Monday, October 31, 2011

रहनुमाओं का थियेटर

बाल बाल बचा !!! कौन ? ग्रीस ? नहीं यूरोप अमेरिका को चलाने वाला एंग्‍लो सैक्‍सन आर्थिक मॉडल। ग्रीस अगर दिनदहाडे़ डूब जाता तो पूरा जी 20 ही बेसबब हो जाता। ग्रीस की विपत्ति टालने के लिए यूरोप में बैंकों की बलि का उत्‍सव शुरु हो गया है। बैंकों से कुर्बानी लेकर अटलांटिक के दोनों किनारों पर (अमेरिकी यूरोपीय) सियासत ने अपनी इज्‍जत बचा ली है नतीजतन ओबामा-मर्केल-सरकोजी-कैमरुन (अमेरिका, जर्मन फ्रांस, ब्रिटेन राष्‍ट्राध्‍यक्षों) की चौकडी जी 20 की कान्‍स पंचायत को अपना चेहरा दिखा सकेंगे। ग्रीस राहत पैकेज के बाद फिल्‍मों के शहर कांस (फ्रांस) में विश्‍व संकट निवारण थियेटर का कार्यक्रम बदल गया है। यहां अब भारत चीन जैसी उभरती ताकतों के शो ज्‍यादा गौर से देखे जाएंगे। इन नए अमीरों को यूरोप को उबारने में मदद करनी है और विकसित मुल्‍कों से अपनी शर्तें भी मनवानी हैं। विश्‍व के बीस दिग्‍गज रहनुमाओं के शो पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं। कांस का मेला बतायेगा कि विश्‍व नेतृत्‍व ने ताजा वित्‍तीय हॉरर फिल्‍म की सिक्रप्‍ट बदलने की कितनी ईमानदार कोशिश की और यह संकट का यह सिनेमा कहां जाकर खत्‍म होगा।
और ग्रीस डूब गया
यूरोपीय सियासत की चपेट में आर्थिक परिभाषायें बदलने लगी हैं। शास्‍त्रीय अर्थों में मूलधन या ब्‍याज को चुकाने में असफल होने वाला देश संप्रभु दीवालिया (सॉवरिन डिफॉल्‍ट) है। इस हिसाब से बैंकों की कृपा ( तकनीकी भाषा में 50 फीसदी हेयरकट) का मतलब ग्रीस का दीवालिया होना है। मगर यूरोपीय सियासत इसे कर्ज माफी कह रही है। पिछली सदी के सातवें दशक में अर्जेंटीना यही हाल हुआ था और बाजार ने उसे दीवालिया ही माना था। यूरोप व तीसरी दुनिया में यही फर्क है। ग्रीस का ताजा पैकेज 2008 अमेरिकी लीमैन संकट की तर्ज पर है यानी कि बैंकर्ज माफ करेंगे और बाद में सरकारें बैंकों को

Monday, October 24, 2011

अमावस की लक्ष्मी

देवी सूक्‍त कहता है, लक्ष्‍मी श्‍वेत परिधान धारण करती है। अमृत के साथ, समुद्र से जन्‍मी शुभ व पवित्र लक्ष्‍मी सबको समृद्धि बांटती है, किंतु यह बेदाग लक्ष्मी मानो दुनिया के आंगन से रुठ ही गई है। यहां तो अमावस जैसी काली लक्षमी पूरे विश्‍व में जटा खोले अघोर नृत्‍य कर रही है। यह लक्ष्‍मी करों के स्‍वर्ग (टैक्‍स हैवेन) में निवास करती है और बड़े बड़ों के हाथ नहीं आती। काली लक्षमी का दीवाली अपडेट यह है कि कर स्‍वर्गों के दरवाजे खोलने चले दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्‍क हार कर बैठ गए हैं। खरबों डॉलर छिपाये दुनिया के 72 कर स्‍वर्ग पूरे विश्‍व को फुलझडि़यां दिखा कर बहला रहे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी ने बीते एक साल में इन स्‍वर्गों को धमका फुसलाकर अपनी काली लक्ष्‍मी की कुछ खोज खबर हासिल भी कर ली मगर भारत तो बिल्‍कुल गया बीता है। कर स्‍वर्गों को दबाने के बजाय हमारी सरकार काले धन की जांच रोकने के लिए अदालत के सामने गिड़गिड़ा रही है। दीपावली पर शुद्ध और पवित्र लक्षमी की आराधना करते हुए, काली लक्ष्‍मी की ताकत बढ़ने की खबरें हमें मायूस करती हैं।
ताकतवर मायाजाल
भारतीय पिछले सप्‍ताह जब महंगाई में दीवाले का हिसाब लगा रहे थे तब दुनिया को यह पता चला कि वित्‍तीय सूचनायें छिपाने वाले मुल्‍कों की संख्‍या 72 ( 2009 में 60) हो गई है। प्रतिष्ठित संगठन टैक्‍स जस्टिस नेटवर्क की ताजी पड़ताल ने यह भ्रम खत्‍म कर दिया कि कर स्‍वर्गों के खिलाफ जी20 देशों की दो साल पुरानी मुहिम को कोई कामयाबी मिली है। कर स्‍वर्ग में करीब 11.5 ट्रिलियन डॉलर छिपे हैं। काली लक्षमी के इन अंत:पुरों में करीब पचास फीसदी पैसा (1.6 ट्रिलियन डॉलर-ग्‍लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी रिपोर्ट 2006) विकासशील देशों से जाता है। इन के कारण विकासशील देश हर साल करीब एक ट्रिलियन डॉलर का टैक्‍स गंवाते हैं। पैसा भेजने वाले पांच प्रमुख देशों में भारत शामिल है। चीन इनका अगुआ है। टैक्‍स जस्टिस नेटवर्क का फाइनेंशियल सीक्रेसी इंडेक्‍स 2011 बताता है कि केमैन आइलैंड

Monday, October 17, 2011

ये जो अमेरिका है !!

याद कीजिये इस अमेरिका को आपने पहले कब देखा था। दुनिया को पूंजी, तकनीक निवेश, सलाहें, बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां और सपने बांटने वाला अमेरिका नहीं बल्कि बेरोजगार, गरीब, मंदी पीडित, सब्सिडीखोर, कर्ज में डूबा, बुढाता और हांफता हुआ अमेरिका।  न्‍यूयार्क, सिएटल, लॉस एंजल्‍स सहित 70 शहरों की सड़कों पर फैले आंदोलन में एक एक दूसरा ही अमेरिका उभर रहा है। चीखते, कोसते और गुस्‍साते अमेरिकी लोग (आकुपायी वाल स्‍ट्रीट आंदोलन) अमेरिकी बाजारवाद और पूंजीवाद पर हमलावर है। राष्‍ट्रपति ओबामा डरे हुए हैं उनकी निगाह में शेयर बाजार व बैंक गुनहगार हैं। न्‍यूयार्क के मेयर माइकल ब्‍लूमबर्ग को अमेरिका की सड़कों पर कैरो व लंदन जैसे आंदोलन उभरते दिख रहे हैं। इन आशंकाओं में दम है, अमेरिका से लेकर कनाडा व यूरोप तक 140 शहरों में जनता सड़क पर आने की तैयारी में है। आर्थिक आंकड़ों से लेकर सामाजिक बदलावों तक और संसद से लेकर वित्‍तीय बाजार तक अमेरिका में उम्‍मीद की रोशनियां अचानक बुझने लगी हैं। लगता है मानो दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्‍क में कोई तिलिस्‍म टूट गया है या किसी ने पर्दा खींच कर सब कुछ उघाड़ दिया है। महाशक्ति की यह तस्‍वीर महादयनीय है।
बेरोजगार अमेरिका
अमेरिकी बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां करीब दो ट्रिलियन डॉलर की नकदी पर बैठी हैं!! लेकिन रोजगार नहीं हैं। सस्‍ते बाजारों में उत्‍पादन से मुनाफा कमाने के मॉडल ने अमेरिका को तोड़ दिया है। अमेरिका के पास शानदार कंपनियां तो हैं मगर रोजगार चीन, भारत थाइलैंड को मिल रहे हैं। देश में बेकारी की बढोत्‍तरी दर पिछले दो साल 9 फीसदी पर बनी हुई है। इस समय अमेरिका में करीब 140 लाख लोग बेकार  हैं। अगर आंशिक बेकारी को शामिल कर लिया जाए तो इस अमीर मुल्‍क में बेकारी की दर 16.5 हो जाती है। लोगों को औसतन 41 हफ्तों तक कोई काम नहीं मिल रहा है। 1948 के बाद बेकारी का यह सबसे भयानक चेहरा है। बेरोजगारी भत्‍ते के लिए सरकार के पास आवेदनों की तादाद कम नहीं हो रही है। बैंक ऑफ अमेरिका ने 30000 नौकरियां घटाईं हैं जबकि अमेरिकी सेना ने पांच वर्षीय भर्ती कटौती अभियान शुरु कर दिया। आलम यह है कि कर्मचरियों को बाहर का रास्‍ता दिखाने की रफ्तार 212 फीसदी पर है। पिछले माह अमेरिका में करीब सवा लाख लोगों की नौकिरयां गई हैं। इस बीच नौकरियां बढ़ाने के लिए ओबामा का 447 अरब डॉलर का प्रस्‍ताव प्रतिस्‍पर्धी राजनीति में फंस कर संसद में (इसी शुक्रवार को) गिर गया है, जिसके बाद रही बची उम्‍मीदें भी टूट गईं हैं। अमेरिका अब गरीब (अमेरिकी पैमानों पर) मुल्‍क में तब्‍दील होने लगा है।
गरीब अमेरिका
अमेरिकी यूं ही नहीं गुस्‍साये हैं। दुनिया के सबसे अमीर मुल्‍क में 460 लाख लोग बाकायदा गरीब (अमेरिकी पैमाने पर) हैं। अमेरिका में गरीबी के हिसाब किताब की 52 साल पुरानी व्‍यवस्‍था में निर्धनों की इतनी बड़ी तादाद पहली बार दिखी है। अमेरिकी सेंसस ब्‍यूरो व श्रम आंकड़े बताते हैं कि देश में गरीबी बढ़ने की दर 2007 में 2.1 फीसदी थी जो अब 15 फीसदी पर पहुंच गई है। मध्‍यमवर्गीय परिवारों की औसत आय 6.4 फीसदी घटी है। 25 से 34 साल के करीब 9 फीसदी लोग (पूरे परिवार आय के आधार पर) गरीबी की रेखा से नीचे हैं। यदि व्‍यक्तिगत आय को आधार बनाया जाए तो आंकड़ा बहुत बड़ा होगा। लोगों की गरीबी कर्ज में डूबी सरकार को और गरीब कर रही है। अमेरिका के करीब 48.5 फीसदी लोग किसी न किसी तरह सरकारी सहायता पर निर्भर हैं। अमेरिका का टैक्‍स पॉलिसी सेंटर कहता है कि देश के 46.5 फीसदी परिवार केंद्र सरकार कोई टैक्‍स नहीं देते यानी कि देश की आधी उत्‍पादक व कार्यशील आबादी शेष आधी जनसंख्‍या से मिलने वाले टैक्‍स पर निर्भर है। यह एक खतरनाक स्थिति है। अमेरिका को इस समय उत्‍पादन, रोजगार और ज्‍यादा राजस्‍व चाहिए जबकि सरकार उलटे टैक्‍स बढ़ाने व खर्च घटाने जा रही है।
बेबस अमेरिका  
इस मुल्‍क की कंपनियां व शेयर बाजार देश में उपभोक्‍ता खर्च का आंकड़ा देखकर नाच उठते थे। अमेरिका के जीडीपी में उपभोक्‍ता खर्च 60 फीसदी का हिस्‍सेदार है। बेकारी बढने व आय घटने से यह खर्च कम घटा है और अमेरिका मंदी की तरफ खिसक गया। अमेरिकी बचत के मुरीद कभी नहीं रहे इसलिए उपभोक्‍ता खर्च ही ग्रोथ का इंजन था। अब मंदी व वित्‍तीय संकटों से डरे लोग बचत करने लगे हैं। अमेरिका में बंद होते रेस्‍टोरेंट और खाली पड़े शॉपिंग मॉल बता रहे हैं कि लोगों ने हाथ सिकोड़ लिये हैं। किसी भी देश के लिए बचत बढ़ना अच्‍छी बात है मगर अमेरिका के लिए बचत दोहरी आफत है। कंपनियां इस बात से डर  रही हैं अगर अमेरिकी सादा जीवन जीने लगे और बचत दर 5 से 7 फीसदी हो गई तो मंदी बहुत टिकाऊ हो जाएगी।  दिक्‍कत इ‍सलिए पेचीदा है क्‍यों कि अमेरिका में 1946 से 1964 के बीच पैदा हुए लोग, (बेबी बूम पीढ़ी) अब बुढ़ा रहे हैं। इनकी कमाई व खर्च ने ही अमेरिका को उपभोक्‍ता संस्‍कृति का स्‍वर्ग बनाया था। यह पीढ़ी अब रिटायरमेंट की तरफ है यानी की कमाई व खर्च सीमित और चिकित्‍सा पेंशन आदि के लिए सरकार पर निर्भरता। टैक्‍स देकर के जरिये अमेरिकी सरकार को चलाने यह पीढ़ी अब सरकार की देखरेख में अपना बुढ़ापा काटेगी। मगर इसी मौके पर सरकार कर्ज में डूब कर दोहरी हो गई है।
अमेरिका आंदोलनबाज देश नहीं है। 1992 में लॉस एंजल्‍स में दंगों (अश्‍वेत रोडनी किंग की पुलिस पिटाई में मौत) के बाद पहली बार देश इस तरह आंदोलित दिख रहा है। अमेरिकी शहरों को मथ रहे आंदोलनों का मकसद और नेतृत्‍व भले ही अस्‍पष्‍ट हो मगर पृष्‍ठभूमि पूरी दुनिया को दिख रही है। मशहूर अमेरिकन ड्रीम मुश्किल में है,  बेहतर, समृद्ध और संपूर्ण जिंदगी व बराबरी के अवसरों ( इपिक ऑप अमेरिका- जेम्‍स ट्रुसलो एडम्‍स) का बुनियादी अमेरिकी सपना टूट रहा है। इस भयानक संकट के बाद दुनिया को जो अमेरिका मिलेगा वह पहले जैसा बिल्‍कुल नहीं होगा। अपनी जनता की आंखों में अमेरिकन ड्रीम को दोबारा बसाने के लिए अमेरिका को बहुत कुछ बदलना पड़ेगा। चर्चिल ने ठीक ही कहा था कि अमेरिका पर इस बात के लिए भरोसा किया जा सकता है कि वह सही काम करेगा लेकिन कई गलतियों के बाद। ... अमेरिका का प्रायश्चित शुरु हो गया है।
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Monday, October 10, 2011

बैंक बलिदान पर्व

ग्रीस डूबने को तैयार है.. इसे यूं भी लिखा जा सकता है कि यूरोप के तमाम के बैंक डूबने को तैयार हैं। किसी देश का ,दीवालिया होने उसे खत्‍म नहीं कर देता है मगर ग्रीस के कर्ज चुकाने में चूकते ही कई बैंकों के दुनिया के नक्‍शे मिटने की नौबत आ जाएगी। दुनिया ग्रीस को बचाने के लिए बेचैन है ही नहीं, जद्दोजहद तो पूरी दुनिया के बैंकों, खासतौर पर यूरोप के बैंकों को महासंकट से बचाने की है। लीमैन और अमेरिका के कई बैंकों के डूबने के तीन साल के भीतर दुनिया में दूसरी बैंकिंग त्रासदी का मंच तैयार है। यूरोप में बैंकों के बलिदान का मौसम शुरु हो चुका है। डरे हुए वित्‍तीय नियामक बैंको को यानी आग के दरिया से गुजारने की योजना तैयार कर रहे हैं, ताकि जो बच सके बचा लिया जाए। बैंकों पर सख्‍ती की ताजी लहर भारत (स्‍टेट बैंक रेटिंग में कटौती) तक आ पहुंची है। यूरोप के संकट से बैंकों की दुनिया और दुनिया के बैंकों की सूरत व सीरत बदलना तय है।
बैंकों की बदहाली
370 बिलियन डॉलर के कर्ज से दबे ग्रीस के दीवालिया होते ही यूरोप के बैंकों में बर्बादी का बडा दौर शुरु होने वाला है। यह कर्ज तो बैंकों ने ही दिया है। बैंकों को यदि ग्रीस पर बकाया कर्ज का 40 फीसदी हिस्‍सा भी माफ करना पड़ा तो उनके बहुत बड़ी पूंजी डूब जाएगी। अपनी सरकार के कर्ज में सबसे बडे हिस्‍सेदार ग्रीस के बैंक तो उड़ ही जाएंगे। यूरोप के बैंक व सरकारें मिलकर ग्रीस के कर्ज में 60 फीसदी की हिस्‍सेदार हैं। इनमें भी फ्रांस, जर्मनी, इटली के बैंकों का हिस्‍सा काफी बड़ा है। इसलिए फ्रांस के दो प्रमुख बैंक बीएनपी पारिबा और क्रेडिट एग्रीकोल अपनी रेटिंग खो चुके हैं। पुर्तगाल, आयरलैंड व इटली भी कर्ज संकट में है और इन्‍हें कर्ज देने वाले बैंक ब्रिटेन, जर्मनी व स्‍पेन के हैं। यानी पूरे यूरोप के बैंक खतरे

Monday, October 3, 2011

पलटती बाजी

ह यूरोप और अमेरिका के संकटों का पहला भूमंडलीय तकाजा था, जो बीते सपताह भारत, ब्राजील, कोरिया यानी उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं के दरवाजे पर पहुंचा। इस जोर के झटके में रुपया, वॉन (कोरिया), रिएल (ब्राजील), रुबल, जॉल्‍टी(पोलिश), रैंड (द.अफ्रीका) जमीन चाट गए। यह 2008 के लीमैन संकट के बाद दुनिया के नए पहलवानों की मुद्राओं का सबसे तेज अवमूल्‍यन था। दिल्‍ली, सिओल, मासको,डरबन को पहली बार यह अहसास हुआ कि अमेरिका व यूरोप की मुश्किलों का असर केवल शेयर बाजार की सांप सीढ़ी तक सीमित नहीं है। वक्‍त उनसे कुछ ज्‍यादा ही बडी कीमत वसूलने वाला है। निवेशक उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं में उम्‍मीदों की उड़ान पर सवार होने को तैयार नहीं हैं। शेयर बाजारों में टूट कर बरसी विदेशी पूंजी अब वापस लौटने लगी है। शेयर बाजारों से लेकर व्‍यापारियों तक सबको यह नई हकीकत को स्‍वीकारना जरुरी है कि उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं के लिए बाजी पलट रही है। सुरक्षा और रिर्टन की गारंटी देने वाले इन बाजारों में जोखिम का सूचकांक शिखर पर है।
कमजोरी की मुद्रा
बाजारों की यह करवट अप्रत्याशित थी, एक साल पहले तक उभरते बाजार अपनी अपनी मुद्राओं की मजबूती से परेशान थे और विदशी पूंजी की आवक पर सख्‍ती की बात कर रहे थे। ले‍किन अमेरिकी फेड रिजर्व की गुगली ने उभरते बाजारों की गिल्लियां बिखेर दीं। फेड  का ऑपरेशन ट्विस्‍ट, तीसरी दुनिया के मुद्रा बाजार में कोहराम की वजह बन गया। अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने देश को मंदी से उबारने के लिए में छोटी अवधि के बांड बेचकर लंबी अवधि के बांड खरीदने का फैसला किया। यह फैसला बाजार में डॉलर छोडकर मुद्रा प्रवाह बढाने की उम्‍मीदों से ठीक उलटा था। जिसका असर डॉलर को मजबूती की रुप में सामने आया। अमेरिकी मुद्रा की नई मांग निकली और भारत, कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील के केद्रीय बैंक जब तक बाजार का बदला मिजाज समझ पाते तब तक इनकी मुद्रायें डॉलर के मुकाबले चारो खाने चित्‍त