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Friday, September 18, 2020

पांव के नीचे जमीन नहीं

 

प्रधान की भैंस तालाब के गहरे पानी में फंस गई. सलाहकारों ने गांव के सबसे दुबले और कमजोर व्यक्तिको आगे करते हुए कहा कि इसमें जादू की ताकत है, यह चुटकियों में भैंस खींच लाएगा. दुर्बल मजदूर को तालाब के किनारे ले जाकर भैंस की रस्सी पकड़ा दी गई. सलाहकार नारे लगाने लगे और देखते-देखते बेचारा मजदूर भैंस के साथ तालाब में समा गया.

इस घटना को देखकर आया एक यात्री अगले गांव में जब यह किस्सा सुना रहा था तब कोई एक बड़ा नेता टीवी पर देश को यह बता रहा था कि जीडीपी के -24 फीसद टूटने पर सवाल उठाने वाले नकारात्मक हैं. लॉकडाउन के बीच भी खेती की ग्रोथ नहीं दिखती?  नए कानूनों की गाड़ी लेकर निजी कंपनियां खेतों तक पहुंच रही हैं. मंदी बस यूं गई, समझो.

मंडियों में निजी क्षेत्र के दखल के कानूनों में नए बदलावों पर भ्रम हो सकता है लेकिन इस पर कोई शक नहीं कि दिल्ली का निजाम खेती की हकीकत से गाफिल है. उसे अभी भी लगता है कि उपज की मार्केटिंग में निजी क्षेत्र को उतार कर किसानों की कमाई बढ़ाई जा सकती है जबकि खेती की दरारें बहुत चौड़ी और गहरी हो चुकी हैं.

जहां समर्थन मूल्य बढ़ाने के बावजूद 2019 में किसानों को तिमाही वजीफा देना पड़ा था, उस खेती को महामंदी से उबारने की ताकत से लैस बताया जा रहा है. पहली तिमाही में 3.4 फीसद की कृषिविकास दर चमत्कारिक नहीं है. खेती के कुल उत्पादन मूल्य (जीवीए) में बढ़ोतरी बीते बरस से खासी कम (8.6 से 5.7 फीसद) है. यानी उपज का मूल्य न बढ़ने से, पैदावार बढ़ाकर किसान और ज्यादा गरीब हो गए.

खेती में आय पिछले चार-पांच वर्षों से स्थिर है, बल्कि महंगाई के अनुपात में कम ही हो गई है. 81.5 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास एक एकड़ से कम जमीन है. जोत का औसत आकार अब घटकर केवल 1.08 एकड़ पर आ चुका है. नतीजतन, भारत में किसान की औसत मासिक कमाई (प्रधानमंत्री के वजीफे सहित) 6,000 रुपए से ज्यादा नहीं हो पाती. यह 200 रुपए रोज की दिहाड़ी है जो कि न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है. क्या हैरत कि 2018 में 11,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की.

90 फीसद किसान खेती के बाहर अतिरिक्त दैनिक कमाई पर निर्भर हैं. ग्रामीण आय में खेती का हिस्सा केवल 39 फीसद है जबकि 60 फीसद आय गैर कृषिकामों से आती है. खेती से आय एक गैर कृषिकामगार की कमाई की एक-तिहाई (नीति आयोग 2017) है. जो शहरी दिहाड़ी से हुई बचत गांव भेजकर गरीबी रोक रहे थे लॉकडाउन के बाद वे खुद गांव वापस पहुंच गए हैं.

सरकार बार-बार खेती की हकीकत समझने में चूक रही है. याद है न समर्थन मूल्य पर 50 फीसद मुनाफे का वादा और उसके बाद बगलें झांकना या 2014 में भूमि अधिग्रहण कानून की शर्मिंदगी भरी वापसी. अब आए हैं तीन नए कानून, जो उपज के बाजार का उदारीकरण करते हैं और व्यापारियों के लिए नई संभावनाएं खोलते हैं.

फसलों से उत्पाद बनाने की नीतियां कागजों पर हैं. सरकार के दखल से उपजों का बाजार बुरी तरह बिगड़ चुका है. किसान ज्यादा उगाकर गरीब हो रहा है. जब सरकार ही उसे सही कीमत नहीं दे पाती तो निजी कारोबारी क्या घाटा उठाकर किसान कल्याण करेंगे.

कृषिमें अब दरअसल यह होने वाला हैः

खरीफ में अनाजों का बुवाई बढ़ना अच्छी खबर नहीं है. लॉकडाउन में नकदी फसलों में नुक्सान के कारण किसान फिर अनाज उगाने लगे हैं, जहां उन्हें कभी फायदे का सौदा नहीं मिलता.

घटती मांग के बीच अनाज की भरमार होने वाली है. खेती भी मंदी की तरफ मुखातिब है, स्थानीय महंगाई से किसान को कुछ नहीं मिलता बल्कि उपभोक्ता इस बोझ को उठाता है.

करीब 50 करोड़ लोग या 55 फीसद ग्रामीणों के पास जमीन का एक टुकड़ा तक नहीं है. देश में 90 लाख मजदूर मौसमी प्रवासी (जनगणना 2011) हैं, जो खेती का काम बंद होने के बाद शहर में दिहाड़ी करते हैं. लॉकडाउन के बाद ये सब निपट निर्धनता की कगार पर पहुंच गए हैं.

जरूरत से ज्यादा मजदूर, मांग से ज्यादा पैदावार और शहरों से आने वाले धन के स्रोत बंद होने से ग्रामीण आय में कमी तय है.

बीते 67 सालों में जीडीपी की वृद्धि दर 3 से 7.29 फीसद पर पहुंच गई लेकिन खेती की विकास दर 2 से 3 फीसद के बीच झूल रही है. इस साल भी कोई कीर्तिमान बनने वाला नहीं है. जीडीपी में केवल 17 फीसद हिस्से वाली खेती इस विराट मंदी से क्या उबारेगी. यह मंदी तो 43 फीसद रोजगारों को संभालने वाली इस आर्थिक गतिविधिको नई गरीबी की फैक्ट्री में बदलने वाली है.

सरकार को दो काम तो तत्काल करने होंगे. एकअसंख्य स्कीमों को बंद कर यूनिवर्सल बेसिक इनकम की शुरुआत और दूसरा न्यूनतम मजदूरी दर को महंगाई से जोड़ना.

सनद रहे कि गांवों के पास मंदी का इलाज होने या ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ताकत बताने वाले सिर्फ भरमा रहे हैं. गांवों की हकीकत दर्दनाक है. शहर जब तक मंदी की गर्त से निकल कर तरक्की की सीढ़ी नहीं चढ़ेंगे गांव उठकर खड़े नहीं होंगे.

Saturday, October 26, 2019

दांंव पर रोशनी


भारत की मौजूदा आर्थिक ढलान अगर लंबी चली तो?
ताजा आकलनों की मानें तो खतरा भरपूर है. अगर ऐसा हुआ तो अब, भारत के लिए उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि दांव पर है. हाल के दशकों में तेज विकास की मदद से भारत ने गरीबी कम करने में निर्णायक सफलता हासिल की है, मंदी का ग्रहण इसी रोशनी पर लगा है. विश्व बैंक और आइएमएफ के अगले आकलन भारत में गरीबी बढ़ने पर केंद्रित हों तो चौंकिएगा नहीं.

विश्व बैंक मानता है कि पिछले एक दशक में दुनिया में गरीबी की दर को आधा करने (2005 से 2015) की सफलता में भारत की भूमिका सबसे बड़ी है. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) विश्व में बहुआयामी गरीबी नाप-जोख करता है. इसकी ताजा रिपोर्ट (2018) बताती है कि भारत दुनिया का पहला देश है जिसने 2005-06 से 2015-16 के बीच करीब 27 करोड़ लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर निकाला और आबादी के प्रतिशत के तौर पर गरीबी करीब आधी यानी 55 फीसद से 28 फीसद रह गई. गरीबी में यह कमी गांव और शहर दोनों जगह हुई.

गरीबी में यह कमी भारत की सतत तेज आर्थिक विकास दर (औसत सात फीसद) के चलते आई लेकिन अब तो एक साल से कम समय में भारत (जुलाई ’18 से जुलाई ’19) दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था से सबसे तेजी से धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल गया है. यह गिरावट लंबी और तीखी है व गहरी भी.

रिजर्व बैंक, इक्रा या इंडिया रेटिंग्स से लेकर विश्व बैंक, आइएमएफ, मूडीज, फिच ने भारत की विकास दर के आकलन में बहुत कम समय में बहुत बड़ी (0.70 से एक फीसद तक) कटौती कर दी है जो अभूतपूर्व है. 

इस पर तुर्रा यह कि किसी भी एजेंसी को कम से कम 2022 तक ग्रोथ में तेजी की यानी 7 फीसद से ऊपर की विकास दर की उम्मीद नहीं है. ग्लोबल बाजार में मंदी आने का खतरा अलग से है. यानी कि कमाई, बचत, खपत की यह जिद्दी मंदी लंबी चलेगी और आठ-नौ फीसद या दहाई की विकास दर तो अब उम्मीदों की बहस से भी बाहर है.

ढहती ग्रोथ गरीबी से लड़ाई को कैसे कमजोर करेगी, इसके लिए हमें भारत की मंदी की जटिल परतों को खोलना होगा, जहां से पिछले दशक में आय में बढ़ोतरी निकली थी.

·       जीडीपी (जीवीए यानी मूल्य वर्धन पर आधारित) में खेती का हिस्सा (2014 से 2017 के बीच) 18.6 फीसद से 17.9 फीसद रह गया. खेती में न उत्पादन का मूल्य बढ़ा और न कमाई. यही वजह है कि 2018-19 में जीडीपी की विकास दर टूट गई

·       फैक्ट्री उत्पादन 81 माह के न्यूनतम पर है और पिछले तीन साल से बमुश्किल दो फीसद की गति से बढ़ रहा है. पिछले पांच साल में निजी औद्योगिक निवेश 11 साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया. कंपनियों की बिक्री नहीं बढ़ रही लेकिन कॉर्पोरेट टैक्स घटाने से मुनाफे बढ़े हैं. मांग आने तक कोई नए निवेश का जोखिम लेने को तैयार नहीं है 

·       छोटे उद्योग, जहां से कमाई और रोजगार आते हैं वहां कर्ज का संकट गहरा रहा है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, छोटे उद्योगों में कर्ज का बोझ बढ़ने की दर उनका उत्पादन बढ़ने की दोगुनी है

·       और सबसे महत्वपूर्ण यह कि यह मंदी विदेशी निवेश के रुपए के पर्याप्त अवमूल्यन (प्रतिस्पर्धा में बढ़त), भरपूर उदारीकरण, महंगाई में कमी, कई बड़े सुधारों (दिवालियापन कानून, रेरा, जीएसटी), सरकारी खर्च में जोरदार बढ़त और ब्याज दरों में कमी के बावजूद आई है

·       ग्रामीण मजदूरी की घटती दर, खेती में ज्यादा लोगों का रोजगार के लिए पहुंचना और गांवों में मनरेगा के लिए युवा मजदूरों की भरमार गांवों में गरीबी बढ़ने के शुरुआती संकेत हैं. शहरों में करीब 8 करोड़ लोग भवन निर्माण और छोटे उद्योगों में मंदी की मार झेल रहे हैं. यह बेकारी दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है

ये मूलभूत कारण हैं जिनसे भारत में आय, खपत और बचत में जल्दी सुधार को लेकर असमंजस है और दुनिया की एजेंसियां भारत में मंदी के टिकाऊ होने को लेकर फिक्रमंद हैं. पिछले आर्थिक संकटों (लीमन का डूबना, अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने का डर, चीन की मुद्रा के अवमूल्यन) के दौरान भारत की विकास दर तेजी से वापस लौटी. लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. भारतीय अर्थव्यवस्था क्रमश: धीमी पड़ी है. यानी लोगों की समग्र आय क्रमश: घट रही है.

हैरत की बात है कि पिछले पांच साल में सरकार ने गरीबी की पैमाइश और पहचान के नए फॉर्मूले को तैयार करने का काम ही रोक दिया. नीति आयोग ने जून 2017 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि गरीबों की पहचान या लोगों की आय नाप-जोख जरूरी नहीं है, इससे बेहतर है कि सरकारी योजनाओं के असर को मापा जाए.

ठीक उस वक्त हमें जब गरीबी के अन्य जटिल आयामों (मौसम, बीमारी, विस्थापन, विकास) के समाधान तलाशने थे और एक न्यूनतम जीवन स्तर उपलब्ध कराना था, हमारे पास गरीबों की पहचान का आधुनिक फॉर्मूला नहीं है और दूसरी तरफ ढहती ग्रोथ एक बड़ी आबादी को वापस गरीबी की खाई में ढकेलने वाली है. यह वक्त चुनावी शोर से बाहर निकल कर सच से नजरें मिलाने का है. यह मंदी 25 साल में भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि के लिए सबसे बड़ा अपशकुन है.


Monday, October 22, 2018

बाजी पलटने वाले!


सियासत अगर इतिहास को नकारे नहीं तो नेताओं पर कौन भरोसा करेगा? सियासत यह दुहाई देकर ही आगे बढ़ती है कि इतिहास हमेशा खुद को नहीं दोहराता लेकिन बाजार इतिहास का हलफनामा लेकर टहलता है, उम्मीदों पर दांव लगाने के लिए वह अतीत से राय जरूर लेता है. 
जैसे गांवों या खेती को ही लें.
इस महीने की शुरुआत में जब किसान दिल्ली की दहलीज पर जुटे थे तब सरकार को इसमें सियासत नजर आ रही थी लेकिन आर्थिक दुनिया कुछ दूसरी उधेड़बुन में थी. निवेशकों को 2004 और 2014 याद आ रहे थे जब आमतौर पर अर्थव्यवस्था का माहौल इतना खराब नहीं था लेकिन सूखा, ग्रामीण मंदी व आय में कमी के कारण सरकारें भू लोट हो गईं.
चुनावों के मौके पर भारतीय राजनीति की भारत माता पूरी तरह ग्रामवासिनी हो जाती है. अर्थव्यवस्था और राजनीति के रिश्ते विदेशी निवेश या शहरी उपभोग की रोशनी में नहीं बल्कि लोकसभा की उन 452 ग्रामीण सीटों की रोशनी में पढ़े जाते हैं जहां से सरकार बनती या मिट जाती है.
समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी और कर्ज माफी के बावजूद गांवों में इतनी निराशा या गुस्सा क्यों है?
पानी रे पानी: 2015 से 2018 तक भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरी मंदी से जूझती रही है. पहले दो साल (2015 और 2016) सूखा, फिर बाद के दो वर्षों में सामान्य से कम बारिश रही और इस साल तो मॉनसून में सामान्य से करीब 9 फीसदी कम बरसात हुई जो 2014 के बाद सबसे खराब मॉनसून है. हरियाणा, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र (प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक राज्य) में 2015 से 2019 के बीच मॉनूसन ने बार-बार धोखा दिया है. इन राज्यों के आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा 17 से 37 फीसदी तक है.
यह वह मंदी नहीं: दिल्ली के हाकिमों की निगाह अनाजों के पार नहीं जाती. उन्हें लगता है कि अनाज का समर्थन मूल्य बढ़ाने से गांवों में हीरे-मोती बिछ जाएंगे. लेकिन मंदी तो कहीं और है. दूध और फल सब्जी का उत्पादन बढऩे की रफ्तार अनाज की तुलना में चार से आठ गुना ज्यादा है. छोटे मझोले किसानों की कमाई में इनका हिस्सा 20 से 30 फीसदी है. पिछले तीन साल में इन दोनों उत्पाद वर्गों को मंदी ने चपेटा है. बुनियादी ढांचे की कमी और सीमित प्रसंस्करण सुविधाओं के कारण दोनों में उत्पादन की भरमार है और कीमतें कम. इसलिए दूध की कीमत को लेकर आंदोलन हो रहे हैं. उपभोक्ता महंगाई के आंकड़े इस मंदी की ताकीद करते हैं.
गांवों में गुस्सा यूं ही नहीं खदबदा रहा है. शहरी मंदी, गांवों की मुसीबत बढ़ा रही है. पिछले दो साल में बड़े पैमाने पर शहरों से गांवों की ओर श्रमिकों का पलायन हुआ है. गांव में अब काम कम और उसे मांगने वाले हाथ ज्यादा हैं तो मजदूरी कैसे बढ़ेगी?  
कमाई कहां है ?: गांवों में मजदूरी की दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गई जो पिछले दस साल का सबसे निचला स्तर है. एक ताजा रिपोर्ट (जेएम फाइनेंशियल-रूरल सफारी) बताती है कि सूखे के पिछले दौर में भवन निर्माण, बालू खनन, बुनियादी ढांचा निर्माण, डेयरी, पोल्ट्री आदि से गैर कृषि आय ने गांवों की मदद की थी. लेकिन नोटबंदी जीएसटी के बाद इस पर भी असर पड़ा है. गैर कृषि आय कम होने का सबसे ज्यादा असर पूर्वी भारत के राज्यों में दिखता है. इस बीच गांवों में जमीन की कीमतों में भी 2015 के बाद से लगातार गिरावट आई है.
महंगाई के पंजे: अनाज से समर्थन मूल्य में जितनी बढ़त हुई है उसका एक बड़ा हिस्सा तो रबी की खेती की बढ़ी हुई लागत चाट जाएगी. कच्चे तेल की आग उर्वरकों के कच्चे माल तक फैलने के बाद उवर्रकों की कीमत 5 से 28 फीसदी तक बढऩे वाली है. डीएपी की कीमत तो बढ़ ही गई है, महंगा डीजल रबी की सिंसचाई महंगी करेगा.
मॉनसून के असर, ग्रामीण आय में कमी और गांवों में मंदी को अब आर्थिक के बजाए राजनैतिक आंकड़ों की रोशनी में देखने का मौका आ गया है. याद रहे कि गुजरात के चुनावों में गांवों के गुस्से ने भाजपा को हार की दहलीज तक पहुंचा दिया था. मध्य प्रदेश जनादेश देने की कतार में है.  
हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां 2015 से 2019 के बीच दो से लेकर पांच साल तक मॉनसून खराब रहा है; ग्रामीण आय बढऩे की रफ्तार में ये राज्य सबसे पीछे और किसान आत्महत्या में सबसे आगे हैं.
सनद रहे कि ग्रामीण मंदी से प्रभावित इन राज्यों में लोकसभा की 204 सीटे हैं. और इतिहास बताता है कि भारत के गांव चुनावी उम्मीदों के सबसे अप्रत्याशित दुश्मन हैं.


Sunday, June 10, 2018

नई पहेली


गांव क्यों तप रहे हैं?

किसान क्यों भड़के हैं?

उनके गुस्से को किसी एक आंकड़े में बांधा जा सकता है?

आंकड़ा पेश-ए-नजर हैः

गांवों में मजदूरी की दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गई जो पिछले दस साल का सबसे निचला स्तर है. यह गांवों में खुशहाली को नापने का जाना-माना पैमाना है. चार साल की गिरावट के बाद, पिछले साल के कुछ महीनों के दौरान ग्रामीण मजदूरी बढ़ती दिखी थी लेकिन वेताल फिर डाल पर टंग गया है.

ठहरिए! यह गिरावट सामान्य नहीं है क्योंकि...

Ø पिछले साल मॉनसून बेहतर रहा और रिकॉर्ड उपज भी. इस साल भी अब तक तो बादल मेहरबान हैं ही

Ø  समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी इतनी भी बुरी नहीं रही.

Ø 2014 से अब तक आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, कर्नाटक में किसानों के कर्ज माफ किए गए या किए जा रहे हैं.

Ø  पिछले एक साल में केंद्र और राज्यों ने गांवों में रिकॉर्ड (2009 के बाद सर्वाधिक) संसाधन डाले.

Ø और सस्ता आयात रोकने के लिए गेहूं, चीनी, खाद्य तेल के आयात पर कस्टम ड्यूटी (हाल में चीनी पर 100 फीसदी, चने पर 50 फीसदी, गेहूं पर 30 फीसदी) बढ़ाई गई.

फिर भी गांवों में कमाई गिर रही है!

कमाई कम होना केवल वोट वालों के लिए ही डरावना नहीं है, गांव के बाजार पर टिकी मोबाइल, बाइक, साबुन, तेल, मंजन, दवा, कपड़ा, सीमेंट बनाने वाली सैकड़ों कंपनियां भी पसीना पोछ रही हैं.

सरकार को उसके हिस्से की सराहना मिलनी चाहिए कि उसने पिछले चार साल में अन्य सरकारों की तर्ज पर खेती में जगह-जगह आग बुझाने की भरसक कोशिश की है. इन कोशिशों में समर्थन मूल्य को अधिकतम सीमा तक बढ़ाने का वादा शामिल है. किसानों की आय दोगुनी करने के इरादे के नीचे नीतियों की नींव नजर नहीं आई लेकिन यह मानने में हर्ज नहीं कि सरकार गांवों में घटती आय की हकीकत से गाफिल नहीं है. 

दरअसल, खेती की छांव में उम्मीदों को पोसती ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पिछले दो साल में एक पहेलीनुमा बदलाव हुआ है. बादलों की बेरुखी खेती को तोड़ती है लेकिन अच्छे मेघ से कमाई नहीं उगती. सरकार की मदद का खाद-पानी भी बेकार जाता है.

क्या ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्थाओं का एकीकरण, गांव में गहरी मंदी की वजह है?

आंकड़ों के भूसे से धान निकालने पर नजर आता है कि गांवों से शहरों के बीच श्रमिकों की आवाजाही, ताजी मंदी का कारण हो सकती है. इसे समझने के लिए हमें शहरों की उन फैक्ट्रियों-धंधों पर दस्तक देनी होगी जो अधिकांशतः श्रम आधारित हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था में इनका हिस्सा काफी बड़ा है.

2005 से 2012 के बीच बड़ी संख्या में गांवों से लोग शहरों में आए थे जब भवन निर्माण, ट्रांसपोर्ट जैसे कारोबार फल-फूल रहे थे. यही वह दौर था जब गांवों की कमाई में सबसे तेज बढ़ोतरी देखी गई.

ग्रामीण आय में गिरावट का ताजा अध्याय, शहरों में श्रम आधारित उद्योगों में मंदी की वंदना से प्रारंभ होता है. चमड़ा, हस्त शिल्प, खेल का सामान, जूते, रत्न-आभूषण, लकड़ी, कागज उद्योगों में नोटबंदी और जीएसटी के बाद गहरी मंदी आई. ये उद्येाग पारंपरिक रूप से श्रमिकों पर आधारित हैं. भवन निर्माण के सितारे तो 2014 से ही खराब हैं.

शुरुआती आंकड़े हमें इस आकलन की तरफ धकेलते हैं कि शहरी मंदी, गांवों की सबसे बड़ी मुसीबत है. पिछले दो साल में बड़े पैमाने पर शहरों से गांवों की ओर श्रमिकों का पलायन हुआ है. गांव में अब काम कम और मांगने वाले हाथ ज्यादा हैं तो मजदूरी कैसे बढ़ेगी? वहां जबरदस्त गुस्सा यूं ही नहीं खदबदा रहा है.

गांवों की अर्थव्‍यवस्था का बड़ा हिस्सा यकीनन अब शहरों पर निर्भर हो गया है इसलिए जीडीपी में रिकॉर्ड बढ़ोतरी (2017-18 की चौथी तिमाही) पर रीझने से बात नहीं बनेगी.

गांवों को अपनी खुशहाली वापस पाने के लिए शहरों की पटरी पर बैठकर लंबा इंतजार करना होगा. अब गांवों के अच्छे दिन शहरों से मंदी खत्म होने पर निर्भर हैं. शहर में धंधा-रोजगार बढ़ेगा तब गांव में बारात चढ़ेगी. तेल की महंगाई, ऊंची ब्याज दरों व कमजोर रुपए के बीच शहर के रोजगार घरों का ताला खुलने में लंबा वक्त लग सकता है 

अगर अच्छी फसल, कर्ज माफी और सरकारी कोशिशों के बावजूद शहरी मंदी ने गांव को लपेट ही लिया है तो फिर दम साध कर बैठिए, क्योंकि यह उलटफेर सियासत की तासीर बदल सकता है.