भारत ग्लोबल कूटनीति में जब निर्णायक करवट की दहलीज पर खड़ा है, तब पाकिस्तान सबसे बड़ी दुविधा बन गया है।
पाकिस्तान को लेकर
मोदी का आशावाद, उनकी सरकार
के शपथ ग्रहण के साथ ही खत्म हो जाना स्वाभाविक ही था. हैरत तो, दरअसल, उस वक्त हुई जब
पाकिस्तान को लेकर मोदी, अटल बिहारी
वाजपेयी साबित नहीं हुए. कश्मीर के अलगाववादी नेता शब्बीर शाह और पाकिस्तानी
राजदूत अब्दुल बासित के बीच मुलाकात के बाद अगस्त में दोनों मुल्कों की सचिव
स्तरीय वार्ताएं न केवल रोक दी गईं बल्कि सरकार ने रिश्तों की रूल बुक यानी शिमला
समझौते व लाहौर घोषणा को सामने रखते हुए सख्ती के साथ स्पष्ट कर दिया कि कश्मीर पर
भारत और पाकिस्तान ही बात करेंगे, कोई तीसरा पक्ष नहीं रहेगा. मोदी सरकार का रुख
साफ था कि इस अहमक पड़ोसी को लेकर न तो कांग्रेस की परंपरा चलेगी और न वाजेपयी की.
पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब देने की नीति तय करने के बाद मोदी ग्लोबल अभियान
पर निकल गए थे क्योंकि उम्मीद थी कि पाकिस्तान बदलाव को समझते हुए संतुलित रहेगा.
लेकिन पिछले छह माह में पाकिस्तान के पैंतरों ने भारत को चौंकाया है. कूटनीतिक व
प्रतिरक्षा नियंता लगभग मुतमईन हैं कि पाकिस्तान, भारत को लंबे वार गेम में उलझना चाहता है.
पसोपेश यह है कि ऐसे में सरकार के संयम की नियंत्रण रेखा क्या होनी चाहिए? वाजपेयी या
कांग्रेस की तरह प्रतिरक्षात्मक रहना कितना कारगर साबित होगा?
भारत -पाक रिश्तों
के इतिहास में भाजपाई नेतृत्व वाला हिस्सा छोटा जरूर है लेकिन बेहद निर्णायक रहा
है. इसकी तुलना में राजीव-बेनजीर समझौते यानी अस्सी के दशक के बाद कांग्रेस के
नेतृत्व में, दोतरफा
रिश्तों का रसायन ठंडा ही रहा. वाजपेयी वैचारिक रूप से पाकिस्तान बनाने के
सिद्धांत के विपरीत थे लेकिन पड़ोसी को लेकर उनकी सदाशयता और सकारात्मकता ने
उन्हें कभी दो-टूक नहीं होने दिया, जिसका नुक्सान भी हुआ. फरवरी 1999 में वाजपेयी के
नेतृत्व में अमन की बस लाहौर पहुंची तो दोस्ती के गीत बजे लेकिन मई आते आते करगिल
हो गया और पूरा देश पाकिस्तान के खिलाफ घृणा से भर गया. 2001 में आगरा की शिखर
बैठक में दोस्ती की एक असफल कोशिश हुई लेकिन 2002 में संसद पर हमले के बाद माहौल और बिगड़ गया. वह पहला
मौका था जब वाजपेयी दो-टूक हुए, भारतीय सेना सीमा की तरफ बढ़ी और मुशर्रफ ने नरम पड़ते हुए, आतंक पर रोकथाम का
वादा किया जो कभी पूरा नहीं हुआ
मोदी के
शपथग्रहण में नवाज शरीफ की मौजूदगी, वाजपेयी मॉडल का हिस्सा थी लेकिन जब अगस्त में दो-टूक
तेवरों के साथ पाकिस्तान से वार्ता रोकी गई तो साफ हो गया कि मोदी खुद को वाजपेयी
की तरह पाकिस्तान से उलझए नहीं रखेंगे. पाकिस्तान से रिश्ते, उनकी ग्लोबल डिजाइन
का एक छोटा-सा हिस्सा हैं.
मोदी की वैश्विक
महत्वाकांक्षाएं रहस्य नहीं हैं. उन्होंने घरेलू गवर्नेंस की अनदेखी का जोखिम उठा
कर खुद को विश्व मंच पर स्थापित करने की कोशिश की है. अलबत्ता उनकी कोशिशों में
पड़ोसी ही बाधा बने हैं. चीन ने आंख में आंख डालकर घुसपैठ की और पाकिस्तान ने तो
बारूदी मोर्चा ही खोल दिया. गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के तौर पर अमेरिकी
राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा, मोदी के नए नवेले ग्लोबल कूटनीतिक अभियान का सबसे
महत्वपूर्ण पड़ाव है और मोदी इसे हर तरह से भव्य व निरापद रखना चाहते थे. लेकिन यह आयोजन
आतंक, असुरक्षा
और अंदेशों का साये में आ ही गया है जो पाकिस्तान की डिजाइन का मकसद है. दरअसल, मोदी ने जब अगस्त
में पाकिस्तान से वार्ताएं रोकीं थीं तब तक न तो उनकी ग्लोबल योजनाएं स्पष्ट थीं
और न ही ओबामा के भारत आने का कार्यक्रम था. लेकिन अब जब भारत अपनी ग्लोबल कूटनीति
में निर्णायक करवट की दहलीज पर खड़ा है, तब विदेश और प्रतिरक्षा संवादों से गुजरते हुए यह महसूस
किया जा सकता है कि पाकिस्तान को लेकर भारत की दो-टूक रणनीति को दुविधाओं ने घेर
लिया है.
पाकिस्तान को लेकर
मोदी के तेवर उनके चुनाव अभियान के माफिक हैं, जो पिछली सरकार की पाकिस्तान नीति को लचर साबित करता था.
यही वजह है कि जब पाकिस्तान की हरकतों से मोदी की सख्त छवि सवालों में घिरी, तो सीमा पर
प्रतिरक्षा तंत्र ने ऐलानिया जवाबी कार्रवाई की. रक्षा और गृह मंत्रियों के बेलाग
लपेट बयान भी यह बताते हैं कि रक्षा तंत्र, कांग्रेस व वाजपेयी के दौर की प्रतिरक्षात्मक रणनीति से
आगे निकल आया है. अरब सागर में आग
लगने के बाद डूबी नौका में आतंकी थे या नहीं, यह बात दीगर है लेकिन इसे लेकर सुरक्षा बलों ने जो
सक्रियता दिखाई वह बताती है कि करगिल व 26/11 के बाद रक्षा बल किसी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं
हैं. कूटनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि अगर ओबामा की यात्रा से पहले या बाद
में भी, पाकिस्तान
प्रेरित बड़ा दुस्साहस होता है तो भारत के लिए फैसले की कठिन घड़ी होगी क्योंकि
सीमा पर बात काफी आगे बढ़ चुकी है.
मोदी ने वहीं से
शुरुआत की है जहां वाजपेयी ने छोड़ा था. वाजपेयी का अंतिम बड़ा निर्णय आक्रामक ही
था जब संसद पर हमले के बाद सेना को सीमा की तरफ बढ़ाया गया था. वाजपेयी से मोदी तक
आते पाकिस्तान ज्यादा आक्रामक, विघटित और अविश्वसनीय हो गया है. पाकिस्तान को लेकर वाजपेयी
जैसी सदाशयता मोदी की, ग्लोबल
महत्वाकांक्षाओं के माफिक है और घरेलू राजनीति में लोकप्रिय बने रहने के लिए
इंदिरा गांधी वाला हॉट परस्यूट कारगर है. दोनों विकल्पों के
अपने नुक्सान हैं लेकिन मोदी कांग्रेस की तरह बीच में नहीं टिक सकते, क्योंकि पाकिस्तान
से उनके रिश्तों की शुरुआत दो-टूक हुई है. उन्हें वाजपेयी बनना होगा या इंदिरा
गांधी. 2015 में मोदी
के इस चुनाव का नतीजा भी आ ही जाएगा और देश को उसके असर के लिए तैयार रहना होगा.