Monday, November 2, 2009

अभी धोखे हैं इस राह में

इसी को कहते हैं जोर का झटका.. आप सोच रहे थे कि मंदी गई तो अब होगीी रोज"गारों की भरमार। उद्योगों को मिलेगी मांग की पुचकार। सस्ता होगा कर्ज जो मिलेगा बार-बार और बाजार में होगी सस्ते सामान की बहार। मगर यहां महंगाई और महंगे कर्ज का खतरा सामने है। यह एंटी क्लाइमेक्स है। मंदी तो उम्मीदों से उलटा संसार छोड़ कर जा रही है। सभी आश्ंाकाओं के विपरीत अगर मंदी जल्दी यानी महज दो ढाई साल में खत्म हो गई है तो यह भी सही हैकि मंदी सभी आशाओं से विपरीत मंदी के बान बन रहा माहौल बड़ा अजीबोगरीब है। सिर्फ ढाई साल की मंदी ने दुनिया को कम से कम अगले कई महीनों तक तक सताने वाली ऐसी कमजोरियां दे दी हैं। जिनके कारण अर्थव्यवस्थायें अपनी कमर सीधी नहीं कर सकेंगी। चौंकियेगा नहीं अगर कुछ दुनिया के कुछ देशों या हिस्सों में मंदी लंबी खिंच जाए क्यों कि अब मंदी के खिलाफ सामूहिक जंग का दौर खत्म हो रहा है। आने वाला दौर अब देश, बैंक और कंपनियों की अपनी ताकत की परीक्षा लेगा क्यों कि अब मंदी की बाद की दुनिया में होंगे खाली खजाने, कमजोर कंपनियां, अवमूल्यित मुद्रायें अप्रत्याशित संरंक्षणवाद आदि आदि.. अर्थात बड़े धोखे हैं इस राह में !!!
बदहाल बैलेंस शीटबैलेंस शीट
रिसेशन .. जापान इस शब्द से नब्बे के दशक से परिचित है। दुनिया को शायद अब इसका अहसास होगा। मंदी खत्म होने के वक्त दुनिया अक्सर मिल्टन फ्रीडमैन के सिद्धांत को याद करती है। फ्रीडमैन बता गए हैं कि मंदी के बाद अर्थव्यवस्था छलांग मारती है क्यों कि जो संसाधन अनुपयोगी पड़े रहते हैं वह उत्पादन में वापस लौट आते हैं। सामान्य रुप से ऐसा होता है लेकिन अगर मंदी गहरी हो और उत्पादन में गिरावट तेज हो तो फिर मंदी बाजार से निकल कर कंपनियों की बैलेंस शीट तक पहुंच जाती है। 1992 में तेज गिरावट के बाद जापान की अर्थव्यवस्था अब तक उस विकास दर को हासिल नहीं कर सकी जो कि वहां अस्सी के दशक में थी। दुनिया इसे बैलेंस शीट रिसेशन के नाम से जानती है क्यों कि कंपनियां उस पैमाने पर उतपादन नहीं बढ़ा पाईं जैसा कि अपेक्षित था। इस किस्म की मंदी लंबी चलने डर कुछ मजबूत कारणों पर आधारित है। यह मंदी अपने पूर्वजों की तरह आर्थिक उत्पादन प्रक्रिया में किसी गिरावट से नहीं आई है बल्कि यह समस्या उन वित्तीय प्रतिष्ठानों का उपहार है जो उत्पादक तंत्र को संसाधन देते हैं। यह मंदी बैंकिंग, पूंजी बाजार आदि की समस्याओं के कारण आई। इसके जो इलाज किये हैं उनसे बाजार में उत्पादक संसाधनों की कमी भी होनी है क्यों कि अब बैंक हाथ सिकोड़ रहे हैं। कर्ज कम मिलेगा और महंगा भी, अर्थात जब उद्योग जोखिम लेने का साहस जुटा रहे होंगे तब मांग के बढ़ाने को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा। इसलिए ही तो दुनिया फ्रीडमैन के फार्मूले के दोहराये जाने और विकास दर के उछाल मारने पर भरोसा नहीं कर पा रही है।
बाजारों में बैरियर
मंदी की जकड़ से आजाद होने की कोशिश कर रही दुनिया को ब्रिक देशों यानी भारत, चीन, ब्राजील, रुस से बहुत उम्मीदें हैं, मगर उम्मीद के नवजात केंद्रों को बड़ों यानी विकसित देशों की दुनिया से डरना चाहिए। मंदी के बाद अपनी अर्थव्यवस्थाओं बैसाखी देने में लगे विकसित देश वही कर सकते हैं जो 1971 में अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन ने किया था। निक्सन ने अमेरिका में आयातों पर दस फीसदी अधिभार लगा दिया था, जिसके बाद निर्यातक देशों ने अपने निर्यातों को प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के लिए अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन करना शुरु कर दिया। हाल में ही जब ओबामा ने चीनी टायरों पर आयात शुल्क बढ़ाया तो दुनिया को निक्सन नजर आ गए। विकसित देशों के अपनी जनता के लिए रोजगार चाहिए जिसके लिए उन्हें निर्यात करना होगा इधर भारत व चीन जैसी एशिया की अर्थव्यवस्थायें उन्हें बाजार में टिकने नहीं देंगी। बल्कि विकसित देशों के अपने बाजार इन निर्यात के इन मंगोलों का निशाना होंगे। इसलिए मंदी के बाद बाजारों के उदार होने के फालतू ख्याल मत पालिये। बाजार खुलेंगे नहीं बल्कि तरह तरह से बंद होंगे और मुद्राओं को सस्ता कर बढ़त लेने की होड़ शुरु होगी।
फिर वही महंगाई
मंदी से पहले महंगाई और मंदी के बाद महंगाई। .. इस मंदी की यह सबसे जटिल विरासत है कि महंगाई की गुत्थी और कडि़यल होने वाली है। महंगाई मांग व आपूर्ति में अंतर से ही उपजती है यह अंतर मंदी के बाद भी रहेगा लेकिन इस बार कुछ अलग ढंग से। मंदी से पहले की महंगाई प्राकृतिक और स्वाभाविक थी अब महंगाई कृत्रिम होगी। मंदी से पहले की महंगाई में सिर्फ कच्चे माल या कृषि उपजों की कमी एक प्रमुख वजह थी लेकिन अब इस महंगाई में ऊंची ब्याज दर, जोखिम की संभावनायें, पुराने घाटे निकालने की कोशिश और एक आशंकित सतर्कता शामिल होगी। उद्योग उत्पादन जरुर बढ़ायेंगे लेकिन मार्जिन बरकरार रखते हुए अर्थात कीमतें घटाकर प्रतिस्पर्धा करने के नुस्खे कम आजमाये जाएंगे। इसलिए मंदी के बाद महंगाई लंबी चल सकती है और मांग व आपूर्ति का संतुलन बनने में वक्त लग सकता है।पूरा परिदृश्य क्या आपको एक दुष्चक्र बनने के संकेत नहीं देता? मंदी-महंगाई-मांग में कमी-ऊंची ब्याज दरें-ज्यादा लागत-बाजारों में संरंक्षणवाद-कम उत्पादन-सुस्त विकास दर..? इसके बाद क्या? कह पाना मुश्किल है। लेकिन यह निष्कर्ष जरुर निकलता है कि मंदी से उत्पादन में कमी और रोजगारों की कमी का जो घाटा बना था उसकी भरपाई भरपाई मुश्किल दिखती है। इसलिए मुगालते मत पालिये। मंदी जाने का मतलब सब कुछ मनभावन हो जाना नहीं है। मंदी जाने का मतलब बीमारी का फैलाव रुकना भर है स्वस्थ हो जाना नहीं। दुनिया की अर्थव्यवस्थायें सामान्य सेहत पाने में डेढ़ दो साल निकाल देंगी और डेढ़ दो साल में वक्त क्या करवट लेगा कोई नहीं जानता। .. इसलिए अभी तो सिर्फ यही कहना चाहिए कि गेट वेल सून..

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