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Saturday, June 29, 2019

...डूब के जाना है!


बात बीते बरस जनवरी से शुरू होती है जब नीरव मोदी बैंकों का बकाया चुकाने में चूके थे. नीरव की करतूत का घोटाला संस्करण बाद में पेश हुआ, पहले तो वित्तीय बाजार के लिए यह एक भरा-पूरा डिफॉल्ट था हीरे जैसे कीमती धंधे के कारोबारी का कर्ज चुकाने में चूकना! नीरव मोदी के डिफॉल्ट के साथ वित्तीय बाजार को मुसीबतों की दुर्गंध महसूस होने लगी थी.

मौसम एक-सा नहीं रहता और कर्ज हमेशा सस्तानहीं रहता. पूंजी की तंगी और कर्ज की लागत बढ़ते ही अर्थव्यवस्था को अपशकुन दिखने लगते हैं क्योंकि कर्ज जब तक सस्ता है, अमन-चैन है. ब्याज की दर एक-दो फीसद (छोटी अवधि के कर्ज-मनी मार्केट) बढ़ते ही, घोटाले के प्रेत कंपनियों की बैलेंस शीट फाड़ कर निकलने लगते हैं और नियामकों (रेटिंग, ऑडिटर) की कलई खुल जाती है.

पंजाब नेशनल बैंक को नीरव मोदी के झटके के एक साल के भीतर ही कई वित्तीय कंपनियां (अब तो एक टेक्सटाइल कंपनी भी) कर्ज चुकाने में चूकने लगीं.

  ·       भारत की सबसे बड़ी वित्तीय कंपनियों में एक, आइएलऐंडएफएस 2018 के अंत में बैंक कर्ज चूकी और डिफाॅल्ट का दुष्चक्र शुरू हो गया. सीरियस फ्रॉड इनवेस्टिगेशन ऑफिस (एसएफआइओ) कर्ज घोटाले में कंपनी के 30 अधिकारियों के खिलाफ पहली चार्जशीट दाखिल कर चुका है.

  ·   दीवान हाउसिंग फाइनेंस (दूसरी बड़ी संकटग्रस्त कंपनी) पर बॉक्स कंपनियां बनाकर कर्ज की बंदरबांट करने का आरोप है. रेड इंटेलीजेंस (वित्तीय डेटा कंपनी) की रिपोर्ट के मुताबिक, बड़ी वित्तीय कंपनियों के प्रवर्तक कुछ कागजी कंपनियां बनाते हैं जो आपस में एक-दूसरे को हिस्सेदारी बेचती हैं और फिर प्रवर्तक की वित्तीय कंपनी से कर्ज लेते हैं और उसी कर्ज से वापस मुख्य वित्तीय कंपनी में हिस्सेदारी खरीदते हैं. इस मामले की जांच होने के आसार हैं.

·       एनबीएफसी का ऑडिट और रेटिंग करने वाली कंपनियां भी घोटाले में शामिल मानी जा रही हैं. सीरियस फ्रॉड ऑफिस ने रिजर्व बैंक से इन कंपनियों के ऑडिट की अनदेखी करने पर रिपोर्ट तलब की है.

·       बकौल रिजर्व बैंक के 2018-19 में बैंकों में 71,500 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई है.

·       एसएफआइओ ने 2017-18 में बड़े कॉर्पोरेट फ्रॉड के 209 मामले दर्ज किए, यह संख्या 2016 के मुकाबले दोगुनी है. जेट एयरवेज और कुछ अंतरराष्ट्रीय ऑडिट कंपनियों सहित करीब आधा दर्जन बड़ी कंपनियां एसएफआइओ की ताजा जांच का हिस्सा हैं.

महंगी होती पूंजी और घोटालों के रिश्ते ऐतिहासिक हैं. जनवरी 2009 में सत्यम घोटाला, 2008 में लीमैन बैंक ध्वंस के चलते बाजार में तरलता के संकट के बाद निकला था. अमेरिका का प्रसिद्ध बर्नी मैडॉफ घोटाला भी इसी विध्वंस के बाद खुला. अमेरिका में डॉटकॉम का बुरा दौर शुरू होने के 15 माह और 9/11 के एक माह के बाद, एनरॉन के धतकरम से परदा उठा था.
छोटी अवधि (एक साल या कम) के कर्ज भारतीय कारोबारी दुनिया की प्राण वायु हैं. इनमें अंतर बैंक, बैंक व वित्तीय कंपनी, म्युचुअल फंड और वित्तीय कंपनी, एनबीएफसी और कंपनियों के बीच कर्ज का लेनदेन शामिल है जो विभिन्न माध्यमों (सीधे कर्ज, बॉन्ड या कॉमर्शियल पेपर) के जरिये होता है.

जब तक आसानी से कर्ज मिलता है, कंपनियों के प्रवर्तक मनमाने तरीकों से इसका इस्तेमाल करते और छिपाते रहते हैं. उनकी बैलेंस शीट और रेटिंग चमकदार दिखती है. लेकिन जब कर्ज महंगे होते हैं तो उनकी कारोबारी शृंखला में डिफॉल्ट का दुष्चक्र शुरू हो जाता है.

बड़ी कंपनियां आमतौर पर अपने शेयर या संपत्ति के बदले कर्ज लेती हैं. तलरता के संकट में इनकी कीमत गिरती है और कर्ज देने वाले बैंक वसूली दबाव बढ़ाते हैं. नीरव मोदी, मेहुल चोकसी जैसे मामले इसका उदाहरण हैं.

अर्थव्यवस्था में अच्छी विकास दर के साथ कंपनियों की कमाई बढ़ती रहती है और उनको छोटी अवधि के कर्ज मिलते रहते हैं लेकिन मंदी की शुरुआत के साथ बैंक, कंपनियों के नतीजों पर निगाह जमाकर ब्याज की दर बढ़ाते हैं और संकट फट पड़ता है. मसलन अब ऑटोमोबाइल की बिक्री कम होने के बाद कंपनियों के लिए सस्ता कर्ज मुश्किल हो जाएगा. 

पूंजी और कर्ज की ताजा किल्लत के पीछे धतकरम और घोटाले छिपे हैं. इन्हें सूंघकर ही रिजर्व बैंक ने, सरकार के दबाव को नकार कर संकटग्रस्त गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) की मदद से न केवल इनकार कर दिया है बल्कि इनके लिए नए सख्त नियम भी बना दिए हैं.

दूसरी मोदी सरकार का पहला पूर्ण बजट, कर्ज व डिफॉल्ट की हकीकतों से अलग खड़ा नजर आए तो चौंकिएगा मत. अर्थव्यवस्था के सूत्रधारों की बेचैन निगाहें भी दरअसल बजट पर नहीं बल्कि अगली तिमाही पर है जब गिरती रेटिंग और बढ़ते घोटालों के बीच गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के 1.1 खरब रुपए के बकाया कर्ज वसूली के लिए आएंगे. 


Sunday, August 5, 2018

लुटे या पिटे?



आज मैं एनपीए की कहानी सुनाना चाहता हूं......
'' बैंकों की अंडरग्राउंड लूट 2008 से 2014 तक चलती रही. छह साल में अपने चहेते लोगों को खजाना लुटा दिया गया बैकों से. तरीका क्या था कागज देखना कुछ नहींटेलीफोन आयालोन दे दो. लोन चुकाने का समय आया तो नया लोन दे दो. जो गया सो गयाजमा करने के लिए नया लोन दे दो. यही कुचक्र चलता गया और भारत के बैंक एनपीए के जंजाल में फंस गए!
एनपीए बढऩे का एक और कारण! यूपीए सरकार की नीतियों के कारण कैपिटल गुड्स आयात बढ़ा जिसका फाइनेंस बैंक लोन के जरिए किया गया.
(प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए)

यह पहला मौका नहीं था जब प्रधानमंत्री ने बैंक एनपीए को लूट कहा था. फरवरी में भी संसद में उन्होंने कहा था कि नेतासरकारबिचौलिए मिलकर कर्ज रिस्ट्रक्चर करते थे. देश लूटा जा रहा था.

प्रधानमंत्री की टिप्पणीबैंक कर्जों की वह कहानी हरगिज नहीं है जो पिछले चार साल में देश को बार-बार सुनाई गई है कि आर्थिक मंदी की वजह से कंपनियों की परियोजनाएं फंस गईंजिससे भारतीय बैंक आज 10 लाख करोड़ रु. के एनपीए में दबे हुए कराह रहे हैं.

क्या बैंकों के एनपीए संगठित लूट थेजो कंपनियों को कर्जों की रिस्ट्रक्चरिंग या लोन पर लोन देकर की गई थी?

क्या आयात के लिए भी कर्ज में घोटाला हुआ?

क्या बकाया बैंक कर्ज आपराधिक गतिविधि का नतीजा हैंआर्थिक उतार-चढ़ाव का नहीं?

अगर बैंकों के एनपीए यूपीए सरकार के चहेतों के संगठित भ्रष्टाचार की देन हैं तो फिर पिछले चार साल में इन्हें लेकर जो किया गया हैवह हमें दोहरे आश्चर्य से भर देता है.

2014 के बाद बैंकों के एनपीए पर सरकार कुछ इस तरह आगे बढ़ी:

·       फंसे हुए कर्जों की पहचान के तरीके और उन्हें एनपीए घोषित करने के पैमाने बदले गए. इनमें वे लोन भी थे जिन्हें 2008 के बाद रिस्ट्ररक्चर (विलंबित भुगतान) किया गया. 2008 के बाद बैंक कर्ज में सबसे बड़ा हिस्सा इन्हीं का है और प्रधानमंत्री ने इसी को बैंकों की लूट कहा है. यानी कि सरकार को पूरी जानकारी मिल गई कि यह कथित लूट किसने और कैसे की? 

· बैंकों को इन कर्जों के बदले अपनी पूंजी और मुनाफे से राशि निर्धारित (प्रॉविजनिंग) करनी पड़ीजिससे सभी बैंकों को 2017-18 में 85,370 करोड़ रु. का घाटा (इससे पिछले साल 473.72 करोड़ रु. का मुनाफा) हुआ. बैंकों के शेयर बुरी तरह पिटे.

·    कर्ज उगाही के लिए बैंकों ने दिवालिया कानून की शरण ली. इस प्रक्रिया में बैंकों को बकाया कर्जों का औसतन 60 फीसदी हिस्सा तक गंवाना होगा.

·   सरकार ने बैंकों को बजट से पूंजी दीयानी बैंकों की जो पूंजी यूपीए के चहेते उड़ा ले गए थेउसका एक बड़ा हिस्सा करदाताओं के पैसे से लौटाया गया.

यह सारी कार्रवाई तो कहीं से यह साबित नहीं करती कि बैंक एनपीएयूपीए के चहेतों की लूट थे!

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले साल अगस्त में राज्यसभा में बैं‌किंग नियमन संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान कहा था‘‘औद्योगिक और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में सरकारी बैंक ज्यादा कर्ज देते हैं. वहीं निजी बैंक उपभोक्ता बैंकिंग पर ज्यादा फोकस करते हैं. मैं इसका राजनीतिकरण करना नहीं चाहताकब दिएक्यों दिएग्लोबल इकोनॉमी बढ़त पर थी. कंपनियों ने अपनी क्षमताएं बढ़ाई. बैंकों ने लोन दिया. बाद में जिंसों की कीमतें गिर गई और कंपनियां फंस गईं.’’ 

वित्‍त मंत्री का आकलन तो प्रधानमंत्री से बिल्‍कुल उलटा है!

प्रधानमंत्री ने जो कहा है और सरकार ने बैकों के डूबे हुए कर्जों का जैसे इलाज किया हैउसके बाद बैंकों के एनपीए का शोरबा जहरीला हो गया है. 


पिछले चार साल में सरकार ने इसे कभी लूट माना ही नहीं और न ही आपराधिक कार्रवाई हुई. बैंकरप्टसी कानून सहित जो भी किया जा रहा है वह आर्थिक मुश्किल (वित्‍त मंत्रालय की सूझ के मुताबिक) का इलाज था. 

बैंकों और बजट को एनपीए का नुक्सान उठाना होगा लेकिन अगर यह लूट है तो यूपीए के चहेते कर्जदारों के खिलाफ कार्रवाई नजर नहीं आई? 

देश को यह बताने में क्या हर्ज है कि बैंकों का कितना एनपीए आर्थिक मंदी की देन हैकितना कर्ज यूपीए के चहेतों की उस लूट का हिस्सा है जिसका जिक्र प्रधानमंत्री बार-बार करते हैं.

बैंकों से लूटा गया पैसा आम लोगों की बचत है और बैंकों को मिलने वाली सरकारी पूंजी भी करदाताओं की है.

फिर किसे बचाया जा रहा है और क्यों?

ऐसा क्या है जिसकी परदादारी है?

Monday, March 5, 2018

अंधेरे में मत रहिए

आपका बैंक क्या आपको यह बताता है कि उसने आपकी बचत या जमा किस उठाईगीर कारोबारी को भेंट कर दी?

लेकिन कोई कंपनी या वही बैंक अपने शेयर धारकों या निवेशकों को हर छोटी-छोटी जानकारी क्यों देता हैस्टॉक एक्सचेंज से वह कोई सूचना क्यों नहीं छिपाता?

भारत में कारोबार के लिए धन जुटाने के तीन रास्ते हैं:
एक- उद्यमी की अपनी पूंजी,
दो- बैंक कर्ज
और तीन- जनता को हिस्सेदारी देना यानी शेयर बेचना.
देश में कंपनियां तो हजारों हैं. उनमें से कुछ ही स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध हैं तो बाकी बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों को कारोबार के लिए धन कहां से मिलता है?
जाहिर है बैंक से! कर्ज के तौर पर!
तो बैंक जमाकर्ता कंपनी के कारोबार में अगर सीधे नहीं तो परोक्ष हिस्सेदार तो हुए न?
जब देश में हर काम बैंक के कर्ज से होना है और कर्ज के तौर पर दरअसल लाखों लोगों की बचत बांटी (या लुटाई) जा रही है तो बैंक जमाकर्ताओं को उतनी तवज्जो या सूचनाएं क्यों नहीं मिलनी चाहिए जो कंपनी के शेयर धारकों को मिलती हैं?

कोई फर्क नहीं पड़ता कि कंपनी का मालिक एक है या कईफर्क इससे पडऩा चाहिए कि उसके कारोबार की पूंजी कहां से आ रही है?

इन सवालों पर अब भारत में बैंकिंग की साख निर्भर हैक्यों?

आइएदो ताजे बैंक घोटालों या कर्ज डिफॉल्ट को करीब से देखते हैं.

देश को पीएनबी घोटाले का पता कैसे चला

बैंक को दिसंबर में ही अनुमान हो गया था कि नीरव मोदी और मेहुल चौकसी कर्ज नहीं चुकाने वाले हैं. जनवरी में दोनों देश से निकल लिए. एफआइआर जनवरी के अंत में हुई लेकिन भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नींद 14 फरवरी के बाद टूटी जब बैंक ने स्टॉक एक्सचेंज को बताया कि उसे एक घोटाले में 11,000 करोड़ रु. का चूना लग गया है. शेयर गिरेकोहराम मचा और फिर शुरू हुआ स्यापा.

फिर भी ले-देकर पंद्रह दिन के भीतर पूरा घोटाला सामने आ ही गया. 

अब दूसरा घोटाला देखिए.

रोटोमैक को दिए गए कर्ज का डिफॉल्ट (या धोखाधड़ी) 2015 में हो गई थी. सात महीने पहले डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल का आदेश भी आ गया लेकिन सीबीआइ को कार्रवाई करने के लिए दो साल तक मोदी के घोटाले का इंतजार करना पड़ा. सिंभावली शुगर्स लि. में बैंक कर्ज की लूट शुरू हुई 2013 में और एफआइआर हुई 2018 में. 

हम पारदर्शिता के दो ध्रुवों के बीच खड़े हैं.  

पीएनबी का घोटाला पंद्रह दिन के भीतर इसलिए खुल गया क्योंकि सेबी के नियमों के तहत कोई सूचीबद्ध कंपनी (जैसे कि पंजाब नेशनल बैंक) जरूरी जानकारी जनता यानी (शेयर बाजार) से छिपा नहीं सकती. 

लेकिन रोटोमैक का घोटाला इसलिए दो साल तक छिपा रहा कि वह एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है. उसे अपनी सूचना छिपाने और बैंकों को उसकी कारगुजारी गोपनीय रखने की छूट है.

भारत में कारोबारी पारदर्शिता का हाल अजीबोगरीब है. स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध कंपनी विस्तृत पारदर्शिता नियमों से बंधी होती है लेकिन एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी (कितनी भी बड़ी हो) कंपनी रजिस्ट्रार के पास एक सालाना रिटर्न भर कर नक्की हो जाती है. हमें यह पता नहीं चलतावह क्या और कैसे कर रही है?

बैंक कर्ज पर आधारित कारोबारों की तादाद बढऩे से यह अपारदर्शिता महंगी पडऩे लगी है. देश में दस-दस हजार करोड़ रु. के कारोबार वाली निजी कंपनियां हैं जो बैंकों से भारी कर्ज (रोटोमैक या मोदी की फायरस्टार) लेती हैं लेकिन लोगों को कर्ज डूबने के बाद ही पता चलता है कि उनके भीतर क्या हो रहा था.

इलाज क्या है

- बैंक कर्ज पर चलने वाले कारोबारों के लिए पारदर्शिता के नए नियम तय किए जाएं. जमाकर्ताओं को पता रहे कि उनका बैंक किसे और कहां कर्ज दे रहा है.
- कंपनियों के लिए पारदर्शिता नियम इस तथ्य पर आधारित होने चाहिए कि उनके निवेश का स्रोत क्या है
75 करोड़ रु. से ऊपर की कंपनियों को शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराया जाए ताकि उनका कामकाज सबकी निगाह में रहे.


बैंकिंग और वाणिज्यिक कर्ज में पारदर्शिता लाने के लिए घोटालों के तमाचे चाहिए तो यकीन मानिए हमारे गाल लाल हो चुके हैं. घोटालों (हर्षद मेहता और केतन पारेख) से सबक लेकर 2001 के बादसेबी ने जनता से पूंजी जुटानेबेचने और शेयर ट्रेडिंग के नियमों को बला का सख्त और पारदर्शी कर दिया. कर्ज लेने वाली कंपनियों और बैंकों के साथ इसी तरह का कुछ करना होगा. बैंक में पैसा रखने वालों की तादाद शेयर बाजार में निवेश करने वालों से बहुत बड़ी है. कर्ज की लूट के चलते अगर उनका भरोसा डिगा तो अर्थव्यवस्था की चूलें हिल जाएंगी.

Saturday, February 24, 2018

शक करने का हक


भारत के इतिहास का सबसे बड़ा बैंक घोटाला क्यों हुआ?

क्योंकि हमने सवाल पूछने बंद कर दिए,

हमें शक करते रहना चाहिए था, सरकार के कामकाज पर,

रातोरात विशाल हो जाती कंपनियों पर,

बैंक कर्ज पर चल रहे कारोबारों पर

और सबसे ज्यादा सवाल हमें करने चाहिए थे उन घोटालों की जांच पर जो अदालतों में दम तोड़ गईं. 

हर वित्तीय घोटाला पिछले की तुलना में ज्यादा सफाई और बेहयाई से किया जाता है. 

और निगहबान पिछले की तुलना में और ज्यादा नाकारा पाए जाते हैं.

इस घोटाले का किस्सा बस इतना है कि नीरव और मेहुल ने की तरह बैंकों के बीच लेन-देन और छोटी अवधि के कर्ज का इस्तेमाल किया, विदेश में विदेशी मुद्रा में भुगतान ले लिया और चंपत हो गए. हर्षद मेहता और केतन पारेख ने भी इसी रास्‍ते का इस्‍तेमाल किया था.

हमें नहीं पता कि सरकार इनका क्‍या कर पायेगी लेकिन इस लूट को रोकना हरगिज संभव है अगर हम सरकारों पर रीझना छोड़ दें.

रोशनी की मांग
इस घोटाले में एफआइआर के 15 दिन बाद कोहराम क्यों मचा. दरअसल, जब पीएनबी ने इस मामले की जानकारी स्टॉक एक्सचेंज को दी तब पता चला कि हुआ क्या है. कारोबारियों को जनता की अदालत में लाया जाना चाहिए. 50 करोड़ रु. से ऊपर की प्रत्येक कंपनी के लिए जनता को भागीदारी देने और शेयर बाजार में सूचीकरण की शर्त जरूरी है. भारत में दस हजार करोड़ रु. तक के कारोबार वाली कंपनियां हैं, जो बैंकों से कर्ज लेती हैं और कंपनी विभाग के पास एक सालाना रिटर्न भरकर छुट्टी पा जाती हैं. हमें पता नहीं, वे क्या कर रही हैं और कब चंपत हो जाएंगी. इस पारदर्शिता से आम लोगों के लिए निवेश के अवसर भी बढ़ेंगे.

कर्ज चाहिए तो पूंजी दिखाइए
यदि प्रवर्तक अपनी पूंजी पर जोखिम नहीं लेता तो फिर डिपॉजिटर की बचत पर जोखिम क्यों कर्ज पर कारोबार के (डेट फाइनेंस) के नियम बदलना जरूरी है. अब उन कंपनियों की जरूरत है जो पारदर्शिता के साथ जनता से पूंजी लेकर कारोबार करती हैं या फिर प्रवर्तक अपनी पूंजी लगाते हैं. 

गड्ढे और भी हैं
हम बकाया बैंक कर्ज (एनपीए) के पहाड़ को बिसूर रहे थे और नीरव-मेहुल छोटी अवधि के बायर्स क्रेडिट (90-180-360 दिन) के कर्ज के जरिए 11,000 करोड़ रु. (या 20,000 करोड़ रु.) ले उड़े, जिसका इस्तेमाल आयातक, वर्किंग कैपिटल के लिए करते हैं.

उधार में कारोबार, सप्लाई चेन की कमजोरी और खराब कैश फ्लो की वजह से भारतीय कंपनियां सक्रिय कारोबारी (वर्किंग) पूंजी को लेकर हमेशा दबाव में रहती हैं. जब भारत की बड़ी कंपनियों को अपने संचालन  को सहज बनाने के लिए सालाना चार खरब रु. (अर्न्स्ट ऐंड यंग—2016) की अतिरिक्त वर्किंग कैपिटल चाहिए तो छोटी फर्मों की क्या हालत होगी.

बैंकों से छोटी अवधि के कर्ज की प्रणाली में बदलाव चाहिए. गैर जमानती कर्ज सीमित होने के बाद कंपनियां अपने संचालन को चुस्त करने पर बाध्य होंगी. जमाकर्ताओं के पैसे पर धंधा घुमाना बंद करना पड़ेगा. 

राजनैतिक चंदे की गंदगी
हीरा कारोबारियों की राजनैतिक हनक से कौन वाकिफ नहीं है. जो हुक्काम के साथ डिनर करते हैं वही चंदा भी देते हैं, वे ही बैंकों के सबसे बड़े कर्जदार भी हैं. अगर देश को यह पता चल जाए कि कौन-सी कंपनी किस पार्टी को कितना चंदा देती है, तो बहुत बड़ी पारदर्शिता आ जाएगी, जिसमें सियासी रसूख के जरिए बैकों की लूट भी शामिल है.

ध्‍यान रहे कि मेहुल चोकसी का कारोबारी रिकार्ड कतई इस लायक नहीं था कि उन्‍हें या उनके भांजे पर पंजाब नेशनल बैंक इस कदर दुलार उड़ेलता, हां यह बात जरुर है कि उनका राजनीतिक रसूख उन्‍हें हर स्‍याह सफेद की सुविधा देता था.   

बड़े बैंक चाहिए
सिर्फ एक बड़ी धोखाधड़ी से देश का दूसरा सबसे बड़ा बैंक घुटनों पर आ गया. इस घोटाले की राशि पीएनबी के मुनाफे की दस गुनी है. बैंक को हाल में सरकार से जितनी पूंजी मिली थी, उसका दोगुना यह दोनों लूट ले गए. अर्थव्यवस्था का आकार बढऩे के साथ देश को बड़े बैंक चाहिए ताकि इस तरह के झटके झेल सकें.

भ्रष्टाचार चेहरा देखकर या भाषणों से नहीं रुकता. संस्थागत भ्रष्टाचार के खिलाफ सफलताएं हमेशा संस्थाओं (कानून, अदालत, ऑडिटर) की मदद से ही मिली हैं. पिछले चार साल में न तो संस्थाएं मजबूत और विकसित हुईं और न नए कानून, नियम बनाए या बदले गए.

भ्रष्टाचार जब तक बंद था तब तक आनंद था, अब खुल रहा है तो खिल रहा है.

बैंक किसी भी अर्थव्यवस्था में भरोसे का आखिरी केंद्र हैं. इसमें रखा पैसा हमारी बचत का है, सरकार का नहीं. अगर यह लूट खत्म करनी है, तो पारदर्शिता के नए प्रावधान चाहिए. सरकारें तब तक पारदर्शिता नहीं बढ़ाएंगी जब तक हम उनके कामकाज पर गहरा शक नहीं करेंगे. हमें उनसे वही सवाल बार-बार पूछने होंगे जिनके जवाब वे कभी नहीं देना चाहतीं.


Sunday, November 5, 2017

नोटबंदी का तिलिस्मी खाता


चलिएकाला धन तलाशने में सरकार की मदद करते हैं. 

नोटबंदी को गुजरे एक साल गुजर गया. कोई बड़ी फतह हाथ नहीं लगी. ले-देकर गरीब कल्याण योजना में आए 5,000 करोड़ रुपए ही हैं जिन्हें अधिकृत तौर पर नोटबंदी का हासिल काला धन माना जा सकता है. शेष सब कुछ जांच युग में है या दावों पर सवार है.

तो कहां मिलेगा काला धन?

बगल में छोरागांव में ढिंढोरा.

काले धन के कुछ बड़े रहस्य सरकार की जन धन योजना के पास हो सकते हैं  गरीबों को बैंकिंग से जोडऩे के लिए जिसे शुरू किया गया था.

नोटबंदी के बाद सरकार जन धन पर सन्नाटा खींच गई है लेकिन आंकड़े तो उपलब्ध हैं. 

रिजर्व बैंक ने नोटबंदी के असर पर रिपोर्ट इसी मार्च में जारी की थी. वित्त मंत्री ने 3 फरवरी को संसद में एक सवाल के जवाब में कुछ जानकारी दी थीसरकारी आंकड़ों पर आधारित दूसरे अध्ययन भी उपलब्ध हैं.

इनके आधार पर देखिए कि नोटबंदी के दौरान जन धन क्या हुआ था?

·       नोटबंदी से पहले अप्रैल से जुलाई के बीच लगभग 73,000 खाते प्रति दिन खोले जा रहे थे लेकिन नोटबंदी के दौरान प्रति दिन दो लाख खाते खुले. नोट बदलने की सभी सीमाएं खत्म होने के बाद (मार्च से जुलाई से 2017) के बीच जन धन खाते खुलने का औसत दैनिक घटकर 92,000 पर आ गया.

·       नोटबंदी के ठीक बाद 23.30 करोड़ नए जन धन खाते खोले गए. इनमें से 80 फीसदी सरकारी बैंकों में खुले. लगभग 54 फीसदी शहरों में खुले और शेष गांवों की शाखाओं में. 

·      नोटबंदी के वक्त (9 नवंबर 2016) को इन खातों में कुल 456 अरब रुपए जमा थे जो 7 दिसंबर 2016 को 746 अरब रुपए पर पहुंच गए.

·       नोटबंदी के 53 दिनों में जन धन खातों में 42,187 करोड़ रुपए जमा हुए. इनमें से 18,616 करोड़ रुपए तो 9 नवंबर से 16 नवंबर के बीच शुरुआती आठ दिनों में ही इन खातों में जमा हो गए. ये आंकड़ा नोटबंदी से पहले के 53 दिनों के मुकाबले 1850 फीसदी ज्यादा है.

·      नोटबंदी के पहले जन धन खातों में औसतन 43 करोड़ रुपए का दैनिक जमा होता था. नोटबंदी शुरू हो होते ही पहले हक्रते में प्रति दिन 2,327 करोड़ रुपए जमा होने लगे. नोटबंदी खत्म होते ही एवरेज डेली ट्रांजैक्शन में 95 फीसदी की कमी दर्ज की गई.

·       नोटबंदी के दौरान जन धन की ताकत दिखाने वालों में गुजरात सबसे आगे रहा. 9 नवंबर 2016 से 25 जनवरी 2017 तक राज्य के जन धन खातों के डिपॉजिट में 94 फीसदी का इजाफा हुआ. इसी अवधि में कर्नाटक में जन धन डिपॉजिट 81 फीसदीमध्य प्रदेश व महाराष्ट्र में 60 फीसदीझारखंड और राजस्थान में 55 फीसदीबिहार में 54 फीसदीहरियाणा में 50 फीसदीउत्तर प्रदेश में 45 फीसदी और दिल्ली में 44 फीसदी बढ़े.

·      जन धन खातों में नोटबंदी के पहले हक्रते में डिपॉजिट में 40 फीसदी की ग्रोथ देखकर 15 नवंबर 2016 को वित्त मंत्रालय ने एक बार में 50 हजार रुपए से ज्यादा राशि जन धन में जमा करने पर रोक लगा दी.

·       नोटबंदी के दौरान जन धन खातों का औसत बैलेंस 180 फीसदी तक बढ़ गया थाजो मार्च में घटकर नोटबंदी के पहले वाले स्तर पर आ गया.

·       गरीबों के जीरो बैलेंस खातों का व्यवहार गहरे सवाल खड़े करता है. नोटबंदी के दौरान इन खातों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी का रहस्य क्या है?  

वित्त मंत्री ने फरवरी में संसद को बताया था कि विभिन्न खाताधारकों (जन धन सहित) को आयकर विभाग ने 5,100 नोटिस भेजे हैंइसके बाद नोटबंदी जन धन इस्तेमाल की जांच कहां खो गई?

नोटबंदी के दौरान अनियमितता को लेकर बैंकों की शुरू हुई जांच भी बीच में क्यों छूट गई?

हम इतनी जल्दी इस निष्कर्ष‍ पर नहीं पहुंचना चाहते कि जन धन खातों का इस्तेमाल मनी लॉन्ड्रिंग में हुआ लेकिन नोटबंदी के दौरान बैंकों के भीतर बहुत कुछ ऐसा हुआ है जो रहस्यमय है और नोटबंदी की विफलता की वजह हो सकता है.

आम लोगों को बैंकिंग से जोडऩे के सबसे बड़े अभियान की बदकिस्मती यह है कि वह सरकार के नीति रोमांच का शिकार हो कर दागी हो गया. बैंकिंग पर आम लोगों के भरोसे को गहरी चोट लगी है.

लोकतंत्र में जनता अजातशत्रु होती है. यह सरकारों की विफलताओं को भी पचा लेती है. नीतियों को पारदर्शी होना चाहिए. पहली बरसी पर क्या सरकारनोटबंदी के दौरान बैंकिंग संचालनों और जन धन की जांच के नतीजे देश से बांटना चाहेगी?


गलतियों से सीखने का नियम केवल मानवों के लिए ही आरक्षित नहीं हैसर्वशक्तिमान सरकारें भी नसीहत लें तो क्या हर्ज है?