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Monday, May 30, 2016

हार जैसी जीत


बंगाल और तमिलनाडु के नतीजे दिखाते हैं कि कैसे खराब गवर्नेंस की धार भोथरी कर चुनावी जीत की राह खोली जा सकती है.

मिलनाडु और पश्चिम बंगाल के नतीजों के बाद पृथ्वीराज चव्हाण, भूपेंद्र सिंह हुड्डा और हेमंत सोरेन जरूर खुद को कोस रहे होंगे कि वे भी जयललिता और ममता बनर्जी क्यों नहीं बन सके जिन्हें भ्रष्टाचार और खराब गवर्नेंस के बावजूद लोगों ने सिर आंखों पर बिठाया. दूसरी तरफ, अखिलेश यादव, हरीश रावत, प्रकाश सिंह बादल और लक्ष्मीकांत पार्सेकर को वह मंत्र मिल गया होगा, जो खराब गवर्नेंस की धार भोथरी कर चुनावी जीत की राह खोलता है.


2016 में विधानसभा चुनावों के नतीजे निराश करते हैं, खास तौर पर पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के. इन नतीजों से कुछ परेशान करने वाले नए सवाल उभर रहे हैं, जो किसी बड़े राजनैतिक बदलाव की उम्मीदों को कमजोर करते हैं. सवाल यह है कि क्या किस्म-किस्म के चुनावी तोहफों के बदले वोट खरीदकर भ्रष्टाचार और खराब गवर्नेंस का राजनैतिक नुक्सान खत्म किया जा सकता है? क्या आम वोटर अब राजनैतिक गवर्नेंस में गुणात्मक बदलावों की बजाए मुफ्त की रियायतों की अपेक्षा करने लगा है? क्या निजी निवेश, औद्योगिक विकास, मुक्त बाजार को बढ़ाने और सरकार की भूमिका सीमित करने की नीतियों के आधार पर चुनाव जीतना अब असंभव है? और अगर कोई सरकार लोकलुभावन नीतियों को साध ले तो खराब प्रशासन या राजनैतिक लूट के खिलाफ पढ़े-लिखे शहरी वोटरों की कुढ़न कोई राजनैतिक महत्व नहीं रखती?

2016 के चुनावी नतीजे 2014 के राजनैतिक बदलाव के उलट हैं. यह पिछड़ी हुई राजनीति की वापसी का ऐलान है. 2014 में वोटरों ने कांग्रेस के भ्रष्ट शासन के खिलाफ न केवल केंद्र में बड़ा जनादेश दिया बल्कि भ्रष्टाचार में डूबी महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार और खराब गवर्नेंस वाली हरियाणा व झारखंड की सरकार को भी बेदखल किया था. यही वोटर दिल्ली के चुनावों में भी सक्रिय दिखा, लेकिन बंगाल और तमिलनाडु में जो नतीजे आए, वे आश्चर्य में डालते हैं.

गवर्नेंस और पारदर्शिता की कसौटी पर जयललिता और ममता की सरकारों के खिलाफ वैसा ही गुस्सा अपेक्षित था जैसा कि 2014 में नजर आया था. एक मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के मामले में जेल हो आईं थीं, जबकि दूसरे राज्य की सरकार चिट फंड घोटालों में इस कदर घिरी कि करीबी मंत्रियों के सीबीआइ की चपेट में आने के बाद घोटाले की तपिश मुख्यमंत्री के दरवाजे तक पहुंच गई. माना कि इन राज्यों में मतदाताओं को अच्छे विकल्प उपलब्ध नहीं थे, लेकिन इन सरकारों को दोबारा इतना समर्थन मिलना चुनावों के ताजा तजुर्बों के विपरीत जाता है.

तो क्या ममता और जया ने मुफ्त सुविधाएं और तोहफे बांटकर एक तरह से वोट खरीद लिए और माहौल को अपने खिलाफ होने से रोक लिया? दोनों सरकारों की नीतियों को देखा जाए तो इस सवाल का जवाब सकारात्मक हो सकता है. जयललिता सरकार लोकलुभावन स्कीमों की राष्ट्रीय चैंपियन है. अम्मा कैंटीन (सस्ता खाना) और अम्मा फार्मेसी को कल्याणकारी राज्य का हिस्सा माना जा सकता है लेकिन अम्मा सीमेंट, मिक्सर ग्राइंडर, पंखे, सस्ता अम्मा पानी और नमक आदि सरकारी जनकल्याण की अवधारणा को कुछ ज्यादा दूर तक खींच लाते हैं. लेकिन अम्मा यहीं तक नहीं रुकीं. ताजा चुनावी वादों के तहत अब लोगों को सस्ते फिल्म थिएटर, मुफ्त लैपटॉप, मोबाइल फोन, बकरी, सौ यूनिट तक मुफ्त बिजली, मोपेड खरीदने पर सब्सिडी और यहां तक शादियों के मंगलसूत्र के लिए आठ ग्राम सोना भी मिलेगा. लोगों को इन वादों पर शक नहीं हुआ क्योंकि तमिलनाडु में सरकारी सुविधाओं का लोगों तक पहुंचाने का तंत्र अन्य राज्यों से काफी बेहतर है.

दूसरी ओर, ममता ने नकद बांटने की स्कीमों का बड़ा परिवार खड़ा किया है. इनमें बेरोजगार युवाओं को मासिक भत्ता, लड़कियों के विवाह पर परिवारों को नकद राशि, इमामों को भत्ता, दुर्गा पूजा पंडालों को नकद राशि, क्लबों को नकद अनुदान खास रहे. यकीनन, अम्मा और ममता की कथित उदारता उनकी खराब गवर्नेंस व भ्रष्टाचार को ढकने में सफल रही है, जो शायद गोगोई असम में नहीं कर सके.

औद्योगिक निवेश, उदारीकरण और रोजगार के मामले में बंगाल और तमिलनाडु में कुछ नहीं बदला. इसलिए चुनावों में ये मुद्दे भी नहीं थे. ममता तो सिंगूर में टाटा की फैक्ट्री यानी उद्योगीकरण के खिलाफ आंदोलन से उठीं थीं. उनका यह अतीत बंगाल में निवेशकों को नए सिरे से डराने के लिए काफी था. ममता के राज में निवेशकों के मेले भले ही लगे हों, लेकिन बंगाल में न निवेश आया और न रोजगार.

तमिलनाडु का औद्योगिक क्षरण पिछले छह साल से सुर्खियों में है. चेन्नै के करीब विकसित ऑटो हब, जो नब्बे के दशक में ऑटोमोबाइल दिग्गजों की पहली पसंद था, 2010 के बाद से उजड़ने लगा था. मोबाइल निर्माता नोकिया के निकलने के बाद श्रीपेरुंबदूर का इलेक्ट्रॉनिक्स पार्क भी आकर्षण खो बैठा. बिजली की कमी के कारण तमिलनाडु की औद्योगिक चमक भले ही खो गई हो, लेकिन अम्मा की राजनैतिक चमक पर फर्क नहीं पड़ा. उन्होंने शपथ ग्रहण के साथ ही 100 यूनिट बिजली मुफ्त देने का ऐलान कर दिया.

ममता और जया ने चुनाव जीतने का जो मॉडल विकसित किया है, वह चिंतित करता है क्योंकि पिछले एक दशक में केंद्र से राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण का मॉडल बदला है. राज्यों को केंद्र से बड़ी मात्रा में संसाधन मिल रहे हैं जो उपयोग की शर्तों से मुक्त हैं. केंद्र प्रायोजित स्कीमों के सीमित होने के बाद राज्यों को ऐसे संसाधनों का प्रवाह और बढ़ेगा.


राज्यों को मिल रही वित्तीय स्वायत्तता पूरी तरह उपयुक्त है, लेकिन खतरा यह है कि इन संसाधनों से राज्यों के बीच मुफ्त सुविधाएं बांटने की होड़ शुरू हो सकती है जिसमें ज्यादातर राज्य सरकारें ठोस आर्थिक विकास के जरिए रोजगार और आय बढ़ाने की नीतियों के बजाए सोना, स्कूटर, मकान, मुफ्त बिजली आदि बांटने की ओर मुड़ सकती हैं. जाहिर है, जब राज्य सरकारें लोकलुभावनवाद की दौड़ में उतरेंगी तो केंद्र से सख्त सुधारों व सब्सिडी पर नियंत्रण की उम्मीद करना बेमानी है. केंद्र में भी सरकार बनाने या बचाने के लिए चुनाव जीतना अनिवार्य है. इस जीत के लिए कितनी ही पराजयों से समझौता किया जा सकता है.

Monday, May 16, 2011

जादू के बाद

शुक्र मनाइये कि पश्चिम बंगाल कोई कंपनी नहीं है अन्यथा इस पर कब्जे की नहीं बल्कि इससे पीछा छुड़ाने की होड़ हो रही होती। शुक्र मनाइये कि ममता वित्तीय बियाबान की रानी बनकर भी खुश हैं क्यों कि सियासत उजाड़ में भी उम्मीद तलाश लेती है मगर इसके आगे शुक्र मनाने के लिए कुछ नहीं है। तृणमूल का पहला कार्यकाल पूरा होने से पहले ही बंगाल शायद ममता से पूछ रहा होगा कि हम दीवालिया कैसे हो गए ?? ..... अगर कोई चमत्कार नहीं हुआ, तो सोनार बांग्ला, कर्ज के जाल में फंस कर तीन साल (2014-15) में दीवालिया हो जाएगा। केवल पिछले एक साल में रिजर्व बैंक से 62 बार ओवर ड्राफ्ट लेने वाले बंगाल का यह भयानक भविष्य. तेरहवें वित्‍त आयोग व केंद्रीय वित्त मंत्रालय दोनों को दिख रहा है। उदारीकरण बीस वर्षों के दौरान अखिल भारतीय तेज विकास को, पश्चिम बंगाल दूर से बस टुकुर-टुकर ताकता रहा है। बंगाल ने चौंतीस साल के कामरेड राज के खिलाफ जब विप्लव किया तब तक ब्रांड बंगाल अपनी वित्तीय साख और निवेशकों के बीच प्रतिष्ठा दोनों गंवा चुका था। और मुश्किल यह है बदलाव का ताजा जादू भी उन्हीं साधनों से निकला है, निवेशक, जिनके कारण बंगाल से बिदकते हैं। कामरेडों के काम तमाम से बंगाल की आर्थिक साख सुधरने की उम्मीद बांधने वाले माफ करेंगे, दीदी का राजनीतिक दर्शन भी ( सिंगुर) उदारीकरण की आबो हवा से मेल नहीं खाता है। यानी कंगाल हुए बंगाल में ‘बदोल’ के लिए दीदी को भी अपनी सियासत बदलनी होगी।
पिछड़ने की जिद
बंगाल आर्थिक विकास की एक बेढब ग्रंथि है। बिहार का पिछड़ापन तो अदूरदर्शी और भ्रष्ट नेताओं की देन है मगर बंगाल को तो पढ़े लिखे और विचारशील नेताओं की जिद ने बदहाल कर दिया। आर्थिक विकास के तीन शुरुआती इंजनों ( मुंबई, चेन्‍नई कोलकता) में शुमार बंगाल के पास रश्क करने लायक औद्योगिक अतीत था। निजी उद्यमिता की कई (मारवाड़ी-बिरला गोयनका) कीर्ति कथायें बंगाल में ही लिखी गईं, जो बाद में लाल झंडों से डर कर महाराष्ट्र कूच कर गईं। कोयला और इस्पात की धुरी पर बैठे बंगाल को सरकारी औद्योगीकरण में भी बड़ा हिस्सा मिला था। दरअसल, बंदरगाह, वित्तीय तंत्र व श्रमिकों से लैस बंगाल उन किस्मती राज्यों में था जो उदारीकरण के घोड़े पर बैठकर हवा से बातें कर सकते थे मगर पिछड़ेपन के धुनी हुक्मरानों