक ताकतवर स्वतंत्र एजेंसी बनाने (लोकपाल) की जद्दोजहद अब तक जारी है. केंद्रीय सतर्कता आयोग को गठन के 39 साल बाद 2003 में वैधानिक दर्जा मिला लेकिन जांच का अधिकार नहीं. जांच करने वाली सीबीआइ सरकारों के पिंजरे का तोता है. भ्रष्टाचार की नापजोख का कोई तंत्र कभी बना ही नहीं और अदालतें उन कानूनों से लैस नहीं हैं, जो जटिल भ्रष्टाचार को बांध सकें.

कीचड़ सनी कांग्रेस से तो इस सबकी उम्मीद भी नहीं थी, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ जनादेश पर बैठकर सत्ता में आई मोदी सरकार से यह अपेक्षा जरूर थी कि वह पुराने घोटालों की तेज जांच करेगी और भारत को भ्रष्टाचार से निबटने के लिए दूरगामी व स्थायी रणनीति और संस्थाएं देगी.

अगस्तावेस्टलैंड के दलाल जानते हैं कि दुनिया के विभिन्न देशों में फैले रिश्वतखोरी के तार जोड़ते-जोड़ते एक दशक निकल जाएगा. सियासत को भी पता है कि जांच में कुछ न होने का, क्योंकि उन्होंने भ्रष्टाचार से निबटने को लेकर संस्थागत तौर पर कुछ किया ही नहीं है. वे तो बस राजनीति के कीचड़ में लिथड़ने के शौकीन हैं, जिसका सीजन कुछ वक्त बाद खत्म हो जाता है.


Tuesday, June 2, 2015

जोखिम में है गवर्नेंस



निगहबान और नियामक संस्‍थायें सरकार का सुरक्षा चक्र होती हैं. इनकी गैरमौजूदगी की वजह से पारदर्शिता के मामले में मोदी सरकार के जोखिम बढ़ने लगे हैं
सरकार के पहले एक साल में भ्रष्टाचार के किसी बड़े मामले का सामने न आना सिर्फ राहत की बात है, महोत्सव की हरगिज नहीं. ग्रैंड करप्शन सरकारों के पहले साल में नहीं उपजता. केंद्र में यूपीए की सरकार से लेकर राज्यों तक दर्जनों उदाहरण इसकी ताकीद करते हैं कि पुरानी होती सरकारें भ्रष्टाचार के खतरे के करीब खिसकती जाती हैं. यूपीए के घोटाले तो उसके दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्षों में निकले थे. ज्यादा चिंता इस बात पर होनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी सरकार ने पूरा साल उन जरूरी संस्थाओं को बनाने या मजबूत किए बगैर बिता दिया है जो एक विशाल देश के जटिल तंत्र में साफ-सुथरे कामकाज के लिए जरूरी हैं. मोदी ने पहले साल में न तो सरकारी तंत्र पर निगाह रखने वाली संवैधानिक संस्थाओं को ताकत दी और न ही नियामक सुधारों की सुध ली. निगहबानी संस्थाएं सरकारों का सुरक्षा चक्र होती हैं और स्वतंत्र नियामक खुले बाजार का. इस सुरक्षा चक्र की नामौजूदगी के कारण पारदर्शिता के मामले में मोदी सरकार के जोखिम बढऩे लगे हैं.
पिछले एक साल के फैसलों और उन्हें लेने के तरीकों को गहराई से परखने पर सरकार में गवर्नेंस की दुविधा झलकने लगती है. बात केवल केंद्रीय सतर्कता आयुक्त या केंद्रीय सूचना आयुक्तों की एक साल से लंबित नियुक्ति की ही नहीं है जिसे लेकर विपक्ष के तेवरों के बाद प्रधानमंत्री ने पहली बार सक्रियता दिखाई हैं. हकीकत यह है कि लोकपाल की स्थापना से लेकर विभिन्न क्षेत्रों में नियामक बनाने तक, सरकार पिछले साल में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकी. ऊहापोह केंद्रीकृत बनाम विकेंद्रित गवर्नेंस के बीच चुनाव की है. मोदी सत्ता के केंद्रीकरण को चुनते रहे हैं, जिसमें लोकपाल या सतर्कता आयोग जैसी संस्थाओं या स्वतंत्र आर्थिक नियामकों के लिए जगह मुश्किल से बनती है. जबकि आर्थिक सुधारों के बाद भारत में गवर्नेंस का जो मॉडल विकसित हुआ, उसमें सरकार और बाजार पर निगाह रखने वाली स्वायत्त संस्थाओं की ताकत बढ़ी है. दूरसंचार, बिजली बीमा और वित्तीय सेवाओं तक खुले बाजार को नियामकों ने बखूबी संभाला है जबकि सुप्रीम कोर्ट और सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने सरकारों की निगहबानी की है. इस नई व्यवस्था से अधिकारों में टकराव, फैसलों में देरी जैसी उलझनें जरूर पैदा हुई हैं लेकिन एक विशाल देश के भीमकाय बाजार और मनमाने राजनैतिक तंत्र को संभालने में इनकी उपयोगिता साबित भी हुई है.  मोदी सरकार अपने पहले एक साल में गवर्नेंस के इस बदले हुए ढांचे पर ठोस राय कायम नहीं कर सकी जिससे न केवल एक तदर्थवाद पैदा हुआ है, बल्कि रिजर्व बैंक के अधिकार कम करने की मुहिम ने यह बताया है कि सरकार स्वतंत्र नियामकों को लेकर सहज नहीं हैं. आदर्श तौर पर कोयला खदानों के पुनःआवंटन की प्रक्रिया एक स्वतंत्र नियामक को तय करनी चाहिए थी. यदि आवंटन में जल्दी थी तो उसके तत्काल बाद कोयला नियामक बनना चाहिए था ताकि कोयले की गुणवत्ता तय करने, कंपनियों के विवाद निबटाने, खनन की मॉनीटरिंग करने और कोयले की कीमत निर्धारित करने में सरकार का दखल कम होता. खदानों का आवंटन तो हो गया लेकिन नियामक न होने के कारण कोयला क्षेत्र में अपारदर्शिता व तदर्थवाद जस का तस है.
रेलवे में विदेशी निवेश परवान क्यों नहीं चढ़ा? रेलवे के लिए नियम बनाने का काम किसी स्वतंत्र रेगुलेटर को देना होगा ताकि बाजार में बराबरी की प्रतिस्पर्धा हो सके. रेलवे में सुधार के लिए बिबेक देबराय समिति मोदी सरकार ने ही बनाई थी लेकिन जब समिति ने रेगुलेटर बनाने की सिफारिश की तो सरकार सुस्त पड़ गई. विमानन, वित्तीय सेवाओं और रियल एस्टेट में रेगुलेटर बनाने पर भी कोई सक्रियता नजर नहीं आई है. मोदी को अपने पहले ही साल में लोकपाल के गठन की पहल करनी चाहिए थी. लेकिन यहां तो एक साल में केंद्रीय सतर्कता आयोग के अध्यक्ष का चयन भी नहीं हो सका. मोदी के लिए पारदर्शिता को लेकर अपने संकल्प को साबित करने का यह सबसे अच्छा मौका है, क्योंकि बीजेपी शुरू से सरकारी तंत्र के लिए लोकपाल जैसे ताकतवर नियामक के पक्ष में रही है. काला धन जैसे कानूनों के जरिए सरकारी अधिकारियों को नई ताकत से लैस किया जा रहा है, इस ताकत की निगहबानी के लिए संवैधानिक संस्थाओं का गठन और मजबूती, दरअसल पारदर्शिता को लेकर सरकार के कौल को और मुखर करेगी. मोदी का गवर्नेंस मॉडल राज्यों के लिए नजीर बन रहा है. पिछले बारह महीनों में जिस तरह प्रधानमंत्री कार्यालय में सत्ता का केंद्रीकरण बढ़ा है, ठीक उसी तर्ज पर राज्यों में मुख्यमंत्री कार्यालयों ने भी शक्तियां समेटी हैं. केंद्र में तो कम-से-कम सीएजी, सुप्रीम कोर्ट और दूसरी सक्रिय एजेंसियां हैं जो गवर्नेंस की निगहबानी कर सकती हैं, राज्यों में न तो सतर्कता का ढांचा है और न ही अदालतों के पास निगहबानी का अनुभव है. राज्यों में अभी नियामक सुधार शुरू भी नहीं हुए हैं जबकि निजीकरण और सरकारी खर्च के अगले बड़े आयोजन राज्यों में ही होने हैं.  निगहबानी व नियमन करने वाली संस्थाएं सरकार के अधिकारों में हिस्सा बंटाती हैं जो कोई सियासी नेता आसानी से देना नहीं चाहता. नरेंद्र मोदी ने भले गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर लोकायुक्त की ताकत को सीमित रखा हो या स्वतंत्र नियामक बनाने पर बहुत ध्यान न दिया हो लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें लोकपाल बनाने, सतर्कता ढांचे मजबूत करने और नियामक सुधारों में देर नहीं करनी चाहिए. सरकार को एक साल में यह एहसास हो गया है कि अच्छे दिन लाना जादू नहीं है, ठीक इसी तरह खुले बाजार में एक साफ-सुथरी सरकार चलाना भी जादू नहीं है. नेतृत्व के पारदर्शी होना, पूरे सिस्टम के साफ-सुथरा होने की गारंटी नहीं भी है. इस सरकार में सभी फैसले प्रधानमंत्री केंद्रित हैं इसलिए अगर सरकार पारदर्शिता के मोर्चे पर फिसलती है तो खामियाजे भी प्रधानमंत्री के खाते में ही दर्ज होंगे. मजबूत और ताकतवर नियामक-निगहबान संस्थाओं का सुरक्षा चक्र बनाकर ही मोदी इस जोखिम को सीमित कर सकते हैं. क्या वे ऐसा कर पाएंगे?