Showing posts with label bank deposits. Show all posts
Showing posts with label bank deposits. Show all posts

Friday, March 12, 2021

बचाएंगे तो गंवाएंगे !

बैंकों ने होम लोन ब्याज की दर फिर घटा दी. मकान कर्ज के तलबगार खुश हो सकते हैं लेकिन जो कर्ज लेने की हैसियत नहीं रखते उन्हें परेशान करने वाली इससे बड़ी खबर कोई नहीं है.

मंदी से निकलने की जद्दोजहद में भारत दो नए वर्गों में बंट रहा है. एक तरफ हैं चुनिंदा लोग जो कर्ज ले सकते हैं, क्योंकि वे उसे चुका भी सकते हैं और दूसरी तरफ वे लाखों लोग जो कर्ज नहीं लेते या ले नहीं सकते लेकिन बैंकों में बचत रखते हैं, जिस पर ब्याज टूट रहा है.

बॉन्ड बाजार की घुड़की

बीते तीन माह में छह बार (2013 के बाद पहली बार) बॉन्ड बाजार ने सरकार को घुड़की दी और सस्ती ब्याज दर पर कर्ज देने से मना कर दिया. इस घटनाक्रम का हमारी बचत से गहरा रिश्ता है.

सरकार भारतीय कर्ज बाजार की पहली और सबसे बड़ी ग्राहक है. बैंकों में अधि‍कांश बचत सरकार को कर्ज के तौर पर दी जाती है. सरकार जिस दर पर पैसा उठाती है (अभी 6.15 फीसद दस साल का बॉन्ड), हमें कर्ज उससे ऊंची दर पर (कर्ज लेने वाले की साख के आधार पर ब्याज दरों में अंतर) मिलता है जबकि बचत पर ब्याज की दर सरकारी कर्ज पर ब्याज से कम रहती है.

सरकार से वसूला जाने वाला ब्याज उसके कर्ज की मांग से तय होता है. केंद्र सरकार अगले दो साल (यह और अगला) में करीब 25 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लेगी, (राज्य अलग से) जो अब तक का रिकॉर्ड है. यानी बैंकों के पास ज्यादा रिटर्न वाले कर्ज बांटने के लिए कम संसाधन बचेंगे.

मंदी का दबाव है इसलिए बैंकों को सरकार के साथ और कंपनियों को भी सस्ता कर्ज देना है, नतीजतन बचत के ब्याज पर छुरी चल रही है. एफडी पर केवल 4.5 फीसद ब्याज मिल रहा है, अलबत्ता मकान के लिए ऐतिहासिक सस्ती दर पर (औसत 7 फीसद) कर्ज मिल रहा है.

हमने कमाई महंगाई

बैंकों को अपने सबसे बड़े ग्राहक (सरकार) से कम इतना तो ब्याज चाहिए जो महंगाई से ज्यादा हो. पेट्रोल-डीजल, जिंसों की कीमत बढऩे से महंगाई बढ़ती जानी है. दूसरी तरफ, अपनी कमाई का 50 फीसद हिस्सा ब्याज चुकाने पर खर्च कर रही सरकार को नए कर्ज चुकाने के लिए नए टैक्स लगाने होंगे यानी और महंगाई.

महंगाई तो नहीं रुकती लेकिन रिजर्व बैंक को कर्ज पर ब्याज दरें थाम कर रखनी हैं. नतीजतन, बैंक जमा लागत घटाने के लिए बचतों पर ब्याज काट रहे हैं. भारत की 51 फीसद वित्तीय बचतें बैंक (2018 रिजर्व बैंक) में हैं. बचत पर रिटर्न महंगाई से ज्यादा होना चाहिए ताकि जिंदगी जीने की बढ़ती लागत संतुलित हो सके. लेकिन इन पर मिल रहा ब्याज महंगाई से कम है.

जो कर्ज नहीं लेते उनकी मुसीबत दोहरी है. एक तो नौकरियां गईं और पगार घटी और दूसरा जिन बचतों पर निर्भरता बढ़ी उन पर रिटर्न टूट रहा है. लॉकडाउन के दौरान खर्च रुकने से बैंकों में बचत बढ़ी थी लेकिन इस दौरान बचत पर नुक्सान पहले से कहीं ज्यादा हो गया.

बचत करने वालों का एक छोटा हिस्सा जो शेयर बाजार में निवेश कर रहा है बस उसे ही फायदा है. बड़ी आबादी का सहारा यानी तयशुदा (फिक्स्ड) रिटर्न वाले सभी बचत विकल्प बुरी तरह पिट चुके हैं. छोटी बचत स्कीमों में पैसा लंबे समय के लिए रखना होता है, उनमें बैंक जमा जैसी तरलता नहीं है.

भारत में बैंक ग्राहकों का महज 10-12 फीसद हिस्सा ही कर्ज लेता है, शेष तो बचत करते हैं जिनका नुक्सान बढ़ता जा रहा है. बचतों को टैक्स प्रोत्साहन खत्म हो चुके हैं. नए बजट में पेंशन और ईपीएफ योगदान पर भी इनकम टैक्स थोप दिया है.

पुराने लोग कहते थे कि बाजार में केवल दस रुपए का ऊंट बिक रहा है लेकिन क्या उस ऊंट से इतना काम मिल सकेगा कि चारा खि‍लाने के बाद कुछ बच सके. भारत में कर्ज का यही हाल है.

कर्ज सस्ता ही रहेगा लेकिन कैश फ्लो और नियमित कमाई (महंगाई हटाकर) वाले ही इसके ग्राहक होंगे, जो ब्याज भरने के बाद खर्च के लिए कुछ बचा सकें. कंपनियों के लिए यह आदर्श स्थि‍ति है इसलिए शेयर बाजार में बहार है.

मंदी से भारत की वापसी ‘वी’ (V) की शक्ल में नहीं बल्कि बदनाम ‘के’ (K) की शक्ल में हो रही है. बचत, महंगाई, ब्याज और टैक्स के मौजूदा परिदृश्य में आबादी का छोटा सा हिस्सा ही तेजी से आगे बढ़ेगा जबकि K का निचले हिस्से में मौजूद लाखों लोगों के बढ़ती महंगाई और घटती कमाई के बीच मंदी में गहरे धंसने का खतरा है.

तेज ग्रोथ में भी भारत में बचत की दर कम रही है. इनका आकर्षण लौटाने के लि‍ए फिक्स्ड इनकम वाले नए विकल्प जरूरी हैं. सरकारी कर्ज भी कम करना होगा. अर्थव्यवस्था को बचत चाहिए नहीं तो नोट छपेंगे और महंगाई धर दबोचेगी.


Saturday, March 14, 2020

गठरी में लागा चोर


अगर आप यस बैंक के उन अभागे जमाकर्ताओं में हैं जिनकी करीब 2.09 लाख करोड़ रुपए की बचत, भारत के चौथे सबसे बड़े निजी बैंक की बदहाली में फंस गई है तो वजह यह है कि हम सो रहे थे, सरकार नहीं. वह तो इस घोटाले की हिफाजत कर रफ्तार दे रही थी.

यस बैंक पर बीते साल रिजर्व बैंक ने दो बार पेनाल्टी लगाई, बाजार ने बैंक को पूंजी देने से मना कर दिया, फिर भी यह बैंक डिपॉजिट कैसे लेता रहा?

बीते साल मई में रिजर्व बैंक ने अपने एक पूर्व डिप्टी गवर्नर आर. गांधी को यस बैंक के निदेशक मंडल में तैनात किया था. उन्हें बैंक में राणा कपूर के वे धतकरम क्यों नजर नहीं आए जिन्हें आज प्रवर्तन निदेशालय की बहादुरी बताकर गाया-बजाया जा रहा है ?

बैंक निदेशकों पर इनसाइडर ट्रेडिंग का आरोप था, रेटिंग एजेंसियां साख गिरा चुकी थीं. फिर भी सेबी की नाक के नीचे म्युचुअल फंड, इसके शेयर या बॉन्ड में निवेश क्यों करते रहे?

पिछले चार साल में कर्ज और खराब कॉर्पोरेट गवर्नेंस के कारण डूबी हर बड़ी कंपनी (जेट एयरवेज, अनिल अंबानी, देवान हाउसिंग, आइएलऐंडएफएस, सीजी पावर, कॉक्स ऐंड किंग) से रिश्तों के बावजूद यस बैंक को सरकार के यूपीआइ (डिजिटल पेमेंट सिस्टम) के बाजार में सबसे बड़ा हिस्सा कैसे मिल गया?

रिजर्व बैंक ने यस बैंक के एटी-1 बॉन्ड्स को कचरा घोषि कर दिया है और इनमें निवेशकों के करीब 10,800 करोड़ रुपए फंस गए हैं. सबसे तगड़ी चोट म्युचुअल फंड को लगेगी यानी छोटे निवेशकों को. मगर यस बैंक तो बीते साल तक खुदरा निवेशकों को भी यही बॉन्ड बेच रहा था, जिस पर बाजार से  महंगा ब्याज दिया जा रहा था!

स्टेट बैंक करीब 1.68 लाख करोड़ रुपए के फंसे हुए कर्ज (31 दिसंबर को खत्म तिमाही) में दबा है, यस बैंक में 20,000 करोड़ रुपए डालने के बाद उसकी क्या हालत होगी? स्टेट बैंक को 2019 के वित्त वर्ष में रिजर्व बैंक ने करीब 11,000 करोड़ रुपए के बकाया कर्ज को छिपाने के मामले में पकड़ा और बैंक को 6,968 करोड़ रुपए का घाटा हुआ.

एलआइसी के 21,624 करोड़ रुपए पचा कर भी आइडीबीआइ बैंक नहीं उबरा. स्टेट बैंक एलआइसी की कृपा जब तक असर करेगी तब तक यस बैंक के जमाकर्ता भाग चुके होंगे और तब इस मुर्दा बैंक का बोझ उद्धारक बैंकों के जमाकर्ता उठाएंगे या करदाताओं का पैसा सरकारी बैंकों की पूंजी में डाला जाएगा.

अगर आपको यह सब पता होता तो क्या यस बैंक में पैसा रखते? मुसीबत यही है कि बैंक हमारे बारे में जितना जानते हैं हम अपने बैंक के बारे में उसका दस फीसद भी नहीं जानते. बैंक यानी भरोसे पर, हमने कुछ इतना अंधा भरोसा कर लिया है कि हम ठगे जाने को ही देशभक्ति समझ बैठे हैं.
भारतीय बैंकिंग अस्तित्व के संकट में है. बैंकों का कारोबारी मॉडल दरक गया है. नियामक, चोरों के साथ गलबहियां डालते हैं,  हर नई सरकार क्रोनी बैंकिंग का नया मॉडल ईजाद करती है या कर्ज माफिया बांटती है और फिर करदाता के पैसे को डूबते बैंकों में झोंक कर सुधारों की टेर लगाती है.

यह संकट कर्ज लेने वाली कंपनियों पर नहीं, बल्कि अबोध जमाकर्ताओं पर है, यह खेल जिनकी बचत पर हो रहा है. भुगतते हैं वे छोटे निवेशक भी जिनकी बचत म्युचुअल फंड के जरिये इन बैंकों के शेयरों या बॉन्ड में लगाई जाती है. इसलिए...

शक करिए अगर कोई बैंक आपको बाजार से ऊंची ब्याज दर पर बचत या निवेश का लालच देता है. जैसा कि (एटी-1 बॉन्ड) में यस बैंक ने किया. ऐसी किसी भी पेशकश की उम्र लंबी नहीं होती.

बैंकों के लुभावने विज्ञापनों को पढ़ने से ज्यादा संकट की आहट पर कान रखना जरूरी है. आपके लिए यह जानना आवश्यक है कि बैंक ने कर्ज किसे दे रखा है और बकाया कर्ज का उसके कमाई या मुनाफों से क्या रिश्ता है.

भारतीय बैंकिंग जमाकर्ताओं के दम पर चलती है. सरकारें सस्ते कर्ज की बरसात चाहती हैं जो एक सीमा से अधि होने पर बचतों को डुबा देती है.  

आपका म्चयुचुल फंड किस बैंक में पैसा लगा रहा है, इसका पता जरूर रखिए.

याद रखिए, वित्तीय जानकारियों से लैस नागरिक, सरकारों को कभी नहीं भाते क्योंकि वे आंख मूंद कर भरोसा नहीं करते. जितना वक्त हम सियासत को समझने में लगाते हैं, उसका आधा वक्त भी अगर वित्तीय समझ में लगा दें तो यस बैंक जैसी नौबत नहीं आएगी

बैंक के बारे में हर छोटी-बड़ी बात जानना जमाकर्ताओं और निवेशकों का हक है. हम बैंक के बंधुआ नहीं हैं. बैंकों को हमारी जरूरत है. बैंकिंग पारदर्शिता के मौजूदा ढांचे में व्यापक बदलाव तभी आएंगे जब हम सरकारों को सवालों के खौलते पानी में बार-बार डुबाएंगे.

आपकी गाढ़ी कमाई संकट में है. जागिए नहीं तो डूब जाएंगे.