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Monday, February 11, 2019

सुधारों की हार



चुनाव में वोट डालने से पहले सुधारों को श्रद्धांजलि देना मत भूलिएगा. अंतरिम बजट को गौर से समझिए. पच्चीस साल के सुधारों के बाद हम इस घाट फिसलेंगे! भारत में कोई सरकारी स्कीम अभी या कभी नियमित कमाई का विकल्प नहीं बन सकतीफिर भी भाजपा और कांग्रेस के बीचकिसानों व गरीबों के हाथ में राई के दाने रख महादानी बनने की आत्मघाती प्रतिस्पर्धा शुरू हो चुकी है
.
चुनावी जयघोष के बीच बजट पढऩे के बाद कोई भी निष्पक्षता के साथ दो निष्कर्ष निकाल सकता है.

एकढांचागत सुधारों की जिस अगली पीढ़ी को सामने लाने का दावा करते हुए नरेंद्र मोदी सत्ता में आए थे और सामाजिक स्कीमों का ढांचा व पहुंच ठीक करने की जो उम्मीद उन्होंने दिखाई थीउनकी याद में दो मिनट का मौन तो बनता है.

दोमोदी या राहुल भारत की राजनीति का बुनियादी चरित्र नहीं बदल सकते. यह सुधार विरोधीदकियानूस और चुनाव केंद्रित ही रहेगी.

चुनावी लोकलुभावनवाद नया नहीं हैलेकिन इस बार कुछ नया और बेहद खतरनाक हुआ है. राजनीति घातक प्रतीकवाद पर उतारू है. सरकारें किसी भी कीमत पर लोगों को सम्मानजनक सालाना कमाई नहीं दे सकतीं. लेकिन लाभार्थियों के लिए नगण्य‍ आय सहायता भी बजटों की कमर तोडऩे के लिए पर्याप्त है. मोदी-किसान का इनकम सपोर्ट केवल 500 रु. महीने (दैनिक मजदूरी का पांच फीसदी) का है. कांग्रेस की मेगा बजट वाली मनरेगा हर कोशिश के बावजूद केवल 100 दिन का सालाना रोजगार दे पाई. सरकार की दूसरी सहायतापेंशनबीमा योजनाओं के वर्तमान व संभावित लाभों को बाजार और जीने के खर्च की रोशनी से मापिएआपको सरकारों की समझ पर तरस आ जाएगा.

विशाल आबादीबजटों के घाटेभारी सरकारी कर्ज और लाभार्थ‌ियों की पहचान में बीसियों झोल के कारण इनकम सपोर्ट हर तरह से अभिशप्त है लेकिन बजट की जेब फटे होने के बावजूद नेता इस तमाशे पर उतारू हैंजिनसे लाभार्थियों की ज‌िंदगी में रत्तीभर बदलाव मुश्किल है.



मोदी सरकार की किसान इनकम सपोर्ट सुविचारित नहीं है. फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाकर सरकार पहले ही बजट बिगाड़ चुकी थी. यह फैसला जनवरी में जन्मा जब राहुल गांधी ने गरीबों को न्यूनतम आय का वादा उछाल दिया. इसलिए मोदी-किसान पिछले साल दिसंबर से अमल में आएगी.

तेलंगाना (खर्च 120 अरब रु.)ओडिशा (खर्च 33 अरब रु.) और झारखंड (खर्च 22 अरब रु.) को इस जोखिम से रोकने के बजाए केंद्र सरकार ने भी इस चुनावी घोड़े की सवारी कर ली जो अर्थव्यवस्था को जल्द ही मुसीबत की राह पर पटक देगा.

आगे की राह कुछ ऐसी होने वाली है.

1. तीन राज्यों में किसानों को दोहरी सहायता मिलेगी. राज्य अपनी किसान-दान योजनाएं बंद नहीं करेंगे बल्कि इस के बाद कई दूसरे राज्य इसी तरह की योजनाएं ला सकते हैं. यानी एक घातक प्रतीकवादी होड़बस शुरू होने वाली है

2. अंतरिम बजट के बाद बॉन्ड बाजार ने खतरे के संकेत दे दिए. केंद्र सरकार के घाटे का आंकड़ा भरोसेमंद नहीं है. 2019-20 में सात लाख करोड़ रु. की सरकारी कर्ज योजना को देखकर बाजार को पसीने आ गए. राज्य भी इस साल और ज्यादा कर्ज लेंगे.

प्रतीकात्मक आय समर्थन इसलिए संकट को न्योता है क्योंकि सरकारें खेती को असंख्य सब्सिडी (खादपानीबिजलीउपकरणकर्ज पर ब्याज) देती हैं. 2020 में केंद्र का कृषि सब्सिडी बिल 2.84 खरब रु. होगा. इसके बाद भी संतोषजनक नियमित आय दे पाना असंभव है.

आय समर्थन का तदर्थवाद सुधारों का शोकगीत है.

1. सरकारें अर्थव्यवस्था में ढांचागत बदलाव और बाजार के विस्तार के जरिये आय बढ़ाने के लिए मेहनत नहीं करना चाहतीं.

2. वे सामाजिक कार्यक्रम में सुधार नहीं सिर्फ वोट खरीदना चाहती हैं.

3. सरकारी खैरातेंइसे बांटने वाले तंत्र को लूट के लिए प्रेरित करती हैं. तमाम स्कीमें इसका उदाहरण हैं. 

सुधारों के ढाई दशक के दौरान भारत में केंद्र की राजकोषीय सेहत कमोबेश संतुलित रही है. यह पहला मौका है जब वित्तीय तंत्र में कर्ज इतने बड़े पैमाने पर एकत्र हुआ है. केंद्र का कर्ज-जीडीपी अनुपात 70 फीसदी की ऊंचाई पर है. राज्यों की कुल देनदारियों में बाजार कर्ज का 74 फीसदी हिस्सा है. बैंकों और एनबीएफसी के कर्ज इससे अलग हैं. 2022 में केंद्र सरकार की सबसे बड़ी कर्ज अदायगी शुरू हो जाएगी.

रेटिंग एजेंसियां के पास आंकड़े मौजूद हैं. भारत की कर्ज साख को झटका लगा तो अगले छह माह के भीतर ही भारत में कर्ज संकट के अलार्म बज उठेंगे.

Sunday, October 14, 2018

लुटाने निचोड़ने का लोकतंत्र


वंबर 2015 में सरकार के एक बड़े मंत्री पूरे देश में घूम-घूमकर बता रहे थे कि कैसे उनकी सरकार पिछली सरकारों के पाप ढो रही है. सरकारों ने सस्ती और मुफ्त बिजली बांटकर बिजली वितरण कंपनियों को लुटा दिया. उन पर 3.96 लाख करोड़ रु. का कर्ज (जीडीपी का 2.6 फीसदी) है. केंद्र को इन्हें उबारना (उदय स्कीम) पड़ रहा है.

उदय स्कीम के लिए सरकार ने बजटों की अकाउंटिंग बदली थी. बिजली कंपनियों के कर्ज व घाटे राज्य सरकारों के बजट का हिस्सा बन गए. केंद्र सरकार ने राज्यों के घाटे की गणना से इस कर्ज को अलग रखा था. बिजली कंपनियों के कर्ज बॉन्ड में बदल दिए गए थे. इस कवायद के बावजूद पूरे बिजली क्षेत्र की हालत जितनी सुधरी उससे कहीं ज्यादा बदहाली राज्यों के खजाने में बढ़ गई.

7 अक्तूबर 2018 को विधानसभा चुनाव की घोषणा के ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने किसानों को मुफ्त बिजली की रिश्वत देने का ऐलान करते हुए केंद्र सरकार की 'उदय' को श्रद्धांजलि दे दी. 2014 में राजस्थान की बिजली कंपनी बुरी हालत में थी. उदय से मिली कर्ज राहत के बाद इसके सुधार को केंद्र सरकार ने सफलता की कहानी बनाकर पेश किया था.

इसी तरह मध्य प्रदेश की सरकार ने भी बिजली के बकायेदारों को रियायत की चुनावी रिश्वत देने का ऐलान किया है. अचरज नहीं कि मुफ्त बिजली की यह चुनावी रिश्वत जल्द ही अन्य राज्यों में फैल जाए. 

हर आने वाली नई सरकार को खजाना कैसे खाली मिलता है?

या सरकार के खजाने कैसे लुटते हैं?

सबसे ताजा जवाब मध्य प्रदेशराजस्थानछत्तीसगढ़तेलंगाना के पास हैंजहां चुनाव की घोषणा से पहले करीब तीन हजार करोड़ रुपए के मोबाइलसाड़ीजूते-चप्पल आदि मुफ्त में बांट दिए गए हैं या इसकी घोषणा कर दी गई है. तमिलनाडु में 2006 से 2010 के बीच द्रमुक ने मुफ्त टीवी बांटने पर 3,340 करोड़ रुपए खर्च किए. छत्तीसगढ़ ने जमीन के पट्टे बांटे और उत्तर प्रदेश में (2012-15) के बीच 15 लाख लैपटॉप बांटे गए.

हमारे पास इसका कोई प्रमाण नहीं है कि रिश्वत से चुनाव जीते जा सकते हैं. कर्ज माफी के बावजूद और कई तरह की रिश्वतें बांटने के बावजूद सत्तारूढ़ दल चुनाव हार जाते हैं लेकिन हमें यह पता है कि इस सामूहिक रिश्वतखोरी ने किस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्थाबजट और समग्र लोकतंत्र को सिरे से बर्बाद और भ्रष्ट कर दिया है.

भारत की राजनीति देश के वित्तीय प्रबंधन का सबसे बड़ा अभिशाप है. हर चुनाव के बाद आने वाली सरकार खजाना खाली बताकर चार साल तक अंधाधुंध टैक्स लगाती है और फिर आखिरी छह माह में करदाताओं के धन या बैंक कर्ज से बने बजट को संगठित रिश्वतखोरी में बदल देती है. पिछले पांच बजटों में अरुण जेटली ने 1,33,203 करोड़ रु. के नए टैक्स लगाएऔसतन करीब 26,000 करोड़ रु. प्रति वर्ष. आखिरी बजट में करीब 90,000 करोड़ रु. के नए टैक्स थे. अब बारी लुटाने की है. छह माह बाद टैक्स फिर लौट आएंगे.

हमें पता है कि चुनावी रिश्वतें स्थायी नहीं होतीं. आने वाली नई सरकार पिछली सरकार की स्कीमों को खजाने की लूट कहकर बंद कर देती है या अपने ही चुनावी तोहफों पर पैसा बहाने के बाद सरकार में लौटते ही पीछे हट जाती है.

भारत की राजनीति अर्थव्यवस्था में दोहरी लूट मचा रही है. चुनावी चंदे निरे अपारदर्शी थेअब और गंदे हो गए हैं. राजनैतिक दलों के चंदे में हर तरह के धतकरम जायज हैं. कंपनियों को इन चंदों पर टैक्स बचाने से लेकर इन्हें छिपाने तक की सुविधा है.

क्या बदला पिछले चार साल मेंकहीं कोई सुधार नजर आए?

कुछ भी तो नहीं!

चुनाव की हल्दी बंटते ही हम बुद्धू उसी घाट लौट आए हैं जहां से चले थे. भारतीय लोकतंत्र पहले से ज्यादा गंदला और अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम भरा हो गया. हम जल्दी ही उस स्थिति में पहुंचने वाले हैं जहां हमारी सियासत सबसे बड़ी आर्थिक मुसीबत बन जाएगी.

अगर सियासत बजटों से वोट खरीदने और चंदों के कीचड़ लिथडऩे से खुद को नहीं रोक सकती तो पूरे देश में एक साथ चुनावों से कुछ नहीं बदलने वाला. क्या हमारा चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट अमेरिका की तर्ज पर अपनी सरकारों को चुनाव से छह माह पहले बजटों के इस्तेमाल से रोक नहीं सकतेअगर इतना भी हो सका तो हम उस दुष्चक्र को सीमित कर सकते हैं जिनमें चुनाव से पहले रिश्वत बंटती है और बाद में टैक्स लगाए जाते हैं.

Sunday, October 29, 2017

याद हो के न याद हो


राजनेताओं की सबसे बड़ी सुविधा खत्म हो रही है. लोगों की सामूहिक विस्मृति का इलाज जो मिल गया है.

जॉर्ज ऑरवेल (1984) ने लिखा था कि अतीत मिट गया है, मिटाने वाली रबड़ (इरेजर) खो गई है, झूठ ही अब सच है. ऑरवेल के बाद दुनिया बहुत तेजी से बदली. अतीत मिटा नहीं, रबड़ खोई नहीं, झूठ को सच मानने की उम्र लंबी नहीं रही.

लोगों की कमजोर याददाश्त ही नेताओं की सबसे बड़ी नेमत है. लोगों का सामूहिक तौर पर याद करना और भूलना दशकों तक नेताओं के इशारे पर होता था लेकिन अब बाजी पलटने लगी है. अचरज नहीं कि अगले कुछ वर्षों में इंटरनेट राजनीति का सबसे बड़ा दुश्मन बन जाए. सरकारें सोशल मीडिया सहित इंटरनेट के पूरे परिवार से बुरी तरह खफा होने लगी हैं.

इंटरनेट लोगों का सामूहिक अवचेतन है. यह न केवल करोड़ों लागों की साझी याददाश्त है बल्कि इसकी ताकत पर लोग समूह में सोचने व बोलने लगे हैं.

तकनीकें आम लोगों के लिए बदली हैं, राजनीति के तौर-तरीके तो पुराने ही हैं. झूठ और बड़बोलापन तो जस के तस हैं. दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा और धुंधली हो गई है.

राजनेता चाहते हैं:
·       लोग उन्हें समूह में सुनें लेकिन अकेले में सोचें.

·       अगर समूह में सोचें तो सवाल न करें.

·       अगर सवाल हों तो उन्हें दूसरे समूहों से साझा न करें. 

·       सवाल अगर सामूहिक भी हों तो वे केवल इतिहास से पूछे जाएं, वर्तमान को केवल धन्य भाव से सुना जाए.

दकियानूसी राजनीति और बदले हुए समाज का रिश्ता बड़ा रोमांचक हो चला है. इस चपल, बातूनी, बहसबाज और खोजी समाज पर कभी-कभी नेताओं को बहुत दुलार आता है लेकिन तब क्या होता है जब यही समाज पलट कर नेताओं के पीछे दौड़ पड़ता है. लोगों की सामूहिक डिजिटल याददाश्त अब राजनीति के लिए सुविधा नहीं बल्कि समस्या है.

अकेलों के समूह
राजनैतिक रैलियां अप्रासंगिक हो चली हैं. भारी लाव-लश्कर, खरीद या खदेड़ कर रैलियों में लाए गए लोग जिनमें समर्थकों या विरोधियों की पहचान भी मुश्किल है. तकनीक कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से नेताओं को उनके जिंदाबादियों से जोड़ सकती है. इसके बाद भी रैलियां पूरी दुनिया में होती हैं.

नेता चुपचाप बैठी भीड़ से खि‍ताब करना चाहते हैं. यही उनकी ताकत का पैमाना है. रैली राजनीति के डिजाइन के अनुसार लोगों को सिर्फ सुनना चाहिए. लेकिन अब लोग सुनते ही नहीं, समूह या नेटवर्क में सोचते भी हैं. वे अपनी साझी याददाश्त से किस्म-किस्म के तथ्य निकाल कर सवालों के जुलूस को लंबा करते चले जाते हैं.

आंकड़े बनाम अनुभव
अपनी तरह का पहला, अभी तक का सबसे बड़ा, देश के इतिहास में पहली बारअब, नेताओं के भाषण इनके बिना नहीं होते. पिछली पीढ़ी के राजनेता इतने आंकड़े नहीं उछालते थे. अब तो कच्चे-पक्के, खोखले-पिलपिले आंकड़ों के बिना समां ही नहीं बंधता. शायद इसलिए कि लोग आंकड़े समझने लगे हैं और वे समूह में सोचें तो इनका इस्तेमाल कर सकें.

मुसीबत यह है कि लोगों के अनुभव आंकड़ों से ज्यादा ताकतवर हैं. भोगा हुआ विकास, बतलाए गए विकास पर भारी पड़ता है. इसलिए जब लोगों के निजी और अधिकृत एहसास, सामूहिक चिंतन तंत्र (सोशल नेटवर्क) पर बैठ आगे बढ़ते हैं तो सरकारी आंकड़ों की साख का कचरा बन जाता है.

इतिहास का चुनाव
यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के प्रोफेसर जॉन जे. मियरशीमर, राजनेताओं के झूठ का (पुस्तक: व्हाई लीडर्स लाइ) अध्ययन करते हैं. उनके मुताबिक, इतिहास, राजनैतिक झूठ का सबसे कारगर कारिंदा है. इसके सहारे खुद को महान और अतीत को बुरा बताना आसान है. इतिहास के सहारे एक लक्ष्यनहीन गुस्से को लंबे वक्त तक सिंझाया जा सकता है. इतिहास है तो वर्तमान मुसीबतों पर उठ रहे सवालों के जवाब गुजरे वक्त से मांगे जा सकते हैं.

राजनेता चाहते हैं इतिहास के चयन में उनकी बातें मानी जाएं. अलबत्ता नेता यह भूल जाते हैं कि वे खुद भी तो प्रतिक्षण इतिहास गढ़ रहे हैं. लोग इतिहास अपनी सुविधा से चुनते हैं जिसमें अक्सर नेताओं का ताजा इतिहास सबसे लोकप्रिय पाया जाता है.

राजनीति गहरी मुश्किल में है. लोग नहा-धोकर सियासी झूठ के पीछे पड़े हैं. झूठ पकडऩा अब एक रोमांचक पेशा है. लोगों की उंगलियां प्रति सेकंड की रक्रतार से सवाल उगल रही हैं. लोकतंत्र के लिए इससे अच्छा युग और क्या हो सकता है.

सुनो जिक्र है कई साल का, कोई वादा मुझ से था आप का

वो निभाने का तो जिक्र क्या, तुम्‍हें याद हो के न याद हो

Sunday, October 22, 2017

जीएसटी के उखडऩे की जड़


चुनावों में भव्‍य जीत जमीन से जुड़े होने की गारंटी नहीं है. यह बात किसी उलटबांसी जैसी लगती है लेकिन यही तो जीएसटी है.
जीएसटी की खोटनाकामी और किरकिरी इसकी राजनीति की देन हैंइसके अर्थशास्‍त्र या कंप्‍यूटर नेटवर्क की नहीं.

दरअसल,  अगर कोई राजनैतिक दल किसी बड़े सुधार के वक्‍त जमीन से कट जाए तो उसे तीन माह में दो बार दीवाली मनानी पड़ सकती है. पहले जीएसटी लाने की दीवाली (1 जुलाई) और इससे छुटकारे की (6 अक्तूबर). 

जीएसटी मुट्ठी भर बड़ी कंपनियों का नहींबल्कि भाजपा के बुनियादी वोट बैंक का सुधार था. यह देश के लाखों छोटे उद्योगों और व्‍यापार के लिए कारोबार के तौर-तरीके बदलने का सबसे बड़ा अभियान था. 1991 से अब तक भारत ने जितने भी आर्थिक सुधार किएवह संगठित क्षेत्र यानी बड़ी कंपनियों के लिए थे. जीडीपी में करीब 50 फीसदी और रोजगारों के सृजन में 90 फीसदी हिस्‍सा रखने वाले असंगठित क्षेत्र को सुधारों की सुगंध मिलने का संयोग नहीं बन सका.

टैक्‍स सुधार के तौर पर भी जीएसटी भाजपा के वोट बैंक के लिए ही था. बड़ी कंपनियां तो पहले से ही टैक्‍स दे रही हैं और आम तौर पर नियमों की पाबंद हैं. असंगठित क्षेत्र रियायतों की ओट में टैक्‍स न चुकाने के लिए बदनाम है. उसे नियमों का पाबंद बनाया जाना है.

अचरज नहीं कि छोटे कारोबारी जीएसटी को लेकर सबसे ज्‍यादा उत्‍साहित भी थे क्‍योंकि यह उनकी तीन मुरादें पूरी करने का वादा कर रहा थाः

1. टैक्‍स दरों में कमी यानी बेहतर मार्जिन और ज्‍यादा बिक्री
2. आसान नियम यानी टैक्‍स कानून के पालन की लागत में कमी अर्थात् साफ-सुथरे कारोबार का मौका
3. डिजिटल संचालन यानी अफसरों की उगाही और भ्रष्‍टाचार से निजात

छठे आर्थिक सेंसस (2016) ने बताया है कि भारत में खेती के अलावाकरीब 78.2 फीसदी उद्यम पूरी तरह संचालकों के अपने निवेश पर (सेल्‍फ फाइनेंस्‍ड) चलते हैं. उनकी कारोबारी जिंदगी में बैंक या सरकारी कर्ज की कोई भूमिका नहीं है. जीएसटी के उपरोक्‍त तीनों वादे, छोटे कारोबारियों के मुनाफों के लिए खासे कीमती थे. जमीन या किरायेईंधन और बिजली की बढ़ती लागत पर उनका वश नहीं हैजीएसटी के सहारे वह कारोबार में चमक की उम्मीद से लबालब थे. 

2015 की शुरुआत में जब सरकार ने जीएसटी पर राजनैतिक सहमति बनाने की कवायद शुरू की तब छोटे कारोबारियों का उत्‍साह उछलने लगा. 
यही वह वक्‍त था जब उनके साथ सरकार का संवाद शुरू होना चाहिए था ताकि उनकी अपेक्षाएं और मुश्किलें समझी जा सकें. गुरूर में झूमती सरकार ने तब इसकी जरूरत नहीं समझी. कारोबारियों को उस वक्‍त तकजीएसटी की चिडिय़ा का नाक-नक्‍श भी पता नहीं था लेकिन उन्‍हें यह उम्मीद थी कि उनकी अपनी भाजपाजो विशाल छोटे कारोबार की चुनौतियों को सबसे बेहतर समझती हैउनके सपनों का जीएसटी ले ही आएगी.

2016 के मध्य में सरकार ने मॉडल जीएसटी कानून चर्चा के लिए जारी किया. यह जीएसटी के प्रावधानों से, छोटे कारोबारियों का पहला परिचय था. यही वह मौका था जहां से कारोबारियों को जीएसटी ने डराना शुरू कर दिया. तीन स्‍तरीय जीएसटीहर राज्‍य में पंजीकरण और हर महीने तीन रिटर्न से लदा-फदा यह कानून भाजपा के वोट बैंक की उम्‍मीदों के ठीक विपरीत था. इस बीच जब तक कि कारोबार की दुनिया के छोटे मझोले , जीएसटी के पेच समझ पातेउनके धंधे पर नोटबंदी फट पड़ी.

त्तर प्रदेश की जीतभाजपा के दंभ या गफलत का चरम थी. जीएसटी को लेकर डर और चिंताओं की पूरी जानकारी भाजपा को थी. लेकिन तब तक पार्टी और सरकार ने यह मान लिया था कि छोटे कारोबारी आदतन टैक्‍स चोरी करते हैं. उन्‍हें सुधारने के लिए जीएसटी जरूरी है. इसलिए जीएसटी काउंसिल ने ताबड़तोड़ बैठकों में चार दरों वाले असंगत टैक्‍स ढांचे को तय कियाउनके तहत उत्‍पाद और सेवाएं फिट कीं और लुंजपुंज कंप्‍यूटर नेटवर्क के साथ 1 जुलाई को जीएसटी की पहली दीवाली मना ली गई.

जीएसटी आने के बाद सरकार ने अपने मंत्रियों की फौज इसके प्रचार के लिए उतारी थी लेकिन उन्‍हें जल्‍द ही खेमों में लौटना पड़ा. अंतत: अपने ही जनाधार के जबरदस्‍त विरोध से डरी भाजपा ने गुजरात चुनाव से पहले जीएसटी को सिर के बल खड़ा कर दिया. यह टैक्‍स सुधार वापस कारीगरों के हवाले है जो इसे ठोक-पीटकर भाजपा के वोट बैंक का गुस्‍सा ठंडा कर रहे हैं.



ग्रोथआसान कारोबार या बेहतर राजस्वजीएसटी फिलहाल अपनी किसी भी उम्मीद पर खरा नहीं उतरा क्योंकि इसे लाने वाले लोकप्रियता के शिखर पर चढ़ते हुए राजनैतिक जड़ों से गाफिल हो गए थे. चुनावों में हार-जीत तो चलती रहेगीलेकिन एक बेहद संवेदनशील  सुधारअब शायद ही उबर सके. 

Monday, May 30, 2016

हार जैसी जीत


बंगाल और तमिलनाडु के नतीजे दिखाते हैं कि कैसे खराब गवर्नेंस की धार भोथरी कर चुनावी जीत की राह खोली जा सकती है.

मिलनाडु और पश्चिम बंगाल के नतीजों के बाद पृथ्वीराज चव्हाण, भूपेंद्र सिंह हुड्डा और हेमंत सोरेन जरूर खुद को कोस रहे होंगे कि वे भी जयललिता और ममता बनर्जी क्यों नहीं बन सके जिन्हें भ्रष्टाचार और खराब गवर्नेंस के बावजूद लोगों ने सिर आंखों पर बिठाया. दूसरी तरफ, अखिलेश यादव, हरीश रावत, प्रकाश सिंह बादल और लक्ष्मीकांत पार्सेकर को वह मंत्र मिल गया होगा, जो खराब गवर्नेंस की धार भोथरी कर चुनावी जीत की राह खोलता है.


2016 में विधानसभा चुनावों के नतीजे निराश करते हैं, खास तौर पर पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के. इन नतीजों से कुछ परेशान करने वाले नए सवाल उभर रहे हैं, जो किसी बड़े राजनैतिक बदलाव की उम्मीदों को कमजोर करते हैं. सवाल यह है कि क्या किस्म-किस्म के चुनावी तोहफों के बदले वोट खरीदकर भ्रष्टाचार और खराब गवर्नेंस का राजनैतिक नुक्सान खत्म किया जा सकता है? क्या आम वोटर अब राजनैतिक गवर्नेंस में गुणात्मक बदलावों की बजाए मुफ्त की रियायतों की अपेक्षा करने लगा है? क्या निजी निवेश, औद्योगिक विकास, मुक्त बाजार को बढ़ाने और सरकार की भूमिका सीमित करने की नीतियों के आधार पर चुनाव जीतना अब असंभव है? और अगर कोई सरकार लोकलुभावन नीतियों को साध ले तो खराब प्रशासन या राजनैतिक लूट के खिलाफ पढ़े-लिखे शहरी वोटरों की कुढ़न कोई राजनैतिक महत्व नहीं रखती?

2016 के चुनावी नतीजे 2014 के राजनैतिक बदलाव के उलट हैं. यह पिछड़ी हुई राजनीति की वापसी का ऐलान है. 2014 में वोटरों ने कांग्रेस के भ्रष्ट शासन के खिलाफ न केवल केंद्र में बड़ा जनादेश दिया बल्कि भ्रष्टाचार में डूबी महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार और खराब गवर्नेंस वाली हरियाणा व झारखंड की सरकार को भी बेदखल किया था. यही वोटर दिल्ली के चुनावों में भी सक्रिय दिखा, लेकिन बंगाल और तमिलनाडु में जो नतीजे आए, वे आश्चर्य में डालते हैं.

गवर्नेंस और पारदर्शिता की कसौटी पर जयललिता और ममता की सरकारों के खिलाफ वैसा ही गुस्सा अपेक्षित था जैसा कि 2014 में नजर आया था. एक मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के मामले में जेल हो आईं थीं, जबकि दूसरे राज्य की सरकार चिट फंड घोटालों में इस कदर घिरी कि करीबी मंत्रियों के सीबीआइ की चपेट में आने के बाद घोटाले की तपिश मुख्यमंत्री के दरवाजे तक पहुंच गई. माना कि इन राज्यों में मतदाताओं को अच्छे विकल्प उपलब्ध नहीं थे, लेकिन इन सरकारों को दोबारा इतना समर्थन मिलना चुनावों के ताजा तजुर्बों के विपरीत जाता है.

तो क्या ममता और जया ने मुफ्त सुविधाएं और तोहफे बांटकर एक तरह से वोट खरीद लिए और माहौल को अपने खिलाफ होने से रोक लिया? दोनों सरकारों की नीतियों को देखा जाए तो इस सवाल का जवाब सकारात्मक हो सकता है. जयललिता सरकार लोकलुभावन स्कीमों की राष्ट्रीय चैंपियन है. अम्मा कैंटीन (सस्ता खाना) और अम्मा फार्मेसी को कल्याणकारी राज्य का हिस्सा माना जा सकता है लेकिन अम्मा सीमेंट, मिक्सर ग्राइंडर, पंखे, सस्ता अम्मा पानी और नमक आदि सरकारी जनकल्याण की अवधारणा को कुछ ज्यादा दूर तक खींच लाते हैं. लेकिन अम्मा यहीं तक नहीं रुकीं. ताजा चुनावी वादों के तहत अब लोगों को सस्ते फिल्म थिएटर, मुफ्त लैपटॉप, मोबाइल फोन, बकरी, सौ यूनिट तक मुफ्त बिजली, मोपेड खरीदने पर सब्सिडी और यहां तक शादियों के मंगलसूत्र के लिए आठ ग्राम सोना भी मिलेगा. लोगों को इन वादों पर शक नहीं हुआ क्योंकि तमिलनाडु में सरकारी सुविधाओं का लोगों तक पहुंचाने का तंत्र अन्य राज्यों से काफी बेहतर है.

दूसरी ओर, ममता ने नकद बांटने की स्कीमों का बड़ा परिवार खड़ा किया है. इनमें बेरोजगार युवाओं को मासिक भत्ता, लड़कियों के विवाह पर परिवारों को नकद राशि, इमामों को भत्ता, दुर्गा पूजा पंडालों को नकद राशि, क्लबों को नकद अनुदान खास रहे. यकीनन, अम्मा और ममता की कथित उदारता उनकी खराब गवर्नेंस व भ्रष्टाचार को ढकने में सफल रही है, जो शायद गोगोई असम में नहीं कर सके.

औद्योगिक निवेश, उदारीकरण और रोजगार के मामले में बंगाल और तमिलनाडु में कुछ नहीं बदला. इसलिए चुनावों में ये मुद्दे भी नहीं थे. ममता तो सिंगूर में टाटा की फैक्ट्री यानी उद्योगीकरण के खिलाफ आंदोलन से उठीं थीं. उनका यह अतीत बंगाल में निवेशकों को नए सिरे से डराने के लिए काफी था. ममता के राज में निवेशकों के मेले भले ही लगे हों, लेकिन बंगाल में न निवेश आया और न रोजगार.

तमिलनाडु का औद्योगिक क्षरण पिछले छह साल से सुर्खियों में है. चेन्नै के करीब विकसित ऑटो हब, जो नब्बे के दशक में ऑटोमोबाइल दिग्गजों की पहली पसंद था, 2010 के बाद से उजड़ने लगा था. मोबाइल निर्माता नोकिया के निकलने के बाद श्रीपेरुंबदूर का इलेक्ट्रॉनिक्स पार्क भी आकर्षण खो बैठा. बिजली की कमी के कारण तमिलनाडु की औद्योगिक चमक भले ही खो गई हो, लेकिन अम्मा की राजनैतिक चमक पर फर्क नहीं पड़ा. उन्होंने शपथ ग्रहण के साथ ही 100 यूनिट बिजली मुफ्त देने का ऐलान कर दिया.

ममता और जया ने चुनाव जीतने का जो मॉडल विकसित किया है, वह चिंतित करता है क्योंकि पिछले एक दशक में केंद्र से राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण का मॉडल बदला है. राज्यों को केंद्र से बड़ी मात्रा में संसाधन मिल रहे हैं जो उपयोग की शर्तों से मुक्त हैं. केंद्र प्रायोजित स्कीमों के सीमित होने के बाद राज्यों को ऐसे संसाधनों का प्रवाह और बढ़ेगा.


राज्यों को मिल रही वित्तीय स्वायत्तता पूरी तरह उपयुक्त है, लेकिन खतरा यह है कि इन संसाधनों से राज्यों के बीच मुफ्त सुविधाएं बांटने की होड़ शुरू हो सकती है जिसमें ज्यादातर राज्य सरकारें ठोस आर्थिक विकास के जरिए रोजगार और आय बढ़ाने की नीतियों के बजाए सोना, स्कूटर, मकान, मुफ्त बिजली आदि बांटने की ओर मुड़ सकती हैं. जाहिर है, जब राज्य सरकारें लोकलुभावनवाद की दौड़ में उतरेंगी तो केंद्र से सख्त सुधारों व सब्सिडी पर नियंत्रण की उम्मीद करना बेमानी है. केंद्र में भी सरकार बनाने या बचाने के लिए चुनाव जीतना अनिवार्य है. इस जीत के लिए कितनी ही पराजयों से समझौता किया जा सकता है.

Monday, December 28, 2015

कुछ अच्छे दिन हो जाएं


क्‍या राजनेता पिछले चुनाव में राजनैतिक संवादों और उपभोक्ता प्रचार के बीच गहरे अंतर को समझने में चूक रहे हैं 

ल मेरी लूना, चुटकी में चिपकाए, कुछ मीठा हो जाए जैसे सहज विज्ञापन संदेशों का अच्छे दिन आने वाले हैं से क्या रिश्ता है? यकीन करना मुश्किल है लेकिन हकीकत में बीजेपी के लोकसभा चुनाव में अच्छे दिनों वाला संदेश, इन्हीं सहज विज्ञापनों से प्रेरित था, जो हाल के दशकों में प्रभावी राजनैतिक परिवर्तन के संवाद का सबसे बड़ा प्रतिमान बनकर उभरा. चुनावी वादे, राजनेताओं की टिप्पणियां और सत्ता परिवर्तन, यकीनन, विज्ञापनी संदेशों जैसे नहीं होते. फिर अच्छे दिन आने का संदेश इतना बड़ा वादा था जिसके सामने कुछ भी नहीं टिका. तारीफ करनी होगी विज्ञापन गुरु पीयूष पांडे की न केवल, सीधे दिल में उतर जाने वाले संदेश के लिए बल्कि इसके लिए भी कि उन्होंने राजनैतिक रूप से सही-गलत होने की चिंता किए बगैर अपनी नई किताब में खुलकर यह स्वीकार किया कि अच्छे दिन आने वाले हैं संदेश की पृष्ठभूमि में इसी तरह के चॉकलेटी विज्ञापन थे.
नरेंद्र मोदी के लोकसभा चुनाव अभियान की विज्ञापन रणनीति की कमान पांडे के हाथ में थी जो प्रमुख विज्ञापन एजेंसी ओऐंडएम के एग्जीक्यूटिव चेयरमैन और क्रिएटिव डायरेक्टर हैं. अबकी बार मोदी सरकार का जिंगल भी उन्हीं की रचनात्मकता की देन थी. पांडे ने अपनी आत्मकथा पांडेमोनियम में लिखा है कि जुलाई 2013 में आए चुनावी सर्वेक्षण बीजेपी की बढ़त तो दिखा रहे थे लेकिन बहुमत नहीं. त्रिशंकु संसद का अंदेशा था. 7 सितंबर, 2013 को मोदी के प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने के बाद, बीजेपी के चुनाव अभियान का लीड कैंपेन, सोहो स्क्वेयर को मिला जो कि ओऐंडएम की एजेंसी है.
पांडे लिखते हैं, जैसे ही हम यह समझे कि वोटर क्या सुनना चाहते हैं, हम उन्हें वही बताने लगे जिस पर वे भरोसा कर सकते थे. यकीनन पांडे अपनी जगह सही थे. वे किसी उत्पाद या सेवा की तर्ज पर बीजेपी के लिए एक विज्ञापन क्रिएटिव ही बना रहे थे, अलबत्ता उन्हें शायद यह नहीं पता था कि वे चॉकलेट या बाइक नहीं, एक राजनैतिक परिवर्तन का संदेश लिख रहे हैं जिसका आयाम और असर अपरिमित होने वाला है. अच्छे दिन बहुत भव्य राजनैतिक वादा था, जिसे भारत तो छोड़िए, विकसित देशों के नेता भी करने में हिचकेंगे. 2015 बीतते-बीतते, बदलाव का सबसे भव्य संदेश उम्मीदों के टूटने की गहरी कसक में बदल गया बल्कि खुद प्रधानमंत्री के लिए इस वड़े आश्वासन को जुमला बनने से रोकना असंभव होगा. ऐसा इसलिए हुआ चूंकि हमारे राजनेता पिछले चुनाव में राजनैतिक संवादों और उपभोक्ता प्रचार के बीच गहरे अंतर को लांघ गए थे. उन्हें उम्मीदें जगाते हुए यह ध्यान नहीं रहा कि जो कहा है, उसे करने की योजना बतानी होगी और फिर अंततः करके दिखाना भी होगा.
अच्छे दिनों का ऐंटी क्लाइमेक्स भारत के राजनैतिक संवादों के बड़बोले और अधकचरेपन का नया प्रतीक है. मोदी ही नहीं, दूसरे नायक केजरीवाल भी इसी घाट फिसले. सब कुछ जनता से पूछकर करने के वादों और दिल्ली को चुटकियों में बदलने की उम्मीदों के बरअक्स केजरीवाल सरकार अहंकार की लड़ाई से भर गई और नई राजनीति और नई गवर्नेंस की उम्मीदें ढह गईं. 2015 में यह बीमारी इतनी फैली कि पूरा साल जहरीले, भड़कीले, चटकीले, बेहूदा, कुतर्की, तथ्यहीन, बेसिर-पैर के बयानों के लिए जाना जाएगा. नेताओं की यह फिसलन ठीक उस वक्त नजर आई जब निर्णायक जनादेश देने के बाद लोग अपने नेताओं से अभूतपूर्व गंभीरता, साख और समझदारी की अपेक्षा कर रहे थे.
दिलचस्प है कि इंटरनेट के आविष्कार और एक क्लिक पर अतीत उगल देने वाली सामूहिक मेमोरी (डिजिटल अर्काइव) के बाद जब कहे-सुने अतीत को परखने की सुविधाएं उपलब्ध हैं, तब भारतीय राजनेता कुछ भी बोलने की आदत में ज्यादा ही लिथड़ गए. 2015 में नेता मुंह बाकर बोले इसलिए उनके बयानों की तासीर परखने में लोगों ने भी कोताही नहीं की. यह पहला मौका था जब भारत में सरकार और नेताओं के झूठ व बड़बोलेपन पर डिजिटल सक्रियता के साथ समाज इतना मुखर हुआ, जिसकी चपेट में आकर हफ्ते दर हफ्ते राजनीति व गवर्नेंस की साख पर खरोंचें गहरी होती चली गईं.
2015 हमारे ताजा अतीत में पहला वर्ष था जब सामाजिक-आर्थिक विकास के आंकड़ों पर बड़े शक-शुबहे पैदा हुए. आम तौर पर भारत में बड़े सरकारी आंकड़ों मसलन जीडीपी, महंगाई, निर्यात, उत्पादन, सामाजिक विकास को लेकर बहुत सवाल नहीं उठते, लेकिन इस साल की बहसें सुधारों के नए मॉडल की नहीं बल्कि आंकड़ों और दावों की तथ्यपरकता पर केंद्रित थीं जो एक विशाल लोकतंत्र में सरकारी तथ्यों को लेकर बढ़ते संदेह और झूठ के डर को पुख्ता करती थीं. अंततरू सरकार ने दिसंबर में जो छमाही आर्थिक समीक्षा संसद में रखी वह आर्थिक तस्वीर को गुलाबी नहीं बल्कि चुनौतीपूर्ण बताती है. इसलिए 2016 में सरकार को यह ध्यान भी रखना होगा कि चुनावी वादों में गफलत फिर भी चल सकती है लेकिन एक उदार ग्लोबल बाजार में आंकड़ों की बाजीगरी देश की साख ले डूबती है.
सरकारों, संस्थाओं और कारोबारियों के बीच भरोसे की पैमाइश को लेकर एडलमैन का ग्लोबल ट्रस्ट बैरोमीटर सर्वे काफी प्रतिष्ठित है जो हर साल जनवरी में आता है. जनवरी 2015 में आए सर्वे ने भारत को पांच शीर्ष देशों में रखा था, जो विश्वास से भरपूर हैं, लेकिन सरकार पर भरोसा घटने के कारण भारत इस रैंकिंग में तीसरे से पांचवें स्थान पर खिसक गया है. 2015 में यह ढलान बढ़ गई है.
पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी है, तो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ जाते हैं. उम्मीदों के किले बनाना ठीक है लेकिन लोग अब इन किलों की बुनियाद बनने में देरी बर्दाश्त नहीं करते. भारत के राजनेताओं से अब आधुनिक समाज मुखातिब है. जो ठगे जाने के एहसास से सबसे ज्यादा चिढ़ता है और झूठ को झूठ व सच को सच कहने से नहीं हिचकता. 2014 के चुनाव में बीजेपी का एक और चर्चित चुनावी जिंगल था नता माफ नहीं करेगी. पांडे लिखते हैं कि बचपन में उन्होंने बार-बार सुना था कि गवान माफ नहीं करेगा. यही कहावत इस जिंगल का आधार थी. हमारे नेताओं को कुछ भी बोलते हुए अब यह याद रखना होगा कि जनता माफ...!