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Tuesday, August 16, 2016

जीएसटी हो सकता है कारगर बशर्ते .....

जीएसटी क्रांतिकारी सुधार बनाने के लिए इसे केंद्र सरकार के सूझबूझ भरे राजनीतिक नेतृत्‍व की जरुरत है। 

जीएसटी लागू होने के बाद उपभोक्‍ता राजा बन जाएगा ! टैक्स चोरी बंद! जीडीपी में उछाल! राज्यों की ज्यादा कमाई! टैक्स अफसरों का आतंक खत्म! छोटे कारोबारियों के लिए बड़ी सुविधाएं! जीएसटी से अपेक्षाओं की उड़ान में अगर कोई कमी रह गई थी तो प्रधानमंत्री के 8 अगस्त के लोकसभा के संबोधन ने उसे पूरा कर दिया है.

दरअसल2014 के नरेंद्र मोदी और 2016 के जीएसटी में एक बड़ी समानता है. दोनों ही अपेक्षाओं के ज्वार पर सवार होकर आए हैं. 2014 में जगी उम्‍मीदों का तो पता नहींअलबत्ता प्रधानमंत्री के पास जीएसटी को ऐसा सुधार बनाने का मौका जरूर है जो अर्थव्यवस्था के एक बड़े क्षेत्र का कायाकल्प करने और दूरगामी फायदे देने की कुव्वत रखता है.

संयोग से जीएसटी को कामयाब बनाने के लिए प्रधानमंत्री के पास पर्याप्त राजनैतिक ताकत हैसाथ ही संसद के दोनों सदनों ने अभूतपूर्व सर्वानुमति के साथ जीएसटी का जो खाका मंजूर किया हैउसके प्रावधान जीएसटी को क्रांतिकारी सुधार बना सकते हैं बशर्ते केंद्र सरकार सूझबूझ और संयम के साथ जीएसटी का राजनैतिक नेतृत्व कर सके.

संसद की दहलीज पार करते हुए जीएसटी को तीन ऐसी नेमतें मिल गई हैं जो भारत में इस तरह के (केंद्र व सभी राज्यों के सामूहिक) इतने बड़े सुधार के पास पहले कभी नहीं थीं.

एक- संसद से मंजूर जीएसटी विधेयक में राज्यों की अधिकार प्राप्त समिति के सभी सुझाव और केंद्र की सहमति शामिल है. जीएसटी के पूर्वज यानी वैट (वैल्यू एडेड टैक्स) को 2005 में सहमति का यह तोहफा नहीं मिला था. गुजरातराजस्थानमध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सहित सात राज्यों ने पूरे देश के साथ मिलकर वैट लागू नहीं किया. ये राज्य इस सुधार में बाद में शामिल हुए.

दो- जीएसटी काउंसिल के तौर पर देश को पहली बार एक बेहतर ताकतवर संघीय समिति मिल रही हैजिसमें राज्यों के सामूहिक अधिकार केंद्र से ज्यादा हैं. आर्थिक फैसलों के मामले में यह अपनी तरह का पहला प्रयोग है जो अच्छे जीएसटी की बुनियाद बनना चाहिए.

तीन- राज्य सरकारों के संभावित वित्तीय नुक्सान का बीमा हो गया है. यदि जीएसटी लागू करने से टैक्स घटता है तो केंद्र सरकार पांच साल तक इसकी भरपाई करेगी. पहली बार दी गई इस संवैधानिक गारंटी के बाद जीएसटी को उपभोक्ताओं के लिए कम बोझ वाला बनाने का विकल्प खुल गया है.

व्यापक सहमतिफैसले लेने की पारदर्शी प्रणाली और राज्यों के नुक्सान की भरपाई की गारंटी के बादयकीनन जीएसटी एक ढांचागत सुधार हो सकता है लेकिन इसके लिए केंद्र सरकार को जीएसटी के गठन में छह व्यवस्थाएं अनिवार्य रूप से सुनिश्चित करनी होंगी. यह काम सिर्फ केंद्र सरकार ही कर सकती है क्योंकि जीएसटी का नेतृत्व नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली की टीम ही करेगी. 

पहलाः मोदी यदि जीएसटी में ग्राहकों को राजा बनाना चाहते हैं तो उन्हें जीएसटी की स्टैंडर्ड दर 18 फीसदी रखने के लिए राजनैतिक सहमति बनानी होगी. राज्यों में स्टेट वैट की स्टैंडर्ड दर 14.5 फीसदी हैजिसके तहत 60 फीसदी उत्पाद आते हैं जबकि सेंट्रल एक्साइज की 12.36 स्टैंडर्ड दर अधिकांश उत्पादों पर लागू होती है. सर्विस टैक्स की दर 15 फीसदी है. यदि इन तीनों को मिलाकर 18 फीसदी की स्टैंडर्ड जीएसटी दर तय हो सके तो यह जीएसटी की सबसे बड़ी सफलता होगी. इस दर के तहत कुछ उत्पादों और सेवाओं पर टैक्स बढ़ेगा लेकिन कई दूसरे टैक्सों को मिलाने के फायदे इसे संतुलित करेंगे और महंगाई काबू में रहेगी. केंद्र सरकार राज्यों को इस संतुलन के लिए राजी कर सकती है क्योंकि संविधान संशोधन विधेयक ने उनके घाटे की भरपाई को सुनिश्चित कर दिया है. 

दूसराः ऊर्जा व जमीन आर्थिक उत्पादन की सबसे बड़ी लागत है लेकिन बिजलीपेट्रो उत्पाद और स्टांप ड्यूटी जीएसटी से बाहर हैं. इन पर टैक्स घटाए बिना कारोबार की लागत कम करना असंभव है. इन्हें जीएसटी के दायरे में लाना होगा. केंद्र सरकार तीन साल की कार्ययोजना के तहत जीएसटी काउंसिल को ऐसा करने पर सहमत कर सकती है.

तीसराः केंद्र को यह तय करना होगा कि जीएसटी कारोबार के लिए कर पालन की लागत (कॉस्ट ऑफ कंप्लायंस) न बढ़ाए. जीएसटी का ड्राफ्ट बिल खौफनाक है. इसमें एक करदाता के कई (केंद्र व राज्य) असेसमेंटदर्जनों पंजीकरणरिटर्न और सजा जैसे प्रावधान हैं. अगर इन्हें खत्म न किया गया तो जीएसटी टैक्स टेररिज्म का नमूना बन सकता है.

चौथाः जीएसटी की राह पर आगे बढ़ते हुए केंद्र सरकार को राज्यों में गैर-कर राजस्व जुटाने के नए तरीकों और खर्च कम करने के उपायों की जुगत लगानी होगी. वित्त आयोग और नीति आयोग इस मामले में अगुआई कर सकते हैं. जीएसटी कानून के तहत राज्यों में कर नियमों में आए दिन बदलाव की संभावनाएं सीमित करनी होंगी.

पांचवां स्वच्छताबुनियादी ढांचे और अन्य जरूरतों के लिए स्थानीय निकायों को संसाधन चाहिए. जीएसटी में कई ऐसे टैक्स शामिल हो रहे हैं जो इन निकायों की आय का स्रोत हैं. केंद्र को यह ध्यान रखना होगा कि जिस तरह केंद्र के राजस्व में राज्यों का हिस्सा तय हैठीक उसी तरह राज्यों के राजस्व में स्थानीय निकायों का हिस्सा निर्धारित हो.

छठा जीएसटी की व्यवस्था तय करते हुए केंद्र की अगुआई में जीएसटी काउंसिल को हर स्तर पर सभी पक्षों यानी उपभोक्ताछोटे-बड़े उद्यमीस्थानीय निकायों को चर्चा में जोडऩा होगा जो अभी तक नहीं किया गया है.

बहुत से लोग यह कहते मिल जाएंगे कि जीएसटी न होने से एक कमजोर जीएसटी होना बेहतर है लेकिन हकीकत यह है कि एक घटिया जीएसटी जो समस्याएं पैदा करेगाउनकी रोशनी में जीएसटी की अनुपस्थिति ही बेहतर है. जीएसटी भारत में सुधारों की दूसरी पीढ़ी की सबसे बड़ी पहल है और अभी इसकी सिर्फ नींव रखी गई है. 

यदि प्रधानमंत्री मानते हैं कि जीएसटी से भारत की सूरत बदल जाएगी तो उन्हें स्वयं इस सुधार का नेतृत्व करना चाहिए. यदि वे देश को एक दूरगामीसहज और कम महंगाई वाला टैक्स सिस्टम दे सके तो यह आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि होगीजिसे लेकर इतिहास उन्हें  हमेशा याद रखेगा.

Wednesday, August 3, 2016

आगेे और महंगाई है !


अच्‍छे मानसून के बावजूद, कई दूसरे कारणों के चलते अगले दो वर्षों में महंगाई  की चुनौती समाप्‍त होने वाली नहीं है। 

देश में महंगाई पर अक्सर चर्चा शुरू हो जाती हैलेकिन जब सरकार कोई अच्छे फैसले करती है तो उसका कोई जिक्र नहीं करता." ------ 22 जुलाई को गोरखपुर की रैली में यह कहते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति और आर्थिक प्रबंधन की सबसे पुरानी दुविधा को स्वीकार कर रहे थेजिसने किसी प्रधानमंत्री का पीछा नहीं छोड़ा. कई अच्छी शुरुआतों के बावजूद महंगाई ने ''अच्छे दिन" के राजनैतिक संदेश को बुरी तरह तोड़ा है. पिछले दो साल में सरकार महंगाई पर नियंत्रण की नई सूझ या रणनीति लेकर सामने नहीं आ सकी जबकि अंतरराष्ट्रीय माहौल (कच्चे तेल और जिंसों की घटती कीमतें) भारत के माफिक रहा है. सरकार की चुनौती यह है कि अच्छे मॉनसून के बावजूद अगले दो वर्षों में टैक्सबाजारमौद्रिक नीति के मोर्चे पर ऐसा बहुत कुछ होने वाला हैजो महंगाई की दुविधा को बढ़ाएगा.
भारत के फसली इलाकों में बारिश की पहली बौछारों के बीच उपभोक्ता महंगाई झुलसने लगी है. जून में उपभोक्ता कीमतें सात फीसदी का आंकड़ा पार करते हुए 22 माह के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गईं. अच्छे मॉनसून की छाया में महंगाई का जिक्र अटपटा नहीं लगना चाहिए. महंगाई का ताजा इतिहास (2008 के बाद) गवाह है कि सफल मॉनूसनों ने खाद्य महंगाई पर नियंत्रण करने में कोई प्रभावी मदद नहीं की है अलबत्ता खराब मॉनसून के कारण मुश्किलें बढ़ जरूर जाती हैं. पिछले पांच साल में भारत में महंगाई के सबसे खराब दौर बेहतर मॉनसूनों की छाया में आए हैं. इसलिए मॉनसून से महंगाई में तात्कालिक राहत के अलावा दीर्घकालीन उम्मीदें जोडऩा तर्कसंगत नहीं है.
भारत की महंगाई जटिलजिद्दी और बहुआयामी हो चुकी है. नया नमूना महंगाई के ताजा आंकड़े हैं. आम तौर पर खाद्य उत्पादों की मूल्य वृद्धि को शहरी चुनौती माना जाता है लेकिन मई के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण इलाकों में महंगाई बढऩे की रफ्तार शहरों से ज्यादा तेज थी. खेती के संकट और ग्रामीण इलाकों में मजदूरी दर में गिरावट के बीच ग्रामीण महंगाई के तेवर राजनीति के लिए डरावने हैं.
अच्छे मॉनसून के बावजूद तीन ऐसी बड़ी वजह हैं जिनके चलते अगले दो साल महंगाई के लिए चुनौती पूर्ण हो सकते हैं.
सबसे पहला कारण सरकारी कर्मचारियों के वेतन में प्रस्तावित बढ़ोतरी है. इंडिया रेटिंग का आकलन है कि वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद खपत में 45,100 करोड़ रु. की बढ़ोतरी होगी. प्रत्यक्ष रूप से यह फैसला मांग बढ़ाएगालेकिन इससे महंगाई को ताकत भी मिलेगी जो पहले ही बढ़त की ओर है. जैसे ही राज्यों में वेतन बढ़ेगामांग व महंगाई दोनों में एक साथ और तेज बढ़त नजर आएगी.
रघुराम राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक महंगाई पर अतिरिक्त रूप से सख्त था और ब्याज दरों को ऊंचा रखते हुए बाजार में मुद्रा के प्रवाह को नियंत्रित कर रहा था. केंद्रीय बैंक का यह नजरिया दिल्ली में वित्त मंत्रालय को बहुत रास नहीं आया. राजन की विदाई के साथ ही भारत में ब्याज दरें तय करने का पैमाना बदल रहा है. अब एक मौद्रिक समिति महंगाई और ब्याज दरों के रिश्ते को निर्धारित करेगी. राजन के नजरिए से असहमत सरकार आने वाले कुछ महीनों में उदार मौद्रिक नीति पर जोर देगी. मौद्रिक नीति के बदले हुए पैमानों से ब्याज दरें कम हों या न हों लेकिन महंगाई को ईंधन मिलना तय है.
तीसरी बड़ी चुनौती बढ़ते टैक्स की है. पिछले तीन बजटों में टैक्स लगातार बढ़ेजिनका सीधा असर जेब पर हुआ. रेल किराएफोन बिलइंटरनेटस्कूल फीस की दरों में बढ़ोतरी इनके अलावा थी. इन सबने मिलकर पिछले दो साल में जिंदगी जीने की लागत में बड़ा इजाफा किया. जीएसटी को लेकर सबसे बड़ी दुविधा या आशंका यही है कि यदि राज्यों और केंद्र के राजस्व की फिक्र की गई तो जीएसटी दर ऊंची रहेंगी. जीएसटी की तरफ बढ़ते हुए सरकार को लगातार सर्विस टैक्स की दर बढ़ानी होगीजिसकी चुभन पहले से ही बढ़ी हुई है.
महंगाई पर नियंत्रण की नई और प्रभावी रणनीति को लेकर नई सरकार से उम्मीदों का पैमाना काफी ऊंचा था. इसकी वजह यह थी कि मूल्य वृद्धि पर नियंत्रण के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नई सूझ लेकर आने वाले थे. मांग (मुद्रा का प्रवाह) सिकोड़ कर महंगाई पर नियंत्रण के पुराने तरीकों के बदले मोदी को आपूर्ति बढ़ाकर महंगाई रोकने वाले स्कूल का समर्थक माना गया था.
याद करना जरूरी है कि मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के बतौर एक समिति की अध्यक्षता की थीजो महंगाई नियंत्रण के तरीके सुझाने के लिए बनी थी. उसने 2011 में तत्कालीन सरकार को 20 सिफारिशें और 64 सूत्रीय कार्ययोजना सौंपी थीजो आपूर्ति बढ़ाने के सिद्धांत पर आधारित थी. समिति ने सुझाया था कि खाद्य उत्पादों की अंतरराज्यीय आपूर्ति बढ़ाने के लिए मंडी कानून को खत्म करना अनिवार्य है. मोदी समिति भारतीय खाद्य निगम को तीन हिस्सों में बांट कर खरीदभंडार और वितरण को अलग करने के पक्ष में थी. इस समिति की तीसरी महत्वपूर्ण राय कृषि बाजार का व्यापक उदारीकरण करने पर केंद्रित थी.
दिलचस्प है कि पिछले ढाई साल में खुद मोदी सरकार इनमें एक भी सिफारिश को सक्रिय नहीं कर पाई. सरकार ने सत्ता में आते ही मंडी (एपीएमसी ऐक्ट) कानून को खत्म करने या उदार बनाने की कोशिश की थी लेकिन इसे बीजेपी शासित राज्यों ने भी भाव नहीं दिया. एनडीए सरकार ने पूर्व खाद्य मंत्री और बीजेपी नेता शांता कुमार के नेतृत्व में एक समिति बनाई थी जिसने एफसीआइ के विभाजन व पुनर्गठन को खारिज कर दिया और खाद्य प्रबंधन व आपूर्ति तंत्र में सुधार जहां का तहां ठहर गया. 
मोदी सरकार यदि लोगों के ''न की बात" समझ रही है तो उसे बाजार में आपूर्ति बढ़ाने वाले सुधार शुरू करने होंगे.अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमतों में गिरावट उनकी मदद को तैयार है. 
दरअसलमौसमी महंगाई उतनी बड़ी चुनौती नहीं है जितनी इस अपेक्षा का स्थायी हो जाना कि महंगाई कभी कम नहीं हो सकती. भारत में इस अंतर्धारणा ने महंगाई नियंत्रण की हर कोशिश के धुर्रे बिखेर दिए हैं. इस धारणा को तोडऩे की रणनीति तैयार करना जरूरी है अन्यथा मोदी सरकार को महंगाई के राजनैतिक व चुनावी नुक्सानों के लिए तैयार रहना होगाजो सरकार के पुरानी होने के साथ बढ़ते जाएंगे.

Monday, July 11, 2016

... तो फिर मत लाइये जीएसटी

जीएसटी का ड्राफ्ट कानून न आधुनिक है और न दूरदर्शी। यह निराश ही नहीं आशंकित भी करता है। 

यदि आप भी मानते हैं कि जीएसटी (गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स) के लागू होने के बाद कारोबार करना सांस लेने जितना आसान हो जाएगा और परतदार टैक्सों के जरिए बढऩे वाली महंगाई से मुक्ति मिल जाएगीतो आप को एक बार केंद्र सरकार के मॉडल जीएसटी कानून (http://goo.gl/cxDWtx) को जरूर पढऩा चाहिएजो जीएसटी का आधार बनेगा और जिसे संसद के आगामी सत्र में मंजूर कराने की कोशिश की जाएगी.

हम जानते हैं कि सरकार के कानून कतई पठनीय नहीं होते. लेकिन कठिनता और पेच-परतों के बावजूद इस कानून को पढऩा जरूरी है. इसे पढ़कर ही यह पता चल सकेगा कि इस कानून से निकलने वाला जीएसटी भारत का सबसे बड़ा टैक्स सुधार नहीं बल्कि बड़ी मुसीबत बनने के खतरों से लैस है. 

जीएसटी कानून के मकडज़ाल में उतरते हुए यह याद रखना जरूरी है कि इस कर सुधार के तीन मकसद हैं: पहलापूरे देश में दर्जनों टैक्स हैं जो भारत को एक कॉमन मार्केट बनाने में सबसे बड़ी बाधा हैं. जीएसटी से पूरे देश में उत्पादनबिक्री और सेवाओं पर समान दर से एक टैक्स लगेगा और भारत एक निर्बाध बाजार में बदल जाएगा.

दूसराभांति-भांति के टैक्स महंगाई बढ़ाते हैंजीएसटी के तहतकस्टम ड्यूटी के अलावा केंद्र और राज्यों के सभी इनडाइरेक्ट टैक्स (एक्साइजसर्विसवैटचुंगी आदि) एक साथ मिलाए जाएंगे जिससे टैक्स की प्रभावी दर कम होगी. इसके तहत निर्माता और सेवा प्रदाताओं कोउत्पादन और सेवा के अलग स्तरों पर लगने वाले टैक्स वापस होंगे जिससे अंतिम उत्पाद या सेवा पर सिर्फ एक टैक्स लगेगा और महंगाई कम होगी.

तीसराजीएसटी एक सहज टैक्स प्रशासन लेकर आएगा जिसमें कारोबार करना बेहद आसान हो जाएगा.

इन्हीं तीन वजहों से जीएसटी को लेकर उम्मीदों का सूचकांक हमेशा आसमान पर चढ़ा रहा. लेकिन इन उम्मीदों से प्रभावित कोई व्यक्ति अगर जीएसटी कानून को पढ़े तो वह इसमें आधुनिक टैक्स सिस्टम और कारोबार की सहजता तलाशता रह जाएगा.
जीएसटी सबूत है कि सरकार जो कह रही हैंकानून उसका ठीक उलटा करने वाला है. इसमें एक नहीं बल्कि कई ऐसे प्रावधान हैं जो भविष्योन्मुखी और आधुनिक टैक्स ढांचा देने के बजाए मौजूदा टैक्स प्रणाली को ही कई साल पीछे धकेल सकते हैं.

बानगी के लिए टैक्स पंजीकरण को ही लें जो कि टैक्सेशन का बुनियादी पहलू है और कारोबारियों की सबसे बड़ी सांसत है. यह कानून लागू हुआ तो दर्जनों टैक्स रजिस्ट्रेशन कराने होंगे. जीएसटी के प्रस्तावित तीन स्तरीय टैक्स (सेंट्रलस्टेटइंटीग्रेटेड) ढांचे के तहत पूरे देश में माल बेचने या सप्लाई करने वालों को हर राज्य में तीन अलग-अलग पंजीकरण कराने होंगे और अलग-अलग रिटर्न भरते हुए टैक्स का हिसाब रखना होगा.

यही नहींअगर कोई कंपनी कई तरह के कारोबार करती है तो सभी कारोबारों का अलग-अलग पंजीकरण होगा. अब यह सरकार ही बता सकती है कि असंख्य रजिस्ट्रेशनों और रिटर्न की व्यवस्था के बाद जीएसटी कारोबार को कैसे आसान करेगाहकीकत यह है कि जीएसटी में पंजीकरण का यही अकेला प्रावधान इस पूरे सुधार को पटरी से उतार देगा क्योंकि भारत में कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) पहले ही काफी ऊंची हैजो जीएसटी के बाद कई गुना बढ़ सकती है.

एक और प्रावधान काबिलेगौर है जो देश में अलग-अलग राज्यों में संचालन करने वाली कंपनियों या प्रतिष्ठानों पर भारी पड़ेगा. जीएसटी ऐक्ट के तहत अगर कोई कंपनी अपनी ही किसी शाखा या इकाई को माल या सेवा भेजती है तो इस पर टैक्स लगेगा. माल या सेवा पाने वाली इकाई इस टैक्स की वापसी के लिए बाद में दावा करेगी. यह प्रावधान जीएसटी से देश में कॉमन मार्केट बनने की उम्मीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि है.

इनपुट टैक्स क्रेडिट जीएसटी की जान हैजिसके तहत उत्पादन या आपूर्ति के दौरान कच्चे माल या सेवा पर चुकाए गए टैक्स की वापसी होती है. यही व्यवस्था एक उत्पादन या सेवा पर बार-बार टैक्स का असर खत्म करती है पर इससे जुड़ा प्रावधान अनोखा है. जीएसटी ऐक्ट कहता है कि सप्लायर ने सरकार को टैक्स नहीं चुकाया है तो उस सेवा या कच्चे माल का इस्तेमाल करने वाला निर्माता टैक्स क्रेडिट का दावा नहीं कर सकेगा. यह प्रावधान जीएसटी के मिलने वाले फायदों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा होगा.

एक्साइज और सर्विस टैक्स कानूनों में जटिल परिभाषाओं और प्रावधानों के कारण सुप्रीम कोर्टहाइकोर्टट्रिब्यूनलों और अपील कमिशनरों के पास 1.20 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं. जीएसटी कानून में भी असंगतियों और पेचदार परिभाषाओं की बहुतायत है जो कानूनी जटिलताएं बढ़ाएंगी और मनमाने नोटिस भेजने का मौका देंगी.

जीएसटी के मॉडल ऐक्ट को पढ़ते हुए यह समझना मुश्किल नहीं कि अधिकारियों ने जीएसटी कानून को पुराने कस्टमएक्साइजसर्विसेज और वैट कानूनों की असंगतियों का पुलिंदा बना दिया है. उम्मीद यह थी कि जीएसटी के जरिए आधुनिकसहज और दूरदर्शी टैक्स सिस्टम मिलेगा. अगर यह मॉडल कानून है और इसके आधार पर राज्‍यों के एसजीएसटी (स्‍टेट जीएसटी) कानून बनेंगे तो फिर कारोबारी सहजता की उम्‍मीदों का ऊपर वाला ही मालिक है। 

इस कानून को देखने के बाद जीएसटी में कारोबारी सहजता की उम्मीदें किनारे लग गई हैं. रही बात समेकित कर ढांचे की तो तीन स्तरीय जीएसटी में न स्टांप ड्यूटी शामिल होगीन मोटर वेहिकल टैक्स और कुछ राज्यों में तो चुंगी शामिल होने पर भी शक है. पेट्रोल-डीजल पर लगने वाला टैक्स जीएसटी के अतिरिक्त होगा. मंदीराज्यों के राजस्व में गिरावट और वेतन आयोग के कारण बढ़े खर्चों की वजह से जीएसटी की दर ऊंची ही रहनी है. इनडाइरेक्ट टैक्स की औसत दर इस समय 24 फीसदी हैइसे देखते हुए जीएसटी रेट 18 से 20 फीसदी के बीच रह सकता है जिसका मतलब है कि सर्विस टैक्स की दर में चार से छह फीसदी का इजाफा होगा और कई स्तरों पर उत्पाद शुल्क वैट भी बढ़ेगा.


जीएसटी की राजनीति नहीं बल्कि इसका अर्थशास्त्रक्रियान्वयन और प्रशासन महत्वपूर्ण है. क्रांतिकारी सुधार दिखाने को बेचैन सरकार को इससे चाहे जो राजनैतिक उम्मीदें हों लेकिन जीएसटी जिस तरह आकार ले रहा हैवह आर्थिक अवसरों के बजाए पूरे टैक्स सिस्टम में असंगतियों और अराजकता के रास्ते खोल सकता है. उम्मीद है कि हमारे नेता इतने संवेदनशील सुधार को लेकर 'आ बैल मुझे मारनहीं करेंगे.

Tuesday, December 22, 2015

टैक्‍सेशन की नई पीढ़ी


असंगत कर ढांचे की बहस को कालीन के नीचे दबाकर जीएसटी पर आगे बढऩा खतरनाक हो सकता है

दि हम यह याद रख पाते कि कि कच्चे तेल की ग्लोबल कीमत 37 डॉलर प्रति बैरल तक गिर चुकी है लेकिन टैक्स के कारण डीजल 46 से 54 रु. और पेट्रोल 61 से 68 रु. प्रति लीटर पर मिल रहा है तो शायद हम जीएसटी की चर्चाओं में जरूरी अर्थ भर सकते थे. यदि हम जीएसटी से ग्रोथ बढऩे की खामखयाली छोड़कर उन तजुर्बों पर बहस करते जो हमें जीएसटी के पूर्वज यानी वैल्यू एडेड टैक्स लागू करने के दौरान मिले थे तो शायद हमें जीएसटी और टैक्स सिस्टम को ठीक करने में ज्यादा मदद मिलती. बहरहाल, अब जबकि राजनीतिक पैंतरों को छोड़ लगभग पूरा सियासी कुनबा जीएसटी की जरूरत पर सहमत है तो अब मौका है कि इस बहस को दो टूक किया जाए और इसे संसद से सड़क तक ले जाया जाए क्योंकि जीएसटी, भारत की विशाल आबादी की खपत, निवेश और रोजगारों पर ऐसा असर छोड़ेगा जो पिछले कई दशकों में नजर नहीं आया है.
असंगत कर ढांचे की बहस को कालीन के नीचे दबाकर जीएसटी पर आगे बढऩा खतरनाक हो सकता है. वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार की ताजी रिपोर्ट ने जीएसटी को लेकर 12 फीसदी की न्यू्नतम दर, सेवाओं और उत्पादों के लिए 17 से 19 फीसदी की मध्यम दर और 40 फीसदी की सर्वोच्च दरों का ढांचा सुझाया है. इन तीनों दरों की गहराई में जाना जरूरी है. 12 फीसदी की न्यूनतम दर का मतलब है कि अब केंद्र और राज्य में एक्साइज और वैट को लेकर इकाई की दरों का दौर खत्म हो जाएगा यानी कि तमाम उत्पाद जो 6-8 फीसदी टैक्स के तहत हैं उन पर 12 फीसदी टैक्स लगेगा. दूसरी दर के तहत सर्विस टैक्स 14.5 फीसदी से बढ़कर 19 फीसदी पर पहुंच जाएगा. हो सकता है पेट्रो उत्पादों के लिए एक नई दर आए जो 20 फीसदी के इर्दगिर्द होगी. लक्जरी उत्पादों के लिए 40 फीसदी की दर प्रस्तावित है. अगर दरें इतनी भी रहें तो भी जीएसटी हमें बहुत महंगा पड़ेगा.
जीएसटी का ढांचा पत पर ज्यादा और कमाई पर कम टैक्स उस पुराने सिद्धांत से निकला है जिसे बदलने की हमें जरूरत थी. कई बड़े सुधारों के बावजूद हम अपने कर ढांचे को आधुनिक, सहज और उत्साही नहीं बना सके. दुनिया के देशों में कमाई पर ज्यादा और खपत पर सीमित टैक्स लगता है लेकिन भारत के वित्त मंत्री टैक्स और कॉर्पोरेट कर घटाकर लोकप्रियता बटोरते हैं जबकि एक्साइज, सर्विस टैक्स आदि इनडाइरेक्ट रेट बढ़ाकर खुद को चतुर साबित करते हैं. डाइरेक्ट टैक्स का फायदा एक छोटे-से वर्ग को मिलता है लेकिन इनडाइरेक्ट टैक्स बढ़ते ही बहुत बड़ी आबादी की खपत सीमित हो जाती है.
टैक्स का बुनियादी सिद्धांत कहता है कि टैक्स बेस यानी करदाताओं की तादाद बढऩे के साथ कर दरें कम होनी चाहिए. लेकिन अर्थव्यवस्था में ग्रोथ के साथ उत्पादन, खपत और करदाताओं की तादाद बढऩे के बावजूद इनडाइरेक्ट टैक्स (एक्साइज, सर्विस टैक्स, सेस, सरचार्ज) लगातार बढ़े हैं. इसके बदले आयकर और कॉर्पोरेट कर की दरें घटने के बावजूद करदाताओं की संख्या बमुश्किल चार करोड़ लोगों तक पहुंची है, जो आबादी के केवल तीन फीसदी है.
वैट को लेकर हमारा तजुर्बा ताकीद करता है कि जीएसटी की अधिकतम दर तय करने का सुझाव उपयोगी है. राज्यों में सेल्स टैक्स की जगह वैल्यू एडेड टैक्स 2005 से लागू हुआ था. उसमें भी तीन तरह की दरें प्रस्तावित थीं लेकिन लागू होने के तीन साल के भीतर ही पूरा अनुशासन हवा हो गया. अब अलग-अलग राज्यों में एक ही उत्पाद पर अलग-अलग टैक्स हैं और वैट लागू होने के बाद ज्यादातर उत्पाद ऊंची कर दरों के स्लैब में चले गए हैं.
ऊंची कर दरें कारोबार को मुश्किल बनाने की सबसे बड़ी वजह हैं इसलिए कारोबारी सहजता की बहसें भी कर ढांचे पर आकर ठहर जाती हैं. एक और बड़ी विसंगति यह है कि अंतरराष्ट्रीय अनुबंधों के कारण सीमा शुल्क की दरें तेजी से घटी हैं जिनकी भरपाई एक्साइज और सर्विस टैक्स बढ़ाकर की गई. इस प्रक्रिया में देश में उत्पादन महंगा हुआ और निवेश कम और उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मकता घटती गई. जीएसटी की दरें नीचे रखकर ही प्रतिस्पर्धा और मांग बढ़ाने के लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं.
भारत में करों की पीढ़ी बदलने का वक्त आ रहा है. देश को अब ग्रीन टैक्स लगाने होंगे जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली खपत और उत्पादन को रोकते हों. इनमें कंजेशन टैक्स, पॉल्यूशन टैक्स, ग्रीन एनर्जी टैक्स होंगे जो दुनिया के देशों में आजमाए जा रहे हैं. इन नए करों की शुरुआत से पहले सामान्य आर्थिक खपत को महंगा करने वाले इनडाइरेक्ट टैक्स को कम करना जरूरी है अन्यथा भारत का कर ढांचा बुरी तरह असंगत होकर उद्यमिता, मांग और निवेश की उम्मीदों को ध्वस्त कर देगा.
दरअसल टैक्स की बहस सरकारी खर्च कम करने की तरफ मुडऩी चाहिए. लोकलुभावन खर्च के कारण खपत पर टैक्स (इनडाइरेक्ट) को निचोड़ा गया है. सरकारों को अपना आकार और भूमिका सीमित करनी होगी ताकि खपत सिकोडऩे वाली टैक्स थोपने की आदत से निजात मिल सके. यह कतई जरूरी नहीं है कि जीएसटी संसद के इसी सत्र में पारित हो जाए, ज्यादा जरूरी यह है कि ऐसा जीएसटी हमें मिले जो उपभोक्ता और निवेशक के तौर पर हमारी मुसीबतें कम करता हो. अगर ऊंचे टैक्स वाला जीएसटी लागू हुआ तो इसके नतीजे न केवल आर्थिक तौर पर विस्फोटक होंगे बल्कि राजनीतिक तौर पर भी इनका विपरीत असर होगा.
जीएसटी के ताजा विमर्श में इन सवालों से मुठभेड़ बेहद जरूरी है कि क्या जीएसटी का मौजूदा ढांचा भारत में निवेश और कारोबार को आसान करेगा? क्या जीएसटी कर ढांचे में वह असंगतियां दूर करेगा जिनके कारण हम खपत पर लगे भारी टैक्सों का देश हो गए हैं, जो मांग और बेहतर जीवन स्तर की उम्मीदों का गला घोंटते है? और क्या हम जीएसटी के बाद ऐसी व्यवस्था बनते देख पाएंगे जो सरकार को टैक्स लगाने पर नहीं बल्कि फालतू के खर्च सीमित करने पर प्रेरित करती हो? ये तीनों सवाल एक-दूसरे से जुड़े हैं और उपभोक्ताओं, व्यापारियों और निवेशकों को संसद की बहस से इन सवालों के माकूल जवाब चाहिए क्योंकि, एक अदद खराब जीएसटी हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा.

Sunday, November 22, 2015

मुश्किलों के अच्‍छे दिन


स्‍वच्‍छ भारत सेस लगाने के ताजा तरीके ने यह साबित किै कि सरकार में कुछ भी नहीं बदला है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस समय लंदन के वेंबले स्टेडियम में गरज रहे थे और भारत को कारोबार के लिए आदर्श जगह बता रहे थे, ठीक उसी समय देश के उद्यमी और व्यापारी स्वच्छ भारत सेस (उपकर) की गुत्थियों से उलझ रहे थे जो भारत में कारोबार को आसान बनाने को लेकर किए गए ताजा दावों की चुगली खाता है. अपनी अपारदर्शिता के चलते सेस यानी उपकर टैक्सेशन में सबसे निचले दर्जे के उपकरण हैं, ऊपर से इसे लगाने के ताजा तरीके ने यह साबित कर दिया है कि सरकार में कहीं कुछ नहीं बदला है. राज्यों को नरेंद्र मोदी सरकार का सेस राज्य चिंतित कर रहा है और रही बात उपभोक्ताओं की तो उनके लिए तो समझ से ही परे है कि महंगाई की मार के बीच सरकार इनडाइरेक्ट टैक्स बढ़ाकर क्या साबित और हासिल करना चाहती है.
सेस कभी भी ऐसे नहीं लगाए गए जैसे कि एनडीए सरकार स्वच्छ भारत सेस लेकर आई. सेस लगाने के समय और तरीके ने सरकार में सूझ की घोर कमी को साबित किया है. 6 नवंबर को सर्विस टैक्स पर 0.5 फीसदी स्वच्छ भारत सेस लगाने की अधिसूचना जारी हुई और 15 नवंबर से यह लागू हो गया. यह पता नहीं कौन-सी कारोबारी सहजता थी जो महीने के बीच से एक नया कर लगा दिया गया. उद्यमियों व व्यापारियों को बिलों व रिटर्न में इस सेस का अलग से हिसाब करना होगा लेकिन त्योहारी छुट्टियों के बीच उनके पास नई एकाउंटिंग की तैयारी का समय तक नहीं था, इस बीच स्वच्छ भारत सेस उनके सिर पर आकर खड़ा हो गया. इस सेस को लेकर तीन अलग-अलग अधिसूचनाएं जारी की गईं जो बला की भ्रामक थीं. इसके बाद एक लंबी प्रेस रिलीज जारी हुई और फिर आई एक विस्तृत प्रश्नोत्तरी. इस पूरी कवायद के बाद किसी को यह मुगालता नहीं रहा कि केंद्रीय सीमा व उत्पाद शुल्क बोर्ड ने इस सेस को लेकर कोई तैयारी नहीं की थी. शायद बिहार विधानसभा चुनाव खत्म होने का इंतजार था जिसके बाद इसे अचानक थोप दिया गया. बेचारे व्यापारी सर्विस टैक्स की दर में ताजा बढ़ोतरी के मुताबिक अपने बिल वाउचर ठीक कर पाते, इससे पहले ही उनके लिए नया मोर्चा खुल गया है.
स्वच्छ भारत सेस में स्वच्छता की बड़ी कमी है. इसे लगाने के बाद सर्विस टैक्स की दर करीब 14.50 फीसदी हो जाएगी. बजट में जब सर्विस टैक्स (एजुकेशन सेस सहित) की दर 12.36 फीसदी से बढ़ाकर 14 फीसदी की गई थी उसी वक्त इस सेस को जोड़ कर सर्विस टैक्स को 14.50 फीसदी किया जा सकता था या फिर सरकार अगले बजट तक रुक सकती थी, जिसमें अब केवल तीन माह बचे हैं. ध्यान रहे कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट में 2 फीसदी की दर से स्वच्छ भारत सेस लगाने का ऐलान किया है यानी अभी और सेस लगेगा या सर्विस टैक्स की दर को बढ़ाकर 16 या 18 फीसदी किया जाएगा. यदि सरकार जीएसटी के जरिए कारोबार को आसान करने का दावा कर रही है तो यह सेस उन दावों का बिल्कुल उलटा है, क्योंकि एनडीए सरकार के इस नए सेस राज से कारोबारियों के लिए कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) बुरी तरह बढऩे वाली है.
यह सेस राज नए किस्म के अपारदर्शी इनडाइरेक्ट टैक्स सिस्टम की आहट है, जिसकी उम्मीद मोदी सरकार से तो नहीं थी जो यह मानती रही है कि परतदार करों का मकडज़ाल, महंगाई की सबसे बड़ी वजह है. प्राथमिक शिक्षा व उच्च शिक्षा सेस, पेट्रोलियम पर रोड डेवलपमेंट सेस, निर्यातों पर सेस पहले कायम हैं. इसी बजट में सरकार ने कोयले पर क्लीन एनर्जी सेस की दर दोगुनी कर दी है. इसके बाद स्वच्छ भारत सेस के साथ वित्त मंत्री ने सेस परिवार में नया सदस्य जोड़ दिया है. मोदी सरकार के पहले दो बजट अप्रत्यक्ष करों से भरपूर रहे हैं. सरकार का अप्रत्यक्ष कर संग्रह बेहतर रफ्तार दिखा रहा है इसलिए नए टैक्स टाले जा सकते थे. सरकार को यह सोचना पड़ेगा कि क्या मंदी से जूझती अर्थव्यवस्था इनडाइरेक्ट टैक्स की इतनी मार झेल सकती है और क्या टैक्स राज के जरिए महंगाई की आंच बढ़ाकर सरकार अपने लिए राजनैतिक मुसीबत नहीं न्योत रही है?
सरकार का सेस राज जीएसटी पर सहमति की राह में भी बाधा बनने को तैयार है. मोदी सरकार ने केंद्रीय करों में राज्यों का हिस्सा बढ़ाने की वित्त आयोग की सिफारिश मानने के बाद राजस्व में कमी को पूरा करने के लिए सेस और सरचार्ज की बारिश कर दी है. सभी तरह के सेस व सरचार्ज से केंद्र सरकार को करीब 1.15 लाख करोड़ रु. का राजस्व मिलने का अनुमान है. राज्य सरकारें यह सवाल जरूर उठाएंगी कि केंद्र सरकार बुनियादी टैक्स ढांचे से किनारा करते हुए सेस व सरचार्ज के जरिए राजस्व जुटा रही है जो वित्तीय संघवाद के माफिक नहीं है. मोदी सरकार जब जीएसटी पर राज्यों को सहमत करने की कोशिश कर रही है तो इस तरह की राजस्व चालाकी से बचना चाहिए था. यह सेस राज न केवल उद्योगों, उपभोक्ताओं की मुसीबत है बल्कि राज्यों के बीच केंद्र की साख को भी कम करेगा.
टैक्सेशन को लेकर मोदी सरकार के अठारह महीनों का कामकाज यह बताता है कि या तो सरकार में एक हाथ को यह पता नहीं है कि दूसरा हाथ क्या कर रहा है अथवा फिर कहीं कोई योजना ही नहीं है और व्यवस्था ज्यों की त्यों है. भारत में कारोबारी सहजता का परचम लेकर दुनिया में घूम रहे प्रधानमंत्री इस तथ्य से अनभिज्ञ कैसे हो सकते हैं कि उनकी सरकार का टैक्स प्रशासन भारत में धंधे को मुश्किल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. पहले इनकम टैक्स, मैट के फैसलों ने निवेशकों की उम्मीदें तोड़ी थीं और अब एक्साइज व सर्विस टैक्स की बारी है.
क्या प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री कुछ ठहर कर यह जांचने की कोशिश करेंगे कि उनके वादों और हकीकत के बीच अंतर नहीं बल्कि एक खाई तैयार हो चुकी है जो सरकार की साख को हर दिन निगल रही है? उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि बदलाव के अवसरों की भी उलटी गिनती शुरू हो चुकी है.