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Monday, August 31, 2015

वाह पैकेज, आह सुधार



पैकेज पॉलिटिक्स के नवीनीकरण के साथ मोदी ने केंद्र और राज्य के वित्तीय संबंधों को बदलने वाले अपने ही मॉडल को सर के बल खड़ा कर दिया है. 

ह अप्रत्याशित ही था कि लाल किले की प्राचीर से अपने 86 मिनट के मैराथन भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार भी उस सबसे बड़े सुधार का जिक्र नहीं किया, जिसका ऐलान उन्होंने पिछले साल यहीं से किया था. योजना आयोग की विदाई लाल किले से ही घोषित हुई थी, जो मोदी सरकार का इकलौता क्रांतिकारी सुधार ही नहीं था बल्कि एक साहसी प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता का प्रमाण भी था. अलबत्ता, लाल किले से संबोधन में योजना आयेाग और नीति आयोग का जिक्र न होने का रहस्य चार दिन बाद आरा की चुनावी रैली में खुला जब प्रधानमंत्री ने बिहार के लिए सवा लाख करोड़ रु. के पैकेज के साथ उस बेहद कीमती सुधार को रोक दिया, जो योजना आयोग की समाप्ति के साथ खुद उन्होंने शुरू किया था.
बिहार पैकेज पर असमंजस इसलिए नहीं है कि भारत के जीडीपी (2014-15) के एक फीसदी के बराबर का यह पैकेज कहां से आएगा या इसे कैसे बांटा जाएगा, बल्कि इसलिए कि पैकेज पॉलिटिक्स के नवीनीकरण ने केंद्र और राज्य के वित्तीय संबंधों को बदलने वाले मोदी के मॉडल को सिर के बल खड़ा कर दिया है. राजनैतिक गणित के आधार पर राज्यों को सौगात और खैरात बांटने का दंभ ही कांग्रेसी संघवाद की बुनियाद था. राज्यों को केंद्र से हस्तांतरणों में सियासी फार्मूले के इस्तेमाल पर पर्याप्त शोध उपलब्ध है जो बताता है कि 1972 से 1995 तक उन राज्यों को केंद्र से ज्यादा मदद मिली जो राजनैतिक तौर पर केंद्र सरकार के करीब थे या चुनावी संभावनाओं से भरे थे. 1995 के बाद राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों के अभ्युदय के साथ केंद्रीय संसाधनों के हस्तांतरण में पारदिर्शता के आग्रह मुखर होने लगे.
यह गैर-कांग्रेसी राज्यों के विरोध का नतीजा था कि वित्त आयोगों ने धीरे-धीरे केंद्र से राज्यों को विवेकाधीन हस्तांतरणों के सभी रास्ते बंद कर दिए. 14वें वित्त आयोग ने तो केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी बांटने के लिए सामान्य और विशेष श्रेणी के राज्यों का दर्जा भी खत्म करते हुए, वित्तीय तौर पर नुक्सान में रहने वाले राज्यों के लिए राजस्व अनुदान का फॉर्मूला सुझाया है. वित्त आयोग ने केंद्र से राज्यों को हस्तांतरण बढ़ाने में शर्तों और सुविधाओं की भूमिका को सीमित कर दिया है.
केंद्र और राज्यों के वित्तीय रिश्तों में सियासी दखल को पूरी तरह खत्म करने के लिए योजना आयोग का विदा होना जरूरी था, जो केंद्रीय स्कीमों के जरिए संसाधनों के राजनैतिक हस्तांतरण को पोस रहा था. यही वजह थी कि पिछले साल लाल किले की प्राचीर से जब मोदी ने इस संस्था को विदा किया तो इसे राज्यों के लिए आर्थिक आजादी की शुरुआत माना गया. योजना आयोग के जाने और वित्त आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद राज्य सरकारें उस कांग्रेसी संघवाद से मुक्त हो गई थीं, जिसके तहत उन्हें केंद्र के साथ सियासी रिश्तों के तापमान या चुनावी सियासत के मुताबिक केंद्रीय मदद मिलती थी. लेकिन अफसोस! बिहार पैकेज के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सबसे बड़े वित्तीय सुधार की साख खतरे में डाल दी है.
बिहार पैकेज का ऐलान मोदी की टीम इंडिया यानी देश के राज्यों की उलझन बढ़ाने वाला है, जो योजना आयोग की अनुपस्थिति से उपजे शून्य को लेकर पहले से ही ऊहापोह में हैं. योजना आयोग की विदाई ने केंद्र व राज्य के बीच संसाधनों के बंटवारे और प्रशासनिक समन्वय को लेकर व्यावहारिक चुनौतियां खड़ी कर दी हैं, जिसे भरने के लिए नीति आयोग के पास न तो पर्याप्त अधिकार हैं और न ही क्षमताएं. योजना आयोग केवल केंद्र व राज्यों के बीच संसाधन ही नहीं बांटता था बल्कि केंद्र के विभिन्न विभागों व राज्य सरकारों के बीच समन्वय का आधार था. केंद्रीय मंत्रालय व राज्य सरकारें योजना आयोग को संसाधनों की जरूरतों का ब्योरा भेजती थीं, जिसके आधार पर केंद्रीय योजना को बजट से मिली सहायता बांटी जाती है. योजना आयोग बंद होने के साथ यह प्रक्रिया भी खत्म हो गई.
राज्य सरकारों को विभिन्न स्कीमों व कार्यक्रमों के तहत केंद्रीय संसाधन मिलते हैं. योजना आयोग की अनुपस्थिति के बाद अब 14वें वित्त आयोग की राय के मुताबिक इन केंद्रीय स्कीमों में संसाधनों के बंटवारे का नया फॉर्मूला तय होना है, जिसके लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में गठित समिति की सिफारिशों का इंतजार हो रहा है. इस असमंजस के कारण आवंटनों की गति सुस्त है, जिससे राज्यों की ही नहीं, बल्कि केंद्र की योजनाओं के क्रियान्वयन पर भी असर पड़ रहा है. यही नहीं, योजना आयोग केंद्रीय व राज्य की स्कीमों की मॉनिटरिंग भी करता था, जिसके आधार पर आवंटनों को तर्कसंगत किया जाता था. व्यवस्था का विकल्प भी अब तक अधर में है.
योजना आयोग खत्म होने के बाद अनौपचारिक चर्चाओं में मुख्यमंत्री यह बताते थे कि योजना आयोग की नामौजूदगी से केंद्र व राज्यों के बीच समन्वय का शून्य बन गया है. अलबत्ता राज्यों के मुखिया यह जिक्र करना नहीं भूलते थे कि मोदी सरकार के नेतृत्व में केंद्र व राज्यों के बीच वित्तीय रिश्तों की नई इबारत बन रही है, जो राज्यों की आर्थिक आजादी को सुनिश्चित करती है. इसलिए समन्वय की समस्याओं का समाधान निकल आएगा. लेकिन बिहार पैकेज के बाद अब मोदी के संघवाद पर राज्यों का भरोसा डगमगाएगा.
यह देखना अचरज भरा है कि राज्यों को आर्थिक आजादी की और केंद्रीय नियंत्रण से मुक्त करने की अलख जगाते मोदी, इंदिरा-राजीव दौर के पैकेजों की सियासत वापस ले आए हैं, जिसके तहत केंद्र सरकारें राजनैतिक गणित के आधार पर राज्यों को संसाधन बांटती थीं. राजनैतिक कलाबाजियां और यू टर्न ठीक हैं लेकिन कुछ सुधार ऐसे होते हैं जिन पर टिकना पड़ेगा. मोदी के अच्छे दिनों का बड़ा दारोमदार टीम इंडिया यानी राज्यों पर है, जिन्हें मोदी के सहकारी संघवाद से बड़ी आशाएं हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार पैकेज अपवाद होगा. मोदी पैकेज पॉलिटिक्स में फंसकर अपने सबसे कीमती सुधार को बेकार नहीं होने देंगे.

Monday, March 2, 2015

29 बजटों की ताकत


राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट कथाएं बनते देर नहीं लगेगी।
बीते सप्ताह जब उद्योग और सियासत मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट के इंतजार में नाखून चबा रहे थे, तब देश में कई और बजट भी पेश हो रहे थे. भारत एक बजट का नहीं बल्कि 29 बजटों का देश है और राज्यों के इन 29 बजटों को बेहद गंभीरता से लेने का वक्त आ गया है. अगले एक साल में भारत के राज्य उस वित्तीय ताकत से लैस हो चुके होंगे, जो देश में आर्थिक नीतियों का ही नहीं बल्कि राजनीति का चेहरा भी बदल देगी. फ्रांसीसी लेखक विक्टर ह्यूगो कहते थे, उस विचार को कोई नहीं रोक सकता जिसका समय आ गया हो. राज्यों को आर्थिक फैसलों की आजादी और संसाधन देने का समय आ गया था इसलिए इसे रोका नहीं जा सका. इसे आप भारत का सबसे दूरगामी आर्थिक सुधार कह सकते हैं जो पिछले एक दशक की सियासी चिल्लपों के बीच चुपचाप आ जमा है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले वित्त आयोग ने राज्यों के वित्तीय अधिकार बढ़ाने का सफर शुरू कर दिया था, मोदी ने योजना आयोग को खत्म करते हुए इसे मंजिल तक पहुंचा दिया. मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट के साथ भारत में संघवाद का एक नया खाका उभर रहा है, जिसमें शक्ति संपन्न केंद्र अब कमजोर होगा जबकि राज्य वित्तीय मामलों में नई ताकत बनेंगे और विकास का तकाजा अब केवल दिल्ली से नहीं बल्कि जयपुर, भोपाल, लखनऊ, चेन्नै, बेंगलुरू, कोलकाता से भी होगा, जिन्हें इस नई वित्तीय ताकत व आजादी को संभालने की क्षमताएं विकसित करनी हैं.
योजना आयोग को खत्म करते हुए नरेंद्र मोदी विकेंद्रीकृत आर्थिक नीति नियोजन का नया खाका भले ही स्पष्ट न कर पाए हों लेकिन उन्होंने आर्थिक संसाधनों के बंटवारे में केंद्र के दबदबे को जरूर खत्म कर दिया. बचा हुआ काम चौदहवें वित्त आयोग ने कर दिया है. बजट से पहले इसकी जो रिपोर्ट सरकार ने स्वीकार की है वह केंद्र व राज्यों के वित्तीय रिश्तों का नक्शा बदलने जा रही है. राज्यों को केंद्रीय करों में अब 42 फीसदी हिस्सा मिलेगा यानी पिछले फॉर्मूले से 10 फीसदी ज्यादा. केंद्र सरकार उन्हें शर्तों में लपेटे बिना फंड देगी और यही नहीं, केंद्र राज्य के संसाधनों के हिस्से बांटने का नया फॉर्मूला भी लागू होगा जो आधुनिक जरूरतों को देखकर बना है. केंद्रीय करों में मिलने वाला हिस्सा 2016 के बाद करीब 1.76 खरब रु. बढ़ जाएगा. कोयला खदानों के आवंटन से राज्यों  को एक लाख करोड़ रु. मिल रहे हैं. योजना आयोग से मिलने वाले अनुदान व फंड भी बढ़ेंगे और जीएसटी भी राज्यों की कमाई में इजाफा करेगा.
बात सिर्फ वित्तीय संसाधनों की सप्लाई की नहीं है. योजना आयोग की विदाई और वित्त आयोग की सिफारिशों की रोशनी में राज्यों को इन संसाधनों को खर्च करने की पर्याप्त आजादी भी मिल रही है, जो एक बड़ी चुनौती भी है. अधिकांश राज्यों का वित्तीय प्रबंधन बदहाल और प्रागैतिहासिक है. बजटों की प्रक्रिया कामचलाऊ है. कर्ज, नकदी और वित्तीय लेन-देन प्रबंधन की आधुनिक क्षमताएं नहीं हैं. टैक्स मशीनरी जंग खा रही है. राज्यों को योजना, नीति निर्माण और मॉनिटरिंग के उन सभी तरीकों की शायद ज्यादा जरूरत है जो उदार बाजार के बाद केंद्र सरकार के लिए बेमानी हो गए थे. राज्यों को अब पारदर्शी व आधुनिक वित्तीय ढांचा बनाना होगा, जो संसाधनों की इस आपूर्ति को संभाल सके. वित्त आयोग की सिफारिश, मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट और निवेश के माहौल को देखते हुए जो तस्वीर बन रही है, उसमें विकास का बड़ा खर्च राज्यों के माध्यम से होगा अर्थात् बड़े आर्थिक निर्माणों से लेकर सामाजिक ढांचा बनाने तक केंद्र की भूमिका सीमित हो जाएगी. राज्यों का प्रशासानिक ढांचा अक्षमताओं का पुराना रोगी है. निर्माण गतिविधियां कॉन्ट्रेक्टर राज के हवाले हैं. यदि राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट कथाएं बनते देर नहीं लगेगी, क्योंकि राज्यों को वित्तीय ही नहीं बल्कि जमीन अधिग्रहण से लेकर रिटेल में विदेशी निवेश तक कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर कानूनी ताकत भी मिल रही है.
राजनैतिक उठा-पटक के बावजूद भारत में गवर्नेंस का एक नया ढांचा उभरने लगा है. इसमें एक तरफ राज्य सरकारें होंगी जो विकास की राजनीति में केंद्र की भूमिका सीमित करेंगी तो दूसरी तरफ होंगे स्वतंत्र नियामक यानी रेगुलेटर, जो दूरसंचार, बिजली, बीमा, पेंशन, पेट्रोलियम, बंदरगाह, एयरपोर्ट, कमॉडिटी, फार्मास्यूटिकल व पर्यावरण क्षेत्रों में केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकार ले चुके हैं. रेलवे व सड़क नियामक कतार में हैं. सेबी, प्रतिस्पर्धा आयोग, राज्य बिजली नियामक आयोगों को शामिल करने के बाद यह नया शासक वर्ग राजनैतिक प्रभुओं से ज्यादा ताकतवर दिखता है. अगर राज्यों में पानी और सड़क परिवहन के लिए नियामक बनाने की सिफारिशें भी अमल में आर्इं तो अगले कुछ वर्षों में देश की आर्थिक किस्मत नेताओं से लैस मंत्रिमंडल नहीं बल्कि विशेषज्ञ नियामक लिखेंगे.

इतिहास हर व्यक्ति के लिए अपनी तरह से जगह निर्धारित करता है. इतिहास नरेंद्र मोदी का मूल्याकंन कैसे करेगा अभी यह तय करना जल्दी है लेकिन उन्होंने जान-बूझकर या अनजाने ही इतिहास की एक बड़ी इबारत अपने नाम जरूर कर ली है. उनकी अगुआई में केंद्र और राज्य के रिश्तों का ढांचा बदल गया है. नरेंद्र मोदी भारत में ताकतवर केंद्र सरकार का नेतृत्व करने वाले शायद आखिरी प्रधानमंत्री होंगे. उनके रहते ही सत्ता की ताकत नए सुल्तानों यानी स्वतंत्र नियामकों के पास पहुंच जाएगी और विकास के खर्च की ताकत राज्यों के हाथ में सिमट जाएगी. यह किसी भी तरह से 91 या ’95 के सुधारों से कम नहीं है. इस बदलाव के बाद भारत की राजनीति का रासायनिक संतुलन भी सिरे से तब्दील हो सकता है.

Sunday, March 31, 2013

उलटा चलो रे !


 ठसक के साथ रुढि़वादी होने की सुविधा और पिछड़ेपन को ब्रांड बनाने का मौका  राजनीति में ही मिल सकता है। हम फिर साबित करने जा रहे हैं कि हम इतिहास से
यही सीखते हैं कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा।

तिहास से बचने और अर्थशास्‍त्र से नजरें चुराने एक सिर्फ एक ही रास्‍ता है कि  सियासत की रेत में सर गड़ा दिया जाए। क्‍यों कि ठसक के साथ रुढि़वादी होने की सुविधा और पिछड़ेपन को ब्रांड बनाने का मौका  राजनीति में ही मिल सकता है। पिछडापन तय करने के नए तरीकों और विशेष राज्‍यों के दर्जे की मांग के साथ भारत में सत्‍तर अस्‍सी का दशक जीवंत हो रहा है जब राज्‍यों के बीच बहसें तरक्‍की को लेकर नहीं बल्कि केंद्रीय मदद में ज्‍यादा हिस्‍सा लेने को लेकर होती थीं जिसमें खुद पिछड़ेपन का बहादुर साबित करना जरुरी था।
राज्‍यों के आर्थिक पिछड़ेपन लेकर भारत में अचछी व बुरी नसीहतों का भरपूर इतिहास मौजूद है जो उदारीकरण व निजी निवेश की रोशनी में ज्‍यादा प्रामाणिक हो गया है। उत्त्‍तर पूर्व का ताजा हाल, भौगोलिक पिछड़ापन दूर करने के लिए विशेष दर्जें वाले राज्‍यों की प्रणाली की असफलता का इश्तिहार है। छोटे राज्‍य बनाने की सूझ भी पूरी तरह कामयाब नहीं हुई। पिछड़े क्षेत्रों के लिए विशेष अनुदानों के बावजूद मेवात, बुंदेलखंड, कालाहांडी की सूरत नहीं बदली जबकि राज्‍यों को केंद्रीय सहायता बांटने का फार्मूला कई बार बदलने से भी कोई फर्क नहीं पड़ा। यहां तक कि राज्‍यों को किनारे रखकर सीधे पंचायतों तक मदद भेजने की कोशिशें भी अब दागी होकर निढाल पड़ी हैं। 


केंद्रीय सहायता में आरक्षण यह नई बहस तब शुरु हो रही है जब राज्‍यों में ग्रोथ के ताजा फार्मूले ने पिछड़ापन के दूर करने के सभी पुराने प्रयोगों की श्रद्धांजलियां प्रकाशित कर दी हैं। पिछले एक दशक में यदि उड़ीसा, राजसथान, मध्‍य प्रदेश जैसे बीमारुओं ने महाराष्‍ट्र, पंजाब या तमिलनाडु को पीछे छोड़ा है तो इसमें केंद्र सरकार की मोहताजी नहीं बलिक सक्षम गर्वनेंस, निजी उद्यमिता को प्रोत्‍साहन और दूरदर्शी सियासत काम आई। इसलिए विशेष दर्जे वाले नए राजयों की मांग के साथ न तो इतिहास खड़ा है और न ही उलटे चलने की इस सूझ को अर्थशास्‍त्र का समर्थन मिल रहा है।
इतिहास का सच
1959 में मिजोरम की पहाडि़यों पर बांस फूला था, जिसे खाने के लिए जुटे चूहे बाद में मिजो किसानों के अनाज का बीज तक खा गये। मिजोरम की पहाडि़यों पर अकाल की मौत नाचने लगी। सेना के हवलदार और बाद में आइजोल में क्‍लर्क की नौकरी करने वाले

Monday, March 18, 2013

पिछड़ने का पुरस्‍कार



विशेष राज्‍य की श्रेणी के लिए बेताब राज्‍य सरकारें अपनी दयनीयता के पोस्‍टर बांटना शुरु  करेंगी और ज्‍यादा संसाधनों के लिए केंद्र सरकार के राजनीतिक अहंकार को सहलायेंगी। 

भारत की आर्थिक राजनीति में एक नए दकियानूसी दौर का आगाज हो गया है। केंद्र सरकार पिछड़े राज्‍य चुनने का पैमाना बदलने वाली है यानी कि राज्‍यों के बीच खुद को दूसरे से ज्‍यादा पिछड़ा और दरिद्र साबित करने की प्रतिस्‍पर्धा शुरु होने वाली है। विशेष राज्‍य की श्रेणी के लिए बेताब राज्‍य सरकारें अब अपनी दयनीयता के पोस्‍टर बांटना शुरु कर करेंगी और ज्‍यादा संसाधनों के लिए केंद्र सरकार के राजनीतिक अहंकार को सहलायेंगी। बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार का अभियान शुरु हो गया है, उड़ीसा व बंगाल को इस जुलूस में बुलाया जा रहा है। हकीकत यह है कि केंद्र से राज्‍यों को संसाधन देने का ढांचा पिछले एक दशक में इस कदर बदला है कि केंद्र अब पिछडेपन का तमगा तो दे सकता है लेकिन ज्‍यादा संसाधन नहीं। उत्‍तर पूर्व की हालत, चार दशक पुरानी विशेष राज्‍य प्रणाली की समग्र असफलता का दस्‍तावेजी प्रमाण हैं। इसलिए नए गठबंधन जुगाड़ने का यह कांग्रेसी पैंतरा अंतत: राज्‍यों की मोहताजी और विभाजक सियासत की नई नुमाइश शुरु करने वाला है।  
भारत में 1969 तक राज्‍यों के बीच आम व खास कोई फर्क नहीं था। पांचवे वित्‍त आयोग ने जटिल भौगोलिक स्थिति, कम व बिखरी जनसंख्‍या, सीमित राजस्‍व और अंतरराष्‍ट्रीय सीमा पर स्थिति को देखते हुए