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Monday, February 8, 2016

सबसे बड़े मिशन का इंतजार


खेती को लेकर पिछले छह दशकों की नसीहतें बताती हैं कि बहुत सारे मोर्चे संभालने की बजाए खेती के लिए एक या दो बड़े समयबद्ध कदम पर्याप्त होंगे. 

बीते सप्ताह प्रधानमंत्री जब फसल बीमा पर मन की बात कह रहे थे तो खेती को जानने-समझने वालों के बीच एक अजीब-सा अनमनापन था. इसलिए नहीं कि सरकारी कोशिशें उत्साह नहीं बढ़ातीं बल्कि इसलिए कि कृषि का राई-रत्ती समझने वाली भारतीय राजनीति खेती को लेकर अभी भी कितनी आकस्मिक है और तीन फसलें बिगडऩे के बाद भी आपदा प्रबंधन की मानसिकता से बाहर नहीं निकल सकी.
पिछले साल खरीफ व रबी की फसल खराब होने और किसान आत्महत्या की खबरों (दिल्ली के जंतर मंतर पर किसान की आत्महत्या) के साथ खेती में गहरे संकट की शुरुआत हो गई थी. मई में इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि खेती को लेकर नीतिगत और निवेशगत सुधार शुरू करने के अलावा अब कोई विकल्प नहीं है. अफसोस कि सरकार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के और बिगडऩे का इंतजार किया.
कृषि बीमा की पहल सिर माथे लेकिन अगर खेती की चुनौतियों को वरीयता में रखना हो तो शायद कुछ और ही करना होगा. फसल बीमा जरूरी है और नई स्कीम पिछले प्रयोगों से बेहतर है, फिर भी भारत में फसल बीमा का अर्थशास्त्र, स्कीमों की जटिलताएं और तजुर्बा, इनकी सफलता को लेकर बहुत मुतमइन नहीं करता.
खेती को लेकर पिछले छह दशकों की नसीहतें बताती हैं कि बहुत सारे मोर्चे संभालने की बजाए खेती के लिए एक या दो बड़े समयबद्ध कदम पर्याप्त होंगे. अगर अगला बजट खेती के प्रति संवेदनशील है तो उसे सिंचाई क्षमताओं के निर्माण को मिशन मोड में लाना होगा. सिर्फ 35 फीसदी सिंचित भूमि और दो-तिहाई खेती की बादलों पर निर्भरता वाली खेती बाजार तो छोड़िए, किसान का पेट भरने लायक भी नहीं रहेगी.
बारहवीं योजना के दस्तावेज के मुताबिक, देश में करीब 337 सिंचाई परियोजनाएं लंबित हैं, जिनमें 154 बड़ी, 148 मझोली और 35 विस्तार व आधुनिकीकरण परियोजनाएं हैं. केंद्र सरकार इस बजट से नेशनल इरिगेशन फंड (बारहवीं योजना में प्रस्तावित) बनाकर या समग्र सिंचाई व निर्माण कार्यक्रम लाकर इन परियोजनाओं को समयबद्ध ढंग से पूरा कर सकती है. मनरेगा को सिंचाई निर्माणों से जोड़कर ग्रामीण रोजगार के लक्ष्य भी संयोजित हो सकते हैं. सिंचाई ही दरअसल एक ऐसा क्षेत्र है जहां अभी बड़े निर्माणों की गुंजाइश है. इन निर्माणों से सीमेंट, स्टील, तकनीक व रोजगार की मांग बढ़ाई जा सकती है. 
सरकार के लिए दूसरा मिशन कृषि उत्पादों का घरेलू मुक्त बाजार होना चाहिए. याद कीजिए कि 2014 में सरकार ने राज्यों से मंडी कानून बदलने को कहा था लेकिन विपक्ष को तो छोड़िए, बीजेपी के राज्य भी कानून बदलने को राजी नहीं हुए. कृषि उत्पादों का मुक्त देशी बाजार खेती का संकटमोचक है, इसके बिना 125 करोड़ उपभोक्ताओं की ताकत खेती तक नहीं पहुंच सकती. वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, भारत का खाद्य और किराना कारोबार दुनिया में छठा सबसे बड़ा बाजार है जो 104 फीसदी की ग्रोथ के साथ 2020 तक 482 अरब डॉलर हो जाएगा.
छोटे-छोटे किसानों को मिलाकर बनी फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियां सामूहिक उत्पादन के जरिए छोटी जोतों का समाधान निकाल रही हैं. लोकसभा में 2014 में प्रस्तुत सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में करीब 235 फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियां पंजीकृत हो चुकी हैं. करीब 4.33 लाख किसान इसका हिस्सा होंगे. ठीक इसी तरह बिहार और मध्य प्रदेश में अनाज व तिलहन की रिकॉर्ड उपज, उत्तर प्रदेश में नई दुग्ध क्रांति, देश के कई हिस्सों में फल-सब्जी उत्पादन के नए कीर्तिमान और गुजरात में लघु सिंचाई क्षेत्रीय सफलताएं हैं.
इन सफलताओं को पूरे देश में कृषि उत्पादों का मुक्त बाजार चाहिए. भारत में मंडी कानून बदलने और एक कॉमन नेशनल एग्री मार्केट बनाने के लिए इससे बेहतर और कोई मौका नहीं हो सकता. केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन 12 राज्यों की सत्ता में मौजूद है. अगर एक दर्जन राज्य अपने मंडी कानून बदल लें तो बाकी राज्यों को राजी करना मुश्किल नहीं होगा.
नेताओं के लिए कृषि बेचारगी और सियासत का जरिया हो लेकिन किसानों की नई पीढ़ी इस तथ्य से वाकिफ है कि 125 करोड़ लोगों का पेट भरना नुक्सान का धंधा नहीं है. नए नजरिए से खेती को देखा जाए तो यह ऐसी आर्थिक गतिविधि बन चुकी है जिसे अपने बाजार की जानकारी है और पिछले एक दशक में उत्पादन (दोगुना), आय, विविधता बढ़ाकर, देश के किसानों ने अपने आधुनिक होने का सबूत दिया है. खेती को किसानों की उद्यमिता में चूक या मांग की कमी नहीं बल्कि सीमित सिंचाई और बंद बाजार मारते हैं. अगर इनका समाधान हो सके तो उभरते उपभोक्ता बाजार में खेती नई ताकत बन सकती है. 
भारत के इतिहास में 2007 में पहली बार ऐसा हुआ था जब केंद्र और राज्य सरकारों ने विशेष रूप से बैठक कर खेती पर व्यापक चर्चा की थी. यह बैठक राष्ट्रीय विकास परिषद के तहत हुई थी जो योजना आयोग की व्यवस्था में देश के विकास पर फैसले करने वाली सर्वोच्च संस्था थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खेती पर कुछ ऐसी ही बड़ी पहल करनी होगी, और राज्यों को साथ लेकर खेती पर समयबद्ध और ठोस रणनीति बनानी होगी.
आर्थिक और राजनैतिक, दोनों मोर्चों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बदहाली के नतीजे आ चुके हैं. कंपनियों के आंकड़े बता रहे हैं कि गांवों में ग्रोथ के बिना औद्योगिक अर्थव्यवस्था भी नहीं चल सकती. बिहार के चुनाव नतीजों ने भी बता दिया है कि गांवों को हल्के में लेना महंगा पड़ता है.

खेती मौसमी कारणों से दो दशकों के सबसे बुरे हाल में है लेकिन पिछले अच्छे दिन बताते हैं कि भारतीय कृषि अपना चोला बदलने को तैयार है. ताजा संकट से निबटने के लिए सब्सिडी बढ़ाने और कर्ज माफी के पुराने तरीके चुने जा सकते हैं या फिर बीमा स्कीमों या सॉयल हेल्थ कार्ड जैसे छोटे प्रयोगों को बड़ा बताया जा सकता है. दूसरा विकल्प यह है कि सिंचाई और मुक्त बाजार जैसे बड़े सुधारों की राह खोल कर खेती को चिरंतन आपदा प्रबंधन की श्रेणी से निकाल लिया जाए. ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण मोदी सरकार का सबसे बड़ा मिशन होना चाहिए, और 2016 का बजट इस मौके के सबसे करीब खड़ा है बशर्ते...!

Tuesday, July 14, 2015

यह तो मौका है!


सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था.
याने लोग कहते हैं कि बार-बार मौके मुश्किल से मिलते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी इस कहावत को गलत साबित कर रहे हैं. भारत की सामाजिक-आर्थिक गणना मोदी के लिए ऐसा अवसर लेकर आई है, जो शायद उनको मिले जनादेश से भी ज्यादा बड़ा है. देश की अधिकांश आबादी में गरीब और सामाजिक सुरक्षा के प्रयोगों की विफलता के आकलन पहले से मौजूद थे. ताजा सर्वेक्षण ने इन आकलनों को आंकड़ों का ठोस आधार देते हुए मोदी सरकार को, पूरे आर्थिक-सामाजिक नीति नियोजन को बदलने का अनोखा मौका सौंप दिया है.

इस सर्वेक्षण ने नीति नियोजन ढांचे की सबसे बड़ी कमी पूरी कर दी है. भारत दशकों से अपने लोगों की कमाई के अधिकृत आंकड़े यानी एक इन्कम डाटा की बाट जोह रहा था, जो हर आर्थिक फैसले के लिए अनिवार्य है. यहां सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के पांच बड़े नतीजों को जानना जरूरी है जो नीतियों और सियासत को प्रभावित करेंगेः (1) भारत में दस में सात लोग गांव में रहते हैं, (2) 30 फीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं और 51 फीसदी लोग सिर्फ मजदूर हैं, (3) गांवों में हर पांच में चार परिवारों में सर्वाधिक कमाने वाले सदस्य की अधिकतम आय 5,000 रु. प्रति माह है. यानी पांच सदस्यों के परिवार में प्रति व्यक्ति आय प्रति माह एक हजार रु. से भी कम है, (4) 56 फीसद ग्रामीण भूमिहीन हैं, (5) 36 फीसदी ग्रामीण निरक्षर हैं. केवल तीन फीसदी लोग ग्रेजुएट हैं. ये आंकड़े केवल ग्रामीण आबादी की आर्थिक स्थिति बताते हैं. इसी सर्वेक्षण का शहरी हिस्सा अभी जारी होना है. जो शायद यह बताएगा कि शहरों में बसे 11 करोड़ परिवारों में 35 लाख परिवारों के पास आय का कोई साधन नहीं है.
ग्रामीण और शहरी (अनाधिकारिक) आर्थिक सर्वेक्षण के तीन बड़े निष्कर्ष हैं. पहला, देश की 70 फीसदी आबादी ग्रामीण है. दूसरा, शहरों-गांवों को मिलाकर करीब 90 फीसदी आबादी ऐसी है जो केवल 200 से 250 रु. प्रति दिन पर गुजारा करती है, और तीसरा भारत में मध्य वर्ग केवल 11 करोड़ लोगों का है जिनके पास एक सुरक्षित नियमित आय है.
इस आंकड़े के बाद कोई भी यह मानेगा कि देश में नीतियों के गठन की बुनियाद बदलने का वक्त आ गया है जिसकी शुरुआत उन पैमानों को बदलने से होगी जो सभी आर्थिक-सामाजिक नीतियों का आधार हैं. देश में गरीबी की पैमाइश बदले बिना अब काम नहीं चलेगा क्योंकि इन आंकड़ों ने साबित किया है कि भारत में गरीबी पिछली सभी गणनाओं से ज्यादा है. खपत सर्वेक्षण, महंगाई की गणना, रोजगारों का हिसाब-किताब, सामाजिक सुरक्षा की जरूरत हैं. फॉर्मूले भी नए सिरे से तय होंगे. खपत को आधार बनाकर भारत में असमानता घटने का जो आकलन (गिन्नी कोइफिशिएंट) किया जाता रहा है, इस आंकड़े की रोशनी में वह भी बदल जाएगा.
इन पैमानों को बदलते ही सरकारी नीतियां एक निर्णायक प्रस्थान बिंदु पर खड़ी दिखाई देंगी. सामाजिक-आर्थिक सेंसस के आंकड़े साबित करते हैं कि भारत में मनरेगा जैसे कार्यक्रम राजनैतिक सफलता क्यों लाते हैं? सस्ते अनाज के सहारे रमन सिंह, नवीन पटनायक या सस्ते भोजन के सहारे जयललिता लोकप्रिय और सफल कैसे बने रहते हैं जबकि औद्योगिक निवेश और बुनियादी ढांचे की सफलता पर वोटर नहीं रीझते. अलबत्ता आंकड़े यह भी बताते हैं कि लोकलुभावन नीतियों का ढांचा सिर्फ लोगों को जिंदा रख सकता है, उनकी जिंदगी बेहतर नहीं कर सकता.
अर्थव्यवस्था पर आर्थिक सुधारों के प्रभाव के समानांतर इन आंकड़ों की गहरी पड़ताल की जाए तो शायद नीतियों के एक नए रास्ते की जरूरत महसूस होगी, जो विकास के पूरे आयोजन को बदलने, गवर्नेंस के बड़े सुधार, तकनीकों का इस्तेमाल, संतुलित रूप से खुले बाजार और नए किस्म की स्कीमों से गढ़ा जाएगा. गरीबी की राजनीति यकीनन बुरी है लेकिन जब 90 फीसदी लोगों के पास आय सुरक्षा ही न हो तो रोजगार या भोजन देने वाली स्कीमों के बिना काम नहीं चलता. ऐसे में सामाजिक सुरक्षा देने के नए तरीके खोजने होंगे और रोजगारों को मौसमी व अस्थायी स्तरों से निकालकर स्थायी की तरफ ले जाना होगा.
आप पिछले छह दशक की ग्रामीण बदहाली को लेकर कांग्रेस को कोसने में अपना वक्त बर्बाद कर सकते हैं लेकिन सच यह है कि इन आंकड़ों के सामने आने का यह सबसे सही वक्त है. कांग्रेस के राज में अगर ये आंकड़े आए होते तो लोकलुभावनवाद का चरम दिख जाता. केंद्र में अब ऐसी सरकार है जो अतीत का बोझ उठाने के लिए बाध्य नहीं है. इसके पास मौका है कि वह भारत में नीतियों का रसायन नए सिरे से तैयार करे.
सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण और पुराने तजुर्बे ताकीद करते हैं कि देश को नीतियों व स्कीमों के भारी मकडज़ाल की जरूरत नहीं है. अचूक तकनीक, मॉनिटरिंग, राज्यों के साथ समन्वय से लैस और तीन चार बड़े सामाजिक कार्यक्रम पर्याप्त हैं, जिन्हें खुले और संतुलित बाजार के समानांतर चलाकर महसूस होने वाला बदलाव लाया जा सकता है.
सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था. सर्वेक्षण के अनुसार 200 रु. से 250 रु. रोज पर गुजरा करने वाली अधिकांश आबादी के लिए बैंक खाते, बीमा वाली जनधन योजना लगभग बेमानी है. मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया या इस तरह के अन्य कार्यक्रम अधिकतम दस फीसदी लोगों को प्रभावित कर सकते हैं. यही वजह है कि दिहाड़ी पर जीने वाले 90 फीसदी और उनमें भी अधिकांश अल्पशिक्षित और अशिक्षित भारत पर मोदी सरकार के मिशन और स्कीमों का असर नजर नहीं आया है.
मोदी की नीतियों का पानी उतरे, उससे पहले देश की सामाजिक-आर्थिक हकीकत उनके हाथ में है. इन आंकड़ों की रोशनी में वे नीतियों और गवर्नेंस की नई शुरुआत कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें लोगों ने नई शुरुआत के लिए ही चुना है, अतीत की लकीरों पर नए रंग-रोगन के लिए नहीं.

Tuesday, May 5, 2015

सबसे बड़े सुधार का मौका


मोदी सरकार के लिए यह अवसर कृषि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़े निर्णायक सुधार शुरू करने का है. यह सुधार केवल लंबित और अनिवार्य हैं बल्कि बीजेपी के राजनैतिक भविष्य का बड़ा दारोमदार भी इन्हीं पर है.

नरेंद्र मोदी सरकार अपनी पहली सालगिरह के जश्न को कैसे यादगार बना सकती है? किसानों की खुदकुशी, गिरते शेयर बाजार, टैक्स नोटिसों से डरे उद्योग और हमलावर विपक्ष को देखते हुए यह सवाल अटपटा है लेकिन दरअसल मोदी जहां फंस गए हैं, उबरने के मौके ठीक वहीं मौजूद हैं. यह अवसर कृषि व ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़े और निर्णायक सुधार शुरू करने का है. जो न केवल आर्थिक सुधारों की शुरुआत से ही लंबित और अनिवार्य हैं बल्कि बीजेपी के राजनैतिक भविष्य का भी बड़ा दारोमदार इन्हीं पर है.
 सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार गांव व खेती की हकीकत से तालमेल नहीं बैठा सकी. पिछली खरीफ में आधा दर्जन राज्यों में सूखा पड़ा था. फरवरी में कृषि मंत्रालय ने मान लिया कि सूखी खरीफ और रबी की बुवाई में कमी से अनाज उत्पादन तीन साल के सबसे निचले स्तर पर रह सकता है. किसान आत्महत्या का आंकड़ा तो पिछले नवंबर में 1,400 पर पहुंच गया था. लेकिन दो बजटों में भी खेती को लेकर गंभीरता नहीं दिखी. इस साल मार्च में प्रधानमंत्री जब 'मन की बात' बताकर खेतिहरों को भूमि अधिग्रहण पर मना रहे थे तब तक तो दरअसल किसानों के जहर खाने का दूसरा दौर शुरू हो गया था. अगर त्वरित गरीबी नापने का कोई तरीका हो तो यह जानना मुश्किल नहीं है कि मौसमी कहर से 189 लाख हेक्टयर इलाके में रबी फसल की बर्बादी के बाद देश की एक बड़ी आबादी अचानक गरीबी की रेखा से नीचे चली गई है. इस मौके पर सरकार की बहुप्रचारित जनधन, आदर्श ग्राम या डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीमों ने कोई मदद नहीं की क्योंकि ये योजनाएं ग्रामीण अर्थव्यावस्था की हकीकत से वास्ता ही नहीं रखती थीं. ताजा कृषि संकट 2009 से ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि लगातार दो फसलें बिगड़ चुकी हैं और तीसरी फसल पर खराब मॉनसून का खौफ मंडरा रहा है. गांवों में मनरेगा के तहत रोजगार सृजन न्यूनतम स्तर पर आ गया है और शहर में रोजगारों की आपूर्ति पूरी तरह ठप है. इसलिए सिर्फ खेती नहीं बल्कि पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उबारने की चुनौती है जो दरअसल एक अवसर भी है.  भारतीय खेती उपेक्षा व असंगति और सफलता व संभावनाओं की अनोखी कहानी है. यदि पिछली खरीफ को छोड़ दें तो 2009 के बाद से अनाज उत्पादन और कृषि निर्यात लगतार बढ़ा है और ग्रामीण इलाकों की मांग ने मंदी के दौर में ऑटोमोबाइल व उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों को लंबा सहारा दिया है. अलबत्ता कृषि की कुछ बुनियादी समस्याएं हैं जो मौसम की एक बेरुखी में बुरी तरह उभर आती हैं और कृषि को अचानक दीन-हीन बना देती हैं. एक के बाद एक आई सरकारों ने खेती को कभी नीतियों का एक सुगठित आधार नहीं दिया. जिससे यह व्यवसाय हमेशा संकट प्रबंधन के दायरे में रहा.

कृषि की बुनियादी समस्याओं को सुधारने के सफल प्रयोग भी हमारे इर्दगिर्द फैले हैं और नीतिगत प्रयासों की कमी नहीं है. मसलन, जोत का छोटा आकार खेती की स्थायी चुनौती है जो इस व्यवसाय को लाभ में नगण्य और जोखिम में बड़ा बनाती है. फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियों में इसका समाधान दिखा है जिन्हें छोटे-छोटे किसान मिलकर बनाते हैं और सामूहिक उत्पादन करते हैं. सरकार ने पिछले साल लोकसभा में बताया था कि भारत में करीब 235 फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियां पंजीकृत हो चुकी हैं और 370 कतार में हैं. करीब 4.33 लाख किसान इसका हिस्सा होंगे. ठीक इसी तरह बिहार और मध्य प्रदेश में अनाज व तिलहन की रिकॉर्ड उपज, उत्तर प्रदेश में दूध की नई क्रांति, देश के कई हिस्सों में फल-सब्जी उत्पादन के नए कीर्तिमान, गुजरात में लघु सिंचाई क्षेत्रीय सफलताएं हैं, जिन्हें राष्ट्रीय बनाया जा सकता है. उर्वरक सब्सिडी में सुधारों का प्रारूप तैयार है. सिंचाई परियोजनाएं प्रस्तावित हैं. नए शोध जारी हैं मगर सक्रिय किए जाने हैं. नीतियां मौजूद हैं. बुनियादी ढांचा उपलब्ध है. इन्हें एक जगह समेटकर बड़े सुधारों में बदला जा सकता है. मोदी सरकार को ग्रामीण आर्थिक सुधारों की बड़ी पहल करनी चाहिए, जिस पर उसे समर्थन मिलेगा, क्योंकि फसलों की ताजा बर्बादी के बाद राज्य भी संवेदनशील हो चले हैं. कई राज्यों को एहसास है कि उनकी प्रगति का रास्ता खेतों से ही निकलेगा क्योंकि उनके पास उद्योग आसानी से नहीं आएंगे. मोदी सरकार नीति आयोग या मेक इन इंडिया की तर्ज पर सुधारों का समयबद्ध अभियान तैयार कर सकती है जो खेती और गांव के लिए अलग-अलग नीतियां बनाने की गलती नहीं करेगा बल्कि पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए समग्र सुधारों की राह खोलेगा. यकीनन, 125 करोड़ लोगों का पेट भरना कहीं से नुक्सान का धंधा नहीं है और करीब 83 करोड़ लोग यानी देश की 70 फीसद आबादी की क्रय शक्ति कोई छोटा बाजार नहीं है. मोदी के लिए सरकार में आने के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था की फिक्र करना संवेदनशीलता या दूरदर्शिता का तकाजा ही नहीं था बल्कि उन्हें गांवों की फिक्र इसलिए भी करनी चाहिए, क्योंकि उनकी पार्टी को पहली बार गांवों में भरपूर वोट मिले हैं, और सत्तर फीसद बीजेपी सांसद ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं और उनकी अगली राजनैतिक सफलताएं उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे ग्रामीण बहुल राज्यों पर निर्भर होंगी.
राहुल गांधी पर आप हंस सकते हैं लेकिन भूमि अधिग्रहण पर वे लोकसभा में मोदी को जो राजनैतिक नसीहत दे रहे थे, उसमें दम था. भारत में कृषि संकट और सियासत के गहरे रिश्ते हैं. 2002 भारत में सबसे बड़े सूखे का वर्ष था. वाजपेयी सरकार इस संकट से खुद को जोड़ नहीं पाई और 2004 के चुनाव में खेत रही. 2005 में मनरेगा का जन्म दरअसल 2002 के सूखे की नसीहत से हुआ था और जो भारत के ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम में एक बड़ा बदलाव था और बिखरने व घोटालों में बदलने से पहले न केवल प्रशंसित हुआ था बल्कि कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लाया.
मोदी सरकार चाहे तो इस कृषि संकट के बाद सब्सिडी बढ़ाने और कर्ज माफी जैसे पुराने तरीकों के खोल में घुस सकती है, या फिर बड़े सुधारों की राह पकड़ कर खेती को चिरंतन आपदा प्रबंधन की श्रेणी से निकाल सकती है. मोदी सरकार ने पिछले एक साल में कई बड़े मौके गंवाए हैं. अलबत्ता यह मौका गंवाना शायद राजनैतिक तौर पर सबसे ज्यादा महंगा पड़ेगा.


Tuesday, March 24, 2015

'जमीन' से कटी सियासत

 नेता हमेशा जनता की नब्ज सही ढंग से नहीं पढ़ते हैं. भूमि अधिग्रहण पर जल्‍दबाजी में मोदी सरकार ने काफी कुछ बिगाड़ लिया है।

भूमि अधिग्रहण पर बीजेपी के कुछ नेताओं की चर्चाओं से बाहर निकल कर आसपास के ग्रामीण इलाकों में भ्रमण किया जाए तो आप खुद से यह सवाल पूछते नजर आएंगे कि क्या इस कानून में बदलाव से पहले बीजेपी ने ग्रामीण राजनीति की जमीन पर अपनी मजबूती परखने की कोशिश की थी? अचरज उस वक्त और बढ़ जाता है जब निजी कंपनियों के कप्तान व निवेशक आंकड़ों के साथ यह बताते हैं कि मंदी अब गंवई व कस्बाई बाजारों में भी पैठ गई है जहां उपभोक्ता उत्पादों, बाइक, जेनसेट, भवन निर्माण सामग्री की मांग लगातार गिर रही है. जब तक शहरी बाजार दुलकी चाल नहीं दिखाते, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को झटका देना ठीक नहीं है. अलबत्ता सबसे ज्यादा विस्मय तब होता है जब राज्यों के अधिकारी यह कहते हैं कि उनकी सरकारें नए कानून के बाद ऊंचे मुआवजे पर किसानों को भूमि देने के लिए राजी करने लगी थीं लेकिन केंद्र सरकार की अध्यादेशी आतुरता के चलते जमीन राजनीति से तपने लगी है.

कांग्रेस का भूमि अधिग्रहण कानून उद्योगों के हक में नहीं था लेकिन वह एक लंबी राजनैतिक सहमति से निकला था जिसमें बीजेपी सहित सभी दल शामिल थे, जिनकी सरकारें अलग-अलग राज्यों में हैं. जमीन अंततः राज्यों का विषय है इसलिए राज्यों ने नए कानून के तहत अपने तरीके से किसानों को सहमत करने व राज्य के कानून में बदलाव के जरिए उद्योगों की चिंताओं को जगह देने की कवायद शुरू कर दी थी. उत्तर प्रदेश सरकार ने दो साल में करीब 30,000 हेक्टेयर जमीन किसानों से ली. यह एकमुश्त अधिग्रहण नहीं था बल्कि प्रत्येक भूस्वामी से जिलाधिकारियों ने सीधे बात की और उन्हें नए कानून के तहत मुआवजा देकर जमीन की रजिस्ट्री सरकार के नाम कराई. अगर उत्तर प्रदेश सरकार का आंकड़ा सही है तो ऐसी करीब 28,000 रजिस्ट्री हो चुकी हैं. बड़े भूमि अधिग्रहणों में प्रभावितों पर सामाजिक-आर्थिक असर के आकलन और 80 फीसदी भूस्वामियों की सहमति की शर्त बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में देरी की वजह बन सकती है. राजस्थान ने इसका समाधान निकालने के लिए राज्य के भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों को मुआवजे की राशि बढ़ाने का प्रस्ताव दिया. कुछ सुझाव राज्य विधानसभा सेलेक्ट कमेटी ने दिए जिससे कानून कमोबेश संतुलित हो गया. 

पश्चिम और दक्षिण के राज्यों ने लैंड पूलिंग के जरिए भूमि अधिग्रहण को सहज किया. इस प्रक्रिया में जमीन के छोटे-छोटे हिस्सों को किसानों से जुटाकर सरकार बड़ा पैकेज बनाती है और वहां बुनियादी ढांचा विकसित करने के बाद उससे विकास की लागत निकाल कर जमीन वापस भूस्वामियों को दे दी जाती है जिससे भूमि की कीमत बढ़ जाती है और विक्रेताओं को निजी डेवलपर्स से अच्छे दाम मिलते हैं. आंध्र प्रदेश सरकार ने विजयवाड़ा को अपनी नई राजधानी बनाने के लिए, लैंड पूलिंग के जरिए केवल तीन माह में 30,000 एकड़ जमीन किसानों से जुटा ली है. छत्तीसगढ़ सरकार ने नया रायपुर बसाने के लिए लैंड पूलिंग का ठीक उसी तरह सफल प्रयोग किया जैसा कि गुजरात में हुआ. जमीन पर राजनीति की आंधी शुरू होने के बाद आंध्र प्रदेश को अब विजाग एयरपोर्ट के लिए 15,000 एकड़ जमीन जुटाने में मुश्किल होगी और राजधानी दिल्ली में लैंड पूलिंग भी सहज नहीं रहेगी.
जमीन संवेदनशील है. राज्य सरकारें इसके अधिग्रहण को ज्यादा व्यावहारिक तौर पर संभाल सकती हैं. बेहतर होता कि उद्योग की जरूरतों के हिसाब से राज्य अपने कानूनों को बदलते जैसा कि उत्तर प्रदेश और राजस्थान में हुआ या फिर लैंड पूलिंग जैसी कोशिशें करते जो पश्चिम और दक्षिण के राज्यों ने कीं. लेकिन मोदी सरकार ने अति आत्मविश्वास में जमीन की जटिल राजनीति में खुद को उलझा लिया और राज्यों की कोशिशों को भी कमजोर कर दिया है.
एक सजग सरकार को ग्रामीण अर्थव्यव्स्था की ताजा सूरत देखते हुए खेतिहर जमीन पर ठहर कर बढऩा चाहिए था. नई सरकार ने आते ही समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी रोक दी. इससे महंगाई तो नहीं घटी लेकिन खेती से आय जरूर कम हो गई. मॉनसून औसत से खराब रहा. दुनिया में कृषि उत्पादों की कीमतें घटीं जिससे निर्यात भी कम हुआ. ग्रामीण इलाकों में मजदूरी बढऩे की दर अब घट गई है. इस बीच 2014 में  किसानों की आत्महत्या के मामलों में 26 फीसदी के इजाफे से खेती को लेकर बढ़ी चिंताओं की रोशनी में, भूमि अधिग्रहण को उदार करने के लिए राजनैतिक जमीन कतई सक्त हो चुकी है. 

भारत में दुपहिया वाहन, उपभोक्ता उत्पाद, जेनसेट, सीमेंट व भवन निर्माण सामग्री का बाजार बड़े पैमाने पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर निर्भर है. इन उत्पादों की कंपनियों के आंकड़े बिक्री और आय में बड़ी गिरावट दिखा रहे हैं. कंपनियों की चिंता यह है कि शहरी और औद्योगिक अर्थव्यवस्था में ग्रोथ की रोशनी अभी तक नहीं चमकी है. भूमि अधिग्रहण के बाद अगर गांवों में राजनैतिक माहौल बिगड़ा तो रही सही मांग और चुक जाएगी. भूमि अधिग्रहण पर सिर खपाने का यह सही वक्त नहीं था. आर्थिक ग्रोथ व रोजगार वापस लौटने के बाद इस तरफ मुडऩा बेहतर होता जबकि बीजेपी के नेता भुनभुना रहे हैं कि पार्टी ने चुनाव के दौरान भूमि अधिग्रहण पर मुंह तक नहीं खोला और सत्ता में आने के बाद, अब उन्हें आग का यह गोला किसानों के गले उतारने की जिम्मेदारी दी जा रही है.

भूमि अधिग्रहण को लेकर सियासी व आर्थिक तापमान परखने के बाद यह धारणा चोट खाती है कि नेता हमेशा जनता की नब्ज सही ढंग से पढ़ते हैं. बात केवल इतनी नहीं है कि भूमि अधिग्रहण पर अध्यादेश की जल्दबाजी ने हताश और बिखरे विपक्ष को एकजुट होने का मौका दे दिया है बल्कि इस कानून पर गतिरोध से देश के माहौल में उपजा फील गुड खत्म हो रहा है. भूमि अधिग्रहण में बदलाव जिद के साथ संसद से पारित भी हो जाए तो भी माहौल बेहतर नहीं पाएगा. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लोकसभा में चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर तंज कसा था कि मुझे राजनीति अच्छी तरह से आती है, लेकिन भूमि अधिग्रहण पर बदली सियासत तो कुछ और ही इशारा कर रही है.