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Saturday, August 31, 2019

उम्मीदों की ढलान


र्थशास्त्र की असंख्य तकनीकी परिभाषाओं के परे कोई आसान मतलब? प्राध्यापक ने कहा, उम्मीद और विश्वास. कारोबार, विनिमय, खपत, बचत, कर्ज, निवेश अच्छे भविष्य की आशा और भरोसे पर टिका है. इसी उम्मीद का थम जाना यानी भरोसे का सिमट जाना मंदी है.

खपत आधारित है आगे आय बढ़ते रहने की उम्मीद पर. कर्ज अपनी वापसी की उम्मीद पर टिका है; औद्योगिक व्यापारिक निवेश खपत बढ़ने पर केंद्रित है; और बचत या शेयरों की खरीद इस उम्मीद पर टिकी है कि यह चक्र ठीक चलेगा.

सरकार ने मंदी से निबटने के लिए दो माह पहले आए बजट को शीर्षासन करा दिया. लेकिन उम्मीदें निढाल पड़ी हैं.

क्या हम उम्मीद और विश्वास में कमी को आंकड़ों में नाप सकते हैं? मंदी के जो कारण गिनाए जा रहे हैं या जो समाधान मांगे जा रहे हैं उन्हें गहराई से देख कर यह नाप-जोख हो सकती है.

मंदी की पहली वजह बताई जा रही है कि बाजार में पूंजी, पैसे या तरलता की कमी है लेकिन...

·       भारत में नकदी (करेंसी इन सर्कुलेशन), जुलाई के पहले सप्ताह में 21.1 लाख करोड़ रुपए पर थी जो पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 13 फीसदी ज्यादा है. दूसरी तरफ, बैंकों में जमा की दर 2010 से गिरते हुए दस फीसदी से नीचे आ गई.

·       रिजर्व बैंक ब्याज की दर एक फीसद से ज्यादा घटा चुका है लेकिन कर्ज लेने वाले नहीं हैं. यानी कि बाजार में पैसा है, लोगों के हाथ में पैसा है, बैंक कर्ज सस्ता कर रहे हैं लेकिन लोग बिस्किट खरीदने से पहले भी सोच रहे हैं, कार और मकान आदि तो दूर की बात है.

·       अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध (आयात महंगा करना) से तो निर्यात बढ़ाने का मौका है. कमजोर रुपया भी निर्यातकों के माफिक है लेकिन न निर्यात बढ़ा, न उत्पादन.

·       खर्च चलाने के लिए सरकार ने रिजर्व बैंक का रिजर्व निचोड़ लिया है तो सुझाव दिए जा रहे हैं कि जीएसटी कम होने से मांग बढ़ जाएगी. लेकिन लागू होने के बाद से हर छह माह में जीएसटी की दर कम हुई. न मांग बढ़ी, न खपत, राजस्व और बुरी तरह टूट गया.

·       पिछले पांच साल के दौरान एक बार भी महंगाई ने नहीं रुलाया फिर भी बचत और खपत गिर गई.

हाथ में पैसा होने के बाद भी खर्च न बढ़ना,

टैक्स और कीमतें घटने के बाद भी मांग न बढ़ना,

कर्ज सस्ता होने के बाद भी कर्ज न उठना...

इस बात की ताकीद करते हैं कि जिन्हें खर्च करना या कर्ज लेकर घर-कार खरीदनी है उन्हें यह भरोसा नहीं है कि आगे उनकी कमाई बढ़ेगीजिन्हें उद्योग के लिए कर्ज लेना है उन्हें मांग बढ़ने की उम्मीद नहीं है और जिन्हें कर्ज देना हैउन्हें कर्ज की वापसी न होने का डर है.

इस जटिलता ने दो दुष्चक्र शुरू कर दिए हैं. टैक्स कम होगा तो घाटा यानी सरकार का कर्ज बढ़ेगा. ब्याज दर बढ़ेगी, नए टैक्स लगेंगे या पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ेगी. अगर बैंक कर्ज और सस्ता करेंगे तो डिपॉजिट पर भी ब्याज घटेगा. इस तरह बैंक बचतें गंवाएंगे और पूंजी कम पड़ेगी.

यही वजह है कि यह मंदी अपने ताजा पूर्वजों से अलग है. 2008 और 2012 में सरकार ने पैसा डाला और टैक्स काटे, जिससे बात बन गई लेकिन अब मुश्किल है.

2015 के बाद से लगातार सरकारी खर्च में इजाफा हुआ है और जीएसटी के चुनावी असर को कम करने के लिए टैक्स में कमी हुई लेकिन फिर भी हम ढुलक गए. अब संसाधन ही नहीं बचे. सरकारी खर्च के लिए रिजर्व बैंक के रिजर्व के इस्तेमाल से डर बढ़ेगा और विश्वास कम होगा.

कमाई, बचत और खपत, तीनों में एक साथ गिरावट मंदी की बुनियादी वजह है. लोगों को आय बढ़ने की उम्मीद नहीं है. देश में बड़ा मध्य वर्ग कर्ज में फंस चुका है. रोजगार न बढ़ने के कारण घरों में एक कमाने वाले पर आश्रितों की संख्या बढ़ रही है. यही वजह है कि बचत (बैंक, लघु बचत, मकान) 20 साल के न्यूनतम स्तर पर (जीडीपी का 30 फीसद) पर है. यह सब उस कथित तेज विकास के दौरान हुआ, जिसके दावे बीते पांच बरस में हुए. कोई अर्थव्यवस्था अगर अपने सबसे अच्छे दिनों में रोजगार सृजन या बचत नहीं करती तो आने वाली पीढ़ी के लिए मौके कम हो जाते हैं.

सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में तेज विकास के जो आंकड़े गढ़े थे क्या उन पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया? उसी की चमक में निवेश बढ़ाने, सरकारी दखल कम करने, मुक्त व्यापार के लिए ढांचागत सुधार नहीं किए गए जिसके कारण हम एक जिद्दी ढांचागत मंदी की चपेट में हैं

अगर यही सच है तो फिर जरूरत उन सुधारों की है, सुर्खियां बनाने वाले पैकेजों की नहीं क्योंकि उम्मीदों की मंदी बड़ी जिद्दी होती है.


Saturday, June 15, 2019

बचाएंगे तो बचेंगे!



गर पड़ोसी की नौकरी पर खतरा है तो यह आर्थिक सुस्ती  है लेकिन अगर आपके रोजगार पर खतरा है तो फिर यह गहरा संकट है.’’ अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रुमैन की पुरानी व्यंग्योक्ति आज भी आर्थिक मंदियों के संस्करणों का फर्क सिखाती है.

इस उक्ति का पहला हिस्सा मौसमी सुस्ती की तरफ इशारा करता है जो दुनिया में आर्थिक उठापटकमहंगे ईंधनमहंगाई जैसे तात्कालिक कारणों से आती है और जिससे उबरने का पर्याप्त तजुर्बा हैट्रुमैन की बात का दूसरा हिस्सा ढांचागत आर्थिक मुसीबतों की परिभाषा हैजिनका हमारे पास कोई ताजा (पिछले 25 साल मेंअनुभव नहीं है

सरकार ने चुनाव में जाने तक इस सच को स्वीकार कर लिया था कि अर्थव्यवस्था ढलान पर है लेकिन भव्य जीत के बाद जब सरकार वापस लौटी तब चार बड़े बदलाव उसका इंतजार कर रहे थे जो भारत की आर्थिक ढलान को असामान्य रूप से जिद्दी बनाते हैं:

·       भारत में कंपनियों का निवेश 1960 के बाद से लगातार बढ़ रहा था. 2008 में शिखर (जीडीपी का 38 फीसदछूने के बाद यह अब 11 साल के सबसे निचले (29 फीसदस्तर पर हैसालाना वृद्धि दर 18 फीसद (2004-08) से घटकर केवल 5.5 फीसद रह गई है.

·       निवेश के सूखे के बीच घरेलू खपतअर्थव्यवस्था का सहारा थीअब वह भी टूट गई है और मकानकार से लेकर घरेलू खपत के सामान तक चौतरफा मांग की मुर्दनी छाई है.

·       सरकार ने यह मान लिया है कि भारत में बेकारी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है.

·       रेटिंग एजेंसियों ने बैंकों व वित्तीय कंपनियों की साख में बड़ी कटौती कीअब कर्ज में चूकने का दौर शुरू हो गयापहले वित्तीय कंपनियां चूकीं और अब एक कपड़ा कंपनी भी.

भारत की विराट आर्थिक मशीन का आखिर कौन सा पुर्जा है जो निवेशकर्ज और खपत को तोड़ कर मुश्किलें बढ़ा रहा है?

भारतीय अर्थव्यवस्था बचतों के अप्रत्याशित सूखे का सामना कर रही हैसमग्र बचत जो 2008 में जीडीपी के 37 फीसद पर थीअब 15 साल के न्यूनतम स्तर पर (जीडीपी का 30 फीसदरह गई है और आम लोगों की घरेलू बचत पिछले 20 साल के (2010 में 25 फीसदन्यूनतम स्तर (जीडीपी का 17.6 फीसदपर हैघरेलू बचतों का यह स्तर 1990 के बराबर है जब आर्थिक सुधार शुरू नहीं हुए थेमकान-जमीन में बचत गिरी है और वित्तीय बचतें तो 30 साल के न्यूनतम स्तर पर हैं.

बचत के बिना निवेश नामुमकिन हैभारत में निवेश की दर बचत दर से हमेशा ज्यादा रही हैघरेलू बचतें ही निवेश का संसाधन हैंयही बैंक कर्ज में बदल कर उद्योगों तक जाती हैंसरकार के खर्च में इस्तेमाल होती हैंघर-कार की मांग बढ़ाने में मदद करती हैंबचत गिरते ही निवेश 11 साल के गर्त में चला गया है

दरअसलपिछले दशक में भारतीय परिवारों की औसत आय में दोगुनी बढ़त दर्ज की गई थीइस दौरान खपत बढ़ी और टैक्स भी लेकिन लोग इतना कमा रहे थे कि बचतें बढ़ती रहींआय में गिरावट 2006 के बाद शुरू हो गई थी लेकिन कमाई बढ़ने की दर खपत से ज्यादा थीइसलिए मांग बनी रही.

2015 से 2018 के बीच आय में तेज गिरावट दर्ज हुईप्रति व्यक्ति आयग्रामीण मजदूरी में रिकॉर्ड कमी और बेकारी में रिकॉर्ड बढ़त का दौर यही हैपहले बचतें टूटीं क्योंकि लोग आय का बड़ा हिस्सा खपत में इस्तेमाल करने लगेफिर मकानोंऑटोमोबाइल की मांग गिरी और अंततदैनिक खपत (साबुन-मंजनपर भी असर नजर आने लगा.

बैंक भी कमजोर बचतों के गवाह हैं. 2010 से बैंकों की जमा की वृद्धि दर भी गिर रही है. 2009-16 के बीच 17 से 12 फीसद सालाना बढ़ोतरी के बाद अब इस मार्च में बैंक जमा की बढ़ोतरी 10 फीसद से नीचे आ गईनतीजतन रिजर्व बैंक की तरफ से ब्याज दरों में तीन कटौतियों के बाद भी बैंकों ने कर्ज सस्ता नहीं कियाकर्ज पर ब्याज दर कम करने के लिए जमा पर भी ब्याज कम करना होगा जिसके बाद डिपॉजिट में और गिरावट झेलनी पड़ेगी.

शेयर बाजारों में बढ़ता निवेश (म्युचुअल फंडअर्धसत्य हैवित्तीय बचतेंखासतौर पर शेयर (सेकंडरीबाजार के जरिए बचत न तो कंपनियों को मिलती हैंजिससे वे नया निवेश कर सकेंन सरकार को इस बचत का सीधा लाभ (टैक्स के अलावाहोता हैछोटी स्कीमोंबैंकों और मकान-जमीन में बचत ही निवेश का जरिया है.

बचतों का दरिया सूखने के कारण भारत की आर्थिक सुस्ती कई दुष्चक्रों का समूह बन गई हैमोदी सरकार के छठे बजट को कसने का अब केवल एक पैमाना होगा कि इससे लोगों की आय और बचत बढ़ती है या नहींक्योंकि यही मंदी से उबरने का जंतर-मंतर है.

प्रसिद्ध अर्थविद‍ जॉन मेनार्ड केंज (पुस्तकद एंड ऑफ लैसे-फेयरकहते थेयह जरूरी है कि सरकारें ऐसा कुछ भी न करें जो कि आम लोग पहले से कर रहे हैंउन्हें तो कुछ ऐसा करना होगा जो अभी तक न हुआ होचुनावी जीत चाहे जितनी भव्य हो लेकिन उद्योगउपभोक्ता और किसान थक कर निढाल हो रहे हैंअर्थव्यवस्था के लिए यह ‘एंड ऑफ लैसे-फेयर’ ही हैयानी सरकार के लिए परिस्थितियों को उनके हाल पर छोड़ने का वक्त खत्म हो चला है.