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Sunday, July 29, 2018

ठगवा नगरिया लूटल हो



नोटबंदी के दौरान लाइनों में खड़े होने की लानत याद है? इनकम टैक्स का रिटर्न भरा होगा तो फॉर्म देखकर सिर घूम गया होगा! ध्यान रखिएगा आप ऐसे देश में हैं जहां ईमानदारी के भी कई पैमाने हैं. सरकार आपसे जितनी सूचनाएं मांगती है, उसकी एक फीसदी भी जानकारी उनसे नहीं मांगी जाती जिन्हें हम अपने सिर-आंखों बिठाते हैं. पारदर्शिता का पूरा ठेका सिर्फ आम लोगों पर है, राजनैतिक दल, जिनकी गंदगी जन्म से पवित्र है, वे अब विदेश से भी गंदगी ला सकते हैं. मोदी सरकार ने संसद से कहला दिया है कि सियासी दलों से कोई कुछ नहीं पूछेगा. उनके पिछले धतकर्मों के बारे में भी नहीं.

राजनैतिक दल भारत में भ्रष्टाचार के सबसे दुलारे हैं.  संसद ने भी खुद पर देश के विश्वास का एक शानदार नमूना पेश किया है. सरकार ने वित्त विधेयक 2018 के जरिए राजनैतिक दलों के विदेशी चंदों की जांच-पड़ताल से छूट देने का प्रस्ताव रखा था, जिसे संसद ने बगैर बहस के मंजूरी दे दी.

जनप्रतिनिधित्व कानून में इस संशोधन के बाद राजनैतिक दलों ने 1976 के बाद जो भी विदेशी चंदा लिया होगा, उसकी कोई जांच नहीं होगी!

यकीन नहीं हो रहा है न? ईमानदारी की गंगाजली उठाकर आई सरकार ऐसा कैसे कर सकती है?

दरअसल, संसद की मंजूरी के बाद राजनैतिक चंदों को भ्रष्टाचार की बिंदास छूट देने का अभियान पूरा हो गया है. अब देशी और विदेशी, दोनों तरह के राजनैतिक चंदे जांच-पड़ताल से बाहर हैं.

कैसे?

आइए, आपको सियासी चंदों के गटर की सैर कराते हैं:
·     अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने पहली बार राजनैतिक चंदे को वीआइपी बनाया था जब कंपनियों को खर्च की मद में चंदे को दिखाकर टैक्स में छूट लेने की इजाजत दी गई. ध्यान रहे कि सियासी दलों के लिए चंदे की रकम पर कोई टैक्स नहीं लगता. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स के आंकड़े बताते हैं कि 2012-16 के बीच पांच प्रमुख पार्टियों को 945 करोड़ रु. चंदा कंपनियों से मिला. यह लेनदेन पूरी तरह टैक्स फ्री है, कंपनियों के लिए भी और राजनैतिक पार्टियों के लिए भी.

·   कांग्रेस की सरकार ने चंदे के लिए इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाने की सुविधा दी, जिसके जरिए सियासी दलों को पैसा दिया जाता है.

·       नोटबंदी हुई तो भी राजनैतिक दलों के नकद चंदे (2,000 रु. तक) बहाल रहे.

·       मोदी सरकार ने एक कदम आगे जाते हुए, वित्त विधेयक 2017 में कंपनियों के लिए राजनैतिक चंदे पर लगी अधिकतम सीमा हटा दी. इससे पहले तक कंपनियां अपने तीन साल के शुद्ध लाभ का अधिकतम 7.5 फीसदी हिस्सा ही सियासी चंदे के तौर पर दे सकती थीं. इसके साथ ही कंपनियों को यह बताने की शर्त से भी छूट मिल गई कि उन्होंने किस दल को कितना पैसा दिया है.

·    विदेशी चंदों की खिड़की खोलने की शुरुआत भी मोदी सरकार ने 2016 में वित्त विधेयक के जरिए की थी जब विदेशी मुद्रा चंदा कानून (एफसीआरए) को उदार किया गया था.

·    ताजे संशोधन के बाद सियासी दलों के विदेशी चंदों की कोई पड़ताल नहीं होगी, अगर पैसा ड्रग कार्टेल या आतंकी नेटवर्क से आया हो तो?

·      सियासी चंदों के खेल में कुछ बहुत भयानक गंदगी है, इसीलिए तो 1976 के बाद से सभी विदेशी चंदे संसद के जरिए जांच से बाहर कर दिए गए हैं. इससे पहले 2016 के वित्त विधेयक के जरिए सरकार ने विदेशी चंदा कानून के तहत विदेशी कंपनी की परिभाषा को उदार किया था और यह बदलाव 2010 से लागू किया गया था. 2014 में दिल्ली हाइकोर्ट ने भाजपा और कांग्रेस, दोनों को विदेशी चंदों के कानून के उल्लंघन का दोषी पाया था. ताजा बदलाव के बाद दोनों पार्टियां चैन से चंदे की चिलम फूंकेंगी.

किस्सा कोताह यह कि ताजा बदलावों के बाद सभी तरह के देशी और विदेशी राजनैतिक चंदे जांच से परे यानी परम पवित्र हो गए हैं.

जो सरकार विदेशी चंदे के नियमों के तहत पिछले एक साल में 5,000 स्वयंसेवी संगठनों को बंद कर सकती है, कंपनियों से किस्म-किस्म के रिटर्न भरने को कहती है, और आम लोगों को सिर्फ नोटबंदी की लाइनों में मरने को छोड़ देती है, वह राजनैतिक चंदे को हर तरह की रियायत देने पर क्यों आमादा है

राजनैतिक दल कौन-सी जन सेवा कर रहे हैं?

हमें खुद से जरूर पूछना चाहिए कि क्या हर चुनाव में हम देश के सबसे विराट और चिरंतन घोटाले को वोट देते हैं?


Sunday, January 14, 2018

अंधेरा कायम है...

किसी को कैसे विश्वास होगा कि जो सरकार देश के करोड़ों लोगों को अपनी ईमानदारी साबित करने के लिए नोट बदलने के लिए बैंकों की लाइनों में लगा सकती हैवह नैतिक और संवैधानिक तौर पर देश के सबसे जिम्मेदार वर्ग को जरा-सी पारदर्शिता के लिए प्रेरित नहीं कर सकती!

जो व्यवस्था आम लोगों के प्रत्येक कामकाज पर निगरानी चाहती है वह देश के राजनैतिक दलों को इतना भी बताने पर बाध्य नहीं कर सकती कि आखिर उन्हें चंदा कौन देता है?

नए इलेक्टोरल बॉन्ड या राजनैतिक चंदा कूपन की स्कीम देखने के बाद हम लिख सकते हैं कि राजनीति अगर चालाक हो तो वह अवैध को अवैध बनाए रखने के वैध तंत्र (बैंक) को बीच में ला सकती है. इलेक्टोरल बॉन्ड या कूपन इसी चतुर रणनीति के उत्पाद हैंजहां बैंकों का इस्तेमाल अवैधता को ढकने के लिए होगा.

- स्टेट बैंक चंदा कूपन (1,000, 10,000, एक लाखदस लाखएक करोड़ रुपए) बेचेगा. निर्धारित औपचारिकताओं के बाद इन्हें खरीद कर राजनैतिक दलों को दिया जा सकेगा. राजनैतिक दल 15 दिन के भीतर इसे बैंक से भुना लेंगे. कूपन से मिले चंदे की जानकारी सियासी दलों को अपने रिटर्न (इनकम टैक्स और चुनाव आयोग) में देनी होगी.

- दरअसलइलेक्टोरल बॉन्ड एक नई तरह की करेंसी है जिसका इस्तेमाल केवल सियासी चंदे के लिए होगा.

समझना जरूरी है कि भारत में राजनैतिक चंदे दागी क्यों हैं. यह इसलिए नहीं कि वे नकद में दिए जाते हैं. 2016 में नोटबंदी के ठीक बीचोबीच राजनैतिक दलों को 2,000 रुपए का चंदा नकद लेने की छूट मिली थी जो आज भी कायम है. चंदे इसलिए विवादित हैं क्योंकि देश को कभी यह पता नहीं चलता कि कौन किस राजनैतिक दल को चंदा दे रहा हैइस कूपन पर भी चंदा देने वाले का नाम नहीं होगा. यानी यह सियासी चंदे को उसके समग्र अवैध रूप में सुविधाजनक बनाने का रास्ता है.

सियासी चंदे को कितनी रियायतें मिलती हैंआइए गिनती कीजिएः

- अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने राजनैतिक चंदे को वीआइपी बना दिया था. चंदा देने वाली कंपनियां इसे अपने खाते में खर्च दिखाकर टैक्स से छूट ले सकती हैं जबकि सियासी दलों के लिए चंदे पूरे तरह टैक्स से मुक्त हैं. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स के आंकड़े बताते हैं कि 2012-16 के बीच पांच प्रमुख पार्टियों को उनका 89 फीसदी (945 करोड़ रुपए) चंदा कंपनियों से मिला. यह लेनदेन पूरी तरह टैक्स फ्री है.

- कांग्रेस की सरकार ने चंदे के लिए इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाने की सुविधा दीजिसके जरिए सियासी दलों को पैसा दिया जाता है.

- नोटबंदी हुई तो भी राजनैतिक दलों के नकद चंदे (2000 रुपये तक) बहाल रहे.

- मोदी सरकार एक और कदम आगे चली गई. वित्त विधेयक 2017 में कंपनियों के लिए राजनैतिक चंदे पर लगी अधिकतम सीमा हटा ली गई. इससे पहले तक कंपनियां अपने तीन साल के शुद्ध लाभ का अधिकतम 7.5 फीसदी हिस्सा ही सियासी चंदे के तौर पर दे सकती थीं. कंपनियों को यह  बताने की शर्त से भी छूट मिल गई कि उन्होंने किस दल को कितना पैसा दिया है.

तो फिर सियासी चंदे के लिए यह न करेंसी यानी इलेकटोरल बांड क्‍यों ?

तमाम रियायतों के बावजूद नकद में बड़ा चंदा देना फिर भी आसान नहीं था. इलेक्टोरल बॉन्ड से अब यह सुविधाजनक हो जाएगा. अपनी पूरी अपारदर्शिता के साथ नकद चंदेए  बैंक कूपन के जरिए सियासी खातों में पहुंचेंगे. सिर्फ राजनैतिक दल को यह पता होगा कि किसने क्या दियामतदाताओं को नहीं. फर्जी पहचान (केवाइसी) के साथ खरीदे गए इलेक्टोरल कूपनकाले धन की टैक्स फ्री धुलाई में मदद करेंगे !

यह वक्‍त सरकार से सीधे सवाल पूछने का हैः

- राजनैतिक चंदे को दोहरी (कंपनी और राजनीतिक दल) आयकर रियायत क्यों मिलनी चाहिएइससे कौन-सी जन सेवा हो रही है?

- चंदे की गोपनीयता बनाए रखकर राजनैतिक दल क्या हासिल करना चाहते हैंदेश को यह बताने में क्या हर्ज है कि कौन किसको कितना चंदा दे रहा है.

भारत के चुनावी चंदे निरंतर चलने वाले वित्तीय घोटाले हैं. यह एक विराट लेनदेन है जो लोकतंत्र की बुनियादी संस्था अर्थात् राजनैतिक दल के जरिए होता है. यह एक किस्म का निवेश है जो चंदा लेने वाले के सत्ता में आने पर रिटर्न देता है. 

क्या हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि सरकार किसी की हो या नेता कितना भी लोकप्रिय होवह भारत की सबसे बड़ी राजनैतिक कालिख को ढकने के संकल्प से कोई समझौता नहीं करेगा! यह अंधेर कभी खत्म नहीं होगा!

Monday, March 6, 2017

ठगे जाने का एहसास


अगर चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा सालाना प्रोजेक्ट है तो कम से कम इन्हें तो ठीक कर ही लिया जाना चाहिए. 

उल्हासनगरपुणे और नासिक सहित महाराष्ट्र के विभिन्न शहरों के लोगों ने ताजा नगर निकाय चुनावों के बाद जो महसूस किया हैवैसा ही कुछ एहसास, 11 मार्च को उत्तर प्रदेश या उत्तराखंड में लोगों को होगा. चुनाव अब एक किस्म का पूर्वानुभव लेकर आते हैं. पांच साल बाद लोग अपने नुमाइंदे बदलना चाहते हैं लेकिन चालाक नुमाइंदे अपनी पार्टियां बदल कर फिर चिढ़ाने आ जाते हैं.

नासिक से लेकर उत्तरकाशी और गोवा से गोरखपुर तक लोकतंत्र बुरी तरह गड्डमड्ड हो गया है. प्रतिनिधित्व आधारित लोकशाही सिर के बल खड़ी है. पुणे नगरपालिका चुनाव में भाजपा के आधे से अधिक पार्षदों को कांग्रेसएनसीपीशिवसेना से आयात किया गया. नासिक में पूरी की पूरी मनसे भाजपा में समा गई और भाजपा जीत गई. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में बसपासपाकांग्रेस और रालोद के कई नुमाइंदे दूसरे दलों का लेबल माथे पर चिपका कर चुनाव मैदान में हाजिर हैं. दुनिया के किसी बड़े बहुदलीय लोकतंत्र में इस कदर दलबदल नहीं होताजितना कि भारत में है.

भारत में चुनाव पूरे साल होते हैं. यही एक काम है जिसे राजनैतिक दल पूरी गंभीरता के साथ करते हैंगवर्नेंस तो बचे हुए समय का इस्तेमाल है. मुंबई में जब नगर निकायों के चुनाव के नतीजे आ रहे थेतब दिल्ली में निकाय चुनावों के प्रत्याशियों की सूची जारी हो रही थी. उत्तर प्रदेश में वोट करते हुए लोग ओडिशा में पंचायत चुनावों के नतीजे देख रहे थे. छोटे-छोटे चुनावों के दांव इतने बड़े हो चले हैं कि ओडिशा में पंचायत चुनावों के प्रचार में भाजपा ने छत्तीसगढ़ और झारखंड के मुख्यमंत्रियों को उतार दिया जबकि बीजू जनता दल (बीजेडी) फिल्मी सितारों को ले आया. सनद रहे कि पंचायत चुनावों के बड़े हिस्से में प्रत्यक्ष रूप से दलीय राजनीति का दखल नहीं होता.

अगर चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा सालाना प्रोजेक्ट है तो कम से कम इन्हें तो ठीक कर ही लिया जाना चाहिए. इसी में सबका भला है.

काला धनदबंगों का दबदबावोटों की खरीद तो चुनावों की बाहरी सडऩ हैभीतरी इससे ज्यादा गहरी है. राजनैतिक दल और चुने हुए प्रतिनिधि (प्रत्याशी),  संसदीय लोकतंत्र की बुनियादी संस्थाएं हैं. दोनों ने मिलकर चुनावों को इस हालत में पहुंचा दिया है जहां लोकतंत्र के महापर्व जैसा कोई धन्य भाव नहीं बचा है.

प्रत्याशी पहले सुधरें या राजनैतिक दलबहसपहले मुर्गी या अंडा जैसी है.

प्रतिनिधित्व आधारित लोकतंत्र का शायद यह, सबसे बुरा दौर है. राजनीति में अपराधीकरण को खत्म करने के प्रधानमंत्री के 2014 के चुनावी वादे का तो पता नहीं उलटे अब दलबदल कानून निढाल पड़ा है. पार्टियां बदलने की आदत चुनावों से लेकर सरकारों तक फैल गई. अरुणाचल और उत्तराखंड को गिनिए या फिर महाराष्ट्र के निकाय चुनावों से लेकर ताजा विधानसभा चुनावों तक दलबदलुओं का हिसाब लगाइएचुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी किया जा सकता है. चुनिंदा लोगों को ही वोट देना अगर मजबूरी बन गई तो मतदान का मकसद खत्म हो जाएगा.

संसद या विधानसभाएं नहीं बल्कि राजनैतिक दल लोकतंत्र की बुनियादी संस्था हैं जो लोकशाही की बीमारियों का कारखाना हैं. सियासी दलों पर एक छोटी पार्टनरशिप फर्म जितने नियम भी लागू नहीं होते. खराब प्रत्याशीदलबदलअलोकतांत्रिक ढर्रे और चंदे तक लगभग सभी धतकरम सियासी दलों से निकलकर व्यापक लोकतंत्र में फैलते हैं. गवर्नेंस को राजनैतिक दलों से अलग करना मुश्किल हैक्योंकि सरकारी नीतियों के ब्लू प्रिंट राज करने वाली पार्टी की सियासी फैक्ट्री में बनते हैं

लोकतंत्र की नींव में इस दरार के कारण 

- राजनीति का अपना एक बिजनेस मॉडल बन गया है जिसमें किसी न किसी तरह से जीतना पहली जरूरत है.

- सियासी वंशवाद संसद से पंचायतों तक पसर गया है. हर राज्य  में नए राजनैतिक परिवार उभरे हैंजिन्हें पहचानना मुश्किल नहीं है. उत्तर प्रदेश में 50 से अधिक सियासी कुनबे इस चुनाव में खुलकर सक्रिय हुए. छोटे कुनबों ने निचले स्तर के चुनावों पर कब्जा कर रखा है.

- जीत की गारंटी के लिए ये परिवार हर चुनाव में बड़ी सहजता से दलों के बीच आवाजाही करते हैं और अच्छे प्रत्याशियों का विचार उभरने से पहले ही मर जाता है.

दिलचस्प है कि चुनावों के नजरिए से दो प्रस्ताव चर्चा में हैंएक लोकतंत्र की जड़ के लिए और दूसरा शिखर के लिए.

पहलादलीय राजनीति को प्रत्यक्ष रूप से पंचायतों चुनाव तक लागू कर दिया जाए.
दूसरासंसद-विधानसभा के चुनाव साथ कराए जाएं.

क्या इन दोनों से पहले यह जरूरी नहीं है कि लोकतंत्र की बुनियादी संस्था यानी विभिन्न राजनैतिक दलों को ठीक किया जाए?


आखिर कब तक हम लोकतंत्र के प्रति दायित्व की कसम खाकर उन्हें  वोट डालते रहेंगे जो लोकतंत्र को सड़ाने के नए कीर्तिमान बनाना चाहते हैं

Monday, October 26, 2015

यह हार है बड़ी





देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल और उसकी सरकार ने न केवल चुनावों को ठीक करने का बड़ा मौका गंवा दिया बल्कि चुनावों को दूषित करने वाले तरीकों को नए तरह से प्रामाणिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. 


ह निष्कर्ष निकालने में कोई हर्ज नहीं है कि अगले साल बंगाल के चुनाव में आपराधिक छवि वाले प्रत्याशियों के बीच होड़ होने वाली है. चुनावी वादे अब लैपटॉप, साइकिल से होते हुए स्कूटी, पेट्रोल, मकान, जमीन देने तक पहुंच चुके हैं, अगले वर्ष के विधानसभा चुनावों में इसकी नई सीमाएं नजर आ सकती हैं. अगले साल तक चुनावों में काला धन बहाने के नए तरीके नजर आएंगे और वंशवाद की राजनीति का नया परचम लहराने लगेगा जो उत्तर प्रदेश की पंचायतों के चुनावों तक आ गया है. इन नतीजों पर पहुंचना इसलिए आसान है कयों कि बिहार के चुनाव में देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल और उसकी सरकार ने न केवल चुनावों को ठीक करने का बड़ा मौका गंवा दिया बल्कि चुनावों को दूषित करने वाले तरीकों को नए तरह से प्रामाणिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. 
नरेंद्र मोदी और बीजेपी से अपेक्षा तो यह थी कि सत्ता में आने के बाद यह पार्टी ऐलानिया तौर पर चुनाव सुधार शुरू करेगी, क्योंकि विपक्ष में रहकर न केवल बीजेपी ने भारतीय लोकतंत्र में चुनावों की गंदगी को समझा है बल्कि इसे साफ करने की आवाजों में सुर भी मिलाया है. आदर्श तौर पर यह काम महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनावों से शुरू हो जाना चाहिए था लेकिन अगर ये चुनाव जल्दी हुए तो बिहार से इसकी शुरुआत हो ही जानी चाहिए थी.
एक आम भारतीय मतदाता चुनावों में यही तो चाहता है कि उसे अपराधियों को अपना प्रतिनिधि चुनने पर मजबूर न किया जाए. याद कीजिए पिछले साल मई में मोदी की इलाहाबाद परेड ग्राउंड की जनसभा जिसमें उन्होंने कहा था कि ''सत्ता में आते ही राजनीति से अपराधीकरण खत्म करने की मुहिम शुरू होगी. सरकार सभी प्रत्याशियों के हलफनामे सुप्रीम कोर्ट के सामने रखकर मामलों की सुनवाई करने और फैसले सुनाने के लिए कहेगी. जो अपराधी पाए जाएंगे, उनकी सदस्यता जाएगी और उपचुनाव के जरिए सीटे भरी जाएंगी. यही काम विधानसभा में होगा." मोदी ने जोश में यह भी कहा था कि यदि दोषी होंगे तो वह खुद भी मुकदमे का सामना करेंगे लेकिन अगली संसद साफ-सुथरी होगी. पता नहीं, वह कौन-सी बहुमत की कमी है जिसने मोदी को यह प्रक्रिया शुरू करने से रोक रखा है. अलबत्ता देश को यह जरूर मालूम है कि बिहार के चुनाव के पहले चरण में आपराधिक छवि वाले सर्वाधिक लोग बीजेपी का टिकट लेकर चुनाव मैदान में हैं और बीजेपी में अपराधियों को टिकट बेचने का खुलासा करने के बाद पार्टी के सांसद आर.के. सिंह ने हाइकमान की डांट खाई है. चुनावों की निगहबानी करने वाली संस्था एडीआर का आंकड़ा बताता है कि पहले चरण के चुनाव में बीजेपी के 27 प्रत्याशियों में 14 पर आपराधिक मामले हैं. हमें मालूम है कि बीजेपी भी अब मुलायम, मायावती या लालू की तरह आपराधिक मामलों के राजनीति प्रेरित होने का तर्क देगी लेकिन अपेक्षा तो यही थी कि वह साफ -सुथरे प्रत्याशियों की परंपरा शुरू करने के साथ इस तर्क को गलत साबित करेगी.
लैपटॉप, साइकिलें, बेरोजगारी भत्ता आदि बांटने के चुनावी वादों पर भारत में बहस लोकसभा चुनाव से पहले ही शुरू हो गई थी और बीजेपी इस बहस का सक्रिय हिस्सा थी. जुलाई, 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को चुनावी वादों को लेकर दिशानिर्देश तय करने का आदेश देते हुए कहा था कि चुनाव से पहले घोषित की जाने वाली खैरात साफ-सुथरे चुनावों की जड़ें खोद देती है. बीजेपी को सत्ता में आने के बाद इस सुधार की अगुआई करनी थी, लेकिन बिहार के चुनाव में पार्टी ने स्कूटर, मकान, पेट्रोल और जमीन देने के वादे करते हुए इस बड़ी उक्वमीद को दफन कर दिया है कि भारत के चुनाव इस 'रिश्वतखोरी'  से कभी मुक्त हो सकेंगे. दिलचस्प है कि चुनावों में लोकलुभावन घोषणाओं पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश तमिलनाडु में टीवी, मिक्सर-ग्राइंडर बांटने जैसे चुनावी वादों पर आया था. अगले साल तमिलनाडु में फिर चुनाव होने हैं इस बार वहां लोकलुभावन घोषणाओं का नया तेवर नजर आ सकता है.
इस अगस्त में जब बिहार चुनाव की तैयारियां पूरे शबाब पर थीं तब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर राजनैतिक दलों को सूचना कानून के दायरे में लाने का विरोध किया. यह एक ऐसा सुधार था जो चुनावों में खर्च को सीमित करने और पार्टियों का हिसाब साफ-सुथरा करने की राह खोल सकता था. यहां से आगे बढ़ते हुए चुनावी चंदों में पारदर्शिता और काले धन के इस्तेमाल पर रोक के कदम उठाए जा सकते थे. बीजेपी सत्ता में आने से पहले इसके पक्ष में थी लेकिन बिहार की तरफ  बढ़ते हुए उसने खुद को उन दलों की जमात में खड़ा कर दिया जो भारतीय चुनावों को काले धन का दलदल बनाए रखना चाहते हैं. बिहार में जगह-जगह नकदी पकड़ी गई है और चुनाव आयेाग मान रहा है कि 25 फीसदी सीटें काले धन के इस्तेमाल के हिसाब से संवेदनशील हैं. अब जबकि राजनैतिक शुचिता पर बौद्धिक नसीहतें देने वाली पार्टी ही इस कालिख की पैरोकार है तो अचरज नहीं कि काले धन की नदी पंचायत से लेकर संसद तक बेरोक बहेगी.
राजनैतिक सुधारों को लेकर बीजेपी की कलाबाजी इसलिए निराश करती है कि सुधार तो दूर, पार्टी ने राजनीति के धतकर्मों को नई परिभाषाएं व प्रामाणिकता देना शुरू कर दिया है. मसलन इंडिया टुडे के पिछले अंक में अमित शाह ने देश को परिवारवाद की भाजपाई परिभाषा से परिचित कराया. 
यदि हम इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि चुनावों में हार जीत ही सब कुछ होती है तो हमें यह मानना पड़ेगा कि बिहार के चुनाव के जरिए सभी दलों ने राजनैतिक सुधारों की उम्मीद को सामूहिक श्रद्धांजलि दी है. बिहार चुनाव का नतीजा कुछ भी हो लेकिन भारतीय लोकतंत्र खुद को ठीक करने का एक बड़ा मौका चूक गया है.