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Monday, October 22, 2018

बाजी पलटने वाले!


सियासत अगर इतिहास को नकारे नहीं तो नेताओं पर कौन भरोसा करेगा? सियासत यह दुहाई देकर ही आगे बढ़ती है कि इतिहास हमेशा खुद को नहीं दोहराता लेकिन बाजार इतिहास का हलफनामा लेकर टहलता है, उम्मीदों पर दांव लगाने के लिए वह अतीत से राय जरूर लेता है. 
जैसे गांवों या खेती को ही लें.
इस महीने की शुरुआत में जब किसान दिल्ली की दहलीज पर जुटे थे तब सरकार को इसमें सियासत नजर आ रही थी लेकिन आर्थिक दुनिया कुछ दूसरी उधेड़बुन में थी. निवेशकों को 2004 और 2014 याद आ रहे थे जब आमतौर पर अर्थव्यवस्था का माहौल इतना खराब नहीं था लेकिन सूखा, ग्रामीण मंदी व आय में कमी के कारण सरकारें भू लोट हो गईं.
चुनावों के मौके पर भारतीय राजनीति की भारत माता पूरी तरह ग्रामवासिनी हो जाती है. अर्थव्यवस्था और राजनीति के रिश्ते विदेशी निवेश या शहरी उपभोग की रोशनी में नहीं बल्कि लोकसभा की उन 452 ग्रामीण सीटों की रोशनी में पढ़े जाते हैं जहां से सरकार बनती या मिट जाती है.
समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी और कर्ज माफी के बावजूद गांवों में इतनी निराशा या गुस्सा क्यों है?
पानी रे पानी: 2015 से 2018 तक भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरी मंदी से जूझती रही है. पहले दो साल (2015 और 2016) सूखा, फिर बाद के दो वर्षों में सामान्य से कम बारिश रही और इस साल तो मॉनसून में सामान्य से करीब 9 फीसदी कम बरसात हुई जो 2014 के बाद सबसे खराब मॉनसून है. हरियाणा, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र (प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक राज्य) में 2015 से 2019 के बीच मॉनूसन ने बार-बार धोखा दिया है. इन राज्यों के आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा 17 से 37 फीसदी तक है.
यह वह मंदी नहीं: दिल्ली के हाकिमों की निगाह अनाजों के पार नहीं जाती. उन्हें लगता है कि अनाज का समर्थन मूल्य बढ़ाने से गांवों में हीरे-मोती बिछ जाएंगे. लेकिन मंदी तो कहीं और है. दूध और फल सब्जी का उत्पादन बढऩे की रफ्तार अनाज की तुलना में चार से आठ गुना ज्यादा है. छोटे मझोले किसानों की कमाई में इनका हिस्सा 20 से 30 फीसदी है. पिछले तीन साल में इन दोनों उत्पाद वर्गों को मंदी ने चपेटा है. बुनियादी ढांचे की कमी और सीमित प्रसंस्करण सुविधाओं के कारण दोनों में उत्पादन की भरमार है और कीमतें कम. इसलिए दूध की कीमत को लेकर आंदोलन हो रहे हैं. उपभोक्ता महंगाई के आंकड़े इस मंदी की ताकीद करते हैं.
गांवों में गुस्सा यूं ही नहीं खदबदा रहा है. शहरी मंदी, गांवों की मुसीबत बढ़ा रही है. पिछले दो साल में बड़े पैमाने पर शहरों से गांवों की ओर श्रमिकों का पलायन हुआ है. गांव में अब काम कम और उसे मांगने वाले हाथ ज्यादा हैं तो मजदूरी कैसे बढ़ेगी?  
कमाई कहां है ?: गांवों में मजदूरी की दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गई जो पिछले दस साल का सबसे निचला स्तर है. एक ताजा रिपोर्ट (जेएम फाइनेंशियल-रूरल सफारी) बताती है कि सूखे के पिछले दौर में भवन निर्माण, बालू खनन, बुनियादी ढांचा निर्माण, डेयरी, पोल्ट्री आदि से गैर कृषि आय ने गांवों की मदद की थी. लेकिन नोटबंदी जीएसटी के बाद इस पर भी असर पड़ा है. गैर कृषि आय कम होने का सबसे ज्यादा असर पूर्वी भारत के राज्यों में दिखता है. इस बीच गांवों में जमीन की कीमतों में भी 2015 के बाद से लगातार गिरावट आई है.
महंगाई के पंजे: अनाज से समर्थन मूल्य में जितनी बढ़त हुई है उसका एक बड़ा हिस्सा तो रबी की खेती की बढ़ी हुई लागत चाट जाएगी. कच्चे तेल की आग उर्वरकों के कच्चे माल तक फैलने के बाद उवर्रकों की कीमत 5 से 28 फीसदी तक बढऩे वाली है. डीएपी की कीमत तो बढ़ ही गई है, महंगा डीजल रबी की सिंसचाई महंगी करेगा.
मॉनसून के असर, ग्रामीण आय में कमी और गांवों में मंदी को अब आर्थिक के बजाए राजनैतिक आंकड़ों की रोशनी में देखने का मौका आ गया है. याद रहे कि गुजरात के चुनावों में गांवों के गुस्से ने भाजपा को हार की दहलीज तक पहुंचा दिया था. मध्य प्रदेश जनादेश देने की कतार में है.  
हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां 2015 से 2019 के बीच दो से लेकर पांच साल तक मॉनसून खराब रहा है; ग्रामीण आय बढऩे की रफ्तार में ये राज्य सबसे पीछे और किसान आत्महत्या में सबसे आगे हैं.
सनद रहे कि ग्रामीण मंदी से प्रभावित इन राज्यों में लोकसभा की 204 सीटे हैं. और इतिहास बताता है कि भारत के गांव चुनावी उम्मीदों के सबसे अप्रत्याशित दुश्मन हैं.


Tuesday, May 5, 2015

सबसे बड़े सुधार का मौका


मोदी सरकार के लिए यह अवसर कृषि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़े निर्णायक सुधार शुरू करने का है. यह सुधार केवल लंबित और अनिवार्य हैं बल्कि बीजेपी के राजनैतिक भविष्य का बड़ा दारोमदार भी इन्हीं पर है.

नरेंद्र मोदी सरकार अपनी पहली सालगिरह के जश्न को कैसे यादगार बना सकती है? किसानों की खुदकुशी, गिरते शेयर बाजार, टैक्स नोटिसों से डरे उद्योग और हमलावर विपक्ष को देखते हुए यह सवाल अटपटा है लेकिन दरअसल मोदी जहां फंस गए हैं, उबरने के मौके ठीक वहीं मौजूद हैं. यह अवसर कृषि व ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़े और निर्णायक सुधार शुरू करने का है. जो न केवल आर्थिक सुधारों की शुरुआत से ही लंबित और अनिवार्य हैं बल्कि बीजेपी के राजनैतिक भविष्य का भी बड़ा दारोमदार इन्हीं पर है.
 सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार गांव व खेती की हकीकत से तालमेल नहीं बैठा सकी. पिछली खरीफ में आधा दर्जन राज्यों में सूखा पड़ा था. फरवरी में कृषि मंत्रालय ने मान लिया कि सूखी खरीफ और रबी की बुवाई में कमी से अनाज उत्पादन तीन साल के सबसे निचले स्तर पर रह सकता है. किसान आत्महत्या का आंकड़ा तो पिछले नवंबर में 1,400 पर पहुंच गया था. लेकिन दो बजटों में भी खेती को लेकर गंभीरता नहीं दिखी. इस साल मार्च में प्रधानमंत्री जब 'मन की बात' बताकर खेतिहरों को भूमि अधिग्रहण पर मना रहे थे तब तक तो दरअसल किसानों के जहर खाने का दूसरा दौर शुरू हो गया था. अगर त्वरित गरीबी नापने का कोई तरीका हो तो यह जानना मुश्किल नहीं है कि मौसमी कहर से 189 लाख हेक्टयर इलाके में रबी फसल की बर्बादी के बाद देश की एक बड़ी आबादी अचानक गरीबी की रेखा से नीचे चली गई है. इस मौके पर सरकार की बहुप्रचारित जनधन, आदर्श ग्राम या डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीमों ने कोई मदद नहीं की क्योंकि ये योजनाएं ग्रामीण अर्थव्यावस्था की हकीकत से वास्ता ही नहीं रखती थीं. ताजा कृषि संकट 2009 से ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि लगातार दो फसलें बिगड़ चुकी हैं और तीसरी फसल पर खराब मॉनसून का खौफ मंडरा रहा है. गांवों में मनरेगा के तहत रोजगार सृजन न्यूनतम स्तर पर आ गया है और शहर में रोजगारों की आपूर्ति पूरी तरह ठप है. इसलिए सिर्फ खेती नहीं बल्कि पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उबारने की चुनौती है जो दरअसल एक अवसर भी है.  भारतीय खेती उपेक्षा व असंगति और सफलता व संभावनाओं की अनोखी कहानी है. यदि पिछली खरीफ को छोड़ दें तो 2009 के बाद से अनाज उत्पादन और कृषि निर्यात लगतार बढ़ा है और ग्रामीण इलाकों की मांग ने मंदी के दौर में ऑटोमोबाइल व उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों को लंबा सहारा दिया है. अलबत्ता कृषि की कुछ बुनियादी समस्याएं हैं जो मौसम की एक बेरुखी में बुरी तरह उभर आती हैं और कृषि को अचानक दीन-हीन बना देती हैं. एक के बाद एक आई सरकारों ने खेती को कभी नीतियों का एक सुगठित आधार नहीं दिया. जिससे यह व्यवसाय हमेशा संकट प्रबंधन के दायरे में रहा.

कृषि की बुनियादी समस्याओं को सुधारने के सफल प्रयोग भी हमारे इर्दगिर्द फैले हैं और नीतिगत प्रयासों की कमी नहीं है. मसलन, जोत का छोटा आकार खेती की स्थायी चुनौती है जो इस व्यवसाय को लाभ में नगण्य और जोखिम में बड़ा बनाती है. फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियों में इसका समाधान दिखा है जिन्हें छोटे-छोटे किसान मिलकर बनाते हैं और सामूहिक उत्पादन करते हैं. सरकार ने पिछले साल लोकसभा में बताया था कि भारत में करीब 235 फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियां पंजीकृत हो चुकी हैं और 370 कतार में हैं. करीब 4.33 लाख किसान इसका हिस्सा होंगे. ठीक इसी तरह बिहार और मध्य प्रदेश में अनाज व तिलहन की रिकॉर्ड उपज, उत्तर प्रदेश में दूध की नई क्रांति, देश के कई हिस्सों में फल-सब्जी उत्पादन के नए कीर्तिमान, गुजरात में लघु सिंचाई क्षेत्रीय सफलताएं हैं, जिन्हें राष्ट्रीय बनाया जा सकता है. उर्वरक सब्सिडी में सुधारों का प्रारूप तैयार है. सिंचाई परियोजनाएं प्रस्तावित हैं. नए शोध जारी हैं मगर सक्रिय किए जाने हैं. नीतियां मौजूद हैं. बुनियादी ढांचा उपलब्ध है. इन्हें एक जगह समेटकर बड़े सुधारों में बदला जा सकता है. मोदी सरकार को ग्रामीण आर्थिक सुधारों की बड़ी पहल करनी चाहिए, जिस पर उसे समर्थन मिलेगा, क्योंकि फसलों की ताजा बर्बादी के बाद राज्य भी संवेदनशील हो चले हैं. कई राज्यों को एहसास है कि उनकी प्रगति का रास्ता खेतों से ही निकलेगा क्योंकि उनके पास उद्योग आसानी से नहीं आएंगे. मोदी सरकार नीति आयोग या मेक इन इंडिया की तर्ज पर सुधारों का समयबद्ध अभियान तैयार कर सकती है जो खेती और गांव के लिए अलग-अलग नीतियां बनाने की गलती नहीं करेगा बल्कि पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए समग्र सुधारों की राह खोलेगा. यकीनन, 125 करोड़ लोगों का पेट भरना कहीं से नुक्सान का धंधा नहीं है और करीब 83 करोड़ लोग यानी देश की 70 फीसद आबादी की क्रय शक्ति कोई छोटा बाजार नहीं है. मोदी के लिए सरकार में आने के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था की फिक्र करना संवेदनशीलता या दूरदर्शिता का तकाजा ही नहीं था बल्कि उन्हें गांवों की फिक्र इसलिए भी करनी चाहिए, क्योंकि उनकी पार्टी को पहली बार गांवों में भरपूर वोट मिले हैं, और सत्तर फीसद बीजेपी सांसद ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं और उनकी अगली राजनैतिक सफलताएं उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे ग्रामीण बहुल राज्यों पर निर्भर होंगी.
राहुल गांधी पर आप हंस सकते हैं लेकिन भूमि अधिग्रहण पर वे लोकसभा में मोदी को जो राजनैतिक नसीहत दे रहे थे, उसमें दम था. भारत में कृषि संकट और सियासत के गहरे रिश्ते हैं. 2002 भारत में सबसे बड़े सूखे का वर्ष था. वाजपेयी सरकार इस संकट से खुद को जोड़ नहीं पाई और 2004 के चुनाव में खेत रही. 2005 में मनरेगा का जन्म दरअसल 2002 के सूखे की नसीहत से हुआ था और जो भारत के ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम में एक बड़ा बदलाव था और बिखरने व घोटालों में बदलने से पहले न केवल प्रशंसित हुआ था बल्कि कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लाया.
मोदी सरकार चाहे तो इस कृषि संकट के बाद सब्सिडी बढ़ाने और कर्ज माफी जैसे पुराने तरीकों के खोल में घुस सकती है, या फिर बड़े सुधारों की राह पकड़ कर खेती को चिरंतन आपदा प्रबंधन की श्रेणी से निकाल सकती है. मोदी सरकार ने पिछले एक साल में कई बड़े मौके गंवाए हैं. अलबत्ता यह मौका गंवाना शायद राजनैतिक तौर पर सबसे ज्यादा महंगा पड़ेगा.