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Monday, July 4, 2011

सरकार वही, जो दर्द घटाये !

मेरिका ने फ्रांस को कुछ समझाया। फ्रांस ने स्पेन व इटली को हमराज बनाया। जापान और कोरिया भी आ जुटे। गोपनीय बैठकें, मजबूत पेशबंदी और फिर ताबडतोड़ कार्रवाई।.. पेट्रोल के सुल्तान यानी तेल उत्पाटदक मुल्कं (ओपेक) जब तक कुछ समझ पाते तब तक दुनिया के तेल बाजार में एक्शन हो चुका था। बात बीते सप्ताह की है जब अमेरिका, जापान, फ्रांस, जर्मनी के रणनीतिक भंडारों से छह करोड़ बैरल कच्चा तेल बाजार में पहुंच गया। तेल कीमतें औंधे मुंह गिरीं और ओपेक देश, अपनी जड़ें हिलती देखकर हिल गए। तेल कारोबार दुनिया ने करीब 20 साल बाद आर-पार की किस्म वाली यह कार्रवाई देखी थी। तेल कीमतों में तेजी तोड़ने की यह आक्रामक मुहिम उन देशों की थी जो महंगाई में पिसती जनता का दर्द देख कर सिहर उठे हैं। पिघल तो चीन भी रहा है। वहां मुक्त बाजार में मूल्य नियंत्रण लागू है यानी कंपनियों के लिए मूल्‍य वृद्धि की सीमा तय कर दी गई है। जाहिर सरकार होने के एक दूसरा मतलब दर्दमंद, फिक्रमंद और संवेदनशील होना भी है। मगर अपनी मत कहियें यहां तो महंगाई के मारों पर चाबुक चल रहा है। जखमों पर डीजल व पेट्रोल मलने के बाद प्रधानमंत्री ने महंगाई घटने की अगली तरीख मार्च 2012 लगाई है।
पेट्रो सुल्ता्नों से आर पार
वाणिज्यिक बाजार के लिए रणनीतिक भंडारों से तेल ! यानी आपातकाल के लिए तैयार बचत का रोजमर्रा में इस्तेमाल। तेल बाजार का थरथरा जाना लाजिमी था। विकसित देशों के रणनीतिक भंडारों से यह अब तक की सबसे बड़ी निकासी थी। नतीजतन बीते सप्ताह तेल की कीमतें सात फीसदी तक गिर गईं। बाजार में ऐसा आपरेशन आखिरी बार 1991 में हुआ था। यह तेल उत्पादक (ओपेक) देशों की जिद को सबक व चुनौती थी। मुहिम अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की थी और गठन (1974) के बाद उसकी यह तीसरी ऐसी कार्रवाई है। ओपेक के खिलाफ यह पेशबंदी मार्च में लीबिया पर मित्र देशों के हमले

Monday, May 23, 2011

अब तो ग्रोथ पर बन आई

मुंबई में रिजर्व बैंक की छत से एक कौए ने ब्याज दरें बढ़ने के ऐलान के साथ महंगाई से डराने वाली प्रभाती सुनाई, तो दिल्ली में वित्त मंत्रालय की मुंडेर पर बैठे दूसरे कौए ने पेट्रो कीमतों में बढ़ोत्तडरी की हांक लगाते हुए कहा कि यह कैसी रही भाई? ... यह सुनकर स्टॉक एक्सचेंज की छत पर बैठा एक दिलजला कौआ चीखा, चुप करो अब तो ग्रोथ पर बन आई। यकीनन, अब भारत के तेज आर्थिक विकास पर बन आई है। महंगाई ने सात साल में कमाई गई सबसे कीमती पूंजी पर दांत गड़ा दिये हैं। तमाम संकटों के बावजूद टिकी रही हमारी चहेती ग्रोथ अब खतरे में है। रिजर्व बैंक कह चुका है कि महंगाई अब विकास को खायेगी। सरकार भी ग्रोथ बचाने के बजाय महंगाई बढ़ाने (पेट्रो मूल्य वृद्धि) में मुब्तिला है। ग्रोथ, बढ़ती कमाई और रोजगार के  सहारे ही पिछले तीन साल से महंगाई को झेल रहे थे लेकिन मगर हम महंगाई को अपनी तरक्की खाते देखेंगे। दहाई की (दस फीसदी) की विकास दर का ख्वाब चूर होने के करीब है।
हारने की रणनीति
हम दुनिया की सबसे ज्यादा महंगाई वाली अर्थव्यवस्थाओं में एक है और यह हाल के इतिहास का सबसे लंबी और जिद्दी महंगाई है। महंगाई के इन वर्षों में चुनाव न आते तो शायद सरकारें महंगाई से निचुडते आम लोगों को ठेंगे पर ही रखतीं। क्यों कि महंगाई से मुकाबला सियासत की गणित के तहत हुआ है। तभी तो बंगाल में वोट पड़ते पेट्रोल पांच रुपये बढ़ गया। बढ़ोत्तंरी अगर क्रमश: होती तो शायद दर्द कुछ कम रहता। पिछले तीन साल की महंगाई ने केंद्र के आर्थिक प्रबंधकों की दरिद्र दूरदर्शिता को उघाड़ दिया है। ताजा महंगाई ने हमें 2008-09 में पकड़ा था। याद कीजिये कि तब से प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, योजना आयोग के मुखिया, रिजर्व बैंक गवर्नर आदि ने कितनी बार यह नहीं कहा कि तीन माह में महंगाई काबू में होगी मगर तीन माह खत्म होने से पहले ही इन्हों ने अपनी बात वापस चबा कर निगल

Monday, January 10, 2011

हमने कमाई महंगाई !

अर्थार्थ
पने खूब कमाया इसलिए महंगाई ने आपको नोच खाया !!...हजम हुई आपको वित्त मंत्री की सफाई ?...नहीं न? हो भी कैसे। हम ताजे इतिहास की सबसे लंबी और जिद्दी महंगाई का तीसरा साल पूरा कर रहे हैं और सरकार हमारे जखमों पर मिर्च मल रही है। हमारी भी खाल अब दरअसल मोटी जो चली है क्यों कि पिछले दो ढाई वर्षों में हमने हर रबी-खरीफ, होली-ईद, जाड़ा गर्मी बरसात, सूखा-बाढ़, आतंक-शांति, चुनाव-घोटाले और मंदी-तेजी महंगाई के काटों पर बैठ कर शांति से काट जो चुके है। वैसे हकीकत यह है कि उत्पादन व वितरण का पूरा तंत्र अब पीछे से आई महंगाई को आगे बांटने की आदत डाल चुका है। उत्पादक, निर्माता, व्यापारी और विक्रेता महंगाई से मुनाफे पर लट्टू हैं नतीजतन बेतहाशा मूल्य वृद्धि अब भारत के कारोबार स्थायी भाव है। यह सब इसलिए हुआ है क्यों कि पिछले दो वर्षों में अर्थव्यंवस्था के हर अहम व नाजुक पहलू पर बारीकी और नफासत के साथ महंगाई रोप दी गई है। कहीं यह काम सरकारों ने जानबूझकर किया और तो कहीं इसे बस चुपचाप हो जाने दिया है। लद गए वह दिन जब महंगाई मौसमी, आकस्मिक या आयातित ( पेट्रो मूल्य) होती थी अब महंगाई स्थायी, स्वाभाविक, सुगठित और व्यवस्थागत है। छत्तीस करोड़ अति‍ निर्धनों, इतने ही निर्धनों और बीस करोड़ निम्न मध्य‍मवर्ग वाले इस देश में कमाई से महंगाई बढ़ने का रहस्य तो सरकार ही बता सकती है आम लोग तो बस यही जानते हैं कि महंगाई उनकी कमाई खा रही है और लालची व्यापारियों व संवेदनहीन सत्ता तंत्र की कमाई की बढ़ाने के काम आ रही है।
कीमत बढ़ाने का कारोबार
महंगाई की सूक्ष्म कलाकारी को देखना जरुरी है क्यों कि निर्माता, व्यापारी और उपभोक्तां इसके टिकाऊ होने पर मुतमइन हैं। जिंस या उत्पाद को कुछ बेहतर कर उसका मूल्य यानी वैल्यूं एडीशन आर्थिक खूबी या सद्गुण है लेकिन किल्लत वाली अर्थव्यवस्‍थाओं में यह बुनियादी जिंसों की कमी कर देता है। भारत में खाद्य उत्पाद इसी दुष्‍चक्र के शिकार हो चले हैं क्यों कि बुनियादी जिंसों की पैदावार पहले ही मांग से बहुत कम है। संगठित रिटेल ने बहुतों को रोजगार और साफ सुथरी शॉपिंग का मौका भले ही दिया हो लेकिन वह इसके बदले वह