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Sunday, October 15, 2017

ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग


नेता सिर्फ पांच साल में खरबपति कैसे हो जाते हैं?
पिछले माहजब इस सवाल के साथ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से करीब 289 सांसदों-विधायकों की 'उद्यमिताका रहस्य पूछा था तो बहुत सी उम्‍मीदों ने अचानक आंखें खोली कि अब तो 2014 के चुनावी वादे याद आ ही जाएंगे जिन में मुट्ठियां लहराते हुए राजनीति को साफ करने का संकल्प किया गया था. 
प्रधानमंत्री नेपिछले साल नोटबंदी के दौरान सभी सांसदों-विधायकों से अपने बैंक खातों की जानकारी पार्टी को देने को कहा था. जानकारी जरूर आई होगी लेकिन घंटों लाइन में लगने वाली जनता को यह पता नहीं चला कि नोटबंदी के दौरान उनके माननीय नुमाइंदों के बैंक खातों में क्या हो रहा था
बताते चलें कि साल बीतने को है लेकिन बीते सप्ताह तक प्रधानमंत्री की वेबसाइट पर 92 में केवल 29 मंत्रियों की संपत्ति के ब्यौरे उपलब्ध थे.
भ्रष्टाचार और इलेक्ट्रॉनिक्स में एक अनोखी समानता है. दोनों जितने नैनो यानी सूक्ष्म होते जाते हैंउनकी ताकत उतनी ज्यादा बढ़ती जाती है और  राजनीति इसमें डूबकर और उजली (ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंगत्यों त्यों उज्वल होय) होती जाती है. भ्रष्टाचार की ताकत बढऩे और उसके उज्ज्वल होने का मतलब उसका संस्थागत होते जाना है.
भ्रष्टाचार की बढ़ती सूक्ष्मता पूरी दुनिया में सबसे बड़ी चुनौती हैलड़ाई इसलिए कठिन होती जा रही है कि जब तक लोग भ्रष्टाचार को समझकर और जागरूक होकरइसके विरुद्ध लामबंद हो पाते हैंतब तक यह संस्थागत हो जाता है.
संस्थागत होते ही भ्रष्टाचार अपराध की जगह सुविधाआदतमजबूरीपरंपरा और नियम तक बन जाता है. आर्थिक फैसलों में तो विभाजक रेखाएं इतनी धुंधली हैं कि प्रत्यक्ष तौर पर साफ-सुथरे दिखने वाले नीतिगत फैसलों में महीन व्यापक भ्रष्टाचार छिपा होता है.
भ्रष्टाचार के जटिल व संस्थागत होने को कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है:

1. राजनैतिक दलों को मिलने वाला चंदा लोकतंत्र में भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी संस्था है. सभी दल इसे मजबूरी मानने लगेइसे बदलना तो दूर इसे पारदर्शी बनाने की कोशिशें भी हाशिए पर हैं. चंदे संस्थागत हो गए. चुनाव आयोग और अदालतें भी इसे ठीक करने में कुछ खास नहीं कर सकीं. हमें यह मालूम है कि चंदों के बदले सत्ता के फायदों में हिस्सेदारी होती है लेकिन यह भ्रष्टाचार सूक्ष्म और 'नीतिसंगतहै. हमें यह मान लेना पड़ता है कि सत्ता में आने वाली हर नई सरकार अपने पसंदीदा कारोबारियों को अवसरों से नवाजेगी. विकास की यह कीमत हमें भुगतनी पड़ेगी.

2. राजनेता या अधिकारी सरकार में पदों और रसूख का फायदा उठा सकते हैं. सांसद-विधायक संपत्ति की घोषणा तो करते हैं लेकिन अपने कारोबारी या वित्तीय संपर्कों की नहीं. 2015 में तंबाकू उत्पादों पर चेतावनी का फैसला करने वाली समिति में बीड़ी उद्योग से जुड़े दो सांसद थे. सांसदोंविधायकों और मंत्रियों को लेकर इस मामले में नियम इस कदर अधूरे हैं कि यह भ्रष्टाचार एक तरह से संस्थागत हो गया.
जब हमें अपने नुमाइंदों के बारे में ही जानकारी नहीं मिलती तो उनके परिवारों के बारे में कौन पूछेगाएसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स की याचिका पर देश की सर्वोच्च अदालत का अचरज सही था कि केवल पांच साल में कुछ सांसदों की संपत्ति 500 फीसदी कैसे बढ़ सकती है. 

3. बैंकों से कंपनियों को कर्जसरकारों से उद्योगों को जमीनखदानस्पेक्ट्रम आवंटन जाहिरा तौर पर साफ-सुथरे आर्थिक व्यवहार हैं लेकिन जरा यह उदाहरण देखिए कि कंपनियों ने सरकार से स्पेक्ट्रम खरीदाइसके लिए बैंको से कर्ज ले लिया गया लेकिन घाटा होने पर फीस की माफी और बैंक कर्ज को टालने का पैकेजलेकिन क्या यह सब कुछ साफ-सुथरा हैबैंकों के बकाया कर्ज की वजहें आर्थिक विफलताएं ही नहीं हैं. इस सूक्षम संस्थागत भ्रष्टाचार की पैमाइश व सफाई आसान नहीं है.

भ्रष्टाचार के मामले में हम अक्सर यह मान लेते हैं कि शीर्ष पर बैठे एक-दो साफ सुथरे लोग पूरी व्यवस्था में स्वच्छता का चमत्कार कर देंगे. लेकिन यह भ्रष्टाचार व्यक्तिगत है ही नहीं. उच्च राजनैतिक पदों पर भ्रष्टाचार अब अवसरों की पेचीदा बंदरबांट का हैअन्य फायदे तो अदृश्य हैं.

भ्रष्टाचार को लेकर व्यक्तिगत संघर्ष दूर तक नहीं जा पाते. कई बार साफ-सुथरे नेतृत्व भी अपने पीछे भयानक कालिख छोड़ जाते हैं. उच्च पदों पर संस्थागत भ्रष्टाचार के खिलाफ सफलताएं हमेशा संस्थाओं (कानूनअदालतऑडिटर) की मदद से ही मिली हैं. 

क्या पिछले तीन साल में भारत में भ्रष्टाचार से लडऩे वाली संस्थाएं मजबूत और विकसित हुई हैंनहीं तो फिर जब तक बंद है तब तक आनंद हैजब खुलेगा तब खिलेगा.



Tuesday, July 7, 2015

ग्रीक ट्रेजडी के भारतीय मिथक

ग्रीस की ट्रेजडी को घटिया गवर्नेंस व सियासत ने गढ़ा है. ग्रीस के ताजा संकट के कई मिथक भारत से मिलते हैं 

ग्रीस की पवित्र वातोपेदी मॉनेस्ट्री के महंत इफ्राहीम व देश के शिपिंग मंत्री की पत्नी सहित 14 लोगों को पिछले साल नवंबर में जब ग्रीक सुप्रीम कोर्ट ने धोखाधड़ी का दोषी करार दिया, तब तक यह तय हो चुका था कि ग्रीस (यूनान) आइएमएफ के कर्ज में चूकने वाला पहला विकसित मुल्क बन जाएगा और दीवालिएपन से बचने के लिए उसे लंबी यंत्रणा झेलनी होगी. आप कहेंगे कि 10वीं सदी की क्रिश्चियन मॉनेस्ट्री का ग्रीस के संकट से क्या रिश्ता है? दरअसल, ट्रेजडी का पहला अंक इसी मॉनेस्ट्री ने लिखा था. महंत इफ्राहीम ने 2005 में नेताओं व अफसरों से मिलकर एक बड़ा खेल किया. उन्होंने मॉनेस्ट्री के अधिकार में आने वाली विस्तोनिदा झील ग्रीक सरकार को बेच डाली और बदले में 73 सरकारी भूखंड व भवन लेकर वाणिज्यिक निर्माण शुरू कर दिए.
इन कीमती संपत्तियों में एथेंस ओलंपिक (2004) का जिम्नास्टिक स्टेडियम भी था. 2008 में इसके खुलासे के साथ न केवल तत्कालीन सरकार गिर गई बल्कि भ्रष्टाचार, क्रोनी कैपिटलिज्म व सरकारी फर्जीवाड़े की ऐसी परतें उघड़ीं कि ग्रीस दीवालिएपन की कगार पर टंग गया. ग्रीस, तकनीकी तौर पर मंदी से उपजे कर्ज संकट का शिकार दिखता है लेकिन दरअसल उसकी ट्रेजडी को घटिया गवर्नेंस व सियासत ने गढ़ा है. ग्रीस के ताजा संकट को पढ़ते हुए इस एहसास से बचना मुश्किल है कि भारत में कई ग्रीस पल रहे हैं.
बीते सप्ताह बैंक के बंद होने के बाद ग्रीस की ट्रेजडी का कोरस शुरू हो गया था. कर्ज चुकाने में चूकना किसी देश के लिए घोर नर्क है. तबाही की शुरुआत देश की वित्तीय साख टूटने व खर्च में कटौती से होती है और बैंकों की बर्बादी से दीवालिएपन तक आती है. ग्रीस का पतन 2008 में शुरू हुआ. 2010 के बाद यूरोपीय समुदाय व आइएमएफ ने 240 अरब यूरो के दो पैकेज दिए, जिसमें 1.6 अरब यूरो की देनदारी बीते मंगलवार को थी, ग्रीस जिसमें चूक गया. ताजा डिफॉल्ट के साथ 1.1 करोड़ की आबादी वाला ग्रीक समाज वित्तीय मुश्किलों की लंबी सुरंग में उतर गया है. अब उसे कठोर शर्तें मानकर खर्च में जबरदस्त कटौती करनी होगी या खुद को दीवालिया घोषित करते हुए उस निर्मम दुनिया से निबटना होगा है जहां सूदखोर शायलॉक की तरह कर्ज वसूला जाता है. हाल का सबसे बड़ा डिफॉल्टर अर्जेंटीना पिछले एक दशक से यह आपदा झेल रहा है.
ग्रीस के संकट की वित्तीय पेचीदगियां उबाऊ हो सकती हैं लेकिन इस ट्रेजडी के कारणों में भारत में दिलचस्पी जरूर होनी चाहिए. वहां के सबसे बड़े जमीन घोटाले को अंजाम देने वाले वातोपेदी मॉनेस्ट्री को ही लें, जो उत्तर माउंट एटॉस प्रायद्वीप पर स्थित है और बाइजेंटाइन युग से ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियनिटी का सबसे पुराना केंद्र है. वित्तीय संकटों के अध्येता माइकल लेविस अपनी किताब बूमरैंग में लिखते हैं कि महंत इफ्राहीम इतना रसूखदार था कि वह एक ग्रीक बैंकर के साथ वातोपेदी रियल एस्टेट फंड बनाने वाला था. झील के बदले उसने जो सरकारी संपत्तियां हासिल कीं उनका दर्जा (लैंड यूज) बदलकर उन्हें वाणिज्यिक किया गया ताकि उन पर आधुनिक कॉम्प्लेक्स बनाए जा सकें. वातोपेदी मठ की यह कथा क्या आपको भारत के वाड्रा, आदर्श घोटाले अथवा धर्म ट्रस्टों के जमीन घोटालों की सहोदर नहीं लगती?
हेलेनिक या पश्चिमी सभ्यता के गढ़ ग्रीस की बदहाली बताती है कि सरकारें जब सच छिपाती हैं तो कयामत आती है. यूरोमुद्रा अपनाने के लिए ग्रीस को घाटे व कर्ज को (यूरोजोन ग्रोथ ऐंड स्टेबिलिटी पैक्ट) को काबू में रखने की शर्तें माननी थीं. इन्हें पूरा करने के लिए सरकार ने कई तरह के ब्याज, पेंशन, कर्जों की माफी, स्वास्थ्य सब्सिडी आदि भुगतानों को बजट से छिपा लिया और घाटे को नियंत्रित दिखाते हुए बाजार से खूब कर्ज उठाया. यूरोपीय समुदाय के आंकड़ा संगठन (यूरोस्टैट) की पड़ताल में पता चला कि 2009 में देश का घाटा जीडीपी के अनुपात में 12.5 फीसदी था जबकि सरकार ने 3.7 फीसदी होने का दावा किया था. इसके बाद देश की साख ढह गई. भारत के आंकड़ों में तो इतने फर्जीवाड़े हैं कि एक दो नहीं दसियों ग्रीस मिल जाएंगे. 
माइकल लुइस बूमरैंग में एक कंस्ट्रक्शन कंपनी का जिक्र करते हैं, जिसने एथेंस शहर में कई बड़ी इमारतें बनाकर बेच डालीं और एक भी यूरो का टैक्स नहीं दिया जबकि उस पर करीब 1.5 करोड़ यूरो के टैक्स की देनदारी बनती थी. इस फर्म ने दर्जनों छोटी कंपनियां बनाईं, फर्जी खर्च दिखाए और अंततः केवल 2,000 यूरो का टैक्स देकर बच निकली. ग्रीस में टैक्स चोरी के नायाब तरीके भले ही यूरोप व अमेरिका में दंतकथाओं की तरह सुने जाते हों लेकिन एथेंस की कंस्ट्रक्शन कंपनी की कर चोरी जैसे कई किस्से तो भारत में आपको एक अदना टैक्स इंस्पेक्टर सुना देगा.
 ग्रीस के बैंक उसकी त्रासदी का मंच हैं और बैंकों के मामले में भारत व ग्रीस में संकट के आकार का ही अंतर है. यूरोपीय बैंक अगर जोखिम भरे निवेश में डूबे हैं तो भारतीय बैंक सियासी-कॉर्पोरेट गठजोड़ में हाथ जला रहे हैं. भारतीय बैंक करीब तीन लाख करोड़ का कर्ज फंसाए बैठे हैं, जिनमें 40 फीसदी कर्ज सिर्फ 30 बड़ी कंपनियों पर बकाया है. भारत में बैंक नहीं डूबते क्योंकि सरकार बजट से पैसा देती रही हैं. देशी बैंक जमाकर्ताओं के पैसे से सरकार को कर्ज देते हैं और फिर सरकार उन्हें उसी पैसे से उबार लेती है. दरअसल यह आम लोगों की बचत या टैक्स भुगतान ही हैं जो बैंकों, सरकार व चुनिंदा कंपनियों के बीच घूमता है.
सरकारों का डिफॉल्टर होना नया नहीं है. दुनिया ने 1824 से 2006 के बीच 257 बार सॉवरिन डिफॉल्ट देखे हैं. दिवालिएपन पर आर्थिक शोध का अंबार मौजूद है, जिसे पढ़े बिना भी यह जाना जा सकता है कि यह त्रासदी सिर्फ वित्तीय बाजार की आकस्मिकताओं से नहीं आती बल्कि खराब गवर्नेंस, भ्रष्टाचार व वित्तीय अपारदर्शिता देशों मोहताज बना देती है.
यूरोप में कहावत है कि ग्रीस हमेशा अपनी क्षमता से बड़ा इतिहास बनाता है. उसने इस बार भी निराश नहीं किया. भारत व ग्रीस अब सिर्फ मिथकों या इतिहास के आइने में एक जैसे नहीं हैं, ग्रीस का वर्तमान भी भारत के लिए नसीहतें भेज रहा है. शुक्र है कि हम सुरक्षित हैं लेकिन क्या हम ग्रीस से कुछ सीखना चाहेंगे?



Monday, June 29, 2015

इकबाल का सवाल

मोदी सरकार के कई मिथक अचानक टूटने लगे हैं। बाहर से भव्‍य फिल्‍म सेट की तरह दिखती सरकार में पर्दे के पीछे यूपीए जैसी अपारदर्शिता और नीति शून्यता झांकने लगी है.
ई सरकार का मंत्रिमंडल बेदम है. उम्मीद है, सरकार आगे निराश नहीं करेगी.'' मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के अगले ही दिन अंतरराष्ट्रीय निवेश फर्म क्रेडिट सुइस की यह टिप्पणी बहुतों को अखर गई थी. निष्कर्ष तथ्यसंगत था लेकिन टिप्पणी कुछ जल्दबाजी में की गई लगती थी. अलबत्ता बीते सप्ताह एक बड़े विदेशी निवेशक ने दो-टूक अंदाज में मुझसे पूछा कि मोदी सरकार का प्लान बी क्या है? तो मुझे अचरज नहीं हुआ क्योंकि सियासी से लेकर कॉर्पोरेट गलियारों तक यह प्रश्न कुलबुलाने लगा है कि क्या नरेंद्र मोदी के लिए अपनी सरकार की बड़ी सर्जरी करने का वक्त आ गया है. यह सवाल केवल सरकार के कमजोर प्रदर्शन से ही प्रेरित नहीं है. सुषमा-वसुंधरा के ललित प्रेम, स्मृति ईरानी की मूर्धन्यता के विवाद और सरकार व पार्टी पर मोदी-शाह के इकबाल को लेकर असमंजस की गूंज भी इस सवाल में सुनी जा सकती है.
मोदी सरकार का एक साल पूरा होने तक यह सच लगभग पच गया था कि अपेक्षाओं व मंशा के मुकाबले नतीजे कमजोर रहे हैं. लेकिन यह आशंका किसी को नहीं थी कि नई सरकार कोई ठोस बदलाव महसूस कराए बिना अपने शैशव में ही उन विवादों में उलझ जाएगी जो न केवल गवर्नेंस के उत्साह निगल सकते हैं, बल्कि जिनके चलते सरकार और बीजेपी में नरेंद्र मोदी व अमित शाह का दबदबा भी दांव पर लग जाएगा.
पिछले एक साल में मोदी सरकार के दो चेहरे दिखे हैं. एक चेहरा भव्य और शानदार आयोजनों व प्रभावी संवाद की रणनीतियों का है.  लेकिन इसके विपरीत दूसरा चेहरा गवर्नेंस में ठोस यथास्थिति का है जो पिघल नहीं सकी. यह ठहराव खुद प्रधानमंत्री को भी बेचैन कर रहा है. सरकार की इस बेचैनी को तथ्यों में बांधा जा सकता है. मसलन, नौकरशाही में फेरबदल को लीजिए. पिछले 12 माह में केंद्र की नौकरशाही में तीन बड़े फेरबदल हो चुके हैं. यह उठापटक, सरकार चलाने में असमंजस की नजीर है. मोदी सरकार ब्यूरोक्रेसी को स्थिर और स्वतंत्र बनाना चाहती है जबकि ताबड़तोड़ फेरबदल ने उलटा ही असर किया है. ठीक इसी तरह क्रियान्वयन की चुनौतियों के चलते, तमाम बड़ी घोषणाओं के लक्ष्य व प्रावधान बदल दिए गए हैं. अगर वन रैंक वन पेंशन, खाद्य महंगाई, उच्च पदों पर पारदर्शिता जैसे बड़े चुनावी वादों पर किरकिरी को इसमें जोड़ लिया जाए तो महसूस करना मुश्किल नहीं है कि ढलान सामने है और वापसी के लिए सरकार की सूरत व सीरत में साहसी बदलाव करने होंगे, क्योंकि अभी चार साल गुजारने हैं.
नरेंद्र मोदी अब अपनी सरकार की सर्जरी किए बिना आगे नहीं बढ़ सकते. मंत्रिमंडल के पहले पुनर्गठन तक यह बात साफ हो गई थी कि तजुर्बे व पेशेवर लोगों की कमी के कारण टीम मोदी अपेक्षाओं के मुकाबले बेहद लचर है. पिछले एक साल का रिपोर्ट कार्ड इस बात की ताकीद करता है कि ज्यादातर मंत्री कोई असर नहीं छोड़ सके हैं. वजह चाहे मंत्रियों की अक्षमता हो या उन्हें अधिकार न मिलना, लेकिन मोदी का मंत्रिमंडल उनकी मंशाओं को जमीन पर उतारने में नाकाम रहा है. महत्वपूर्ण संस्थाओं में खाली शीर्ष पद बताते हैं कि एक साल बाद भी सरकार का आकार पूरा नहीं हो सका है. अगर मोदी अगले तीन माह में अपने मंत्रिमंडल में अकर्मण्यता का बोझ कम नहीं करते तो नीति शून्यता और कमजोर गवर्नेंस की तोहमतें उनका इंतजार कर रही हैं.
मोदी भले ही सलाह न सुनने के लिए जाने जाते हों लेकिन अब उन्हें अर्थव्यवस्था, विदेश नीति से लेकर अपने भाषणों तक के लिए थिंक टैंक और सलाहकारों की जरूरत है जो सरकार को नीतियों, कार्यक्रमों और कानूनों की नई सूझ दे सकें. नई पैकेजिंग में यूपीए की स्कीमों के दोहराव के कारण बड़े-बड़े मिशन छोटे नतीजे भी नहीं दे पा रहे हैं और असफलताएं बढऩे लगी हैं. मोदी सरकार को क्रियान्वयन के ढांचे में भी सूझबूझ भरे बदलावों की जरूरत है जिसके लिए उसे पेशेवरों की समझ पर भरोसा करना होगा जैसा कि दुनिया के अन्य देशों में होता है.
नरेंद्र मोदी अपनी सरकार और पार्टी में नैतिकता व पारदर्शिता के ऊंचे मानदंडों से समझौते का जोखिम नहीं ले सकते, क्योंकि उनकी सरकार को मिले जनादेश की पृष्ठभूमि अलग है. वसुंधरा, सुषमा, स्मृति, पंकजा के मामले बीजेपी से ज्यादा मोदी की राजनीति के लिए निर्णायक हैं. इन मामलों ने मोदी को दोहरी चोट पहुंचाई है. एक तो उनकी साफ-सुथरी सरकार अब दागी हो गई है. दूसरा, पद न छोडऩे पर अड़े नेता मोदी-शाह के नियंत्रण को चुनौती दे रहे हैं. गवर्नेंस और पारदर्शिता के मामले में मोदी की चुनौतियां मनमोहन से ज्यादा बड़ी हैं. मनमोहन के दौर में भ्रष्टाचार व नीति शून्यता की तोहमतें गठबंधन की मजबूरियों पर मढ़ी जा सकती थीं. यही वजह थी कि यूपीए सरकार के कलंक का बड़ा हिस्सा कांग्रेस पार्टी के खाते में गया. अलबत्ता बीजेपी में तो सरकार और पार्टी दोनों मोदी में ही समाहित हैं और उनकी अपनी ही पार्टी के नेता दागी हो रहे हैं. इसलिए सभी तोहमतें सिर्फ मोदी के खाते में दर्ज होंगी.
मुसीबत यह है कि नई सरकार के कई मिथक अचानक एक साथ टूटने लगे हैं. मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर मोदी की सख्त पकड़ की दंतकथाओं के विपरीत वरिष्ठ मंत्री व मुख्यमंत्री दागी होते दिख रहे हैं, जबकि जन संवाद की जबरदस्त रणनीतियों के बावजूद ठोस नतीजों की अनुपस्थिति लोगों को निराश कर रही है. सरकार एक साल के भीतर ही फिल्म सेट की तरह दिखने लगी है जिसमें बाहर भव्यता है लेकिन पीछे यूपीए जैसी अपारदर्शिता और नीति शून्यता बजबजा रही है.

मोदी जिस तरीके से बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में उभरे और चुनाव जीते हैं, उसमें उनकी राजनैतिक सफलता का सारा दारोमदार उनकी गवर्नेंस की कामयाबी पर है. यदि सरकार असफल या दागी हुई तो पार्टी पर उनके इकबाल का पानी भी टिकाऊ साबित नहीं होगा. सरकार को लेकर बेचैनी बढऩे लगी है लेकिन भरोसा अभी कायम है. नरेंद्र मोदी को कुछ दो टूक ही करना होगा, उनके लिए बीच का कोई रास्ता नहीं है. सरकार व पार्टी में साहसी बदलावों में अब अगर देरी हुई तो मोदी को अगले चार साल तक एक ऐसी रक्षात्मक सरकार चलाने पर मजबूर होना होगा जो विपक्ष के हमलों के सामने अपने तेवर गंवाती चली जाएगी. यकीनन, नरेंद्र मोदी एक कमजोर व लिजलिजी सरकार का नेतृत्व कभी नहीं करना चाहेंगे.

Tuesday, April 14, 2015

कैंसर के पैरोकार

तंबाकू के हक में उत्तर प्रदेश के बीड़ी सुल्तान और बीजेपी सांसद की खुली लामबंदी से सियासत का सबसे बड़ा कैंसर खुल गया है जिसे ढकने की कोशिश हर राजनीतिक दल ने की है.

भारत में यह अपने तरह की पहली घटना थी जब एक संसदीय समिति के सदस्य किसी उद्योग के लिए खुली लॉबीइंग कर रहे थे और उद्योग भी कुख्यात तंबाकू का. बीजेपी के एक सांसद और प्रमुख बीड़ी निर्माता संसदीय समिति के सदस्य के तौर पर न केवल अपने ही उद्योग के लिए नियम बना रहे हैं बल्कि बीड़ी पीने-पिलाने की खुली वकालत भी कर रहे थे. अलबत्ता सबसे ज्यादा शर्मनाक यह था कि सरकार ने इस संसदीय समिति की बात मान ली और तंबाकू से खतरे की चेतावनी को प्रभावी बनाने का काम रोक दिया. दिलचस्प है कि सांसदों की यह लामबंदी बीड़ी तंबाकू की बिक्री रोकने के खिलाफ नहीं थी बल्कि महज सिगरेट के पैकेट पर कैंसर की चेतावनी का आकार बड़ा (40 से 85 फीसद) करने के विरोध में थी. बस इतने पर ही सरकार झुक गई और फैसले पर अमल रोक दिया गया. संसदीय समिति के सदस्यों और बीड़ी किंग सांसद के बयानों पर सवाल उठने के बाद प्रधानमंत्री के ''गंभीर'' होने की बात सुनी तो गई लेकिन यह लेख लिखे जाने तक न तो सरकार ने सिगरेट की पैकिंग पर चेतावनी का आकार बढ़ाने की अधिसूचना जारी की और न ही बीड़ी सुल्तान को संसदीय समिति (सबऑडिर्नेट लेजिसलेशन) से हटाया गया है. नशीली दवाओं पर मन की बातों और किस्म-किस्म की नैतिक शिक्षाओं के बीच तंबाकू पर सरकार क्या कदम उठाएगी, यह तो पता नहीं. अलबत्ता तंबाकू के हक में उत्तर प्रदेश के बीड़ी सुल्तान और बीजेपी सांसद की खुली लामबंदी से सियासत का सबसे बड़ा कैंसर जरूर खुल गया है जिसे ढकने की कोशिश लगभग हर राजनीतिक दल ने की है. सरकारी फाइलों तक निजी कंपनियों के कारिंदों की पहुंच के ताजे मामलों की तुलना में बीड़ी प्रसंग कई कदम आगे का है जहां कंपनियों के प्रवर्तक जनप्रतिनिधि के रूप में खुद अपने लिए ही कानून बना रहे हैं. तंबाकू, जिसका घातक होना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणित है, जब उसके पक्ष में खुले आम लामबंदी हो सकती है तो अन्य उद्योगों से जुड़ी नीतियों को लेकर कई गुना संदेह लाजिमी है. बीड़ी तंबाकू प्रकरण केंद्र सरकार की नीतियों से जुड़ा है. जब प्रधानमंत्री की नाक के नीचे यह हाल है तो राज्यों की नीतियां किस तरह बनती होंगी इसका सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है.
भारत में उद्योगपति सांसद और कारोबारी नेताओं का ताना-बाना बहुत बड़ा है. बीड़ी उद्योगपति सांसद जैसे दूसरे उदाहरण भी हमारे सामने हैं. 'जनसेवा' के साथ उनकी कारोबारी तरक्की हमें खुली आंखों से दिख सकती है लेकिन इसे स्थापित करना मुश्किल है. पारदर्शिता के लिए पैमाने तय करने की जरूरत होती है. भारत की पूरी सियासत ने गहरी मिलीभगत के साथ राजनीति और कारोबार के रिश्तों की कभी कोई साफ परिभाषा तय ही नहीं होने दी. नतीजतन नेता कारोबार गठजोड़ महसूस तो होता है पर पैमाइश नहीं हो पाती. हालांकि पूरी दुनिया हम जैसी नहीं है. जिन देशों में इस गठजोड़ को नापने की कोशिश की गई है वहां नतीजों ने होश उड़ा दिए हैं.
अमेरिका के ओपन डाटा रिसर्च, जर्नलिज्म और स्वयंसेवी संगठन, सनलाइट फाउंडेशन ने पिछले साल नवंबर में एक शोध जारी किया था जो अमेरिका में कंपनी राजनीति गठजोड़ का सबसे सनसनीखेज खुलासा था. यह शोध साबित करता है कि अमेरिका में राजनीतिक रूप से सक्रिय 200 शीर्ष कंपनियों ने राजनीतिक दलों को चंदा देने और लॉबीइंग (अमेरिकी कानून के मुताबिक लॉबीइंग पर खर्च बताना जरूरी ) पर 2007 से 2012 के बीच 5.8 अरब डॉलर खर्च किए (http://bit.ly/vvvDvIw) और बदले में उन्हें सरकार से 4.4 खरब डॉलर का कारोबार और फायदे हासिल हुए. सनलाइट फाउंडेशन ने एक साल तक कंपनियों, चंदे, चुनाव आदि के करीब 1.4 करोड़ दस्तावेज खंगालने के बाद पाया कि पड़ताल के दायरे में आने वाली कंपनियों ने अपने कुल खर्च का लगभग 26 फीसद हिस्सा सियासत में निवेश किया. सनलाइट फाउंडेशन ने इसे फिक्स्ड फॉरच्यूंस कहा यानी सियासत में निवेश और मुनाफे की गारंटी.

भारत में अगर इस तरह की बेबाक पड़ताल हो तो नतीजे हमें अवाक कर देंगे. मुंबई की ब्रोकरेज फर्म एक्विबट कैपिटल ने राजनीतिक संपर्क वाली 75 कंपनियों को शामिल करते हुए पॉलिटिकली कनेक्टेड कंपनियों का इंडेक्स बनाया था जो यह बताता था कि 2009 से 2010 के मध्य तक इन कंपनियों के शेयरों में तेजी ने मुंबई शेयर बाजार के प्रमुख सूचकांक बीएसई 500 को पछाड़ दिया. अलबत्ता 2010 में घोटालों पर कैग की रिपोर्ट आने के बाद यह सूचकांक तेजी से टूट कर अक्तूबर 2013 में तलहटी पर आ गया. राजनीतिक रसूख वाली कंपनियों के सूचकांक ने जनवरी 2014 से बढ़त और अप्रैल 2014 से तेज उछाल दिखाई है. तब तक भारत में नई सरकार के आसार स्पष्ट हो गए थे.
भारत में नेता कारोबार गठजोड़ की बात तो नेताओं के वित्तीय निवेश और राज्यों में सरकारी ठेकों की बंदरबांट के तथ्यों तक जानी चाहिए लेकिन यहां सनलाइट फाउंडेशन जैसी पड़ताल या पॉलिटिकली कनेक्टेड कंपनियों के साम्राज्य को ही पूरी तरह समझना मुश्किल है. भारत के पास राजनीतिक पारदर्शिता का ककहरा भी नहीं है. हम न तो राजनीतिक दलों के चंदे का पूरा ब्योरा जान सकते हैं और न ही कंपनियों के खातों से यह पता चलता है कि उन्होंने किस पार्टी को कितना पैसा दिया. इस हमाम में सबको एक जैसा रहना अच्छा लगता है.
अचरज नहीं हुआ कि बीजेपी ने अपने बीड़ी (क्रोनी) कैपटलिज्म को हितों में टकराव कहते हुए हल्की-फुल्की चेतावनी देकर टाल दिया. सिगरेट पैकिंग पर चेतावनी के खिलाफ सांसदों की लामबंदी और बीजेपी के बड़े नेताओं की चुप्पी सिर्फ यही नहीं बताती कि बीजेपी पारदर्शी राजनीति के उतनी ही खिलाफ है जितनी कि कांग्रेस और अन्य दल. ज्यादा हैरत इस बात पर है कि जब नेताओं और मंत्रियों पर प्रधानमंत्री की निगरानी किस्सागोई में बदल चुकी हो तो तंबाकू उद्योग के लिए कानून बनाने का काम बीड़ी निर्माता को कैसे मिल जाता है? यकीनन, सरकार के पहले एक साल में बड़े दाग नहीं दिखे हैं लेकिन दाग न दिखने का मतलब यह नहीं है कि दाग हैं ही नहीं. चेतने का मौका है क्योंकि अगर एक बार दाग खुले तो बढ़ते चले जाएंगे.