Monday, November 23, 2009

लूट के सरपरस्त

पैसा चाहे दान का हो या लूट का, सफेद हो या काला, श्रम से आया हो या धतकरम से, निवेश से मिला हो या उपनिवेश से.. पैसा अपना रास्ता तलाश ही लेता है। काले पैसे की दुनिया में अकेले सिर्फ देने, लेने या लूटने वाले हाथ ही नहीं होते बल्कि इसे सहेजने, संजोने, निवेश करने और लूट को धोने की लॉंड्री चलाने वाले हाथ भी होते हैं। तब ही तो राजनीतिक भ्रष्टाचार जरिये दुनिया में हर साल 1.6 खरब डालर की लूट (विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र संघ का आकलन)होती है, जो कैरेबियन कैमन आइलैंड,अफ्रीका में लाइबेरिया से लेकर यूरोप में लंदन और पूर्व में मकाऊ तक कर बचाने के स्वर्गो छिप जाती है या फिर शेयर बाजार और अचल संपत्ति के धंधे में खप जाती है। बड़ी दिलचस्प बात है कि लूट के इस खेल में देने लेने वाले हाथ भले ही छिपे हों लेकिन लूट की हिफाजत करने वाले हाथ सबको दिखते हैं। काली कमाई को धोने वाले यह हाथ इतने उजले हैं कि इन्हीं के जरिये विकासशील देशों के भ्रष्ट राजनेता और अपराधी हर साल 500 से 800 अरब डॉलर यानी प्रतिदिन करीब दो अरब डॉलर पार कर देते हैं।
लूट का माल जमीन में डाल
भ्रष्ट राजनेताओं से लेकर चालबाज उद्यमियों तक जमीन सबके कुकर्म को शरण देती है तभी तो अचल संपत्ति कीमतों में कोई तुक तर्क नहीं होता और सत्यम के संकट की पृष्ठभूमि राजू परिवार के अचल संपत्ति निवेशों से जुड़ती है। भारत के उभरते हुए शहर अचल संपत्ति के निवेशकों का स्वर्ग हैं और वित्त मंत्रालय के ताजे आंकड़ो मुताबिक 2008-09 में करीब 2000 करोड़ रुपये के कर चोरी मामलों के साथ भारत का अचल संपित्त क्षेत्र काली कमाई की जन्नत है। अंतरराष्ट्रीय संगठन फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की रिपोर्र्टे अचल संपत्ति और मनी लॉड्रिंग के रिश्ते बखानने वाले उदारहणों से भरी पड़ी हैं। अमेरिका में यह मानने वालों की कमी नहीं है कि दुनिया को हिलाने वाला वित्तीय संकट वहां की अचल संपत्ति के भ्रष्टाचार से उपजा था। अमेरिकी जनता को अपने अचल संपत्ति डेवलपरों संगठन नेशनल एसोसिएशन ऑफ रिएलटर्स की ताकत का अंदाजा है। यह 2008 में अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनावों में यह संगठन चंदा देने वालों में सबसे ऊपर था। बताते चलें कि अमेरिका में 2006 तक दस सालों के दौरान संदेहास्पद वित्तीय गतिविधियों के करीब 260 मामलों में 132 केवल अचल संपत्ति से संबंधित थे। दरअसल अचल संपत्ति के कारोबार में काली कमाई को धोना सबसे आसान है क्यों कि यहां कर्ज, ट्रस्ट, फर्जी कंपनियों सहित दर्जनों ऐसे रास्ते हैं रास्ते जहां लूट का माल खप जाता है इसलिए कर चोरी के स्वर्गो की दुनिया में जमा धन भी बडे़े पैमाने पर अचल संपत्ति के अंतरराष्ट्रीय खेल में पनाह पाता है। इन जन्नतों में सब माफ
कर बचाइये,संपत्ति प्रबंधन सेवा का लाभ उठाइये। .. दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित वित्तीय पत्रिकाओं में आमतौर पर छपने वाले इस तरह के विज्ञापन कर चोरी के स्वर्गो से जुडे़े एजेंटों के होते हैं। जी 20 की बैठकों में होने वाले दिखावे पर मत जाइये। इस वित्तीय संकट से पहले भी दुनिया में कर चोरी के स्वर्ग थे और अब भी करीब 70 टैक्स हैवेन काम कर रहे हैं, जिनमें से 25 तो यूरोप में हैं। दुनिया के भ्रष्ट नेताओं की लूट यहां किस तरह पनाह पाती है इस पर अगर किसी को शक हो तो उसे स्विटरजरलैंड के विदेश मंत्री के अप्रैल में दिये गए बयान को याद करना चाहिए। जिसमें उन्होंने माना था कि नाइजीरिया में रिश्वतखोरी के 1800 लाख डॉलर स्विस बैंकों में जमा हैं और सरकार इसे वापस करने को तैयार है। इन कर स्वर्गो के सहारे दुनिया के देशों के लूट के अरबों डॉलर उड़ जाते हैं। तभी तो चैनल आईलैंड के बैंकों में 1975 से जमा राशि जो अरब डॉलर थी पिछले साल 200 अरब डॉलर पहुंच गई है। स्वतंत्र अध्ययनों में यह माना गया है कि इन लूट के पनाहगारों के पास करीब 2.7 खबर डॉलर जमा हैं जो कि दुनिया में कुल बैंक जमा का 20 फीसदी है। भ्रष्ट नेता, अधिकारी व कंपनियों के जरिये विकासशील मुल्कों से होने वाली कैपिटल फ्लाइट के सहारे यह जन्नतें इस कदर गुलजार हैं यिह आईएमएफ को यह कहना पड़ा कि दुनिया के वित्तीय बाजारों में लगभग एक तिहाई निवेश टैक्स हैवेन के जरिये होता है। अंकटाड को सुनिये जो यह कहता है कि दुनिया का एक तिहाई प्रत्यक्ष निवेश कर चोरी के स्वर्गो के जरिये होता है।
वित्तीय बाजार में सबका उद्धार
काली कमाई है तो उसे अचल संपत्ति में धोइये और कर स्वर्गो में संजोइये। बाद में तो सब वित्तीय बाजार में ही आना है क्यों कि लक्ष्मी चंचला है और दुनिया के वित्तीय बाजार उसका क्रीडांगन हैं। कर स्वर्गो में जमा राशि से दुनिया वित्तीय बाजार झूमते है ंऔर हेज फंड मौज करते हैं। दुनिया को 1998 में कनाडा के वाईबीएम मैगेक्स कार्पोरेशन को नहीं भूलना चाहिए जिसे अरबों डॉलर की मनी लॉड्रिंग का स्रोत माना गया था और शेयर बाजार से हटा दिया गया था। इस तरह की पता कितनी और कंपनियां शेयरों से लेकर जिंस बाजारों तक फैली हैं जिनका अतीत और वर्तमान नहीं परखा जाता। वह तो वित्तीय बाजारों की लहरों पर मौज करती हैं और सफाई के साथ लूट का माल बाजारों में खपा देती हैं। कर स्वर्गो से निकला धन चूंकि उजला होता है इसलिए इसे पोर्टफोलियो निवेश में गिना जाता है फिर चाहे वह पैसा अचल संपत्ति की कीमतों में आग लगाये या शेयर और जिंस बाजारों को बेसिर पैर वजहों से उछाल दे। वित्तीय उपकरणों की इतनी किस्में आ चुकी हैं कि उनके बीच घूमकर सब कुछ साफ हो जाता है। तभी तो अमेरिकी सीनेट समिति ने केपीएमजी की जांच में यह पाया था वह कई तरह के अवैध कर बचत वित्तीय उपकरण बेचती है। मार्टगेज कर्जो से लेकर बीमा उद्योग तक पसरे खरबों के डॉलर के पोर्टफोलिया निवेश कौन सा पैसा कहां से आया है किसीको नहीं मालूम। बस पैसा एक बार इस मशीन में आ जाए तो वह साफ होकर ही निकलता है। दुनिया को अनाज, रोजगार, मकान, पानी, दवा, सड़कें और बिजली चाहिए। इन्हीं के लिए तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य तय किये जिनके जरिये 2015 तक दुनिया से भूख व गरीबी मिटाई जानी है। हैरत में पड़ जाएंगे आप कि दुनिया को रहने लायक बनाने के इन लक्ष्यों अधिकतम लागत अधिकतम 528 अरब डॉलर है जो विकासशील देशों से हर साल होने वाली लूट से कम है। दुनिया इस खुली चोरी पर शर्मिदा है, मगर यह शर्मसार दुनिया गुस्से की नहीं हमारी की दया की पात्र है। क्यों कि देने लेने वाले हाथों को बांधने की बात तो दूर यह लूट के माल को ठिकाने लगाने के ठिकाने भी बंद नहीं कर पाती। काले धन की खपत रुक जाए तो इसकी पैदावार भी रुक सकती है, मगर लुटने वालों की बदकिस्मती तो देखिये कि दुनिया में आर्थिक उदारीकरण के बाद वित्तीय मशीन को चिकना करने लगी है। .. मूरत संवारने में बिगड़ती चली गई, पहले से हो गया है जहां और भी खराब।
anshumantiwari@del.jagran.com

Tuesday, November 17, 2009

समृद्धि का अभिशाप

मधु कोड़ा को तो कोस ही रहे हैं न, लगे हाथ कुदरत को भी कोसिये, कानून को भी और साथ में खुद को भी। कुदरत जहां जमीन के नीचे समृद्धि का हिरण्य (सोना) भर देती है वहां जमीन के ऊपर हमेशा हिंसा,अपराध और भ्रष्टाचार का महाअरण्य उग आता है। इसलिए ही तो महज एक दशक के राजनीतिक अतीत और तीस माह से भी कम के कार्यकाल में मधु कोड़ा भारत में राजनीतिक भ्रष्टाचार के महा खलनायक बन जाते हैं। चौंकिये मत, मधु कोड़ा दुनिया के उन असंख्य घृणित भ्रष्टाचार प्रसं"ों में एक नया संदर्भ हैं जो खनिजों से भरी धरती के ऊपर जन्मते रहे हैं। सीको मोबोतू, (जैरे के पूर्व शासक) सानी अबाचा (नाइजीरिया के पूर्व शासक) और युवारो मुसुवेनी (युगांडा के पूर्व शासक) आदि ने जिस तरह खनिज संपत्ति से भरपूर वसुधा पर भ्रष्टाचार के अप्रतिम भवन बनाये थे मधु कोड़ा ने भी ठीक उसी तरह झारखंड में भ्रष्टाचार के शिखर गढ़े हैं। प्राकृतिक समृद्धि अक्सर सत्ता तंत्र को बिगाड़ती है तभी तो दुनिया के सर्वकालिक दस महाभ्रष्ट नेताओं में से आधे से अधिक का रिश्ता किसी न किसी तरह से प्राकृतिक समृद्धि की जमीनों से है। इन्हें देखकर ही आर्थिक दुनिया को समृद्धि के अभिशाप या रिसोर्स कर्स का सिद्धांत गढ़ना पड़ा। खनिजों से भरपूर धरती के ऊपर अगर कानून ढीले और नेता लालची हों तो वहां डेमोक्रेसी या आटोक्रेसी नहीं बल्कि क्लेप्टोक्रेसी (लूट का शासन)राज करती है, जो सिर्फ लूटना और लुटाना जानती है। दीन हीन और दरिद्र अधिकांश अफ्रीका आज इसी समृद्धि से शापित और इस प्रणाली से शासित है। झारखंड भारत में इस अभिशाप और शासन की एक ताजी बानगी है।
गरीब बनाने वाली अमीरी
झारखंड को अगर कुछ देर के लिए हम एक स्वतंत्र देश में मान लें तो अफ्रीका में इसके कई समतुल्य मिल जाएंगे। यहां वह सब कुछ है जो एक रिसोर्स कर्स्ड यानी समृद्धि से शापित किसी मुल्क में होता है। जाम्बिया, कांगो, नाइजीरिया, सिएरा लियोन, अंगोला, लाइबेरिया हो सकता है कि झारखंड से बदतर हों लेकिन समृद्धि के अभिशाप के मामले में झारखंड उनके ही जैसा है। अफ्रीका के इन सभी अजीबोगरीब बदकिस्मत में मुल्कों में गृह युद्ध, हथियार बंद गिरोह, मौत, बीमारी, गरीबी का साम्राज्य वर्षो से है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन देशों को निचोड़ती हैं और भ्रष्ट राजनेता व नौकरशाह सभी सुख भोगते हैं। रक्तपात, भ्रष्टाचार, रिश्वत देने वाली कंपनियां, दरिद्र जनता और कमजोर विकास दर, समृद्धि से अभिशप्त किसी भी क्षेत्र की पहचान हैं और झारखंड में यह सब पूरी ठसक के साथ मौजूद है। यहां सिएरा लिओन जैसा गृह युद्ध भले न हो मगर नक्सलवाद है तो जो संगठित पुलिस व सुरक्षा बल पर हमला करता है। गरीबी की रेखा नीचे एक बड़ी आबादी है, तरह तरह से छले जाते आदिवासी है और इन सब के ऊपर मधु कोड़ाओं का भ्रष्ट तंत्र है। समृद्धि के अभिशाप को फलीभूत होने के लिए और क्या चाहिए? इसलिए ही तो एक सीमित क्षेत्र में तेल, हीरे, सोने अन्य खनिजों की भरमार को दुनिया अर्थशास्त्री अवसर कम आफत ज्यादा मानते हैं। क्यों कि प्राकृतिक समृद्धि कुछ ऐसी पेचीदा आर्थिक विसंगतियां पैदा कर देती जिससे बहुत किस्मत वाले राष्ट्र निकल पाते हैं।
खोदो-खाओ-खिलाओ
भारत की 40 फीसदी खनिज संपदा अपने गर्भ में संजोये झारखंड की विकास दर आखिर राष्ट्रीय आर्थिक विकास दर या कई अन्य रा'यों से कम क्यों है? क्यों सालाना करीब 6000 करोड़ रुपये के खनिज उत्पादन वाले इस राज्य में 75 फीसदी लो"ों के पेट में दाना खेती से ही पड़ता है? दुनिया भर अर्थशास्त्री यह गुत्थी नहीं सुलझा पाते आखिर प्रकृति से उपकृत देश या राज्य विकास में उन देशों या राज्यों से पीछे क्यों होते हैं जहां प्राकृतिक संसाधनो की इतनी भरमार नहीं है। दरअसल प्राकृतिक समृद्धि जल्दी पैसा कमाने का मौका देती है। खनिज निकालने के लिए उद्योग बिठाने की जरुरत नहीं होती। इसलिए जो देश अकूत खनिजों के धनी हैं वहां औद्योगिकीकरण कम होता है और कमाई कुछ लोगों के हाथ केंद्रित है। अफ्रीकी देश गैबन प्रतिदिन तीन लाख बैरल तेल निकालता है, लेकिन यहां सब कुछ आयात होता है। नाइजीरिया में दुनिया का सबसे दसवां सबसे बड़ा तेल भंडार है लेकिन नाइजर डेल्टा के लोग पत्थर युग में जी रहे है। कांगो की कहानी दुनिया जानती है और लाइबेरिया की लकड़ी बेचकर हथियारबंद गुरिल्ला गिरोह एक दूसरे को मारते हैं। खनन उद्योग वह सरकारों को अच्छे राजस्व और राजनेताओं को शीघ्र धन लाभ के नायाब सूत्र देता है और खनन के अधिकार हासिल कर संगठित मैन्युफैक्चरिंग उद्योग पनपने की संभावनायें समाप्त कर देता है। समृद्धि के अभिशाप का एक पहलू यह भी है कि एक जगह एक खनिज का बड़ा भंडार मिलने के बाद अन्य स्थानों पर इसे तलाशने की कोशिशें धीमी पड़ जाती हैं। खनिज अपनी खनन लागत से ज्यादा रिटर्न देते हैं इसलिए यह चोखा धंधा है और खनन उद्योग भ्रष्टाचार के लिए दुनिया में बदनाम है।
कानून की कठपुतलियां
ढाई साल में तो कोई मुख्यमंत्री सत्ता व प्रशासन की बारीकी समझ पाता है और वह भी जब उसे पहली बार यह कुर्सी मिली हो लेकिन कोड़ा ने ढाई साल में सब कुछ कर लिया। खनिजों से भरपूर क्षेत्रों में ऐसा होना आम बात है। दरअसल प्राकृतिक समृद्धि, रिश्वत देने वाली कंपनियां और लालची नेता मिलकर एक दुष्चक्र बना देते हैं जिनके बीच फंसकर कानून कठपुतलियों की तरह नाचते हैं। खनन उद्योग सबसे जल्दी कमाई कराता है इसलिए यहां राजनेता आनन फानन मे कानून बदलते हैं। खनन उद्यो" से जुड़े लोग अक्सर चुटकी लेते हैं कि इस कारोबार में फाइलें सबसे तेज चलती हैं। कमजोर संस्थायें और व्यवस्था तथा निवेश करने वाले भ्रष्ट मगर बड़े नामों का प्रचार तंत्र राजनेताओं पूरी मदद देता है। इसलिए खनिज से धनी देशों में भ्रष्टाचार पूरी तरह संगठित है। बल्कि अब दुनिया की कंपनियां तो इस बात पर बहस करती हैं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का सुहार्तो मॉडल उचित है या भारतीय मॉडल। कोरिया या इंडोनेशिया में लेनहार एक ही था मगर भारत में कई हैं। अगर कानून कमजोर हों तो लोकतंत्र में भ्रष्टाचार किसी अन्य शासन प्रणाली से ज्यादा होता है और सरकारें अस्थिर व कमजोर हों तो फिर क्या कहने? यही वजह है मैनकर ओल्सन(लॉबीइंग या इंटरेस्ट ग्रुप सिद्धांत के प्रणेता) ने शायद भ्रष्टाचार के संदर्भ में कहीं लिखा था कि घुमंतू लुटेरों से तो स्थायी लुटेरे ठीक हैं। अर्थात भ्रष्ट सरकारें स्थिर हों तो भी राहत है कम से कम कुछ तो तय होता है।
ऐसा नहीं है कि खनिजों से मालामाल दुनिया के सभी देश अभिशप्त हैं। अफ्रीका में बोत्सवाना, यूरोप में नार्वे, उत्तर अमेरिका में कनाडा, ओशेनिया में ऑस्ट्रेलिया ऐसे देश हैं जिन्होंने समृद्धि के अभिशाप को बेअसर किया है। हीरे जैसे अभिशप्त खनिज से भरपूर बोत्सवाना के ईमानदार राजनेताओं व मजबूत संस्थाओं उसे अंगोला या नाइजीरिया नहीं बनने दिया और अपने मुल्क को दुनिया की सबसे तेज विकास वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल किया। दुनिया का तीसरे सबसे बड़े तेल निर्यातक नार्वे ने भी अपनी प्राकृतिक समृद्धि को कायदे से संभाला है। भारत में झारखंड प्राकृतिक समृद्धि से आने वाली बीमारियों का बनता हुआ नमूना है। भारत के कुछ अन्य राज्य भी इससे नसीहत ले सकते है क्यों कि भ्रष्टाचार व हिंसा के रुप में समृद्धि का अभिशाप इस राज्य पर असर करता दिखने लगा है। अगर कोई सबक ले तो संभावनामय झारखंड बोत्सवाना बन सकता है नहीं तो इसकी हिरण्यगर्भा धरती इसे हथियार बंद गिरोहों और भ्रष्ट नेताओं का अभयारण्य बनाने लगी है। anshumantiwari@del.jagran.com

Monday, November 9, 2009

देनहार कोई और है...

सिमेंस, बीएई सिस्टम्स, ल्युसेंट, केलाग्स ब्राउन, सन माइक्रोसिस्टम्स और रायल डच शेल में क्या समानता है? यह सभी बहुराष्ट्रीय दिग्गज रिश्वत देने वाली कंपनियों की सूची (अमेरिकी जस्टिस विभाग) के सरताज हैं। फर्डिनांडो मार्कोसों और अल्बर्तो फुजीमोरियों से लेकर मधु कोड़ाओं तक की गिनती लगाते हुए हम यह भूल ही गए कि देने वाले हाथ भी होते हैं। यह नाम देने वाले दिग्गज हाथों में से कुछ के हैं जो यह आर्थिक उदारीकरण के नए और बहुरूप चेहरों से नियंत्रित होते हैं। यह पूरा परिदृश्य भ्रष्टाचार के बड़े राजनीतिक चेहरों के बीच गुम जाता है, क्योंकि उदारीकरण के गुन गाते और भ्रष्टाचार को गरियाते हम यह यह तलाशना भी भूल जाते हैं कि भ्रष्टाचार को कहीं उदारीकरण से पोषण तो नहीं मिलने लगा है? दरअसल अगर लाइसेंस परमिट राज भ्रष्टाचार का पूर्णत: सरकारी और केंद्रित स्वरूप था तो उदारीकरण, कई संदर्भो में, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार जैसे धतकरमों के विकेंद्रीकृत और अभिनव प्रयोग लेकर आया है। देने वाले और लेने वाले हाथ तो वही हैं, लेकिन लेन-देन के ढंग ढर्रे ज्यादा चुस्त, चतुर और पेचीदा हो गए हैं। पूरी दुनिया वित्तीय कुकर्मो की इस नई पीढ़ी से हलकान है अलबत्ता लेने-देने वालों की पौ-बारह है।
गरम मुट्ठी लाख
कीब्रिटेन की हथियार निर्माता बीएई सऊदी अरब में जेट का सौदा हथियाने के लिए अरबों डालर की रिश्वत दे डालती है। मामला ब्रिटेन के सीरियस फ्राड आफिस के पास है। जर्मन कंपनी औद्योगिक दिग्गज सिमेंस ठेके लेने के लिए दुनिया में एक अरब डालर की रिश्वत बांट पता नहीं कितनों को भ्रष्ट कर देती है। केलाग्स नाइजीरियन नौकरशाहों को रिश्वत की लत लगा देती है तो ल्युसेंट चीन के भ्रष्टाचार पोषक माहौल में खुलकर खेलती है। ..यह सूची बहुत लंबी है और इसमें दर्ज नामों में दिग्गजों की कमी नहीं है। अमेरिका का जस्टिस विभाग ऐसी 120 कंपनियों के खिलाफ जांच कर रहा है, जिन्होंने दुनिया में बहुतों का ईमान बिगाड़ा है। ओईसीडी हर साल एक रिपोर्ट जारी कर दुनिया को कारोबारी दुनिया में रिश्वतखोरी की डरावनी तस्वीर दिखाता है और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल हर साल सर पीटता है, मगर देने वाले हाथ हमेशा लंबे और मजबूत साबित होते हैं। संभावनामय बाजारों के दरवाजे पर नीतियों की मुहर लेकर बैठे राजनेता और नौकरशाह इनके आसान निशाने हैं। यह राजनेता इन कंपनियों को सिर्फ इसलिए हाथों-हाथ नहीं लेते क्योंकि यह उनकी समृद्धि की ललक को पूरा करती हैं, बल्कि यह दिग्गज इसलिए भी अपना काम करा ले जाते हैं, क्योंकि यह निवेश, रोजगार, विकास के अग्रदूत बन कर आते हैं। विकास व निवेश के भूखे विकासशील देशों के लिए यह देने वाले हाथ किसी महादानी के हाथों से कम नहीं होते इसलिए तीसरी दुनिया के नीति निर्माता इन दिग्गजों की दागदार दुनिया पर निगाह भी नहीं डालते।
और हिचक किस बात की?
पूरी दुनिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ब्राइबिंग के बिजनेस को इतना चुस्त व चतुर कर दिया है कि नेताओं के लिए इनसे डील करना ज्यादा सुरक्षित हो गया है। दर्जनों तरीके हैं, काम कराने से लेकर पैसा देने वाली एजे¨सयों की कई पर्ते हैं और हित साधने के साधन पूरी दुनिया में फैले हैं। ओईसीडी परेशान है कि आखिर इन बीच की एजेंसियों का क्या किया जाए जो कि देने वाले दिग्गजों और लेने वाले लालचियों के बीच इतनी सफाई से काम करती हैं कि पकड़ना मुश्किल हो जाता है। दरअसल यह लेन-देन को तरह-तरह के नायाब और वैध आवरण पहनाना अब एक कंसल्टेंसी है, जो बाजार में आसानी से मिलती है। इसीलिए तो विदेश में रिश्वत के खिलाफ दुनिया के जिन देशों में कानून भी हैं वहां भी कंपनियों पर शिकंजा कसना मुश्किल होता है। तभी तो एक बहुराष्ट्रीय दिग्गज ने चीन के अधिकारियों को लास वेगास की सैर कराकर अपना काम करा लिया और काफी वक्त तक कोई पकड़ नहीं सका। पूरी दुनिया उदारीकरण की दीवानी है। इस दीवानगी में हर देश अपने कानूनों को बदल रहा है ताकि उसकी जनता को विकास और समृद्धि मिले। यह मिलती भी है, लेकिन इसके साथ देने वाले हाथों की चालाकी भी आती है। यह हाथ ऐसे कानून बनवाने व बदलवाने में माहिर हैं, जिनसे विकास की जरुरतें भी पूरी होती हों और उनके कारोबारी हित भी सध जाएं। जाहिर जब दोनों काम एक साथ हो रहे हों और राजनेताओं को बोनस में मेहनताना मिल रहा हो तो फिर हिचक किस बात की?
भ्रष्टाचार का उदारीकरण
एक बड़ा पेचीदा सवाल है कि उदारीकरण से भ्रष्टाचार मिटता है या बढ़ता है। लाइसेंस परमिट राज के परम भ्रष्ट दौर को देख चुके लोग उदार नियमों को भ्रष्टाचार का इलाज मानते हैं मगर जरा भारत पर गौर फरमाइए। जिन बड़े वित्तीय व आर्थिक घोटाले उदारीकरण के पिछले करीब दो दशकों में हुए हैं, उतने पहले के चालीस वर्षो में नहीं हुए। शेयर बाजार, कंपनी प्रबंधन, सरकारी अनुबंध, निवेश कानून, वित्तीय सेवाएं, अचल संपत्ति, लाइसेंस परमिट लगभग हर जगह एक न एक बड़ा घोटाला दर्ज हो चुका है। रोचेस्टर इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी के आर्थिक विभाग ने कुछ वर्ष पहले एक अध्ययन में यह पाया था कि उदारीकरण भ्रष्टाचार दूर करने की दवा नहीं है, बल्कि तीसरी दुनिया के कई देशों में उदारीकरण ने भ्रष्टाचार को खाद पानी दे दिया है। नियम ढीले हुए हैं, प्रतिस्पर्धा बढ़ी है, नए अवसर आए हैं और निवेशकों ने बाजार की तरफ रुख किया है तो राजनेताओं की मुट्ठियां ज्यादा गरम हुई हैं क्योंकि अब दांव बड़े हैं और खिलाड़ी कई। कई जगह यह पाया गया है कि जिन देशों में लोकतंत्र और उदारीकरण एक साथ आया, वहां भ्रष्टाचार कम पनपा मगर जिन देशों में लोकतंत्र पहले आया और अर्थव्यवस्थाओं के दरवाजे काफी समय बाद खुले वहां उदारीकरण ने लेने और देने वाले हाथों के लिए चांदी काटने का इंतजाम कर दिया है। भारत के संदर्भ में अभी इस रिश्ते की पड़ताल होनी है।
भ्रष्टाचार की गुत्थी पहले से कडि़यल है, राजनीति व नौकरशाही ने इसे हमेशा कसा है और अब दिग्गज कंपनियां इसमें एडहेसिव डाल कर इसे और सख्त कर रही हैं। दरअसल भारत में लेने वाले हाथ इतने बड़े हैं कि उन की ओट में देने वाले हाथ छिप जाते हैं या फिर बेदाग नजर आते हैं। इसलिए हम इस तंत्र के दूसरे पक्ष की तरफ नहीं देख पाते मगर दुनिया ने अब कंपनियों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। जल्द ही हमें भी इन अपवित्र दानियों की तरफ देखना होगा। तब तक भ्रष्टाचार में फंसे नेता, अच्छे संदर्भो में लिखे गए, रहीम के इस दोहे के सहारे अपना बचाव कर सकते हैं.. देनहार कोई और है भेजत है दिन रैन, लोग भरम हम पर करें तासे नीचे नैन।

Monday, November 2, 2009

अभी धोखे हैं इस राह में

इसी को कहते हैं जोर का झटका.. आप सोच रहे थे कि मंदी गई तो अब होगीी रोज"गारों की भरमार। उद्योगों को मिलेगी मांग की पुचकार। सस्ता होगा कर्ज जो मिलेगा बार-बार और बाजार में होगी सस्ते सामान की बहार। मगर यहां महंगाई और महंगे कर्ज का खतरा सामने है। यह एंटी क्लाइमेक्स है। मंदी तो उम्मीदों से उलटा संसार छोड़ कर जा रही है। सभी आश्ंाकाओं के विपरीत अगर मंदी जल्दी यानी महज दो ढाई साल में खत्म हो गई है तो यह भी सही हैकि मंदी सभी आशाओं से विपरीत मंदी के बान बन रहा माहौल बड़ा अजीबोगरीब है। सिर्फ ढाई साल की मंदी ने दुनिया को कम से कम अगले कई महीनों तक तक सताने वाली ऐसी कमजोरियां दे दी हैं। जिनके कारण अर्थव्यवस्थायें अपनी कमर सीधी नहीं कर सकेंगी। चौंकियेगा नहीं अगर कुछ दुनिया के कुछ देशों या हिस्सों में मंदी लंबी खिंच जाए क्यों कि अब मंदी के खिलाफ सामूहिक जंग का दौर खत्म हो रहा है। आने वाला दौर अब देश, बैंक और कंपनियों की अपनी ताकत की परीक्षा लेगा क्यों कि अब मंदी की बाद की दुनिया में होंगे खाली खजाने, कमजोर कंपनियां, अवमूल्यित मुद्रायें अप्रत्याशित संरंक्षणवाद आदि आदि.. अर्थात बड़े धोखे हैं इस राह में !!!
बदहाल बैलेंस शीटबैलेंस शीट
रिसेशन .. जापान इस शब्द से नब्बे के दशक से परिचित है। दुनिया को शायद अब इसका अहसास होगा। मंदी खत्म होने के वक्त दुनिया अक्सर मिल्टन फ्रीडमैन के सिद्धांत को याद करती है। फ्रीडमैन बता गए हैं कि मंदी के बाद अर्थव्यवस्था छलांग मारती है क्यों कि जो संसाधन अनुपयोगी पड़े रहते हैं वह उत्पादन में वापस लौट आते हैं। सामान्य रुप से ऐसा होता है लेकिन अगर मंदी गहरी हो और उत्पादन में गिरावट तेज हो तो फिर मंदी बाजार से निकल कर कंपनियों की बैलेंस शीट तक पहुंच जाती है। 1992 में तेज गिरावट के बाद जापान की अर्थव्यवस्था अब तक उस विकास दर को हासिल नहीं कर सकी जो कि वहां अस्सी के दशक में थी। दुनिया इसे बैलेंस शीट रिसेशन के नाम से जानती है क्यों कि कंपनियां उस पैमाने पर उतपादन नहीं बढ़ा पाईं जैसा कि अपेक्षित था। इस किस्म की मंदी लंबी चलने डर कुछ मजबूत कारणों पर आधारित है। यह मंदी अपने पूर्वजों की तरह आर्थिक उत्पादन प्रक्रिया में किसी गिरावट से नहीं आई है बल्कि यह समस्या उन वित्तीय प्रतिष्ठानों का उपहार है जो उत्पादक तंत्र को संसाधन देते हैं। यह मंदी बैंकिंग, पूंजी बाजार आदि की समस्याओं के कारण आई। इसके जो इलाज किये हैं उनसे बाजार में उत्पादक संसाधनों की कमी भी होनी है क्यों कि अब बैंक हाथ सिकोड़ रहे हैं। कर्ज कम मिलेगा और महंगा भी, अर्थात जब उद्योग जोखिम लेने का साहस जुटा रहे होंगे तब मांग के बढ़ाने को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा। इसलिए ही तो दुनिया फ्रीडमैन के फार्मूले के दोहराये जाने और विकास दर के उछाल मारने पर भरोसा नहीं कर पा रही है।
बाजारों में बैरियर
मंदी की जकड़ से आजाद होने की कोशिश कर रही दुनिया को ब्रिक देशों यानी भारत, चीन, ब्राजील, रुस से बहुत उम्मीदें हैं, मगर उम्मीद के नवजात केंद्रों को बड़ों यानी विकसित देशों की दुनिया से डरना चाहिए। मंदी के बाद अपनी अर्थव्यवस्थाओं बैसाखी देने में लगे विकसित देश वही कर सकते हैं जो 1971 में अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन ने किया था। निक्सन ने अमेरिका में आयातों पर दस फीसदी अधिभार लगा दिया था, जिसके बाद निर्यातक देशों ने अपने निर्यातों को प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के लिए अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन करना शुरु कर दिया। हाल में ही जब ओबामा ने चीनी टायरों पर आयात शुल्क बढ़ाया तो दुनिया को निक्सन नजर आ गए। विकसित देशों के अपनी जनता के लिए रोजगार चाहिए जिसके लिए उन्हें निर्यात करना होगा इधर भारत व चीन जैसी एशिया की अर्थव्यवस्थायें उन्हें बाजार में टिकने नहीं देंगी। बल्कि विकसित देशों के अपने बाजार इन निर्यात के इन मंगोलों का निशाना होंगे। इसलिए मंदी के बाद बाजारों के उदार होने के फालतू ख्याल मत पालिये। बाजार खुलेंगे नहीं बल्कि तरह तरह से बंद होंगे और मुद्राओं को सस्ता कर बढ़त लेने की होड़ शुरु होगी।
फिर वही महंगाई
मंदी से पहले महंगाई और मंदी के बाद महंगाई। .. इस मंदी की यह सबसे जटिल विरासत है कि महंगाई की गुत्थी और कडि़यल होने वाली है। महंगाई मांग व आपूर्ति में अंतर से ही उपजती है यह अंतर मंदी के बाद भी रहेगा लेकिन इस बार कुछ अलग ढंग से। मंदी से पहले की महंगाई प्राकृतिक और स्वाभाविक थी अब महंगाई कृत्रिम होगी। मंदी से पहले की महंगाई में सिर्फ कच्चे माल या कृषि उपजों की कमी एक प्रमुख वजह थी लेकिन अब इस महंगाई में ऊंची ब्याज दर, जोखिम की संभावनायें, पुराने घाटे निकालने की कोशिश और एक आशंकित सतर्कता शामिल होगी। उद्योग उत्पादन जरुर बढ़ायेंगे लेकिन मार्जिन बरकरार रखते हुए अर्थात कीमतें घटाकर प्रतिस्पर्धा करने के नुस्खे कम आजमाये जाएंगे। इसलिए मंदी के बाद महंगाई लंबी चल सकती है और मांग व आपूर्ति का संतुलन बनने में वक्त लग सकता है।पूरा परिदृश्य क्या आपको एक दुष्चक्र बनने के संकेत नहीं देता? मंदी-महंगाई-मांग में कमी-ऊंची ब्याज दरें-ज्यादा लागत-बाजारों में संरंक्षणवाद-कम उत्पादन-सुस्त विकास दर..? इसके बाद क्या? कह पाना मुश्किल है। लेकिन यह निष्कर्ष जरुर निकलता है कि मंदी से उत्पादन में कमी और रोजगारों की कमी का जो घाटा बना था उसकी भरपाई भरपाई मुश्किल दिखती है। इसलिए मुगालते मत पालिये। मंदी जाने का मतलब सब कुछ मनभावन हो जाना नहीं है। मंदी जाने का मतलब बीमारी का फैलाव रुकना भर है स्वस्थ हो जाना नहीं। दुनिया की अर्थव्यवस्थायें सामान्य सेहत पाने में डेढ़ दो साल निकाल देंगी और डेढ़ दो साल में वक्त क्या करवट लेगा कोई नहीं जानता। .. इसलिए अभी तो सिर्फ यही कहना चाहिए कि गेट वेल सून..