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Friday, March 8, 2019

सवाल हैं तो सुरक्षा है


अगर 1999 या 2000 आज (2019) जैसा होता तो हम कभी यह नहीं जान पाते कि करगिल के युद्ध में सरकार या सेना ने क्या गलती की थी? उस युद्ध में जितनी बहादुरी सेना ने दिखाई थी उतनी ही वीरता से सामने आया था भारत का लोकतंत्र, सवाल जिसके प्राण हैं.

करगिल के बाद भारत में ऐसा कुछ अनोखा हुआ था जिस पर हमें बार-बार फख्र करना चाहिए. करिगल की जांच के लिए तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने एक समिति बनाई. यह समिति सरकारी नहीं थी लेकिन कैबिनेट सचिव के आदेश से इसे अति गोपनीय रणनीतिक दस्तावेज भी दिखाए गए.

बहुआयामी अधिकारी और रणनीति विशेषज्ञ के. सुब्रह्मण्यम के नेतृत्व में इस समिति ने न केवल सुरक्षा अफसरों से बल्कि तत्कालीन और पूर्व प्रधानमंत्रियों, रक्षा मंत्रियों, विदेश मंत्रियों यहां तक कि पूर्व राष्ट्रपति से भी पूछताछ की. करीब 15 खंड और 14 अध्यायों की इसकी रिपोर्ट ने करगिल में भयानक भूलों को लेकर सुरक्षा, खुफिया तंत्र और सैन्य तैयारियों की धज्जियां उड़ा दीं.

अगर 2017 भी आज जैसा होता तो फिर हम यह कभी नहीं जान पाते कि भारत की फटेहाल फौज के पास दस दिन के युद्ध के लायक भी गोला-बारूद नहीं है. सीएजी ने 2015 में ऐसी ही पड़ताल की थी. अगर 1989 भी आज की तरह होता तो बोफोर्स पर एक मरियल-सी सीएजी रिपोर्ट (राफेल जैसी) सामने आ जाती.

सेना या सुरक्षा बलों से रणनीति कहीं नहीं पूछी जाती. लेकिन लोकतंत्र में सेना सवालों से परे कैसे हो सकती है? रणनीतिक फैसले यूं ही कैबिनेट की सुरक्षा समिति नहीं करती है, जहां सेनानायक भी मौजूद होते हैं. इस समिति में वे सब लोग होते हैं जो अपने प्रत्येक आचरण के लिए देश के प्रति जवाबदेह हैं.

लोकतंत्र के संविधान सरकारों को सवालों में घेरते रहने का संस्थागत आयोजन हैं. संसद के प्रश्न काल, संसदीय समितियां, ऑडिटर्स, उनकी रिपोर्ट पर संसदीय जांच... सेना या सैन्य प्रतिष्ठान इस प्रश्न-व्यवस्था के बाहर नहीं होते.

लोकतंत्र में वित्तीय जवाबदेही सबसे महत्वपूर्ण है. सैन्य तंत्र भी संसद से मंजूर बजट व्यवस्था का हिस्सा है जो टैक्स या कर्ज (बैंकों में लोगों की बचत) पर आधारित है. इसलिए सेना के खर्च का भी ऑडिट होता है, जिसमें कुछ संसद से साझा किया जाता है और कुछ गोपनीय होता है.

पाकिस्तान में नहीं पूछे जाते होंगे सेना से सवाल लेकिन भारत में सैन्य प्रतिष्ठान से पाई-पाई का हिसाब लिया जाता है. गलतियों पर कैफियत तलब की जाती है. सेना में भी घोटाले होते हैं. जांच होती है.

लोकतंत्र में निर्णयों और उत्तरदायित्वों का ढांचा संस्‍थागत है, व्यक्तिगत नहीं. सियासत किसी एक व्यक्ति को पूरी व्यवस्था बना देती है, जिसमें गहरे जोखिम हैं इसलिए समझदार राजनेता हमेशा संस्था‍ओं का सुरक्षा चक्र मजबूत करते हैं ताकि संस्थाएं जिम्मेदारी लें और सुधार करें.

करगिल के बाद भी राजनीति हुई थी. कई सवाल उठे थे, संसद में बहस भी हुई. सेना को कमजोर करने के आरोप लगे लेकिन तब शायद लोकतंत्र ज्यादा गंभीर था इसलिए सरकार ने सेना और अपनी एजेंसियों पर सवालों व जांच को आमंत्रित किया और स्वीकार किया कि करगिल की वजह भयानक भूलें थीं. सुब्रह्मण्यम की रिपोर्ट पर कार्रवाई के लिए मंत्रिसमूह बना.

मई 2012 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने संसद को बताया था कि करगिल समीक्षा रिपोर्ट की 75 में 63 सिफारिशें लागू की जा चुकी हैं. इन पर क्रियान्वयन के बाद भारत में सीमा प्रबंधन पूरी तरह बदल गया, खुफिया तंत्र ठीक हुआ, नया साजो-सामान जुटाया गया और सेना की कमान को समन्वित किया गया. करगिल पर उठे सवालों की वजह से हम पहले से अधिक सुरक्षित हो गए.

जोश चाहे जितना हो लेकिन उसमें लोकतंत्र का होश बने रहना जरूरी है. सवालों की तुर्शी और दायरा बढऩा परिपक्व लोकतंत्र का प्रमाण है जबकि सत्ता हमेशा सवालों के दायरे से बाहर रहने का उपक्रम करती है, जो गलतियों व जोखिम को सीधा न्योता है.

क्या हम नहीं जानना चाहेंगे कि पुलवामा, उड़ी और पठानकोट हमलों में किसी एजेंसी की चूक थी? इनकी जांच का क्या हुआ? क्या सैन्य साजो-सामान जुटाने में देरी की वजह या अभियानों की सफलता- विफलता की कैफियत नहीं पूछना चाहेंगे?

राजनेता कई चक्रों वाली सुरक्षा में रहते हैं. खतरे तो आम लोगों की जिंदगी पर हैं. शहीद फौजी होता है. लोकतंत्र में सरकार से सवाल पूछना सबसे बड़ी देशभक्ति‍ है क्योंकि सवाल ही हमारा सबसे बड़ा सुरक्षा कवच हैं.

Sunday, August 12, 2018

सवाल हैं तो आस है


 
गूगल 2004 में जब अपना पहला पब्लिक इश्यू (पूंजी बाजार से धन जुटाना) लाया था तब मार्क जकरबर्गफेसमैश (फेसबुक का पूर्वज) बनाने पर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का गुस्सा झेल रहे थेक्योंकि उन्होंने यूनिवर्सिटी के डेटाबेस से छात्रों की जानकारियां निकाल ली थीं. इंटरनेट, गूगल के जन्म (1998) से करीब दस साल पहले शुरू हुआ. मोबाइल तो और भी पहले आया1970 के दशक की शुरुआत में.

आज दुनिया की कुल 7.5 अरब आबादी में (55 फीसदी लोग शहरी) करीब 4.21 अरब लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और 5.13 अरब लोगों के पास मोबाइल है. (स्रोतः आइटीयूग्लोबल वेब इंडेक्स)

पांच अरब लोगों तक पहुंचने में मोबाइल को 48 साल और इंटरनेट को चार अरब लोगों से जुडऩे में 28 साल लगेलेकिन सोशल नेटवर्क केवल एक दशक में 3.19 अरब लोगों तक पहुंच गए.

सोशल नेटवर्क के फैलने की रफ्तारइंटरनेट पर खोज की दीवानगी से ज्यादा तेज क्यों थी?

क्या लोग खोजने से कहीं ज्यादा पूछनेबताने के मौके चाहते थेयानी संवाद के?

सोशल नेटवर्कों की अद्भुत रफ्तार का रहस्यइक्कीसवीं सदी के समाजराजनीतिअर्थशास्त्र की बनावट में छिपा है. इंटरनेट की दुनिया यकीनन प्रिंटिंग प्रेस वाली दुनिया से कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक हो गई थीफिर भी यह संवाद लोकतंत्र के जन्म (16-17वीं सदी) से आज तक एकतरफा ही तो था. 
सोशल नेटवर्क दोतरफा और सीधे संवाद की सुविधा लेकर आए थे. और लोकतंत्र पूरा हो गया. लोग अब सीधे उनसे सवाल पूछ सकते थे जो जिम्मेदार थे. वे जवाब न भी दें लेकिन लोगों के सवाल सबको पता चल सकते हैं.

प्रश्न पूछने की आजादी बड़ी आजादी क्यों है?

संवैधानिक लोकतंत्रों के गठन में इसका जवाब छिपा है. संसदीय लोकतंत्र आज भी इस बात पर रश्क करता है कि उसके नुमाइंदे अपने प्रधानमंत्री से सीधे सवाल कर सकते हैं. 

इक्कीसवीं सदी में लोकतंत्र के एक से अधिक मॉडल विकसित हो चुके हैं. लेकिन इनके तहत आजादियों में गहरा फर्क है. रूस हो या सिंगापुरचुनाव सब जगह होते हैं लेकिन सरकार से सवाल पूछने की वैसी आजादी नहीं है जो ब्रिटेनअमेरिका या भारत में है. इसलिए अचरज नहीं कि जैसे ही सोशल नेटवर्क फैलेभाषाएं आड़े नहीं आईं और उन देशों ने इन्हें सबसे तेजी से अपनाया जिनमें लोकतंत्र नगण्य या सीमित था. अरब मुल्कों में प्रिंटिंग प्रेस सबसे बाद में पहुंची लेकिन फेसबुक ट्विटर ने वहां क्रांति करा दी. चीन सोशल नेटवर्क का विस्तार तो रोक नहीं सका लेकिन अरब जगत से नसीहत लेकर उसने सरकारी सोशल नेटवर्क बना दिए.

संसदीय लोकतंत्र के संविधान सरकार को चैन से न बैठने देने के लिए बने हैं. सत्ता हमेशा टी बैग की तरह सवालों के खौलते पानी में उबाली जाती है. चुनाव लडऩे से पहले हलफनामेसंसद में लंबे प्रश्न कालसंसदीय समितियांऑडिटर्सऑडिटर्स की रिपोर्ट पर संसदीय समितियांविशेष जांच समितियांहर कानून को अदालत में चुनौती देने की छूटसवाल पूछती अदालतेंविपक्षमीडिया...इन सबसे गुजरते हुए टी बैग (सरकार) को बदलने या फेंकने (चुनाव) की बारी आ जाती है.

भारत की अदालतों में लंबित मुकदमों को देखकर एक बारगी लगेगा कि लोग सरकार पर भरोसा ही नहीं करते! लोग सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहते हैं. यानी कि जो सवाल कानून बनाते समय नुमांइदे नहीं पूछ पातेउन्हें लोगों की ओर से अदालतें पूछती हैं.

लोकतंत्र में प्रश्नों का यह चिरंतन आयोजन केवल सरकारों के लिए ही बुना गया है. वजह यह कि लोग पूरे होशो-हवास में कुछ लोगों को खुद पर शासन करने की छूट देते हैं और अपनी बचतें व टैक्स उन्हें सौंप देते हैं. सरकारें सवालों से भागती हैं और लोकतंत्र की संस्थाएं उन्हें रह-रह कर सवालों से बेधती रहती हैं. 

इक्कीसवीं सदी में अब चुनाव की आजादी ही लोकतंत्र नहीं हैचुने हुए को सवालों में कसते रहने की आजादी अब सबसे बड़ी लोकशाही है इसलिए जैसे ही सोशल नेटवर्क फैलेलोगों ने समूह में सवाल पूछने प्रारंभ कर दिए.

प्रश्नों का तंत्र अब पूरी तरह लोकतांत्रिक हो रहा है. क्यों केवल पत्रकार ही कठोर सवाल पूछेंलोकतंत्रों में अब ऐसी संस्कृति विकसित करने का मौका आ गया है जब प्रत्येक व्यक्ति को सरकार से कठोर से कठोर प्रश्न पूछने को प्रेरित किया जाए.

सत्ता का यह भ्रम प्रतिक्षण टूटते रहना चाहिए कि जो उत्सुक या जिज्ञासु हैंवे मूर्ख नहीं हैं. और कई बार सवालजवाबों से कहीं ज्यादा मूल्यवान होते हैं.



Saturday, April 21, 2018

आईने से चिढ़



- पिछले महीने मध्य प्रदेश की विधानसभा के सदस्यों की एक बड़ी आजादी जाते-जाते बची. राज्य विधानसभा में सवाल पूछने के अधिकार सीमित किए जा रहे थे और माननीयों को पता भी नहीं था. प्रस्ताव चर्चा के लिए अधिसूचित हो गया. लोकतंत्र की फिक्र की पत्रकारों ने. सवाल उठे और अंतत: पालकी को लौटना पड़ा.

- एक और पालकी दिल्ली में लौटी. राजीव गांधी के मानहानि विधेयक की तर्ज पर सूचना प्रसारण मंत्रालय ने गलत खबरों को रोकने के बहाने खबरों की आजादी पर पंजे गड़ा दिए. विरोध हुआ और प्रधानमंत्री ने भूल सुधार किया.

- राजस्थान सरकार भी चाहती थी कि अफसरों और न्यायाधीशों पर खबर लिखने से पहले उससे पूछा जाए. लोकतंत्र की बुनियाद बदलने की यह कोशिश भी अंतत: खेत रही.

- और सबसे महत्वपूर्ण कि बहुमत के बावजूद विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव से डरी सरकार ने संसद का पूरा सत्र गवां दिया लेकिन विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव रखने के हक का इस्तेमाल नहीं करने दिया.

लोकतंत्र बुनियादी रूप से सरकार से प्रश्न, उसकी आलोचना, विरोध और निष्पक्ष चुनाव (जिसमें इनकार या स्वीकार छिपा है) पर टिका है. ऊपर की चारों घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि लोकतंत्र की छाया में पले-बढ़े लोग उन्हीं मूल्यों का गला दबाना चाहते हैं जो उन्हें सत्ता तक लाए हैं.

प्रश्न
मध्य प्रदेश सरकार के चुने हुए प्रतिनिधि अपनी आजादी को सूली पर चढ़ाने जा रहे थे. सरकार चाहती थी कि वे वीआइपी सुरक्षा (खास तौर से मुख्यमंत्री की सुरक्षा), सांप्रदायिक राजनीति आदि पर सवाल न पूछें.

क्यों?

अगर जनता के नुमाइंदे भी सवाल नहीं पूछेंगे, तो भला कौन पूछेगा?

अमेरिका के अध्यक्षीय लोकतंत्र में प्रश्नोत्तरकाल नहीं है. अमेरिकी कांग्रेस इसे शुरू करने पर चर्चा कर रही है ताकि सांसद सरकार से सीधे सवाल पूछ सकें. संसदीय लोकतंत्र इस मामले में ज्यादा आधुनिक है. इसमें सदन का पहला सत्र ही प्रश्नकाल होता है यानी दिन की शुरुआत सरकार को सवालों में कठघरे में खड़ा करने से होती है.

संविधान निर्माता चाहते थे कि सरकारें हर छोटे-बड़े सवालों का सामना करें. उनसे मौखिक ही नहीं, लिखित जवाब भी मांगे जाएं. सवालों पर कोई रोक न हो. संसद की एक (आश्वासन) समिति सवालों में सरकार के झूठ सच पर निगाह रखती है.

अभी तक  सरकारें प्रश्न से जुड़ी सूचनाएं अभी एकत्रित की जा रही हैं कहकर बच निकलती थीं लेकिन अब तो उन्हें  सवालों से ही डर लग रहा है. कोई गारंटी नहीं कि मध्य प्रदेश जैसी कोशिश फिर नहीं होगी.

शायद इससे हमारे नुमाइंदों पर कोई फर्क नहीं पड़ता! उनके लिए लोकतंत्र का मतलब बदल चुका है.

विपक्ष
संसद में पहला अविश्वास प्रस्ताव 1963 में नेहरू के खिलाफ आया था. अब तक कुल 26 बार अविश्वास प्रस्ताव आए हैं जिनमें 25 असफल रहे. सिर्फ एक प्रस्ताव ऐसा था जिस पर मतदान से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इस्तीफा दे दिया था.

इसके बावजूद संसद की परंपरा है, सभापति अविश्वास प्रस्ताव को किसी दूसरे कामकाज पर वरीयता देते हैं. यह सिद्ध करना संसद का दायित्व है कि देश को सरकार पर भरोसा है. सरकारें भी इस प्रस्ताव पर मतदान में देरी नहीं करतीं क्योंकि इसके गिरने से उन्हें ताकत मिलती है.

अचरज है कि इस बार बहुमत वाली सरकार जिसे कोई खतरा नहीं था, वह अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने से डर गई. उसने एक नई परंपरा शुरू कर दी. अब अगली सरकारें अविश्वास प्रस्ताव को रोकने के लिए खुद ही संसद नहीं चलने देंगी. दिलचस्प है कि विधायकों को सवाल पूछने से रोकने वाले मध्य प्रदेश सरकार के प्रस्ताव में यह प्रावधान भी था कि सत्ता पक्ष के विधायक विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ विश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं.

हम विपक्ष या विरोध के बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं कर सकते. यह समझना जरूरी है कि जिन्होंने तेजतर्रार विपक्ष के तमगे जुटाए थे, वे ही अब हर विरोध में षड्यंत्र देखते हैं और सरकार पर उठे हर सवाल को पाप मानते हैं.

सत्तारूढ़ राजनैतिक दलों के नेतृत्व को खुशफहमी की बीमारी सबसे पहले घेरती है. उन्हें वही बताया या सुनाया जाता है जो वे सुनना चाहते हैं. यह बीमारी उन्हें अधिनायक में बदलने लगती है. सवाल, आलोचनाएं, विरोध और निगहबानी वे आईने हैं जिनमें हर सरकार को अपना अक्स बार-बार देखना चाहिए, इन्‍हें तोडऩे वाले तुझे ख्याल रहे, अक्स तेरा भी बंट जाएगा कई हिस्सों में.


Tuesday, January 30, 2018

जवाबदेही का 'बजट'

बजट की फिक्र में दुबले होने से कोई फायदा नहीं है. आम लोगों के बजट (खर्च) को बनाने या बिगाडऩे वाला बजट अब संसद के बाहर जीएसटी काउंसिल में बनता है. दरअसल, बजट को लेकर अगर किसी को चिंतित होने की जरूरत है तो वह स्वयं संसद है. लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था को इस बात की गहरी फिक्रहोनी चाहिए कि भारत की आर्थिक-वित्तीय नीतियों के निर्धारण में उसकी भूमिका किस तरह सिमट रही है

अमेरिका में सरकार का ठप होना अभी-अभी टला है. सरकारी खर्च को कांग्रेस (संसद) की मंजूरी न मिलने से पूरे मुल्क की सांस अधर में टंग गई. लोकतंत्र के दोनों संस्करणों (संसदीय और अध्यक्षीय) में सरकार के वित्तीय और आर्थिक कामकाज पर जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च संस्थाओं (संसद-विधानसभाओं) के नियंत्रण के नियम पर्याप्त स्पष्ट हैं.

सरकार के वित्तीय व्यवहार पर संसद-विधानसभाओं का नियंत्रण दो सिद्धांतों पर आधारित हैः एक—प्रतिनिधित्व के बिना टैक्स नहीं और दूसरा—सरकार के बटुए यानी खर्च पर जनता के नुमाइंदों का नियंत्रण. इसलिए भारत में सरकारें (केंद्र व राज्य) संसद की मंजूरी के बिना न कोई टैक्स लगा सकती हैं और न खर्च की छूट है. बजट (राजस्व व खर्च) की संसद से मंजूरी—विनियोग विधेयक, अनुदान मांगों, वित्त विधेयक, कंसोलिडेटेड फंड (समेकित निधि)—के जरिए ली जाती है. भारत में सरकार संसद की मंजूरी के बिना केवल 500 करोड़ रु. खर्च कर सकती है और वह भी आकस्मिकता निधि से, जिसका आकार 2005 में 50 करोड़ रु. से बढ़ाकर 500 करोड़ रु. किया गया था.

पिछले एक दशक में सरकार के खर्च और राजस्व का ढांचा बदलने से सरकारी वित्त पर संसद और विधानसभाओं का नियंत्रण कम होता गया है. जीएसटी सबसे ताजा नमूना है.

- जीएसटी से पहले तक अप्रत्यक्ष कर वित्त विधेयक का हिस्सा होते थे, संसद में बहस के बाद इनमें बदलाव को मंजूरी मिलती थी. खपत पर टैक्स की पूरी प्रक्रिया, अब संसद-विधानसभाओं के नियंत्रण से बाहर है. जीएसटी कानून को मंजूरी देने के बाद जनता के चुने हुए नुमाइंदों ने इनडाइरेक्ट टैक्स पर नियंत्रण गंवा दिया. जीएसटी काउंसिल संसद नहीं है. यहां दो दर्जन मंत्री मिलकर हर महीने टैक्स की दरें बदल देते हैं. इन बदलावों का क्या तर्क है? इससे किसे फायदा है? जीएसटी काउंसिल में होने वाली चर्चा सार्वजनिक क्यों नहीं होती? टैक्स लगाने के लिए प्रतिनिधित्व की शर्त जीएसटी काउंसिल पर कितनी खरी उतरती है? जीएसटी के सदंर्भ में संसद और सीएजी की क्या भूमिका होगी? संसद और विधानसभाओं को इन सवालों पर चर्चा करनी चाहिए.

- भारत में सरकारों की खर्च बहादुरी बेजोड़ है. कर्ज पर निर्भरता बढ़ने से ब्याज भुगतान हर साल नया रिकॉर्ड बनाते हैं. कर्ज पर ब्याज की अदायगी बजट खर्च का 18 फीसदी है, जिस पर संसद की मंजूरी नहीं (चाज्र्ड एक्सपेंडीचर) ली जाती. राज्य सरकारों, पंचायती राज संस्थाओं और अन्य एजेंसियों के दिए जाने वाले अनुदान बजट खर्च में 28 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. सीएजी की पिछली कई रिपोर्ट बताती रही हैं कि करीब 20 फीसदी अनुदानों पर संसद में मतदान नहीं होता यानी कि लगभग 38 फीसदी (ब्याज और अनुदान) खर्च संसद के नियंत्रण से बाहर है.

- रेल बजट के आम बजट में विलय (2017) से रेलवे का तो कोई भला नजर नहीं आया लेकिन रेलवे बजट पर भी संसद का सीधा नियंत्रण खत्म हो गया. रेल का खर्च और राजस्व किसी दूसरे विभाग की तरह बजट का हिस्सा है.

- पिछले तीन साल में वित्तीय फैसलों पर, राज्यसभा से कन्नी काटने के लिए मनी बिल (सिर्फ लोकसभा) का इस्तेमाल खूब हुआ है. गंभीर वित्तीय फैसलों में अब पूरी संसद भी शामिल नहीं होती.

उदारीकरण के बाद आर्थिक फैसलों में पारदर्शिता के लिए संसद की भूमिका बढऩी चाहिए थी लेकिन...

- स्वदेशी को लेकर आसमान सिर पर उठाने वाले क्या कभी पूछना चाहेंगे कि विदेशी निवेश के उदारीकरण के फैसलों में संसद की क्या भूमिका है, इन फैसलों को संसद कभी परखती क्यों नहीं है.

- अंतरराष्ट्रीय निवेश, व्यापार और टैक्स रियायत संधियां तो संसद का मुंह भी नहीं देखतीं. विश्व के कई देशों में इन पर संसद की मंजूरी ली जाती है.


जब आर्थिक फैसलों में संसद की भूमिका का यह हाल है तो विधानसभाओं की स्थिति क्या होगी? केंद्रीय बजट के करीब एक-तिहाई से ज्यादा खर्च के लिए जब सरकार को संसद से पूछने की जरूरत न पड़े और एक तिहाई राजस्व जुटाने के लिए टैक्स लगाने या बदलने का काम संसद के बाहर होता हो तो चिंता उन्हें करनी चाहिए जो लोकतंत्र में संसद के सर्वशक्तिमान होने की कसमें खाते हैं.

Monday, December 4, 2017

माननीय सभासदो...

लोकतंत्र की सफलता को मापने का सबसे बेहतर पैमाना क्या हो सकता है
नतीजों से नीतियों की ओर चलते हैं. यह सफर हमें नौकरशाहीक्रियान्वयनमॉनिटरिंग के पड़ावों से गुजारते हुए विधायिका की दहलीज पर ले जाकर खड़ा कर देगा.
हम खुद को संसद या विधानसभा के दरवाजे पर खड़ा पाएंगेजहां से कानून निकलते हैं.

लोकतंत्र में सरकारें कितनी सफल होती हैंयह इस बात पर निर्भर करता है कि उनके कानून कितने सुविचारित और दूरदर्शी हैं. जाहिर है कि कानूनों की गुणवत्ता विधायिकाओं की कुशलता पर निर्भर है यानी हमारे कानून निर्माताओं—सांसद-विधायकों की काबिलियत पर.

दो ताजे उदाहरण हमें भारत में विधायी दक्षता की स्थिति पर सोचने को मजबूर करते हैं.

पहला है इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्टसी (दीवालियापन) कानूनजिसमें एक साल के भीतर ही अध्यादेश के जरिए बड़ा बदलाव करना पड़ा है. पिछले साल दिसंबर से लागू हुआ कानून बीमार कंपनियों के पुनर्गठन और बकाया बैंक कर्ज की वसूली के लिए आधुनिकत्वरित कानूनी प्रक्रिया लेकर आया था. यह सुधार निवेश के माहौल को स्थायी बनाने और बैंक कर्ज का दुरुपयोग रोकने लिए जरूरी था. इसी कानून के चलते हाल में कारोबारी सहजता में भारत की रैंकिंग बेहतर हुई.

कानून लागू होते ही सरकार को पता चला कि इसका तो बेजा फायदा उठाया जा सकता है और उसका राजनैतिक नुक्सान हो सकता है इसलिए अब इसे सिर के बल खड़ा कर दिया गया. बहस जारी है कि अब यह कानून बैंकों व कंपनियों के कितने काम का बचा है और इसके बाद कर्ज वसूली और बीमार कंपनियों के पुनर्गठन की प्रक्रिया में कैसे तेजी बनी रहेगी. 

संशोधन पर तकनीकी बहस से ज्यादा बड़ा मुद्दा यह है कि सिर्फ एक साल में इतने बड़े बदलाव की जरूरत क्यों पड़ीदेश में बीमार कंपनियों से निबटने वाले कानूनों (सीका ऐक्टकंपनी कानूनसारफेसी ऐक्टकर्ज उगाही ट्रिब्यूनल) का इतिहास और इस तरह के मामलों के पर्याप्त अनुभव हैं लेकिन इसके बाद भी हम एक अचूक बैंकरप्टसी कानून क्यों नहीं बना सके?

दूसरा नमूना है जीएसटी विधायी कुशलता की हालत का. जीएसटी भी करीब एक दशक से बन रहा है ताकि उपभोक्ताओं और उद्योग पर करों का बोझ कम किया जा सकेकर प्रणाली आसान बनाई जा सके और ज्यादा करदाता टैक्स दायरे में आ सकें. लेकिन बनने के तीन माह के भीतर ही जीएसटी ध्वस्त हो गया. टैक्स रेट उलट-पलट हो गए और इस दौरान नियम इतने बदले कि उन्हें याद रखना मुश्किल हो गया. जीएसटी की विफलता ने भारत के इनडाइरेक्ट टैक्स ढांचे को गहरी चोट पहुंचाई है.

टैक्स को लेकर भी तजुर्बों की कमी नहीं है. वैट और सर्विस टैक्स लागू हो चुके हैं. वैट यानी वैल्यू एडेड टैक्स को अमल में लाने में वक्त लगा था लेकिन वह जीएसटी से ज्यादा टिकाऊ साबित हुआ. जीएसटी की जरूरतें और चुनौतियां पूरी तरह स्पष्ट थीं. राजनैतिक सहमति भी थी लेकिन लंबे इंतजार के बाद भी हमारे कानून निर्माता हमें एक कायदे का जीएसटी नहीं दे पाए.

कानूनी और नीतिगत विफलताओं की फेहरिस्त लंबी हो सकती है जो विधायिका की दक्षता पर उठने वाले सवालों को और व्यापक बना देगी. चुनावी दबावों के कारण नए बने कानूनों का ऐसा शीर्षासन (जीएसटीबैंकरप्टसी) अनोखा है. जो संसद कानून बनाती है वह इन बदलावों पर जब तक विचार करे तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.

भारत में विधायी अकुशलता की चुनौती बढ़ रही है. ताजा अनुभव हमें चार निष्कर्ष देते हैं:

1. जीएसटी व बैंकरप्टसी कोड का यह हाल नहीं होता. का हाल गवाह है कि सरकार कानून बनाने से पहले पर्याप्त शोध नहीं कर रही है

2. कानून से प्रभावित होने वाले पक्षों से संवाद नहीं होता. राजनेता स्वयं को सर्वज्ञ मानते हैं.

3. संसद में कानूनों पर बहस इतिहास बन चुकी है. संसद से बहुमत के दम पर पारित कराने के बाद अधकचरे कानून जनता के माथे मढ़ दिए जाते हैं.

4. खराब कानून विवादों में बदलते हैं और तब सरकार को लगता है कि अदालतें अपनी सीमा पार कर रही हैं.

दूरदर्शिता कानूनों की पहली जरूरत है. उनमें बार-बार बदलाव उनकी कमजोरी ही साबित करते हैं. जब हमारी संसद हमें एक साल तक टिक पाने वाले कानून नहीं दे पा रही है तो राज्यों की विधानसभाओं में कैसे कानून बन रहे होंगे. 




कानूनों की अधिकता जितनी खतरनाक है, खराब कानून से उतनी ही बड़ी मुसीबतें हैं. दुर्भाग्य से हमारे पास दोनों हैं.