Monday, May 10, 2010

महात्रासदी का ग्रीक कोरस

व धुएं में घिरे एथेंस के मार्फिन बैंक की खिड़की पर एक महिला का शव टंगा है। ..ग्रीस के शहरों में अराजकता दौड़ रही है, दंगे जानलेवा हो चले हैं। . इस देश पर आतंकवाद, युद्ध या प्रकृति का कहर नहीं टूटा है। एक चुनी हुई सरकार भी है, लेकिन लोकतंत्र और ओलंपिक का जन्मदाता देश जल रहा है। सड़कों पर दंगा करती भीड़ को समझ में नहीं आता कि उनके प्यारे फलते-फूलते ग्रीस (यूनान) में अचनाक क्या हो गया है? ..यही बात तो 2001 में ब्यूनस आयर्स (अर्जेटीना) की सड़कों पर मरते-मारते लोग भी समझ नहीं पा रहे थे कि वह नौकरियां गंवाकर अचानक सड़कों पर कचरा क्यों बीनने लगे? ..पूरा विश्व देख रहा है कि देशों का कर्ज संकट में फंसना या देनदारी में चूकना (सावरिन डिफाल्ट) कितनी दर्दनाक विपत्ति है। एक ऐसी आपदा जो गुस्साई प्रकृति, सिरफिरे आतंकी या युद्धखोर राजनेताओं के चलते नहीं, बल्कि सरकारों और स्मार्ट व ज्ञानी गुणी वित्तीय कारोबारियों के चलते आती है। देशों का कर्ज संकट गलतियों का पीड़ादायक दोहराव है, जिसने सिर्फ कुछ महीनों में एक संपन्न देश को वस्तुत: भिखारी बना दिया है। ऊपर से दुनिया यह मान रही है कि ग्रीस दरअसल वित्तीय महात्रासदी का कोरस (ग्रीक रंगमंच की परंपरा में ट्रेजडी से पहले गाया जाने वाला सहगान) मात्र है। इस ट्रेजडी के कई अंक अभी बाकी हैं।
जब देश डूबते हैं..!!
अंतरिक्ष में मानव की पहली उड़ान (अपोलो 8) के कमांडर फ्रैंक बोरमैन मजाक में कहते थे कि नर्क की संकल्पना के बिना जैसे ईसाइयत नहीं रह सकती, ठीक उसी तरह दीवालियेपन के बिना पूंजीवाद भी मुश्किल है। अमेरिकी मानते रहें कि व्यक्ति के लिए दीवालिया होना नई शुरुआत का मौका है, मगर जरा ग्रीस से पूछिए वह किस नई शुरुआत के बारे में सोच रहा है? किसी देश के लिए संप्रभु कर्ज संकट दरअसल घोर नर्क है जो देश की वित्तीय साख, उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति, वित्तीय तंत्र की मजबूती और देश में निवेश की उम्मीदें आदि सब कुछ लील जाता है। दरअसल जब देश डिफाल्टर होते हैं, और वह भी विदेशी बाजारों से लिए गए कर्जो में तो ग्रीस जैसे उदाहरण बनते हैं। एक बार बस बाजार को पता भर चले कि देश की हालत नरम-गरम है तो कर्ज की रेटिंग गिरने लगती है और बात नए कर्जो पर रोक, बैंकों की बर्बादी से होती मुद्रा अवमूल्यन, दीवालियेपन तक तक आ जाती है। अंतत: अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाएं अनुदान देती हैं और देश संकट की एक लंबी सुरंग में चला जाता है। इस महाव्याधि का इलाज भी कम मारक नहीं होता, लेकिन उस पर चर्चा फिर कभी। फिलहाल तो यह देखें कि ग्रीस ने यह नया इतिहास कैसे बनाया?
ग्रीक व्यथा की अंतर्कथा
यूरोप में कहावत है कि ग्रीस अपनी क्षमता से अधिक इतिहास बनाता है। संप्रभु दीवालियेपन की शायद सबसे पहली घटना ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में ग्रीस में ही घटी थी, जब इसकी दस नगरपालिकाएं कर्ज चुकाने में चूक गई थी। वैसे ग्रीस के ताजा इतिहास में ज्यादा रोमांच है। अमीर देशों में शुमार ग्रीस 2000 से 2007 तक यूरो जोन की सबसे तेज दौड़ती (4.2 फीसदी विकास दर) अर्थव्यवस्थाओं में एक था। मगर 2008 की मंदी ने ग्रीस के दो सबसे बड़े उद्योगों पर्यटन व शिपिंग को तोड़ दिया और सरकार का राजस्व बुरी तरह घट गया। पर इसमें अचरज क्या? यह तो लगभग हर देश के साथ हुआ था, दरअसल ग्रीस में असली लोचा यहीं पर था। घाटा बढ़ने के बावजूद ग्रीस कर्ज लेता रहा और अपना वित्तीय सच दुनिया से छिपाता रहा। पिछले साल के अंत में दुनिया को पता चला कि ग्रीस में घाटे व कर्ज के आंकड़े झूठ हैं। इस मुल्क ने 216 बिलियन यूरो का कर्ज ले रखा है, जो कि उसके जीडीपी का 120 फीसदी है। दुनिया को पता था कि ग्रीस सरकार के बांडों में 70 फीसदी निवेश विदेशी है, इसलिए 2009 के अंत से ग्रीस में महासंकट की उलटी गिनती शुरू हो गई थी। इस साल मार्च में जब ग्रीस की सरकार ने वित्तीय पाबंदियों का कानून बनाकर खतरे का बटन दबाया तो वित्तीय बाजार में ग्रीस के बांडों की रेटिंग जंक यानी कचरा होने लगी और दुनिया समझ गई कि ग्रीस तो अब गया।
फिर भी तो नहीं सीखते !!
2010 का पहला सूरज चढ़ने तक दुनिया यह जान गई थी कि ग्रीस डूबेगा, लेकिन यह अब भी एक रहस्य है कि डूबते ग्रीस के बांड इस साल की शुरुआत में ओवरसब्सक्राइब कैसे हो गए? दरअसल दुनिया ने कभी वक्त पर उस पूर्व चेतावनी तंत्र की नहीं सुनी है, जिसे इतिहास कहा जाता है। वित्तीय बाजार के विस्तार के साथ देशों का कर्ज में चूकना तेजी से बढ़ा है। 1824 से 2006 के बीच दुनिया में संप्रभु दीवालियेपन की 257 घटनाएं हुई थीं, लेकिन अकेले 1981 से 1990 के बीच देशों के कर्ज में चूकने की 74 और 1998 से 2004 के बीच 16 घटनाएं हुई। 1500 से 1900 ईसवी के बीच फ्रांस आठ बार और स्पेन 13 बार दीवालिया हुआ। हालांकि इतना पीछे जाने की जरूरत नहीं है। अर्जेटीना, मेक्सिको, रूस, थाइलैंड इस मर्ज के सबसे ताजे उदाहरण हैं। पिछले करीब 220 साल में छह बार दीवालिया हुआ अर्जेटीना तो दुनिया के अर्थशास्त्रियों के बीच मजाक का विषय है। देशों के दीवालियेपन पर आर्थिक शोध का अंबार लगा है, लेकिन इसे पढ़े बिना भी यह जाना जा सकता है कि यह आर्थिक नर्क जब भी बना है तब बेतहाशा खर्च, राजकोषीय असंतुलन और वित्तीय अपारदर्शिता व विदेशी बाजारों से अंधाधुंध कर्ज इसके मूल में रहे हैं। शोध बताते हैं कि बैंकों व मुद्राओं के संकट अंतत: देशों को दीवालियेपन पर आकर रुके हैं। अर्जेटीना, उरुग्वे, यूक्रेन, इंडोनेशिया और ग्रीस के ताजे संकट इसकी नजीर हैं। जानकार कहेंगे कि ग्रीस तकनीकी तौर पर डिफाल्टर नहीं है, क्योंकि वह आईएमएफ की आक्सीजन पर है, लेकिन बाजार मुतमइन है कि ग्रीस व्यावहारिक रूप से डिफाल्टर है। जैसे ही ग्रीस अपने कर्ज की देनदारी को टालेगा या कर्जो का पुनर्गठन करेगा। उस पर आधिकारिक डिफाल्टर की मुहर लग जाएगी।
ग्रीस की रंगमंचीय परंपरा में दशकों से मार्च अप्रैल के महीनों में थियेटरों में ट्रेजडी का मंचन का होता है। ..ग्रीस ने अपनी यह परंपरा नहीं छोड़ी, इस समय वहां एक सुपर ट्रेजडी का मंचन हो रहा है। यह बात दीगर कि ग्रीस के लोग इस त्रासदी का हिस्सा बनना कतई नहीं चाहते थे, लेकिन वह करें भी क्या? सरकारें हमेशा मनमाना कर गुजरती हैं, बाद में आम जनता मरती व भरती है। ग्रीस जैसे संकट की कल्पना भी किसी देश के लिए डरावनी है, लेकिन हकीकत बड़ी जालिम है। वित्तीय बाजार ग्रीस को महात्रासदी का पहला अध्याय मान रहे हैं। ग्रीस यूरोप में अकेला बीमार नहीं है और जो दूसरे बीमार हैं उन्होंने ही ग्रीस को कर्ज भी दे रखा है। यानी कि त्रासदी के लिए अगले मंच तैयार हो रहे हैं, ऊपर से इस संप्रभु कर्ज संकट का इलाज भी किसी आपदा से कम नहीं है। यूरोप के समृद्ध मुल्क कर्ज के खेल में देशों की बर्बादी को तीसरी दुनिया की आपदा बताते थे, मगर इस अपशकुन ने अब उनका घर भी देख लिया है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार कोई अमीर देश इस तरह डूब रहा है। ..मेरे डूब जाने का बाइस तो पूछो, किनारे से टकरा गया था सफीना।
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( विनम्र संदर्भ: इसी स्‍तंभ में आठ दिसंबर 2009 में लिखा गया था कि महासंकट की उलटी गिनती प्रारंभ हो गई है। तब भारत में इसकी चर्चा मुश्किल से सुन पड़ती थी। वह तो बजट के कयास और मंदी खत्‍म होने खूबूसरत ख्‍यालों का मौसम था। ग्रीक की समस्‍या के साथ सॉवरिन डिफाल्‍ट की महात्रासदी शुरु हो गई है। आंच हम तक आ रही है। .............. और मजा देखिये कि आज 10 मई 2010 के अखबारों में सरकार के मुख्‍य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु कह रहे हैं कि यूरोप का संकट भारत के पूंजी बाजार में विदेशी निवेश की बाढ़ लाने वाला है। 12 अप्रैल 2010 को आप पढ़ चुके हैं कि सुरक्षित होने के खतरे सर पर हैं। ..... आमीन.!!!! दोनों स्‍तंभ बायें तरफ आर्काइव में हैं। )

2 comments:

सम्वेदना के स्वर said...

आंकड़ो की बाजीगरी तो हमारे देश में भी खूब मज़े से चल रही है, सर जी!

इधर भी क्या ग्रीस जैसा खतरा होगा, आगे कभी?
ग्रीस को बचाने तो यूरोप और अमेरिकी हाथ आ जायेंगे पर इस देश का क्या होगा? all is well or not ? please tell....

ARTHARTH (अर्थार्थ) said...

All is not well at many counts...though we are not exposed to foreign markets at sovereign level but domestic debt is exorbitantly high…but that’s another debate ….india should become ready for a torrent of hot money to their markets.
This crisis is very complex and far reaching….there is a lot more pain to come…EU and USA cannot save beyond a point ….bail outs did possible when we have few countries with such a high level exposure. but this case is diffrent.Every other country of west, east and EU is terribly exposed to forex denominated debt….bond vigilante are sure for a tumultuous time….